Total Pageviews

Wednesday, 31 August 2022

गणेश उतपत्ति पर ओशो

https://youtu.be/jDQTHfX_bLw

गणेश उतपत्ति पर ओशो

*गोबर गणेश*
---------------
कुर्सी पर
आरूढ़
गोबर गणेश
बन जाता है
महामहिम... महेश,
छींकता भी है वो तो
बन जाती है/ आज की
ख़बर..... विशेष ।

गोबर-गणेश का हिंदी अर्थ
निरा मूर्ख (व्यक्ति), जो आकार-प्रकार या रूप-रंग में बहुत ही भद्दा हो, क्यो होता है?

Monday, 29 August 2022

श्रम-सघनता तेरी महिमा अपरंपारः

 1997 में अमर उजाला, मेरठ में मुलाजिम था, ड्यूटी 7 घंटे की होती थी पर समय काटे नहीं कटता था। कितना पान चबाएं और कितनी चाय पिएं। वजह यह थी कि मेरा काम सिर्फ हाथ की लिखी हुई कॉपी को ठीक करना था। टाइप, प्रूफ, पेज-मेकिंग सारे काम दूसरे किया करते थे। पन्ना बनवाने का काम इंचार्ज का हुआ करता था। फिर आया जमाना कंप्यूटर जी का। डेस्ककर्मी ही सारे काम करने लगा, सारे विभाग खत्म कर दिए गए। 8-9 घंटे की कार्यावधि में भी सांस लेने की फुर्सत नहीं रही। लगातार पीसी की स्क्रीन को ताकते रहने के कारण आँखें दुखने लगती थीं। 
लगातार-तेजी से हाथ चलाने के लिए फोरमैन मजबूर करता रहता है। श्रम-सघनता को बढ़ाने के लिए अलग से बंदे रखे जाने लगे। ऑटोमेशन के दौर में मशीनों पर काम करने के लिए दैहिक चपलता बहुत जरूरी होती गई। यहाँ तक कि लिफाफे में आइटम भरने वाले वर्कर भी सीसीटीवी की निगरानी में रहने लगे और वे मनुष्य से यंत्र बन गए। 
आप लोग भी मेहनत की तीव्रता-सघनता बढ़ाने के उदाहरण अपनी जिंदगी के आसपास से दे सकते हैं। खाना पहुँचाने वाले डिलेवरी ब्वाय को 30 मिनट में अपने गंतव्य पर पहुँच जाना होता है। यह उदाहरण तो तुरंत अपनी ओर ध्यान खींचता है लेकिन श्रम की खुद से बढ़ाई जाने वाली सघनता की ओर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता। Virendra Rajbhar और Ramesh Rajbhar ठेके पर पुताई-टाइल्स लगवाई का काम करते हैं। इन्हें आठ घंटे से ज्यादा समय तक एकदम से लगकर काम करने के लिए कोई नहीं कहता पर ये लोग 12-12 घंटे पूरा दम लगाकर खटते रहते हैं, ताकि दुइ पैसा ज्यादा कमा सकें। 
मज़दूरों के चौतरफा शोषण की जब बात हो रही है तो श्रम की सघनता-मारकता पर भी बात होनी चाहिए। क्या श्रम की सघनता बढ़ाते जाने की मानव-द्रोही प्रवृत्ति पर हमें बात नहीं करनी चाहिए। हम सबका साझा शत्रु पूँजीवाद है, पर पूँजी की ताकत तो नजर नहीं आती, अदृश्य है। जब हम मजदूर साथियों को उस दुश्मन के बारे में बताते हैं जो हम सबका साझा है तो हमें उसके छुपे हुए होने की बात को भी ध्यान में रखना होता है और संप्रेषण के नानाविध तरीके से उस दुश्मन की हमें पहचान करानी होती है। कला के अनगिनत रूप इसमें हमारी मदद करते हैं।



Sunday, 28 August 2022

तोलस्तोय

लेनिन के शब्दों में "कला के उच्चतम शिखर पर स्थित" तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में "सत्य और सौन्दर्य के खोज-मार्ग का चिर पथिक" तथा "साहसी चिन्तक" लेव निकोलायेविच तोलस्तोय (रूसी उच्चारण के अनुसार 'लेफ़ तलस्तोय') का जन्म पुराने (जूलियन) कैलेण्डर के अनुसार 28 अगस्त एवं नये (ग्रेगोरियन) कैलेण्डर के अनुसार 9 सितम्बर 1828 को मास्को से लगभग 200 किलोमीटर और तूला नगर से 14 किलोमीटर दूर यास्नाया पोल्याना नाम की जागीर में एक समृद्ध तथा उच्च कुलीन परिवार में हुआ था। लेव तोलस्तोय के पूर्वज उन इने-गिने लोगों में से थे जिन्हें रूस में सबसे पहले 'काउंट' की उपाधि मिली थी। उनकी माँ महाकवि पुश्किन की दूर की रिश्तेदार थी। 2 वर्ष की उम्र में ही उनकी माँ का देहान्त हो गया था और 9 वर्ष पूर्ण होने से पहले ही उनके पिता भी चल बसे थे। उनका लालन-पालन उनकी दो बुआ ने किया था। लेव तोलस्तोय स्कूली छात्र के रूप में सामान्य ही थे एवं गणित में उनकी रुचि नहीं थी। इसके बावजूद उनकी विशेषता यह थी कि रुचि की बातों एवं विषयों को वे बड़े ही लगनपूर्वक स्वयं सीख-समझ लेते थे। उनकी पत्नी का कथन है कि "उन्होंने जीवन में जो कुछ सीखा, अपने आप ही सीखा और सो भी बड़ी चाह से, जल्दी-जल्दी तथा बड़ी लगन से।" दर्शनशास्त्र का ज्ञान भी उन्होंने स्वाध्याय से ही प्राप्त किया था और विद्यार्थी जीवन में ही इसके अनेक अंगों में महारत हासिल कर ली थी। दर्शन के अतिरिक्त सैन्य पृष्ठभूमि का भी तोलस्तोय के रचनात्मक जीवन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। उनके पिता, दादा, परदादा और परदादा के पिता भी सेना में रहे थे। उनके पिता ने नेपोलियन के विरुद्ध 1812 के महान् देशभक्ति-पूर्ण युद्ध में भाग लिया था। उनके बड़े भाई भी स्वेच्छा से सेना में गये थे और इसी परम्परा के अनुरूप युद्ध का वास्तविक रूप देखने-समझने के लिए लेव तोलस्तोय भी 22 वर्ष की आयु में सन् 1851 में सेना में, एक बाहरी व्यक्ति के रूप में, भर्ती हो गये थे। 5 वर्ष तक वे सेना से सम्बन्धित रहे और उन्होंने काकेशिया, डेन्यूब और क्रीमिया की लड़ाइयों में भाग लिया। इस प्रकार उन्हें ज़ारशाही की सरकारी और फ़ौजी मशीन की सारी गतिविधियों की व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छी जानकारी हो गयी जिसका उनके लेखन में अभूतपूर्व योगदान रहा। सैन्य सेवा के साथ उनका अध्ययन एवं कमोबेश लेखन भी जारी रहा।
          महान् लेखक बहुत हुए पर तोलस्तोय उन महान् लेखकों में से हैं जिनकी रचनाएँ सजग पाठकों को स्वयं में तन्मय हो जाने के लिए आमंत्रित करती हैं। परिवेशगत भिन्नता के कारण सरसरी नजर डालने पर भले ही उनकी रचनाएँ कुछ क्षण के लिए अजनबी लगे, परन्तु ज्योंही आप तत्पर होकर उसे पढ़ने लगेंगे, स्वतः उसका एक अंग बन जाएँगे। गम्भीरता के बावजूद पठनीयता एवं संप्रेषणीयता का मणिकांचन योग है तोलस्तोय की रचनाओं में। ईसा की नीतिप्रद लघु कथाओं से लेकर संसार के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास के रूप में मान्य 'युद्ध और शान्ति' जैसी परिस्थितियों के साहचर्य में सामाजिक संरचनाओं के ताने-बानों को प्रतीकित एवं अप्रत्यक्ष रूप से निर्देशित करने वाली महान् रचना तक तोलस्तोय ने उस सर्जनात्मक क्षमता का परिचय दिया जो सचमुच बेजोड़ है। तोलस्तोय की नैतिक मान्यताओं एवं रचनात्मक स्थापनाओं में अन्तर की चर्चा होती रही है। इस सम्बन्ध में स्वाभाविक रूप से यह कहावत सही सिद्ध होती है कि "कहानी का भरोसा करो, कहानीकार का नहीं।" एक सही रचना-प्रक्रिया स्वयं में वह खराद मशीन है जो रचनाकार की भी कतिपय ओढ़ी गयी मान्यताओं को स्वतः कतर कर फेंक देती है।
         रचनाओं पर विस्तृत विचार यहाँ न सम्भव है, न उचित। जिज्ञासु पाठकों को तोलस्तोय की रचनाओं का किञ्चित् विस्तार से उत्तम विमर्शात्मक परिचय पाने के लिए राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 'आन्ना कारेनिना' की कात्यायनी एवं सत्यम द्वारा लिखित 22 पृष्ठों की भूमिका अवश्य पढ़नी चाहिए।
          'बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था' जैसी आत्मकथात्मक उपन्यासत्रयी एवं 'कज्जाक', 'युद्ध और शान्ति', 'आन्ना कारेनिना', 'पुनरुत्थान' जैसे महान् उपन्यासों से लेकर 'दो हुस्सार', 'इंसान और हैवान' (एक घोड़े की कहानी, उसकी अपनी ज़बानी), 'सुखी दम्पती', 'इवान इल्यीच की मृत्यु', 'क्रूज़र सोनाटा' एवं 'नाच के बाद' जैसी उपन्यासिकाओं/लम्बी कहानियों तथा अनेक कहानियों, नाटकों एवं वैचारिक साहित्य के हिन्दी अनुवाद के माध्यम से तोलस्तोय आज हिन्दी के अभिन्न साहित्यकार की तरह हो गये हैं जिनकी रचनाओं से गुजरे बिना कोई अपने-आपको भी एक उत्तम हिन्दी साहित्यिक व्यक्तित्व नहीं मान सकता है। यह नितान्त प्रसन्नता की बात है कि तोलस्तोय की रचनाओं को सफलतम अनुवादकों का सहयोग मिला। 'युद्ध और शान्ति' एवं 'आन्ना कारेनिना' जैसी रचनाओं का मूल रूसी से किया गया हिन्दी अनुवाद निस्सन्देह हमारे लिए गौरव की बात है।
            तोलस्तोय की लगभग समग्र रचनाएँ उनके जीवनकाल में ही अंग्रेजी अनुवाद के रूप में प्रकाशित हो चुकी थीं। अंग्रेजी में 28 खंडों में प्रकाशित तथा archive.org पर pdf रूप में उपलब्ध 'The Complete Works of Count Tolstoy' में संकलित समग्र रचनाओं की क्रमबद्ध सूची (INDEX) मैंने तैयार की है और उसे पीडीएफ रूप में अपलोड करवा दिया है ताकि उन 28 खंडों का उपयोग तो सहज हो ही, साथ ही जिज्ञासु पाठक एक नजर में उनकी प्रायः समग्र रचनाओं के नाम प्रामाणिक रूप में जान सके। इसे निम्नांकित लिंक पर क्लिक करके आसानी से डाउनलोड किया जा सकता है:


            तोलस्तोय की प्रशंसा में अनेक विद्वानों ने बहुत-कुछ कहा। इसी क्रम में इसाक बाबेल ने कहा था कि "यदि विश्व स्वयं लिख पाता तो वह तोलस्तोय की तरह ही लिखता।"
         आइए इस महान् रचनाकार की रचनाओं से जुड़कर उन्हें सच्ची श्रद्धाञ्जलि अर्पित करें तथा उनका यह वाक्य हमेशा याद रखें कि "जहाँ सरलता, भलाई और सच्चाई नहीं है, वहाँ महानता नहीं हो सकती।" (युद्ध और शान्ति, खंड-4, पृष्ठ-240).


