सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
पूछो , ऐसा क्यों है भाई !
कहो , कि ऐसा नहीं चलेगा
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....
ईंट-ईंट को जोड़ा हमने
अपना सीना तोड़ा हमने
कमरतोड़ मेहनत की हमने
सड़क बिछाई , भवन बनाए
ऊँचे - ऊँचे महल उठाए
पर नगरों के बाहर , नगरों की तलछट में हम बसते हैं
अपने हिस्से की खोली पर भी बुलडोजर ही चलते हैं
फुटपाथों तक पर गुंडों का और पुलिस का कब्ज़ा है क्यों ?
ठोकर है , अपमान है , गाली - गोली है और डंडा है क्यों ?
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....
मिलों , कारख़ानों की चिमनी
से जो धुआँ - धुआँ उठता है
उसमे अपना लहू जला है
हरेक माल के चेहरे पर जो
रंगत , रौनक , रा'नाई है
मेरे पसीने से आई है
लेकिन अपनी रोटी पर भी ख़तरे की घंटी लटकी है
छँटनी है , बेकारी है कि साँस भी सांसत में अटकी है
हालत से पामाल हम्हीं हैं , जेबों से बदहाल हम्हीं हैं
बस ठन-ठन गोपाल हम्हीं हैं , सबसे सस्ता माल हम्हीं हैं
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....
हमने धरती की छाती पर
हल दौड़ाए , फाल चलाए
हमने रोपे बीज अन्न के
फसल उगाई , रखवारी की
जीवन की सारी फुलवारी
अपना जीवन - सत्व डालकर
लुटकर पोसा , खून से सींचा
अन्न उगे , गोदाम भर गए ; इधर भूख से हम्हीं मर गए
जब कपास का ढेर लगाया, खुद को पूरा नंगा पाया
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....
हम मज़दूर हैं , हम हैं कमकर
हम जो हैं जीवन के बुनकर
अपनी ही बस्ती में भाई
मौत बनाकर बैठी क्यों घर ?
सोचो भाई !
मैं खटता हूँ और जुमन भाई भी खटते
एक तरह की खोली - झुग्गी में हम रहते
एक- सा जुआ सबके काँधे पर भारी है
एक- सा जीवन और एक सी लाचारी है
एक साथ जीना - मरना , रोना - गाना है
एक हमारा वर्ग , एक सा अफसाना है
सोचो भाई !
किसने यह दीवार उठाई सबके भीतर
कहीं बंगाली और कहीं गुजराती कहकर
जहर घुसाया गया नसों में मद्धम - मद्धम
हमको बोला गया कि हम हैं हिन्दू - मुस्लिम
कहीं बिरहमन , शेख , कहीं ऊँचा - नीचा का
और कहीं पर देश - प्रांत , अगड़ा - पिछड़ा का
कहीं मराठी और बिहारी कह लड़वाया
शक्तिहीन कर गया हमें , हर ज़ुल्म बढ़ाया
सोचो भाई !
सोचो , ऐसा क्यों है भाई !
पूछो , ऐसा क्यों है भाई !
कहो , कि ऐसा नहीं चलेगा
लड़ो , कि ऐसे नहीं चलेगा ....
-------आदित्य कमल
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