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Thursday, 5 May 2022

चुप्पियाँ- कवि केदारनाथ सिंह

"चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं 

उन सारी जगहों पर 

जहाँ बोलना ज़रूरी था 

बढ़ती जा रही हैं वे

जैसे बढ़ते बाल 

जैसे बढ़ते हैं नाखून 

और आश्चर्य कि किसी को वह गड़ता तक                        नहीं


मैंने एक बुज़ुर्ग से सुना था 

कि चुप्पियाँ जब भी बढ़ती हैं 

अँधेरे में नदी की तरह 

चुप हो जाता है एक पूरा समाज 

एक जीता जागता राष्ट्र 

भूल जाता है अपनी भाषा 

और एक फूल के खिलने से भी 

दरक जाते हैं पहाड़ 


ऐसे में मित्रो,

अगर बोलता है एक कुत्ता 

बोलने दो उसे 

वह वहाँ बोल रहा है 

जहाँ कोई नहीं बोल रहा।"



उनकी कविता "अगर इस बस्ती से गुज़रो" की आरंभिक पंक्तियां:


"अगर इस बस्ती से गुज़रो 

तो जो बैठे हों चुप 

उन्हें सुनने की कोशिश करना 

उन्हें घटना याद है 

पर वे बोलना भूल गए हैं"





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