Saturday, 27 August 2022

बहस अंक 1

बहस
अंक 1
नया भारत? हमारी भूमिका क्या हो?
बहस" एक कोशिश है आज के भारत की सामयिक घटनाओं पर एक निष्पक्ष चर्चा करने की और मज़दूर वर्ग व प्रताड़ित जनता की समस्याओं को समझने की l हमारी कोशिश और विश्लेषण में अंतरराष्ट्रीय समाचार भी होंगे और इतिहास के पन्नों से भी संबंधित उद्धरण भी होंगे l आज यह हमारा पहला अंक है l पाठकों को याद दिला दें कि आज महान विचारक और क्रन्तिकारी राहुल संकृत्यायन का जन्मदिन आज ही था (09 अप्रैल,1893 – 14 अप्रैल, 1963)!
नया भारत? जी हाँ, नया भारत ही तो है, जहाँ 40 करोड़ मज़दूर और युवक बेरोजगार हैं तब राष्ट्रीय बहस के मुद्दे हैं धर्म, जाति, व्यक्तिवाद, देशवाद पर आधारित! संक्षेप में मज़दूर वर्ग का शोषण, धार्मिक और जातीय उन्माद, अल्पसंख्यकों पर बढ़ता जुल्म, श्रम और पर्यावरण क़ानून का ख़ात्मा और कॉरपोरेट मीडिया व विपक्ष की बेशर्म चुप्पी या फिर अपराधिक सहमति! कृषि क़ानूनों के द्वारा ग़रीब, छोटे और मझोले किसानों को पूँजीपति वर्ग और वित्तपतियों के दास बनाने की चेष्टा फिलहाल तो टल गई-सी लगती है, पर किसानों का बढ़ता सर्वहाराकरण (ग़रीब को और अधिक भिखमंगा बनाने की प्रक्रिया तक) और आत्महत्या कुछ और ही बयान कर रहे हैं l जहाँ हमारे 100% बच्चों और युवा वर्ग की शिक्षा की बात होनी चाहिए थी वैज्ञानिक आधार पर, वहाँ उन्हें अवैज्ञानिक आधार पर अंधविश्वास और काँवड़ ढोने में गर्व होता है l स्वास्थ्य व्यवस्था वैज्ञानिक तरीके से सभी नागरिकों को मिलनी चाहिए वहीं हम उन्हें मजबूरी में नीम हकीम के पास भेजते हैं और दवाई की जगह ताबीज़ व भस्म के सहारे ठीक होने के लिए बेबस छोड़ देते हैं l देश की 4-5 करोड़ जनता घरविहीन है और ह्युम पाइप, सड़क के किनारे, रेलवे यार्ड में जीने को विवश है l झोपड़ों में रहने वालों को घर विहीन नहीं कहते हैं, वैसे ही जैसे कि सड़क के किनारे पकौड़े बेचने वालों को बेरोज़गार नहीं कहते हैं l
आंकड़ों में देखें महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार: 2018 के एक सर्वेक्षण के अनुसार से भारत दुनिया का सबसे ख़तरनाक देश है महिलाओं के लिए l कई देशों में सन 2000 के बाद से भूख के पैमाने में कमी आई है लेकिन कुछ देशों में हालत या तो सुधरी नहीं है या बदतर हो गई है। भारत को 2019में दुनिया में 102 वां स्थान प्राप्त हुआ था जो पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश) से नीचे है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की ओर से 2021 के लिए प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स जारी किया गया था। इसमें भारत को 142 वां स्थान दिया गया था। कहा गया था कि पत्रकारों को यहाँ पर काम करने में काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पिछले हफ़्ते ही मध्य प्रदेश में कुछ पत्रकारों को भाजपा विधायक के ख़िलाफ़ लिखने के लिए पुलिस थाने में ले जाकर पिटाई की और अर्ध नंगा किया l इस श्रेणी में भारत के अलावा ब्राजील, मैक्सिको और रूस को भी रखा गया था। वैसे ही कुपोषित बच्चों, बेरोज़गारी आदि में भी भारत दुनिया के अंतिम दस देशों में आता है l
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में क़रीब 43लाख से अधिक बच्चे बाल मज़दूरी करते हुए पाए गए। UNICEF के अनुसार दुनिया भर के कुल बाल मज़दूरों में 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी अकेले भारत की है। ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में क़रीब 5 करोड़ बाल मज़दूर हैं, जिनकी "क़िस्मत" में विद्यालय नहीं है या फिर तीसरी या चौथी कक्षा के बाद विद्यालय छोड़ना पड़ता है l ध्यान दें, शिक्षा मद में भी भारत सरकार ने भारी कटौती की है।
और भी आंकड़े हैं पर कोई फ़ाएदा नहीं है l इतना काफ़ी है दिखाने के लिए कि "नया भारत" किस ओर जा रहा है l क्या स्थिति है यहाँ के युवकों की, विद्यार्थियों की, बेरोज़गारों और किसानों की, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की, स्त्रियों और बच्चों की? हाँ, भारत का जीडीपी काफ़ी तेज़ रफ़्तार से बढ़ा है l 2019 तक और पूरे विश्व में सबसे आगे रहने का दंभ भी भरता था, हालाँकि आँकड़ों में हेरा-फेरी में (या आँकड़ो का न संकलन करना, जैसे कि बेरोज़गारी के ऊपर) भारतीय सत्ता ने बहुत ही चतुराई दिखाई है l बढ़ती हुई संपत्ति का 60% से अधिक हिस्सा 10% से कम धनी और पूँजीपति वर्ग और बड़े वित्तपतियों के ही हिस्से जाता है l लाखों करोड़ों के बकाया बैंक के ऋण और आय कर (पिछले 10 वर्षों में 7 लाख करोड़ से ज़्यादा रुपये "माफ़" कर दिए गए सरकार द्वारा!) बड़े पूँजीपतियों के माफ़ कर दिए गए l
हमारा "प्रजातंत्र" या "लोकतंत्र" नहीं है जनता का, न जनता के लिए और न ही जनता द्वारा l यह प्रजातंत्र है पूँजीपति वर्ग के लिए और उसके दलाल राजनीतिक दलों और प्रशासनिक ऑफ़िसर के लिए l यहाँ तक कि संविधान भी उनके लिए है न कि मेहनतकश जनता के लिए, चाहे वह कारख़ाने-खदान में हो, खेत-खलिहान में हो या कहीं और हो l न्यायालय, पुलिस, सरकार, मंत्रालय, प्रशासन, गुप्तचर विभाग आदि भी उन्हीं की सेवा में दिन-रात लगे रहते हैं l
नए भारत में हिंदू-राष्ट्र के नाम पर मज़दूर वर्ग और प्रताड़ित जनता का एक हिस्सा भी सत्ताधारी वर्ग और पार्टी के साथ आ गया है, पैसे और सत्ता के सुख के लिए या फिर विचारधारा के प्रवाह में, जहाँ उसे लगता है कि अल्पसंख्यक जाति या धर्म वाले बहुसंख्यक बन जाएँगे l यह सत्ताधारी वर्ग के लगातार दशकों के दुष्प्रचार का फल है l ऐसी स्थिति को ही फासीवाद कहते हैं, जिसका भिन्न-भिन्न समय और जगह में भिन्न-भिन्न रूप हो सकता है l भारतीय फासीवादी प्रकरण में जातिवाद, धर्म, देशवाद और व्यक्तिवाद की अहम भूमिका है l राज्य सत्ता के हर विभाग और प्रजातंत्र के हर स्तंभ की इसमें अहम भूमिका है l नव फासीवाद, हिंदुत्व, तानाशाही या संघवाद कहने से स्थिति में कोई भी अंतर नहीं पड़ता है l हरिद्वार से लेकर सीतापुर तक में घृणा और हिंसा फैलाने के लिए खुलेआम भाषण दिए जा रहे हैं तथाकथित "संतों", असामाजिक तत्वों और क़ानून बनाने वालों द्वारा, जिनकी हिफ़ाज़त सरकार करती हैl
बुर्जुआ वर्ग (यानि सत्ताधारी वर्ग, जिसमें मुख्य पूँजीपति वर्ग ही है) की सेवा के लिए राजनीतिक दल दिन-रात मेहनत करते हैं और प्रपंच द्वारा जनता के एक हिस्से को अपनी पकड़ में लाने की चेष्टा करते रहते हैं l पक्ष (सत्ता में) या विपक्ष में हो, अंतर सिर्फ़ राजनीतिक और सामाजिक रूप में ही है l आर्थिक नीतियों में अंतर सिर्फ़ दिखावा ही है, पर कुछ अंतर हो सकते हैं जो पूँजीवाद के अंदरुनी अंतरद्वन्द और मज़दूर वर्ग और प्रताड़ित जनता के सक्षम और एकताबद्ध विरोध पर निर्भर करता है l उदाहरण के लिए 2014 तक कांग्रेस या भाजपा सरकार चाहकर भी आर्थिक "सुधार" को पूरे रूप से नवउदारवाद के रास्ते नहीं ला सकी, जिसके लिए आईएमएफ़ या वर्ल्ड बैंक प्रयत्नशील थे पर 2014 के बाद वही भाजपा सरकार इस प्रक्रिया को पूरी गति से क्रियान्वयन करने में सफल दिख रही है l धड़ल्ले से निजीकरण, सरकारी रोज़गारों को ख़त्म करना, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी हाथों में देना और जनता को भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे मद में भी भारी कटौती की गयी l स्त्री सुरक्षा के मद में भी कमी की गई l पेट्रोल, डीज़ल, गैस और आवश्यक वस्तुओं पर एकाधिकार मूल्य लागू किया जा रहा है और जनता की ख़रीदने की क्षमता का दोहन किया जा रहा है l और यह आज "संभव" हो सका है फासीवादी उफान और सत्ता के कारण l
इस नए भारत में (ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि यह प्रकरण वैश्विक है, पर कुछ देशों में अधिक गहनता के साथ, जैसे कि यूक्रेन, श्रीलंका, आदि में; तो कुछ अन्य देशों में सामान्य ढंग से) मज़दूर वर्ग और अन्य प्रताड़ित जनता की क्या भूमिका हो, हमें सोचना होगा l हम कौन हैं? हम वे लोग हैं जो आज की व्यवस्था से शोषित और प्रताड़ित हैं और फासीवाद के दुष्प्रचार से मुक्त हैं, भले ही सीमित ढंग से l
ऊपर के विश्लेषण का निचोड़: भारत एक ऐसी दिशा में चल चुका है जिसका अनुमान किसी भी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक विद्वान को शायद ही था l ऐतिहासिक भौतिकवाद के जानकार, कम्युनिस्ट दलों के विचारकों को भी इसका इल्म नहीं था; अगर उन्हें था भी तो उन्हें इसका प्रतिकार या प्रतिरोध "चुनाव से चुनाव" तक की राजनीति से ही किया और हम नतीजा ढूँढ़ रहे हैं l फ्रेडरिक एंगेल्स ने एक बार कहा था: बुर्जुआ समाज चौराहे पर खड़ा है, या तो समाजवाद में परिवर्तन या बर्बरता में प्रतिगमन। (गूगल द्वारा अनुवाद, इन पंक्ति का: Friedrich Engels once said: 'Bourgeois society stands at the crossroads, either transition to socialism or regression into barbarism.) आज वह कथन ज्यादा सही दिख रहा है|
1992 में भारत के बुर्जुआ वर्ग (पूँजीपत वर्ग और उसकी सरकार) ने नवउदारवादी रास्ता इख़्तियार किया l भारतीय बाज़ार विश्व पूँजी के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया l श्रम क़ानूनों को ध्वस्त किया जाने लगा, ज़मीन अधिग्रहण क़ानून बनाने की क़वाएद शुरू हुई, पर्यावरण क़ानून भी ख़त्म करने की कोशिश की गई l यह सब केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के अधिकांश देशों में हो रहा था l सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक संघ के विघटन के बाद सर्वहारा वर्ग पर आक्रमण खुलेआम होने लगा l समाजवाद (जो वास्तव में पूँजीवाद ही था, पर समाजवादी मुखौटा के पीछे छिपा था) के 'ध्वस्त' होने की ख़बर पूरी दुनिया में फैल चुकी थी और दूसरे बुर्जुआ वर्ग और उनकी सरकार अब बड़ी शान और हिम्मत से सर्वहारा वर्ग को लूटने लग गए  हैंl
यह लूट सिर्फ़ औद्योगिक मज़दूरों की ही नहीं थी बल्कि अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों, खेतिहर मजदूरों, ग़रीब से लेकर मझोले किसानों की भी थी l बाल-मज़दूरों और कार्यरत स्त्रियों (भले ही घरों में ही काम करती हों) का भी शोषण और प्रताड़ना बढ़ी है l क़ानून बना कर किसानों की ज़मीन सीधे-सीधे हड़पने की कोशिश होने लगी है l भारत में किसानों और उनकी यूनियनों का सरकार और पूँजीपति वर्ग से सीधा-सीधा संघर्ष चला और नतीजा के बारे में चर्चा ऊपर कर चुके हैं l इस संघर्ष को विश्व का सबसे बड़ा संघर्ष माना जा रहा था और पूँजीपति वर्ग को अल्पकालीन "पीछे" हटना पड़ा था l
इस बीच 5 राज्यों में विधानसभा का चुनाव भी संपन्न हुआ; उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में l चुनाव के दौरान जो राजनीति का 'सांस्कृतिक' पतन होना था, वह हुआ l ढोंग, दुष्प्रचार, गाली-गलौच, मारपीट से लेकर हिंसा तक, करोड़ों-अरबों रुपये का 'निवेश', निर्वाचन आयोग और पुलिस (अर्धसैनिक बलों का भी) और मीडिया का भरपूर इस्तेमाल या उपयोग (दुरुपयोग अब शायद कहा नहीं जा सकता) भरपूर हुआ l सत्ता के उपयोग या दुरुपयोग को अब नैतिक माना जा रहा है समर्थकों द्वारा, या तो पैसे के लिए या फिर उस विचारधारा के लिए, जो फासीवाद को मज़बूत करती है l
हम क्या करें? संक्षेप में इसकी बात नहीं कर सकते हैं l आगे हम इसकी चर्चा ज़रुर करेंगे; विचारधारा, संगठन, ट्रेड यूनियन सहित, इनसे सम्बंधित सवालों और कार्यक्रमों पर l अभी इतना कहना ज़रुरी है कि हम वह कोई भी काम न करें जिससे पूँजीवाद मज़बूत होता है और वह हर काम करें जिससे हमारी समाजवादी सोच या चेतना और संगठन मज़बूत होता है l
कृष्ण कांत

