पच्चीस साल पहले बीजेपी जब पहली बार सत्ता में आई थी, तब भी हिंदुत्ववादियों ने कम हुड़दंग नहीं मचाया था। लेकिन आज जैसी अंधेरगर्दी तब नहीं थी। संविधान और लोकतंत्र का लिहाज था। तब एक ग़ज़ल कही थी। आज वह ग़ज़ल बहुत याद आ रही है, जिसे शेयर करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूं। मुलाहिजा फरमाएं...
*ग़ज़ल*
गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं
जो ज़िंदा हैं, वो गाढ़े जा रहे हैं
निठल्लों की बड़ाई हो रही है,
जो कर्मठ हैं, लताड़े जा रहे हैं
शहर की फ़िक्र में हैं मुब्तला जो,
उन्हीं के घर उजाड़े जा रहे हैं
जिन्हें चलना था सीधी रहगुज़र पर,
वो रहबर आड़े-आड़े जा रहे हैं
जो पौधे आंधियों से बच गये थे,
वो अब जबरन उखाड़े जा रहे हैं
सफ़हे जो ख़ून से लिक्खे गये हैं,
वही चुन-चुन के फाड़े जा रहे हैं
इबादतगाहें रोंदी जा रही हैं,
सनमख़ाने बिगाड़े जा रहे हैं
गणित बच्चों का जो कर देंगे गड़बड़,
रटाये वो पहाड़े जा रहे हैं
अखाड़े में है जिनसे भिड़ना मुश्किल,
वो साज़िश से पछाड़े जा रहे हैं
सताइश, शोहरतें, ईनाम, ओहदे,
जुगाड़ों से कबाड़े जा रहे हैं
चढ़ी हैं साकलें शेरों के मुंह पे,
जो गीदड़ हैं, दहाड़े जा रहे हैं
हुई है मौत गर तहज़ीब की तो,
बजाये क्यूं नगाड़े जा रहे हैं
-- *राकेश शर्मा*
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