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Thursday, 5 May 2022

मार्क्स

हर साल की तरह आज भी सुबह से सोशल मीडिया मार्क्स को श्रद्धांजलियों और उनकी विरुदावलियों से भरा पड़ा है। कई उत्साही लोग उनके इस उद्धरण को भी लहरा रहे हैं कि "...असली काम उसे (दुनिया को) बदलने का है।" 

यह सब तो अच्छा है। मगर दिक़्क़त तब होती है जब आप पाते हैं कि इनमें से बहुत बड़ी संख्या उन तरह-तरह के अवसरवादियों, लोकरंजकतावादियों, अस्मितावादियों, सुधारवादियों और निठल्ले बात-बहादुरों की है जिनकी राजनीति, उद्गार और आचरण मार्क्सवाद के ठीक विपरीत हैं। 

मार्क्स को पढ़े बिना (या पढ़कर समझे बिना) मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों की मनमानी हास्यास्पद (या विध्वंसकारी) दुर्व्याख्याओं से सोशल मीडिया भरा पड़ा है। इसका शिकार बहुतेरे युवा पाठक हो रहे हैं जो मार्क्सवाद की मूल रचनाओं को पढ़े बिना इंटरनेट पर मार्क्सवाद के नाम पर बुद्धिविलासियों की अधजल गगरियों से छलकी अधकचरी, ग़लत-सलत व्याख्याओं और लन्तरानियों की खिचड़ी को ही मार्क्सवाद समझकर कनफ़्यूज़ होते रहते हैं।

यह सब देखकर हर बार लेनिन के ये शब्द बहुत शिद्दत से याद आते हैं जिनसे उन्होंने अपनी कृति 'राज्य और क्रान्ति' की शुरुआत की थी :

"उत्पीड़क वर्गों ने महान क्रान्तिकारियों को उनके पूरे जीवन-काल में लगातार यातनाएँ दीं, उनकी शिक्षा का अधिक से अधिक बर्बर द्वेष, अधिक से अधिक क्रोधोन्मत्त घृणा तथा झूठ बोलने और बदनाम करने की अधिक से अधिक अन्धाधुन्ध मुहिम से जवाब दिया। लेकिन उनकी मौत के बाद उनकी क्रान्तिकारी शिक्षा को सारहीन करके, उसकी क्रान्तिकारी धार को कुन्द करके, उसे भ्रष्ट करके उत्पीड़ित वर्गों को "बहलाने" तथा धोखा देने के लिए उन्हें अहानिकर देव-प्रतिमाओं का रूप देने, यों कहें, उन्हें देवत्व प्रदान करने और उनके नामों को एक हद तक गौरवान्वित करने के प्रयत्न किये जाते हैं। मार्क्सवाद को इस तरह "संसाधित करने" में बुर्जुआ वर्ग और मज़दूर आन्दोलन के अवसरवादियों के बीच आज सहमति है। उस शिक्षा के क्रान्तिकारी पहलू को, उसकी क्रान्तिकारी आत्मा को भुला दिया जाता है, मिटा दिया जाता है, विकृत कर दिया जाता है। उस चीज़ को सामने लाया जाता है, गौरवान्वित किया जाता है, जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य है या मान्य प्रतीत होती है। सभी सामाजिक-अन्धराष्ट्रवादी अब "मार्क्सवादी" बन गये हैं (हँसिए नहीं)।"

"During the lifetime of great revolutionaries, the oppressing classes constantly hounded them, received their theories with the most savage malice, the most furious hatred and the most unscrupulous campaigns of lies and slander. After their death, attempts are made to convert them into harmless icons, to canonize them, so to say, and to hallow their names to a certain extent for the "consolation" of the oppressed classes and with the object of duping the latter, while at the same time robbing the revolutionary theory of its substance, blunting its revolutionary edge and vulgarizing it. Today, the bourgeoisie and the opportunists within the labor movement concur in this doctoring of Marxism. They omit, obscure, or distort the revolutionary side of this theory, its revolutionary soul. They push to the foreground and extol what is or seems acceptable to the bourgeoisie. All the social-chauvinists are now "Marxists" (don't laugh!)."

* तस्वीर (लिथोग्राफ़) - ब्रिटिश म्यूज़ियम लायब्रेरी में अध्ययनरत मार्क्स

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