Doctors Day

1st July 2022 is commemorated as National Doctors Day in India to remember Dr BC Roy, a renowned physician and second Chief Minister of West Bengal. The day marks his birth anniversary as well as death Anniversary.


Why is March 30 World Doctors Day?
Charles B. Almond, and the date chosen was the anniversary of the first use of general anesthesia in surgery. On March 30, 1842, in Jefferson, Georgia, Dr. Crawford Long used ether to anesthetize a patient, James Venable, and painlessly excised a tumor from his neck


आज डॉक्टर्स डे पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एक रचना...

डॉक्टर के नाम एक मज़दूर का ख़त..

हमें मालूम है अपनी बीमारी का कारण 
वह एक छोटा-सा शब्द है 
जिसे सब जानते हैं 
पर कहता कोई नहीं 
जब बीमार पड़ते हैं 
तो बताया जाता है 
सिर्फ़ तुम्हीं (डॉक्टर) हमें बचा सकते हो 
जनता के पैसे से बने 
बड़े-बड़े मेडिकल कॉलेजों में
खूब सारा पैसा खर्च करके 
दस साल तक 
डॉक्टरी की शिक्षा पायी है तुमने 
तब तो तुम हमें अवश्य अच्छा कर सकोगे। 
क्या सचमुच तुम हमें स्वस्थ कर सकते हो?
तुम्हारे पास आते हैं 
जब बदन पर बचे, चिथड़े खींचकर 
कान लगाकर सुनते हो तुम 
हमारे नंगे जिस्मों की आवाज़ 
खोजते हो कारण शरीर के भीतर। 
पर अगर एक नज़र 
शरीर के चिथड़ों पर डालो तो 
वे शायद तुम्हें ज्यादा बता सकेंगे 
क्यों घिस-पिट जाते हैं 
हमारे शरीर और कपड़े 
बस एक ही कारण है 
दोनों का 
वह एक छोटा-सा शब्द है 
जिसे सब जानते हैं 
पर कहता कोई नहीं। 
तुम कहते हो कन्धे का दर्द टीसता है 
नमी और सीलन की वजह से 
डॉक्टर तुम्हीं बताओ 
यह सीलन कहाँ से आई? 
बहुत ज्यादा काम 
और बहुत कम भोजन ने 
दुबला कर दिया है 
हमें नुस्खे पर लिखते हो 
"और वज़न बढ़ाओ" 
यह तो वैसा ही है 
दलदली घास से कहो 
कि वो खुश्क रहे। 
डॉक्टर तुम्हारे पास कितना वक़्त है 
हम जैसों के लिए? 
क्या हमें मालूम नहीं 
तुम्हारे घर के एक कालीन की कीमत 
पाँच हज़ार मरीज़ों से मिली फ़ीस के बराबर है 
बेशक तुम कहोगे 
इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं 
हमारे घर की दीवार पर 
छायी सीलन भी यही कहानी दोहराती है 
हमें मालूम है 
अपनी बीमारी का कारण 
वह एक छोटा-सा शब्द है 
जिसे सब जानते हैं 
पर कहता कोई नहीं 
वह है "ग़रीबी"।

Monday, 22 August 2022

किसान आंदोलन और वाम संगठन

जहां तक मेरी जानकारी है, तीन कृषि कानून का विरोध एवम MSP  को सुनिश्चित करने के लिये कानून की मांग को ले कर चलने वाले संयुक्त किसान आंदोलन का समर्थन बिगुल को छोड़ कर लगभग सारे वाम एवम प्रगतिशील संगठन कर रहै है। आपका मजदूर यूनियन भी किसानों के चल रहे आंदोलन के समर्थन में संघर्ष में शामिल रहा है, स्टेटमेंट भी दिया है जिसे आप अपने यूनियन के व्हाट्सअप ग्रुप में देख सकते है।
बिगुल खुलेआम विरोध में है और विरोध में कई लेख भी इस संदर्भ में प्रकाशित किया है।
मैं भी मोदी सरकार के खिलाफ चलने वाले  किसान आंदोलन के विरोध में नही हूँ।बल्कि जो विरोध में है उनका विरोध करता रहा हूँ।
MSP पर शुरू से मेरी मान्यता रही है कि पूंजीवाद में किसी भी चीज की गारंटी नही दी जा सकती। अभी तक दी जा रही MSP का फायदा कुछ मुट्ठी भर किसानों को ही मिल पा रहा था। समाजवाद में ही पूरे कृषि उपज के वाजिब कीमत की गारंटी की जा सकती है।

हम ऐसा कभी नही कहते कि पूंजीवाद के अंदर सभी किसानों को MSP मिल सकताहै। किसानों का आंदोलन एम एस पी के लिये जो चल रहा है, क्या उसके सन्दर्भ में यह कहने की जरूरत नही है कि पूंजीवाद में सभी कृषि उपज के लिये वाजिब कीमत की गारंटी नही की जा सकती? और ऐसा कहने वाला कौन संगठन है? क्या आपके यूनियन की तरफ से ऐसा कोई लेख या स्टेटमेंट दिया गया है?  

क्या आप लोग किसान आंदोलन के msp की मांग के विरोध में है? क्या अभी तक आपके भाषण, वक्तव्य या लेख में यह आया है?

जहां तक मेरी बात है, जैसा कि मैंने पहले बताया है, मैं भी मोदी सरकार के खिलाफ चलने वाले  किसान आंदोलन के विरोध में नही हूँ।बल्कि जो विरोध में है उनका विरोध करता रहा हूँ। हाल के पोस्ट में किसान आंदोलन के खिलाफ बिगुल के विरोध को ध्यान में रख कर ही लिखा गया है। आप देखे:

"हालांकि हम जानते है कि पूंजीवाद में सभी कृषि उत्पाद के लिये लाभकारी कीमत की गारंटी नही दी जा सकती, यह सिर्फ समाजवाद में ही सम्भव है; फिर भी अगर ये किसान लहसून  के लिये एक वाजिब कीमत(समर्थन मूल्य) की मांग इस अम्बानी-अडानी की चहेती  सरकार से करे तो इस मांग का विरोध कोई कैसे कर सकता है!लहसुन की कीमत न मिलने पर लहसुन की बोरियो को पानी मे फेका जाए या इस सरकार से लहसुन का समर्थन मूल्य मांगा जाए?"

अब इसमें क्या गलत है? किसानों को तो हम कह ही रहे है कि 'पूंजीवाद में सभी कृषि उत्पाद के लिये लाभकारी कीमत की गारंटी नही दी जा सकती, यह सिर्फ समाजवाद में ही सम्भव है', फिर भी अगर किसानों को एम एस पी छोड़िये, अगर लागत भी नही निकल रहा है और वे पूंजीवाद के अंदर सरकार से वाजिब कीमत की मांग करते है, आंदोलन करते है, तो हम उनका विरोध कैसे और किस हक से करे। मोदी के खिलाफ उठ खड़े,  चलिए एम एस पी के लिये ही सही, हम विरोध क्यों करे? इस काम को तो भाजपा वाले कर ही रहे है। हम विरोध नही कर सकते, हम इतना ही कह सकते है कि पूंजीवाद वाजिब कीमत की गारंटी नही दे सकता, समाजवाद ही दे सकता है। आरंभ से ले कर अभी तक मोटा मोटी मेरा यही स्टैंड रहा है। अजय कुमार और मुकेश असीम का ग्रुप भी पहले  एम एस पी के विरोध में था, आज उनका भी यही स्टैंड है। पार्थ का भी लगभग यही स्टैंड है।

'ऐसी स्थिति में किसानों की मांग और उनका आंदोलन एम एस पी के लिए जो चल रहा है' उसका समर्थन आपका यूनियन  किस आधार पर कर रहा है या उसका विरोध कर रहा है, कृपया स्पष्ट करते तो बेहतर होता। 

कृषि कानून और किसानो का उफनता गुस्सा





मोदी सरकार ने जो तीन किसान विरोधी बिल लाई है, यू ही नही लाई है। वो WTO, IMF ,  साम्राज्यवादी और देशी  कॉर्पोरेट पूंजी के दबाव में ले कर आई है; वह भी केवल इसलिये कि साम्राज्यवादी एवम पूंजीवादी गिद्धों की चोंच मिहनतकसो और किसानों के मांस और खून से सराबोर रहे। 

इन तीन कृषि कानूनों  से किसान की भलाई तो कत्तई नही होने वाला है। किसान करे तो क्या करे? आज के सबसे महत्वपूर्ण और पूरे राष्ट को हिला देने वाला राष्टीय मुद्दा -पूंजीवाद में किसानों की बढ़ती बदहाली और सर्वहारा वर्ग की भूमिका- जैसे प्रश्न पर गम्भीर लेख , पुस्तिकाएं प्रस्तुत करते हुए हमें आपार हर्ष हो रहा है।
 
तीन काले कृषि कानून

i. THE FARMERS' PRODUCE TRADE AND COMMERCE (PROMOTION

AND FACILITATION) ACT, 2020

ii. THE FARMERS (EMPOWERMENT AND PROTECTION) AGREEMENT

ON PRICE ASSURANCE AND FARM SERVICES ACT, 2020 

iii.THE ESSENTIAL COMMODITIES (AMENDMENT) ACT, 2020

1. Oppose and Resist the Pro-Corporate Farm Laws – Communist Voice, December2020

2.  किसानो की मुक्ति और मजदूर वर्ग - PRC-CPIML

3.  खेती किसानी का संकट और उसका समाधान -नाागरीक

4. एमएसपी से खरिद गारंटी तक-मुकेश असीम  यथार्थ अंक 9 जनवरी 2021
5. किसान आंदोलन और मजदूर वर्ग की भूमिका- 
नरेंद्र कुमार (कम्युनिस्ट सेंटर फॉर साइंटिफिक सोशलिज्म)

6.  कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन अध्‍यादेश, मौजूदा किसान आन्‍दोलन और मज़दूर वर्ग -अभिनव (मजदूर बिगुल)

7. कृषि कानून, खेती का प्रश्न और वर्गीय दृष्टिकोण -लोकपक्ष

8. कृषि संकट और पूँजीवाद- लोकपक्ष 

9. कृषि कानून और भोजन सुरक्षा का मामला- मुक्ति संग्राम 

10. अपील -अखिल भारतीय खेत मजदूर किसान सभा

11. नए कृषि क़ानूनों के ख़ि‍लाफ़ जनांदोलन: भारत की फासीवादी हुकूमत की जनद्रोही नीतियों के विरुद्ध फूटा जनाक्रोश - मुक्ति संग्राम

        किसान आंदोलन पर चले बहस का लिंक

यथार्थ में छपे लेख का लिंक

किसान आंदोलन] बिगुल मंडली के साथ स्‍पष्‍ट होते हमारे मतभेदों का सार : यथार्थ (मई 2021)


कार्पोरेट के नए हिमायती क्‍या हैं और वे क्रांतिकारियों से किस तरह लड़ते हैं - अंक- 11 मार्च 2021 


कॉर्पोरेट को लाल सलाम कहने की बेताबी में शोर मचाती 'महान मार्क्सवादी चिंतक' और 'पूंजी के अध्येता' की 'मार्क्‍सवादी मंडली' का घोर राजनैतिक पतन [2] अंक 12


मार्क्सवादी चिंतक" की अभिनव पैंतरेबाजियां और हमारा जवाब [3] वर्ष2 अंक 1


'द ट्रुथ' में किसान आंदोलन पर छपे लेख :
अंक 8 : [Farmers Protest] Working Class Must Warn Centre: Desist from Using Force


अंक 9 : Proletarian Revolution in India Shall Arrive Riding The Waves of Peasant Unrest


अंक 9 : The Peasant Question in Marxism-Leninism


अंक 10 : The Proletariat And Emancipation Of Farmers


अंक 10 : 71 Days Of Farmers' Movement: Crucial Second Phase


अंक 11 : What The New Apologists Of Corporates Are And How They Fight Against The Revolutionaries [1]


अंक 12 : Apologists Are Just Short Of Saying "Red Salute To Corporates" [2nd Instalment]


वर्ष 2 | अंक 1 : Transformation Of Surplus Value Into Ground Rent And The Question Of MSP: Here Too Our Self-Proclaimed "Marxist Thinker" Looks So Miserable! [3]


'आह्वान' में छपे आलोचना वाले लेख :

1. मौजूदा धनी किसान आन्‍दोलन और कृषि प्रश्‍न पर कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्‍करण की समालोचना- वारुणी 20/02/2021


2. धनी किसान-कुलक आन्दोलन पर सवार हो आनन-फानन में सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर पटना के दोन किहोते की पवनचक्कियों से भीषण जंग- सनी सिंह 1/04/2021


3. पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय का नया जवाब या एक बातबदलू बौद्धिक बौने की बदहवास, बददिमाग़, बदज़ुबान बौखलाहट, बेवकूफियां और बड़बड़ाहट - सनी सिंह 30/04/2021


4.  पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय का नया जवाब

या

एक बातबदलू बौद्धिक बौने की बदहवास, बददिमाग़, बदज़ुबान बौखलाहट, बेवकूफियां और बड़बड़ाहट -सनी सिंह 7/05/2021


5. Ajay Sinha aka Don Quixote de la Patna's Disastrous Encounter with Marx's Theory of Ground Rent (and Marx's Political Economy in General) 18/05/2021


6. किसान प्रश्न पर यथार्थ पत्रिका के कुलकवादियो का कुत्सा प्रचारकों से गलबहियों के बारे में- आह्वान 19/05/21


17. What is the remunerative prices or Minimum Support Prices (MSP) 17..04.2021 



कुुछ पूराने लेेेख, पोस्ट

1) कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन विधेयक : मेहनतकशों का नज़रिया October 30, 2020


2) 'मजदूर किसान एकता' की दुहाई देने वाले का भंडाफोड़ 25.11.2020


3) खेतिहर मजदुरो के लिये साप्ताहिक अवकाश की मांग 27/11/2020 https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10223816822869748&id=1270070503 

4) एंगेल्स और आज के नवनरोदवादी और कोमवादी  28/11/2020


5) तीन कृषि विधेयक और मजदूर वर्ग का नजरिया - अभिनव (कीमत 60/-) 29/11/2020 https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=3507057222723363&id=476231145806001

6) लेनिन और मंझोले किसान 18/9/20


7. लेनिन और धनिक किसान 3/12/20


8) कुलको के आंदोलन में भाग लेनेवाले का पोस्टमार्टम 3/12/2020


9) लाभकारी मूल्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली 4/12/2020


10) किसान प्रश्न और 'प्रतिबद्ध' का यु-टर्न 6/12/2020 आह्वान


11) धनी किसान और आढ़तिये 10/12/20


12) खेतिहर मजदूर, गरीब किसान और सूदखोर, आढ़तिए, कुलक 10/12/20


13) धनी किसान संगठन और कम्युनिष्ट10/12/2020 अभिनव


14) किसान आंदोलन का सामाजिक चरित्र - अभिनव अभिनव 14.12.20


15) ललकार प्रतिबद्ध ग्रुप के भाषण की आलोचना- शिवानी 15/12/2020


16) भारत मे किसान प्रश्न पर कैसे राजनैतिक ढंग से विचार नही करना चाहिए- अभिनव 17/12/2020


17)  बिहार, लाभकारी मूल्य, एमएसपी मंडी: कुछ गलत धारणाओं का खंडन- अमित कुमार 17/12/2020


18) पीआरसी पर वारुणी का लेख 21/12/2020 https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1775710559265089&id=100004784855028

19) धनी किसान आंदोलन का पूछ पकड़े क्रांतिकारियों के दुख -सनी सिंह 22/12/2020


20) Mao and Rich Peasants 11 Jan


21) मार्क्सवाद से छोटूरामवाद 30/12/20


22) कुछ छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें-१

किसान आनोलन का वर्ग चरित्र कैसे निर्धारित होता है? 2/01/21


23) कुछ छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें-२

लाभकारी मूल्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली 


24) कुछ छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें-३

क्या मौजूदा धनी किसान-कुलक आंदोलन फासीवाद के विरुद्ध है? 6/01/21


25) कुछ छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें-4

क्या सारे किसान में हित और मांगे एक है?

10/01/2021


26) कुछ छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें 11 -लाभकारी मूल्य क्या है? मार्क्सवादी व्याख्या 1/4/2021


27) Ajay Sinha aka Don Quixote de la Patna's Disastrous Encounter with Marx's Theory of Ground Rent (and Marx's Political Economy in General)

28) पहले के बहसों के लिंक. http://www.mazdoorbigul.net/debates


नोट: किसान आंदोलन पर बहुत सारे पोस्ट, लेख आये है। अगर किसी कामरेड को लगता है कि कोई लेख या पोस्ट का लिंक छूट गया है तो कृपया इसे अपग्रेड करने में सहयोग करे। 
कामगार-ई-पुस्तकालय

Sunday, 21 August 2022

अमरनाथ गुफा

स्वाभाविक प्राकृतिक घटनाओं को भी धार्मिक जामा पहनाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण करना कोई बनिया और ब्राह्मणों से सीखे. अमरनाथ गुफा मे बर्फ के जमने से स्वत: शिवलिंग के आकर के बनने वाले  दृश्य को शिवलिंग घोषित कर लोगों के बीच सालों- साल इतना प्रचारित किया गया है कि लोगों ने इस प्राकृतिक घटना से निर्मित दृश्य को अलौकिक और चमत्कारिक मानकर इसकी पूजा और अभ्यर्थना भी शुरू कर दी, और समय के साथ ही इसका आकर्षण इतना बढ़ा है कि आज  यह एक बड़े हिन्दू समुदाय के लिए जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में इसकी महिमा और मान्यता प्राप्त हो गई है.

            जैसे- जैसे समय आगे बढ़ रहा है और हम अधिक से अधिक आधुनिक होते जा रहे हैं, हमारी धार्मिक मान्यताओं में भी उसी अनुरूप और अनुपात में वृद्धि भी होती जा रही है. हमने आजतक प्राकृतिक घटनाओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने का कभी प्रयास ही नहीं किया है. सबको ईश्वर की कृपा या चमत्कार मानकर उसकी पूजा करने के अलावा और कोई भी तर्क हमें मंजूर नही है. लोगों की इसी मानसिकता और मनोवृत्तियों का बनियों और ब्राह्मणों ने जमकर फायदा उठाया है. हर धार्मिक क्रिया-कलाप के लिए हम ब्राह्मणों पर आश्रित हैं और भीड़ जुटने के साथ ही बनियों के लिए मुनाफा कमाने का सुअवसर भी प्राप्त हो जाता है. यात्रियों को ढोने के लिए आवागमन के विभिन्न साधनों, होटलों, जरूरी सामानों की खरीददारी के लिए आवश्यक दुकानों, पुजारियों, खच्चरों, घोड़ों, पालकी ढोनेवालों और अन्य कई तरह की जरूरतों के लिए हजारों लोग लगे हुए होते हैं. इस मद में हर साल करोड़ों रुपये का कारोबार होता है. बाजार को अपने हक में और भी फायदेमंद बनाने के लिए हर साल बनिए और ब्राह्मण हर तरह के तिकड़म करते हैं. तीर्थयात्रियों की जेब साफ करना ही इनका मूल मकसद होता है. दूसरी तरफ धर्म के नाम पर पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्री भी हर संभव कठिनाई सहने के लिए तैयार रहते हैं . वो यह मानकर चलते हैं कि उन्हें जितनी अधिक तकलीफ होगी, भगवान या देवता उनसे उतने ही अधिक प्रसन्न होंगे. तीर्थयात्रा में होनेवाली कठिनाइयों को वे प्रभु द्वारा ली जाने वाली परीक्षा समझते हैं, और प्रभु इच्छा के नाम पर सब कुछ सहन करने के लिए तैयार हो जाते हैं. 

           अमरनाथ यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों को हर साल ही किसी न किसी दुर्घटना का सामना करना ही पड़ता है. पर कभी-कभी ऐसी भयानक और दर्दनाक घटनाएं भी होती हैं, जो राष्ट्रीय समाचार का विषय बन जाते हैं. कल ही 8 जुलाई, 2022 को बादल फटने या अतिवृष्टि के कारण आए सैलाब में तेरह लोगों की मौत हो गई, अड़तालीस लोग घायल हो गए, और चालीस लोग लापता हैं. ऐसी घटनाएं कुछ सालों के अंतराल पर अक्सर ही घटती रहती हैं. लेकिन सरकार आजतक भी तीर्थयात्रियों के लिए निरापद तीर्थयात्रा का प्रबंध नहीं कर सकी है. हर साल सरकार द्वारा किए जाने वाले इंतजामों का ढिंढोरा तो खुब पीटा जाता है, पर वास्तविक धरातल पर कुछ खास नही होता है. वास्तव में यह सब कुछ आपदा में अवसर की तलाश की कवायद है. मजबूर तीर्थयात्रियों से जितना संभव हो, मुनाफा कमाना ही इसका उद्देश्य होता है. 1969 में 40 लोग मरे थे, 1996 में 263 लोग और 2018 में 4 लोग मरे थे. सरकार सिर्फ दिखावे के लिए दुख प्रकट कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है. सच तो यह है कि तीर्थयात्रा और तीर्थयात्रियों के माध्यम से राजनीतिक दल अब अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का भी भरसक प्रयास करते हैं. कुल मिलाकर यह अर्थसत्ता, राजसत्ता और धर्मसत्ता का नापाक संश्रय है, जो अपने फायदे के लिए तीर्थयात्रियों की जिंदगी से खेल करने से भी नहीं चुकता. सहानुभूति के दो शब्द कहकर सरकार भी अपने कर्तव्य का निर्वहन कर लेती है, लोग भी इस घटना को प्रभु की माया समझकर भूल जाते हैं और राजसत्ता, अर्थसत्ता और धर्मसत्ता का संश्रय फिर से अपने मुहिम में जुट जाता है, और लोग बार-बार ऐसी दुर्घटनाओं को सहने और भोगने के लिए अभिशप्त होते रहते हैं.


कावंड़ का चलन!


******************** 

रिवाज़ कभी नही मरते। 
पहचान लीजिए चलन, रिवाज़ व परंपरा और ढूँढ लीजिए कि धार्मिक किताबों में लिखा कचरा आपके क्षेत्र का है या बाहर से आया है???

कावङ का उपयोग उन क्षेत्रों में पानी भरने के लिए होता रहा है जहां 1400/1500 मि.मी. वर्षा होती है, साल भर पोखरों में साफ पानी भरा मिलता है, पानी ऊपर ही है झट डुबोया, पट भरा और दौड़ पड़े। एक तरफ पानी रखो और दूसरी तरफ कोई भी अन्य सामान रखो, बच्चे रखो, बूढ़े रखो।

वो उधर 1000 मि.मी. से कम वर्षा ही सूखा कहलाने लगता है।

अब बंगाल के पश्चिम से दूर ईरान तक वर्षा कम है। कुंए, नदी से पानी लेने दूर जाते हैं, तो मटकी/गगरी/कलसी का उपयोग करते हैं।

यह पोस्ट और तस्वीरें सावन के अंधे कबिलाई श्रवण कुमारों के लिए हैं, जो कावङ को इंडिया का रिवाज मानते हैं जबकि यह थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया का रिवाज है...

तस्वीरों में थाईलैंड, इंडोनेशिया और कंबोडिया में कावड़ टाइप कुछ...

वो उधर पहले माँ-बाप बच्चों को छाबङी में बैठा कर घुमाते हैं, फिर बच्चे उन्हें छाबङी में बैठा कर घुमाते हैं...

तस्वीरों में देखिए कि पहली और दूसरी तस्वीर में थाईलैंड में एक औरत बच्चों को छाबङी में लिए घूम रही है, तीसरी तस्वीर में इंडोनेशिया में एक छोटा सलवारी भी कावङ लेकर जा रहा है और चौथी तस्वीर में कंबोडिया की दीवारों पर कावङ खुदी पङी है...

न श्रवण कुमार की कहानी इंडिया की है और न कावङ का रिवाज इंडिया का है, यह इंडिया में पूरब के देशों से शरणार्थी बनकर घुसे लोगों की देन है...

अपना क्षेत्र और संस्कृति किताब में नहीं है।

राज बहुत गहरे हैं...
(प्रस्तुति by श्री देव कुमार पंवार)




Saturday, 20 August 2022

सरदार उमर मुख़्तार

सन 1929 में इटली जब लीबिया पर अपना कब्ज़ा करने की लगातार कोशिश कर रहा था, तब लीबिया के बागियों के सरदार उमर मुख़्तार इटली की सेना को नाकों तले चने चबवा रहे थे। मुसोलिनी को एक ही साल में चार जनरल बदलने पड़े। अंत में हार मानकर मुसोलिनी को अपने सबसे क्रूर सिपाही जनरल ग्राज़ानी को लीबिया भेजना पड़ा। उमर मुख़्तार और उसके सिपाहियों ने जनरल ग्राज़ानी को भी बेहद परेशान कर दिया। जनरल ग्राज़ानी की तोपों और आधुनिक हथियारों से लैस सेना को घोड़े पर सवार उमर मुख़्तार व उनके साथी खदेड़ देते। वे दिन में लीबिया के शहरों पर कब्ज़ा करते और रात होते-होते उमर मुख्तार उन शहरों को आज़ाद करवा देते। उमर मुख़्तार इटली की सेना पर लगातार हावी पड़ रहे थे और नए जनरल की गले ही हड्डी बन चुके थे। अंततः जनरल ग्राज़ानी ने एक चाल चली। उसने अपने एक सिपाही को उमर मुख्तार से लीबिया में अमन कायम करने और समझौता करने के लिए बात करने को भेजा। उमर मुख्तार और जनरल की तरफ से भेजे गए सिपाही की बात होती है। उमर अपनी मांगें सिपाही के सामने रखते हैं। सिपाही चुपचाप उन्हें अपनी डायरी में नोट करता जाता था। सारी मांगें नोट करने के बाद सिपाही उमर मुख्तार को बताता है की ये सारी मांगें इटली भेजी जाएंगी और मुसोलिनी के सामने पेश की जाएंगी। इटली से जवाब वापस आते ही आपको सूचित कर दिया जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया में समय लगेगा जिसके चलते उमर मुख़्तार को इंतज़ार करने को कहा गया। उमर मुख्तार इंतज़ार करते हैं
 इटली की सेना पर वे अपने सारे हमले रोक देते हैं। मगर इटली से क्या आता है? खतरनाक हथियार, बम और टैंक - जिससे शहर के शहर तबाह कर दिए जा सके। समय समझौते के लिए नहीं हथियार मंगाने के लिए माँगा गया था। कपटी ग्राज़ानी अपनी चाल में सफल होता है। नए हथियारों से लीबिया के कई शहर पूरी तरह से तबाह कर दिए जाते हैं।

जनरल ग्राज़ानी ने उमर मुख़्तार को गिरफ़्तार कर लिया, 15 सितम्बर 1931 को हाथों में, पैरों में, गले में हथकड़ी जकड़ उमर मुख़्तार को जनरल ग्राज़ानी के सामने पेश किया गया। 73 साल के इस बूढे शेर से जनरल ग्राज़ानी ने कहा, " तुम अपने लोगों को हथियार डालने कहो" ठीक पीर अली ख़ान की तरह इसका जवाब उमर मुख़्तार ने बड़ी बहादुरी से दिया और कहा, "हम हथियार नही डालेंगे, हम जीतेंगे या मरेंगे और ये जंग जारी रहेगी.. तुम्हे हमारी अगली पीढ़ी से लड़ना होगा औऱ उसके बाद अगली से...और जहां तक मेरा सवाल है मै अपने फांसी लगाने वाले से ज़्यादा जीऊंगा ..और उमर मुख़्तार की गिरफ़्तारी से जंग नहीं रुकने वाली ... जनरल ग्राज़ानी ने फिर पूछा, "तुम मुझसे अपने जान की भीख क्यों नही मांगते? शायद मैं यूं दे दूं..."उमर मुख़्तार ने कहा, "मैने तुमसे ज़िन्दगी की कोई भीख नहीं मांगी। दुनिया वालों से ये न कह देना कि तुमसे इस कमरे की तानहाई मे मैंने ज़िन्दगी की भीख मांगी।" इसके बाद उमर मुख़्तार उठे और ख़ामोशी के साथ कमरे से बाहर निकल गए। इसके बाद 16 सितम्बर सन 1931 को इटली के साम्राज्यवाद के विरुद्ध लीबिया राष्ट्र के संघर्ष के नेता उमर मुख़्तार को उनके ही लोगों के सामने फांसी दे दी गयी।
आज ही के दिन 20 अगस्त 1858 को लीबिया के शेर उमर मुख़्तार पैदा हुए थे।

उम्र मायने नहीं रखती; जज्बे को सलाम !
उमर मुख्तयार अमर रहे।
साम्राज्यवाद मुर्दाबाद
इंकलाब जिंदाबाद।
उनके ऊपर बनी मूवी का लिंक



गौरी लंकेश, नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे और एम एम कलबुर्गी के हत्यारों के आपसी संपर्कों के प्रमाण

जिन्होंने साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने का विरोध किया था वे अब सार्वजनिक तौर पर माफी मांगे !

कल सीबीआई ने पुणे कोर्ट में यह स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उसने गौरी लंकेश, नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे और एम एम कलबुर्गी के हत्यारों के आपसी संपर्कों के प्रमाण पा लिये हैं । इन सभी बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, विवेकवादी सुधारकों और पत्रकारों की हत्याएं सुनियोजित ढंग से एक ही जगह से की गई थी । इनको मारने वालों के संपर्क सनातन संस्था नामक हिंदू राष्ट्र की स्थापना के उद्देश्य से काम करने वाले एक आतंकवादी संगठन से जुड़े हुए हैं । 

2015 के अगस्त महीने में कर्नाटक के साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार एम एम कलबुर्गी की जब हत्या की गई थी, उसी समय हिंदी के साहित्यकारों में इन हत्याओं के पीछे के षड़यंत्र के बारे में संदेह पैदा हो गया था । खास तौर पर जब कलबुर्गी के मारे जाने पर उन्हें पुरस्कृत करने वाली साहित्य अकादमी तक ने प्रतिवाद और शोक का एक शब्द भी नहीं कहा था, तभी यह आशंका हो गई थी कि इन हत्याओं के पीछे हो न हो, ऐसे हिंदू कट्टरपंथियों का हाथ है जिन्हें मोदी सरकार का भी प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न समर्थन मिला हुआ है और सरकार के इशारों पर ही साहित्य अकादमी का विश्वनाथ तिवारी की तरह का बिना रीढ़ की हड्डी वाला अध्यक्ष शोक जाहिर करने तक से कतरा रहा है । 

तभी, हिंदी के प्रमुख कथाकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता उदय प्रकाश ने सबसे पहले साहित्य अकादमी की उस अपराधपूर्ण चुप्पी के विरोध में अपने पुरस्कार को लौटाने की घोषणा की । इसके बाद ही साहित्य अकादमी के पुरस्कार को लौटाने का एक पूरा आंदोलन शुरू हो गया, जिसे हम तमाम लोग जानते हैं । तब उसकी गूंज-अनुगूंज देश-दुनिया में हर जगह सुनाई दी थी । 

उन दिनों हिंदी कुछ ऐसे दलाल लेखक भी सड़क पर उतरे थे जो पुरस्कारों को लौटाने का विरोध करने के नाम पर प्रकारांतर से लेखकों की हत्या का ही समर्थन कर रहे थे । दुर्भाग्य की बात यही है कि इन अपराधी लेखकों के साथ तब नामवर सिंह ने भी अपनी आवाज मिलाई थी । मोदी सरकार ने इन अपराधियों में से कइयों को नाना प्रकार से पुरस्कृत भी किया है । 

आज जब इन सभी लेखकों की साजिशाना हत्याओं के तथ्य सामने आ चुके हैं, तब साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी और नामवर सिंह सहित जिन छुटभैया लोगों ने भी लेखकों के उस प्रतिवाद आंदोलन का सक्रिय विरोध किया था, उन सबसे सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने की मांग की जानी चाहिए । 

-अरुण माहेश्वरी


तालिबान- एकआतताई संगठन : शैलेश

तालिबान एक पिछड़ी ,बर्बर  ,स्त्री विरोधी धर्मसत्ता  के खोल  में आतताई संगठन है।   यह धर्म सत्ता का अपने को प्रतिनिधि के तौर पर पेश करता है पर  इसकी बुनियाद  में  अफीम और उसके उत्पाद से बननेवाली विविध नशीले पदार्थ हैं। यह दुनिया भर में नशीले पदार्थों की आपूर्ति करता रहा है।  इसकी नैतिकता  व धार्मिकता   नकली व मनुष्य विरोधी है।  हर तरह के   अत्याचार, अन्याय, हत्या, लूट और बलात्कार को अपनी शिनाख्त  बनानेवाला यह संगठन  विश्व मानवता के लिए भयानक खतरा है। इसके खात्मे के लिए  विश्व समुदाय को आगे आने की जरूरत है।  
 धर्म आधारित सत्ताएं क्रूरता के चरम पर होती हैं। इनकी ज़द में स्त्रियां, बच्चे व निर्धन लोग आते हैं, अस्तु हमें हर तरह की धर्म सत्ताओं का विरोध करना चाहिए। यह कहना बेमानी  है कि  अमुक धर्म तमुक धर्म से बेहतर है।  आज हमारे यहां भी कुछ लोग भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना, संकल्प और प्रयत्न किए जा रहे हैं, हमें ऐसे लोगों व प्रवृत्तियों का भी पुरजोर विरोध करना चाहिए।  
 धर्म की  आदर्शवादी नैतिकताएं आज के औद्योगिक व अर्बन समाज में लगभग    अप्रासंगिक हो चुकी हैं। धर्म सत्ता वर्चस्ववादी शक्तियों को  प्रश्रय देता है। उनके सामने घुटने टेकना है। वहां स्वतंत्रता, समानता, बंधुता , सहिष्णुता  वैज्ञानिकता और आधुनिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। वहां धर्मादेश ही अंतिम  सत्य  होता है।   ,सुकरात ,जीसस, आर्यभट्ट ,  ब्रूनो, गैलेलीयो , मंसूर , गांधी, इंदिरा गांधी,  बेअंतसिंह, अवतार सिंह पाश   दाभोलकर, पान्सारे, कलबुर्गी,  गौरी लंकेश आदि ऐसे असंख्य नाम हैं, जिन्हें धर्म के  नाम पर   मारा गया।   अस्तु धर्म आधारित सत्ता व्यवस्थाएं मनुष्य  विरोधी हैं,   कम से कम आज  इक्कीसवीं सदी में   हमें यह समझ लेना चाहिए।  
 तालिबान के विरुद्ध अफगानिस्तान के लोगों को लड़ने का हौसला बनाना चाहिए। बाहर की शक्तियों से स्थिति तो नियंत्रित की  जा सकती है, पर बदलाव तो उन्हें खुद करना पड़ेगा। जिस तरह से बांग्लादेश ने किया।  जनरल इरशाद के खिलाफ वहां की जनता खड़ी हुई। उसी तरह से अफगानिस्तान की अवाम को ज़हालत से निकलने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए।  हम  तालिबानियों की हर अन्याय व क्रूरतापूर्ण कुकृत्य की निंदा करते हैं। विनम्र निवेदन।

हवा हो गए हत्यारे - कविता

हवा हो गए हत्यारे
----------------------
(इस सवाल के साथ कि दाभोलकर, कलबुर्गी और गौरी लंकेश के हत्यारे कभी पकड़े भी जाएंगे)

जैसे कि हवा से गोलियां बरसीं
और फिर हवा हो गए हत्यारे

थोड़ी ही देर गूंजी चीख हवा में
थोड़ी सी छटपटाहट हवा में तैर गई

हवा में बिखरे हत्या के सुराग
और हवा में ही हत्यारों के अनुमान लगे
हवा में ढूंढ़ हुई हत्यारों की
मानो हवा में छिपे बैठे हत्यारे

कई तरह की चली हवा फिर
हवा कई-कई तरह की
झुलसाती
दहलाती
अकुलाती
मदमाती
मुस्काती
हुलसाती
कितनी ही तरह की हवा

हवा में हैं कई सवाल अब
हवा में ही हैं उनके जवाब

दरअसल इस समय शासक
बिल में पैठे काले नाग की मानिंद
हवा खा रहा है
और जनता के चेहरों की हवाइयां उड़ी हुई हैं

- हरि मृदुल

(मेरी यह कविता 'अकार' के अक्टूबर, 2018 के स्वर्ण जयंती अंक में ग्यारह अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित हुई है) 
.. .. ..

डा.नरेन्द्र दाभोलकर की एक निर्भीक कविता...



*************************

*मूर्तियों को पूजने के बजाय*
*मानवता को पूजता हूं मैं!*
*काल्पनिक देवताओं को न मानकर,*
*फुले साहू अम्बेडकर को पढ़ता हूं मैं!*
*छाती ठोककर बोलता हूं,*
*असत्य को नकारने वाला* 
*नास्तिक हूं मैं!*

*पोथी पुराण पढ़ने के बजाय*
*शिवाजी को पढ़ता हूं मैं!*
*पत्थर के सामने क्यों झुकूं?*
*जिजाई, सावित्री,रमाई के सामने नतमस्तक होता हूं मैं!*
*छाती ठोककर बोलता हूं*
*असत्य नकारने वाला* 
*नास्तिक हूं मैं!*

*पसीने की कमाई दानपेटी में डालकर, ब्राह्मणों के घर नहीं भरता हूं मैं!*
*प्यासे को पानी, भूखे को अन्न देकर उनमें ही देव खोजता हूं मैं!*
*छाती ठोककर बोलता हूं
असत्य नकारने वाला 
नास्तिक हूं मैं!*

*हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई के रूप में न जीकर,*
*मानव बनकर जीता हूं मैं*
*धर्मों के पाखंडों को न मानकर*
*मनुष्यता को जपता हूं मैं!*
*छाती ठोककर बोलता हूं* 
*असत्य नकारने वाला* 
*नास्तिक हूं मैं!*

*कर्तव्यनिष्ठ मानव से पत्थर को श्रेष्ठ नहीं समझता हूं मैं,*
*मंत्र, होमहवन, कर्मकांड को पैरों तले रौंदकर*
*अपने विवेक पर भरोसा रखता हूं मैं,*
*छाती ठोककर बोलता हूं 
असत्य नकारने वाला 
नास्तिक हूं मैं!*

*बिल्ली के रास्ता काटने से रुकता नहीं सीधे मंजिल पर पहुंचता हूं मैं!*
*अंधश्रद्धा को मिट्टी में रौंदकर*
*विज्ञानवाद स्वीकारता हूं मैं!*
*छाती ठोककर बोलता हूं* 
*असत्य नकारने वाला* 
*नास्तिक हूं मैं!*

*डा. नरेंद्र दाभोलकर*

*मराठी से हिन्दी अनुवाद*
*चन्द्र भान पाल*

Friday, 19 August 2022

समर्थन मूल्य) की मांग

हालांकि हम जानते है कि पूंजीवाद में सभी कृषि उत्पाद के लिये लाभकारी कीमत की गारंटी नही दी जा सकती, यह सिर्फ समाजवाद में ही सम्भव है; फिर भी अगर ये किसान लहसून  के लिये एक वाजिब कीमत(समर्थन मूल्य) की मांग इस अम्बानी-अडानी की चहेती  सरकार से करे तो इस मांग का विरोध कोई कैसे कर सकता है!लहसुन की कीमत न मिलने पर लहसुन की बोरियो को पानी मे फेका जाए या इस सरकार से लहसुन का समर्थन मूल्य मांगा जाए? 

नरेंद्र अच्युत दाभोलकर (1 नवंबर 1945 - 20 अगस्त 2013)


नरेंद्र अच्युत दाभोलकर (1 नवंबर 1945 - 20 अगस्त 2013) एक भारतीय चिकित्सक , सामाजिक कार्यकर्ता, तर्कवादी और महाराष्ट्र , भारत के लेखक थे । 

1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (एमएएनएस, महाराष्ट्र में अंधविश्वास के उन्मूलन के लिए समिति ) की स्थापना की और अध्यक्ष बने । 20 अगस्त 2013 को प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथियों द्वारा उनकी हत्या कर दी गयी।  उनकी हत्या के चार दिन बाद महाराष्ट्र राज्य में लंबित अंधविश्वास और काला जादू अध्यादेश लागू किया गया । 2014 में,  सामाजिक कार्य के लिए उन्हें मरणोपरांत  पद्मश्री से सम्मानित किया गया।उन्होंने अंधविश्वास उन्मूलन के लिये जीवन भर संघर्ष किया। 

 अन्धविश्वास उन्मूलन : आचार पुस्तक उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में धर्म के नाम पर कर्मकांड और पाखंडों के खिलाफ आन्दोलन, जन-जाग्रति कार्यक्रम और भंडाफोड़ जैसे प्रयासों का ब्योरा है ! पुस्तक में भूत से साक्षात्कार कराने का पर्दाफाश, ओझाओं की पोल खोलती घटनाएँ, मंदिर में जाग्रत देवता और गणेश देवता के दूध पीने के चमत्कार के विवरण पठनीय तो हैं ही, उनसे देखने, सोचने और समझने की पुख्ता जमीन भी उजागर होती है ! निस्संदेह अपने विषयों के नवीन विश्लेषण से यह पुस्तक पाठकों में अहम् भूमिका निभाने जैसी है ! अन्धविश्वास के तिमिर से विवेक और विज्ञान के तेज की और ले जानेवाली यह पुस्तक परंपरा का तिमिर-भेद तो है ही, विज्ञान का लक्ष्य भी है !

पुस्तक डाउनलोड करने का लिंक

भौतिकवादी दर्शन ईश्वर को किस रूप में मानता है?


प्रकृति में दो चीज़ें हैं- पदार्थ और चेतना।
ईश्वर क्या है? क्या ईश्वर किसी पदार्थ का नाम है या वह एक चेतना है?

नि:सन्देह और निर्विवाद रूप से ईश्वर कोई पदार्थ नहीं वह एक चेतना ही है। सभी धार्मिक लोग ईश्वर को एक चेतना मानते हैं। और भौतिकवादी दर्शन भी उसे चेतना ही मानता है।
 तो फिर अन्तर्विरोध कहाँ है?
दरअसल आस्तिक लोगों की कल्पना है कि ईश्वर नाम की चेतना पहले से मौजूद थी, उसी ने पदार्थ जगत को बनाया है।
भौतिकवादी दर्शन कहता है कि नहीं, पदार्थ जगत पहले से है, ईश्वर नाम की चेतना बाद में आई।

अब सवाल यह खड़ा हो गया कि पदार्थ और चेतना में कौन पहले है।

  आस्तिकों की नजर में तो चेतना या विचार ही पहले दिखाई देता है। और जो भौतिकवादी दर्शन से परिचित नहीं हैं, ऐसे 99% नास्तिक लोगों को भी लगता है कि विचार ही प्राथमिक है। वे तर्क देते हैं कि कुम्हार के मन में पहले घड़ा बनाने का विचार आता है तभी तो घड़ा बनाता है। उसके मन में सुराही बनाने का विचार आता है तो सुराही बना देता है। इससे लगता है कि विचार ही पहले है।

  इसी तरह आस्तिक लोग तर्क देते हैं कि जैसे कुम्हार के मन में विचार आया कि घड़ा बनाया जाए तो उसने घड़ा बना दिया, ठीक उसी तरह ईश्वर के मन में विचार आया कि एक दुनिया बनायी जाए तो उसने एक दुनिया बना दिया।

   ये लोग यह नहीं तर्क करते कि मिट्टी का बर्तन बनाने का विचार आने से पहले मिट्टी तो थी। अत: पदार्थ ही प्राथमिक होता है। अगर किसी ईश्वर के मन में दुनिया बनाने का विचार आया होगा, तो दुनिया बनाने के लिए 'क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा' आदि कहाँ से ले आया? ये सब तो पहले से ही कहीं रहा होगा। 

 पदार्थ प्राथमिक है विचार बाद में है इसके अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं। जैसे-
आग लगने की भौतिक घटना पहले होती है उसे बुझाने का विचार बाद में आता है।
गर्मी लगने की भौतिक घटना पहले घटती है पंखा चलाने का विचार बाद में आता है।
ठंड लगने की भौतिक घटना पहले घटती है स्वेटर पहनने का विचार बाद में आता है।
बरसात  की भौतिक घटना पहले होती है छाता लगाने का विचार बाद में आता है।
साँप  निकलने की भौतिक घटना पहले  होती है उसे मारने का विचार बाद में आता है।
रूप पहले, नाम बाद में आता है।
आप के दिमाग में जो भी विचार पैदा हो रहे हैं, सबका भौतिक आधार जरूर है।

मस्तिष्क रूपी पदार्थ पहले और विचार बाद में। चेतना में से मस्तिष्क को नहीं पैदा किया जा सकता है बल्कि मस्तिष्क से चेतना पैदा होती है। इसी तरह अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि भौतिक परिस्थिति पहले होती है उससे सम्बन्धित चेतना का वजूद बाद में होता है। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जहाँ विचार पहले और पदार्थ बाद में हो। विचार या चेतना को प्राथमिक मानने के कारण सारे लोग तरह-तरह के अंधविश्वासों में फँसकर अपना समय, शक्ति और संसाधन बर्बाद करते रहते हैं।

 उपरोक्त उदाहरणों में हम देखते हैं कि जिस तरह की भौतिक परिस्थितियां होती हैं उसी तरह के विचार पैदा होते हैं। भौतिक परिस्थितियां ही विचार का स्रोत होती हैं। चेतना हमेशा पदार्थ से ही निकलती है। हमारे भाव, विचार, चेतना या कल्पना की उड़ान कितनी भी ऊँची हो परन्तु उसका आधार वस्तुगत ही होता है। इस आधार पर देखें तो ईश्वर भी एक विचार/चेतना ही है। इसके भी पैदा होने का कोई न कोई भौतिक आधार जरूर होगा। बिना भौतिक आधार के ईश्वर ही नहीं कोई भी चेतना पैदा नहीं हो सकती। इससे सिद्ध होता है कि दुनिया पहले है, ईश्वर का वजूद बाद में आया है। 

ईश्वर, परलोक, स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म से संबन्धित चेतना या विचारों का भी भौतिक आधार पहले से मौजूद होता है।

  प्राचीन काल में प्रकृति की शक्तियों को देखकर दैवी शक्ति की कल्पना पैदा हुई। प्राचीन काल के छोटे-छोटे पशुपालक राजाओं को देखकर देवताओं की कल्पना पैदा हुई। महाराजाओं को देखकर महादेव की कल्पना हुई, सम्राटों को देखकर सबका ईश्वर एक होने की कल्पना आयी। 
  राजाओं का महल ऊंचाई पर होता था। इसे देखकर ही कल्पना की गयी कि परलोक ऊपर ही होगा। किला/महल के चारो तरफ गहरी खाईं को देखकर यह कल्पना की गयी कि परलोक में भी वैतरणी नाम की नदी होगी। राजा के दरबार को देखकर ही स्वर्ग की कल्पना की गयी। राजा की जेल को देख कर नर्क की कल्पना की गयी। जेल की यातनाओं को देखकर नर्क में यातनाओं की कल्पना की गयी। बीज बोने, फसल काटने और फसल से तैयार बीज का एक हिस्सा पुनः बोने, और हर साल दोहराई जाने वाली इसी प्रक्रिया को देखकर पुनर्जन्म की कल्पना पैदा हुई, राजा के बनाए कानून से ही पाप और पुण्य की कल्पना पैदा हुई, पक्षियों को देखकर पुष्पक विमान की कल्पना पैदा हुई‌…..। इसी तरह उनकी हर कल्पना का भौतिक आधार है। अलौकिक जगत की सारी चीजें लौकिक जगत से ही नकल की गयी हैं। इसलिए लौकिक  जगत का वजूद पहले है और अलौकिक जगत यानी पाप, पुण्य, स्वर्ग, नर्क, देवी, देवता, ईश्वर और उनका परलोक आदि का वजूद बाद में है। संक्षेप में बस इतना ही। फिर कभी...
                                             रजनीश भारती
                                         जनवादी किसान सभा


जन्माष्टमी पर कुछ बाते



१. मध्यम वर्ग के लिये कम्युनिष्ट बने रहना आसान नही

पूंजीवादी मुनाफे के मक्खन का एक छोटा सा हिस्सा हम पढ़े लिखे मध्यमवर्ग को भी आज मिल रहा है  और शायद इसलिये  धार्मिक अंधविश्वास का फफूंदी  हम कॉमरेडों के  बीच भी तेजी से फैला है।

पूंजीवादी कंश अक्सर नजरो से ओझल   हो जाता है, मक्खन खाते हुए सिर्फ कृष्ण दिखाई पड़ते है। किसानों के सर फोड़ने पर प्रशासन को लानत भेजे या न भेजे आज कल कामरेड  जन्माष्टमी की शुभकामनाएं भेजने में पीछे नही है। मध्यम वर्ग के लिये कम्युनिष्ट बने रहना आसान नही है।


जन्माष्टमी- Navneet Nav के वाल से

सीपीएम द्वारा जन्माष्टमी मनाने के पक्ष में कुछ कामरेड तर्क (अगर आप तर्क मानें तो) दे रहे हैं कि जनता से जुड़ने के लिए जनता के त्यौहारों में हिस्सा लेना पड़ता है। लेकिन इन कामरेडों से हम पूछना चाहेंगे कि जनता की रूढ़ियों को कौन तोड़ेगा? राहुल सांकृत्यायन ने ही यह भी कहा है कि "हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फ़ेंकने के लिए तैयार रहना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।" और यह भी कि "रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं है।"

अब रूढ़ियों को तोड़ने वाले उदाहरण अगर कम्युनिस्ट ही नहीं देंगे तो क्या आरएसएस देने आएगा? बोल्शेविकों का उदाहरण है। क्रांति पूर्व रूस में तमाम तरह की धार्मिक रूढ़ियाँ मौजूद थी लेकिन बोल्शेविक कभी भी किसी "बहाने" इन रूढ़ियों को फॉलो नहीं करते थे। लेकिन भारत के "कम्युनिस्ट" तो गजबै हैं। बहाना देखिये। लोगों से जुड़ने के लिए कर रहे हैं। कोई इनसे पूछे कि क्या और मुद्दे नहीं हैं लोगों से जुड़ने के? बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य, गरीबी, नशाखोरी न जाने कितनी समस्याएं देश समाज में विद्यमान हैं। क्या इनके खात्मे के लिए जनता के साथ संघर्ष करना काफी नहीं है जनता से जुड़ने के लिए? क्या खुद को मार्क्सवादी लेनिनवादी कहने वाले मार्क्स के कथन "धर्म जनता के लिए अफीम है" और लेनिन के कथन "नास्तिकता का प्रचार हमारे प्रचार तन्त्र का एक जरूरी हिस्सा है" को भूल गए हैं? मार्क्स लेनिन माओ को भी कभी जनता से जुड़ने के लिए जन्माष्टमी मनाने की जरूरत पड़ी थी? भगत सिंह ने कितनी जन्माष्टमियां मनाई थी? 


३. जन्माष्टमी और विश्व हिंदू परिषद द्वारा बिलकिस बानो के गैंग रेप करने वालो 11 दोषियों का माला पहनाकर स्वागत किया जाने के संदर्भ में

गिरीश मालवीय के वाल से


बलात्कारी भौमासुर का वध करने वाले और भरी सभा में द्रोपदी की लाज बचाने वाले श्रीकृष्ण के जन्मदिवस का पावन महोत्सव जन्माष्टमी आज पुरे देश में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है और उसी श्रीकृष्ण की कर्मस्थली गुजरात में विश्व हिंदू परिषद द्वारा बिलकिस बानो के गैंग रेप करने वालो 11 दोषियों का माला पहनाकर स्वागत किया जा रहा है

श्रीकृष्ण को स्त्री अधिकारों के अनन्य योद्धा माना जाता है वे मानते हैं कि स्त्री के सम्मान की रक्षा का जिम्मा सिर्फ उसके पति या निकटस्थ बंधु बांधवों का नही अपितु उसके सम्मान की रक्षा का दायित्व राज्य का है, समाज का है ।

श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं में स्त्री सम्मान के लिए उसकी मर्यादा की रक्षा के लिए हर सीमा को पार कर देते हैं और इसलिए हिन्दू धर्म में उन्हे आराध्य माना जाता है कृष्ण के देहांत से द्वापर युग की समाप्ति हुई और कलियुग की शुरूआत हुई 

वाकई कलियुग ही है जहां दिन रात सनातन धर्म और संस्कृति की बात करने वाला दल एक स्त्री का बलात्कार और उसके बंधु बांधवों की जघन्य हत्या करने वालो का फूलो की माला पहना कर सम्मान कर रहा है, और हमारा आज का यह सनातन धर्म के गौरव की बात करने वालो का हिन्दू समाज ऐसे कुकृत्य पर मौन सहमति दे रहा है

यह तो हुई इस गिरे हुए समाज की बात अब इस प्रकरण में राज्य की भूमिका भी जान लीजिए

मुंबई में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने 2008 में बिलकिस बानो के साथ गैंगरेप और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के आरोप में इन 11 अभियुक्तों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई थी. बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस सज़ा पर अपनी सहमति की मुहर लगाई थी.

उम्रक़ैद की सज़ा पाए क़ैदी को कम से कम चौदह साल जेल में बिताने ही होते हैं. चौदह साल के बाद उसकी फ़ाइल को एक बार फिर रिव्यू में डाला जाता है. उम्र, अपराध की प्रकृति, जेल में व्यवहार वगैरह के आधार पर उनकी सज़ा घटाई जा सकती है लेकिन इस प्रावधान के तहत हल्के जुर्म के आरोप में बंद क़ैदियों को छोड़ा जाता है. संगीन मामलों में ऐसा नहीं होता है.

फिर भी बिलकिस बानो से गैंगरेप और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या में सज़ा काट रहे सभी 11 दोषियों को 14 अगस्त 2022 को रिहा कर दिया गया

केंद्र सरकार ने सज़ा भुगत रहे कैदियों की सज़ा माफ़ी के बारे में सभी राज्यों को जून 2022 में जो दिशा निर्देश जारी किए थे उसमें भी ये ही कहा था कि उम्रकै़द की सज़ा भुगत रहे और बलात्कार के दोषी पाए गए क़ैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जानी चाहिए.

गुजरात के गृह विभाग ने 23 जनवरी 2014 को कै़दियों की सज़ा माफ़ी और समय से पहले रिहाई के लिए दिशानिर्देश और नीति जारी की थी उसमें भी ये साफ़ तौर पर कहा गया था कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सामूहिक हत्या के लिए और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के दोषी सज़ायाफ़्ता कैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जाएगी.

इस नीति में ये भी कहा गया था कि जिन क़ैदियों को दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 1946 के तहत की गई जांच (सीबीआई जांच) में अपराध का दोषी पाया गया, उनकी सज़ा भी माफ़ नहीं की जा सकती और न ही उन्हें समय से पहले रिहा किया जा सकता है.

बीबीसी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में कार्यरत वकील प्योली स्वतिजा कहती हैं कि ये उनकी समझ से बाहर है कि किस तरह गुजरात सरकार की कमिटी ने इस मामले के दोषियों की सज़ा माफ़ करके उन्हें रिहा करने का फै़सला किया. वे कहती हैं, "एक बार जब सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि सज़ा माफ़ी का फ़ैसला गुजरात सरकार ही कर सकती है तो गुजरात सरकार ने जो कमिटी बनाई उसके पास शक्तियां थीं लेकिन वो उन शक्तियों का इस्तेमाल आँख मूंदकर नहीं कर सकती थी. उनको ये ज़रूर देखना चाहिए था कि अपराध की प्रकृति क्या थी. इन पहलुओं को देखना ही होता है कि न केवल क़ैदी का व्यवहार कैसा है पर अपराध की प्रकृति क्या है. अगर अपराध की प्रकृति देखी जाती तो मुझे नहीं लगता कि एक अच्छे अंतःकरण वाली कमिटी कैसे इस तरह का फ़ैसला ले सकती थी."

आज ख़बर आई है कि इस अच्छे अंतःकरण वाली कमिटी मे अध्यक्ष थे पंचमहल के कलेक्टर सजल मायतरा और सदस्य थे.....गोधरा भाजपा सचिव स्नेहा भाटिया,भाजपा विधायक सी के राउजी,भाजपा विधायक सुमन चौहान, गोधरा नगर पालिका के पूर्व प्रमुख भाजपा के मुरलीधर मूलचंदानी 

यह है आज के देश समाज का हाल, आज रात 12 बजे लोग श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव तो जरूर मनाएंगे लेकिन समाज में चल रहे हैं ऐसे घोर पाप की चर्चा करना पसंद नही करेंगे !......


४. कृष्ण को कैसे देखे? प्रेमकुमार मणि

कृष्ण -जन्म 
------------

 कृष्ण को कैसे देखें 
 प्रेमकुमार मणि 

 कृष्ण के जन्मदिन को अष्टमी,जन्माष्टमी या कृष्णाष्टमी कहा जाता है . यह भाद्र मास के कृष्णपक्ष की आठवीं तारीख होती है . ध्यान दीजिए , भाद्र और कृष्ण पक्ष . हिन्दू मानस इसे पवित्र और मांगलिक नहीं मानता . राम का जन्म दिन नौमी होता है - चैत शुक्लपक्ष की नौवीं तारीख . सब कुछ मांगलिक . कृष्ण ने अपने लिए शुक्ल नहीं, कृष्णपक्ष चुना . कुछ रहस्य की  प्रतीति  होती है . 
 
   रहस्य इसलिए कि कृष्ण इतिहास पुरुष नहीं ,पुराण -पुरुष हैं . जैसे राम या परशुराम . इतिहास पुरुषों का  जन्म संयोग होता है . पुराण -पुरुषों का जन्म तय- शुदा होता है . वे अवतार लेते हैं ,जन्म नहीं . उनका अपना सब कुछ चुनना पड़ता है .जन्म की तारीख से लेकर कुल ,कुक्षि सब . सबके कुछ मतलब होते हैं .जैसे किसी कथा या उपन्यास में दर्ज़ हर पात्र या घटना के कुछ मतलब होते हैं . कृष्ण ने यदि यह कृष्ण पक्ष और भाद्र जैसा अपावन मास चुना है ,तब इसके मतलब हैं . 

 हिन्दू  पौराणिकता ने जो युग निर्धारित किये हैं ,उसमे राम पहले आते हैं .कृष्ण बाद में .राम का युग त्रेता है ,कृष्ण का द्वापर . दोनों के व्यक्तित्व और युग चेतना को लेकर दो खूबसूरत और वृहद् काव्य ग्रन्थ लिखे गए हैं -रामायण और महाभारत . इन कथाओं को लेकर भारतीय वांग्मय में हज़ारों काव्य व कथाएं लिखी गयी हैं . आश्चर्य है कि तीसरा पौराणिक पुरुष परशुराम रामायण और महाभारत दोनों में है . यही तो पौराणिकता और कल्पनाशीलता  का जादू है . 

  राम को हमारे यहाँ पूर्णावतार नहीं माना गया ., कृष्ण पूर्णावतार हैं . हिन्दू पौराणिकता की यह विकासवादी पद्धति मुझे पसंद है .जो भी बाद में होता है वह अपेक्षया अधिक पूर्ण होता है . हालांकि हिन्दू चिंतन ही अनेक मामलों में इसका खंडन भी करता है . युग व्यवस्था में  सतयुग पहले आता है और वह पूर्ण है ; कलयुग सबसे आखिर में ,और वह अपूर्ण व दोषित है . इसका रहस्य आज तक मुझे समझ में नहीं आया . 
 
  कृष्ण को लेकर कई तरह की रूप -छवियां मेरे मन में बनती रही हैं .उनका जीवन चरित जितना मनोरम और चित्ताकर्षक है ,उतना संभवतः किसी अन्य का नहीं . कारागार में जन्म ,हज़ार कठिनाइयों के साथ उनका गोकुल पहुंचना , बचपन से ही संकट पर संकट ; लाख तरह के टोने , जाने कितनी पूतनाएँ - कितने शत्रु - और सबसे जूझते गोपाल कृष्ण  श्रीकृष्ण बनते हैं .कोई योगी कहता है ,कोई भोगी , कोई शांति का परम पुजारी कहता है ,कोई महाभारत जैसे संग्राम का सूत्रधार ; कोई मर्यादा का परम रक्षक  मानता है ,कोई परम भंजक . इतने अंतर्विरोधी ध्रुवों से मंडित है श्रीकृष्ण का चरित्र . एक द्वंद्वात्मक चरित्र है कृष्ण का ; गतिशील ,लेकिन लय- हीन  नहीं . इसीलिए कृष्ण का चरित्र रचनात्मक है ,सम्यक है और यही रचनात्मकता उन्हें पूर्णता प्रदान करती है . उनके इसी चरित्र को लेकर तमाम हिन्दू ग्रंथों ने उन्हें प्रभु या ईश्वर का पूर्णावतार माना है . इसी पूर्णता पर रीझ कर हिन्दू जन - मानस उन्हें ईश्वर कहता है ,अपना सब कुछ . 

   श्रीकृष्ण के अनेक रूप हैं और इनकी विविधता को लेकर अनेक लोग भ्रमित हो जाते हैं कि क्या ये सभी कृष्ण एक ही कृष्ण के विकास हैं या फिर अलग -अलग हैं .कई लोगों ने कई कृष्णों की बात की है . वे लोग गोपाल कृष्ण ,देवकीपुत्र कृष्ण ,योगेश्वर  कृष्ण और गीता   के कृष्ण को अलग -अलग मानते  हैं . सचमुच इन चरित्रों की जो विविधताएं हैं  वह किसी को भी चक्कर में डाल सकती हैं .कोई कैसे विश्वास करे कि गौवों के साथ सुबह से शाम तक वन -वन घूमने वाला ,बासी रोटी खाने वाला , मक्खन चुराने वाला ,हज़ार -हज़ार शरारतें करने वाला कृष्ण वही कृष्ण है ,जिस पर जमाने की सारी कुमारियाँ रीझी हुई हैं .जो कृष्ण वृंदा  और राधा के प्रेम में आपादमस्तक डूबा हुआ है , वही कृष्ण छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार ऋषि सांदीपनि के आश्रम में कठिन त्याग -तपस्या के द्वारा शास्त्रों के अध्ययन में भी तल्लीन है . जो कृष्ण अनेकों बार युद्ध से भाग खड़ा हुआ है ,वही अपने युग के सबसे बड़े संग्राम का निदेशक और विजेता है . वीर जिसकी प्रभुवत वंदना करते हैं , वही कृष्ण उस महासमर में भृत्यवत  सारथी -ड्राइवर - बन जाता है . देवता तक जिसकी कृपा के आकांक्षी हैं ,वह कृष्ण युधिष्ठिर के यज्ञ में लोगों के पाँव पखारते और जूठी पत्तल उठाते दिखते हैं . कृष्ण के जीवन की यह विविधता हमें हैरत में डाल देती है . वह हमारे कानों में फुसफुसाते स्वर में कहते हैं -- महान बनने केलिए सामान्य बनना पड़ता है मित्र ! मैं अपनी सृष्टि का सेवक भी हूँ और नायक भी .यज्ञ का जूठन भी उठाता हूँ और पौरोहित्य भी करता हूँ . 

इतिहास और समाजशास्त्र के विद्वानों को भी कृष्ण का जीवन आकर्षित करता है . ईसापूर्व चौथी सदी में ,यूनानियों ने जब भारत पर आक्रमण किया तब उन्होंने देखा कि पंजाब के मैदानी इलाके में हेराक्लीज से मिलते -जुलते एक नर -देवता की पूजा का प्रचलन है . प्रसिद्ध इतिहासकार डी डी कोसंबी कहते हैं कि वह कृष्ण ही हैं . यूनानियों ने अपने जिस देवता हेराक्लीज से कृष्ण की तुलना की थी ,उसके जीवन और कृष्ण के जीवन में थोड़ा- सा ही सही , लेकिन सचमुच का साम्य है . हेराक्लीज एक योद्धा है ,जो कड़ी धूप में तपकर सांवला हो गया है . हेराक्लीज ने भी कालिय नाग से मिलते -जुलते एक बहुमुखी जल- सर्प ,जिसे हाइड्रा कहा जाता है , का वध किया था . उसने भी अनेक अप्सराओं -रमणियों से विवाह किया था . 

कोसंबी के अनुसार पंजाब की किसान जातियों को अपनी जरुरत के अनुसार एक देवता चाहिए था . कृष्ण का चरित्र किसानो की जरुरत के अनुकूल था . कृष्ण गौतम बुद्ध की तरह यज्ञों का सीधे विरोध नहीं करते ,लेकिन किसी ऐसे यज्ञ में कृष्ण की स्तुति नहीं की जाती ,जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है . वैदिक देवता इंद्र के विरुद्ध कृष्ण खुल कर खड़े हो जाते हैं . तमाम गोकुलों के कम्यूनों में उन्होंने इंद्र की पूजा बंद करवा दी थी और इसकी जगह प्रतीक- स्वरूप पहाड़ (गोबर्धन ) की पूजा की शुरुआत की ,जिस पर गोपालकों की गायें चरती थीं . उनके भाई बलराम तो हल को उसी रूप में लिए होते थे ,जिस रूप में हमारे ज़माने के जवाहरलाल जी गुलाब का फूल . किसानों को ऐसे ही नायक की जरुरत थी . गोपालक और हलधर . कृष्ण -बलराम . अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'पुनर्नवा' में हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने लोरिक -चंदा की लोक कथा को जो औपन्यासिक रूप दिया है , उस से भी यही संकेत मिलता है . 

  कन्नड़ लेखक भैरप्पा ने महाभारत -कथा को अभिनव कथा का रूप दिया है ,अपने उपन्यास 'पर्व ' में . इस उपन्यास का कृष्ण जननायक है . वह युद्ध के मैदान में कुलीनता की शेखी और वर्णसंकरता की चिंता बघार रहे अर्जुन से कहता है -- " ..युद्ध में पुरुष मरते हैं .स्त्रियां आश्रयहीन हो जाती हैं . बाद में स्त्रियां परपुरुषों के हाथ पड़  जाती हैं ,बलात्कार से या  अपनी इच्छा से . जो भी हो ,यह सब होता ही है . पर तुम यह  सब क्यों सोचते हो कि केवल क्षत्रिय स्त्रियों के साथ यह सब होने से ही अनर्थ होता है ? ...आर्य स्त्रियों केलिए तो पवित्रता चाहिए , दूसरी स्त्रियों केलिए क्यों नहीं ? क्या तुम्हार पड़दादी आर्य थी ? भीष्म की माता गंगा क्या आर्य थी ? तुमने उलूपी के साथ विवाह कर के एक वर्ष तक गृहस्थ जीवन बिताया , क्या वह आर्य थी ? क्या पहले कभी हमारे -तुम्हारे वंश में आर्येतर लोग आकर नहीं मिले ? तुम जिसे बहू बना कर लाये हो , उस उत्तरा की माँ सुदेष्णा आर्य होने पर भी सूत कुल की नहीं है क्या ? यदि पवित्रता जैसी कोई चीज है तो वह उनके पास भी है और हमारी स्त्रियों के पास भी . इस प्रकार के भेद भाव करना अहंकार की बात होगी "  

    कृष्ण आगे कहते हैं -- " भीष्म ,द्रोण की बात लो . दुर्योधन का कहना है कि तुमलोग पाण्डुपुत्र नहीं हो .वे लोग उसकी ओर मिल चुके हैं . इसका अर्थ यह हुआ कि वे लोग भी उसी की बात मानते हैं .यदि तुमलोग यह मानते हो कि वे बड़े धर्मात्मा हैं तो यह अर्थ निकला कि तुम लोग व्यभिचार से जन्मे हो .क्या तुम यह मानते हो कि तुम व्यभिचार की संतान हो ? .. " 

  कृष्ण ने अर्जुन की सवर्ण -कुलीन मानसिकता की धज्जियाँ उड़ा दी . और इस मनोविकार के दूर होने पर ही उसे दिव्यज्ञान की प्राप्ति होती है . युद्ध करो ,लेकिन धर्म केलिए ; अधर्म केलिए युद्ध कभी मत करो . यही क्षात्रधर्म है और मानव -धर्म भी . 

कृष्ण का एक दार्शनिक रूप भी है . कुछ लोगों केलिए तो वह भारतीय दर्शन के पर्याय बन चुके हैं . गीता को पर्याप्त संशोधित कर उसे और कृष्ण -चरित्र को  वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुकूल बनाने की कोशिश की गयी है . लेकिन कृष्ण का जो क्रांतिधर्मी चरित्र किसान -दस्तकार जनता ने बनाया ,इस देश के नारी समाज ने बनाया ,वह अत्यंत उदार है . उनका मुकाबला बस एक ही व्यक्ति से है ,वह है बुद्ध . लेकिन दोनों में भेद नहीं , अन्तर्सम्बन्ध दिखते हैं . यूरोपीय लेखक रेनन ने अपनी किताब 'लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट ' में लिखा है -' क्राइस्ट शब्द में कुछ बौद्ध जरूर है . ' वह क्राइस्ट पर बुद्ध की छाया देखते हैं . हमे कृष्ण पर बुद्ध और क्राइस्ट दोनों के तत्व मिलते हैं . प्रेम ,करुणा और प्रज्ञा से ओत-प्रोत है कृष्ण का चरित्र . 

बुद्ध और कृष्ण दोनों हमे भयमुक्त होने की शिक्षा देते हैं . मृत्यु का भय हमेशा लोगों के मन को मथता रहा है . बुद्ध और कृष्ण के जमाने से लेकर आज ज्यां पाल सार्त्र और अल्बेर कामू के जमाने तक .सभी देशों के दर्शन और साहित्य पर इस भय की परछाई डोलती दिखती है .गीता का अर्जुन भयग्रस्त है . कृष्ण बतलाते हैं , दुनिया को खंड -खंड में मत देखो ,सातत्य में देखो , नैरंतर्य में देखों , प्रवाह में देखो . जहाँ प्रवाहमयता है ,वहां स्थिरता नहीं है , और जहाँ स्थिरता  नहीं है वहां द्वंद्वात्मकता है . कुछ भी स्थिर नहीं है यहां ;न नाम न रूप . हर क्षण विनाश और सृष्टि . विनाश और सृष्टि साथ -साथ . यही है जीवन और जगत की चयापचयता -मेटाबोलिज्म - यही प्रतीत्यसमुत्पाद है और जरा सा ही भिन्न रूप में वेदांत भी .   
  
(कादम्बिनी ,सितम्बर 2018  में प्रकाशित )