बहस
अंक 1
नया भारत? हमारी भूमिका क्या हो?
बहस" एक कोशिश है आज के भारत की सामयिक घटनाओं पर एक निष्पक्ष चर्चा करने की और मज़दूर वर्ग व प्रताड़ित जनता की समस्याओं को समझने की l हमारी कोशिश और विश्लेषण में अंतरराष्ट्रीय समाचार भी होंगे और इतिहास के पन्नों से भी संबंधित उद्धरण भी होंगे l आज यह हमारा पहला अंक है l पाठकों को याद दिला दें कि आज महान विचारक और क्रन्तिकारी राहुल संकृत्यायन का जन्मदिन आज ही था (09 अप्रैल,1893 – 14 अप्रैल, 1963)!
नया भारत? जी हाँ, नया भारत ही तो है, जहाँ 40 करोड़ मज़दूर और युवक बेरोजगार हैं तब राष्ट्रीय बहस के मुद्दे हैं धर्म, जाति, व्यक्तिवाद, देशवाद पर आधारित! संक्षेप में मज़दूर वर्ग का शोषण, धार्मिक और जातीय उन्माद, अल्पसंख्यकों पर बढ़ता जुल्म, श्रम और पर्यावरण क़ानून का ख़ात्मा और कॉरपोरेट मीडिया व विपक्ष की बेशर्म चुप्पी या फिर अपराधिक सहमति! कृषि क़ानूनों के द्वारा ग़रीब, छोटे और मझोले किसानों को पूँजीपति वर्ग और वित्तपतियों के दास बनाने की चेष्टा फिलहाल तो टल गई-सी लगती है, पर किसानों का बढ़ता सर्वहाराकरण (ग़रीब को और अधिक भिखमंगा बनाने की प्रक्रिया तक) और आत्महत्या कुछ और ही बयान कर रहे हैं l जहाँ हमारे 100% बच्चों और युवा वर्ग की शिक्षा की बात होनी चाहिए थी वैज्ञानिक आधार पर, वहाँ उन्हें अवैज्ञानिक आधार पर अंधविश्वास और काँवड़ ढोने में गर्व होता है l स्वास्थ्य व्यवस्था वैज्ञानिक तरीके से सभी नागरिकों को मिलनी चाहिए वहीं हम उन्हें मजबूरी में नीम हकीम के पास भेजते हैं और दवाई की जगह ताबीज़ व भस्म के सहारे ठीक होने के लिए बेबस छोड़ देते हैं l देश की 4-5 करोड़ जनता घरविहीन है और ह्युम पाइप, सड़क के किनारे, रेलवे यार्ड में जीने को विवश है l झोपड़ों में रहने वालों को घर विहीन नहीं कहते हैं, वैसे ही जैसे कि सड़क के किनारे पकौड़े बेचने वालों को बेरोज़गार नहीं कहते हैं l
आंकड़ों में देखें महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार: 2018 के एक सर्वेक्षण के अनुसार से भारत दुनिया का सबसे ख़तरनाक देश है महिलाओं के लिए l कई देशों में सन 2000 के बाद से भूख के पैमाने में कमी आई है लेकिन कुछ देशों में हालत या तो सुधरी नहीं है या बदतर हो गई है। भारत को 2019में दुनिया में 102 वां स्थान प्राप्त हुआ था जो पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश) से नीचे है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की ओर से 2021 के लिए प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स जारी किया गया था। इसमें भारत को 142 वां स्थान दिया गया था। कहा गया था कि पत्रकारों को यहाँ पर काम करने में काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पिछले हफ़्ते ही मध्य प्रदेश में कुछ पत्रकारों को भाजपा विधायक के ख़िलाफ़ लिखने के लिए पुलिस थाने में ले जाकर पिटाई की और अर्ध नंगा किया l इस श्रेणी में भारत के अलावा ब्राजील, मैक्सिको और रूस को भी रखा गया था। वैसे ही कुपोषित बच्चों, बेरोज़गारी आदि में भी भारत दुनिया के अंतिम दस देशों में आता है l
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में क़रीब 43लाख से अधिक बच्चे बाल मज़दूरी करते हुए पाए गए। UNICEF के अनुसार दुनिया भर के कुल बाल मज़दूरों में 12 प्रतिशत की हिस्सेदारी अकेले भारत की है। ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में क़रीब 5 करोड़ बाल मज़दूर हैं, जिनकी "क़िस्मत" में विद्यालय नहीं है या फिर तीसरी या चौथी कक्षा के बाद विद्यालय छोड़ना पड़ता है l ध्यान दें, शिक्षा मद में भी भारत सरकार ने भारी कटौती की है।
और भी आंकड़े हैं पर कोई फ़ाएदा नहीं है l इतना काफ़ी है दिखाने के लिए कि "नया भारत" किस ओर जा रहा है l क्या स्थिति है यहाँ के युवकों की, विद्यार्थियों की, बेरोज़गारों और किसानों की, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की, स्त्रियों और बच्चों की? हाँ, भारत का जीडीपी काफ़ी तेज़ रफ़्तार से बढ़ा है l 2019 तक और पूरे विश्व में सबसे आगे रहने का दंभ भी भरता था, हालाँकि आँकड़ों में हेरा-फेरी में (या आँकड़ो का न संकलन करना, जैसे कि बेरोज़गारी के ऊपर) भारतीय सत्ता ने बहुत ही चतुराई दिखाई है l बढ़ती हुई संपत्ति का 60% से अधिक हिस्सा 10% से कम धनी और पूँजीपति वर्ग और बड़े वित्तपतियों के ही हिस्से जाता है l लाखों करोड़ों के बकाया बैंक के ऋण और आय कर (पिछले 10 वर्षों में 7 लाख करोड़ से ज़्यादा रुपये "माफ़" कर दिए गए सरकार द्वारा!) बड़े पूँजीपतियों के माफ़ कर दिए गए l
हमारा "प्रजातंत्र" या "लोकतंत्र" नहीं है जनता का, न जनता के लिए और न ही जनता द्वारा l यह प्रजातंत्र है पूँजीपति वर्ग के लिए और उसके दलाल राजनीतिक दलों और प्रशासनिक ऑफ़िसर के लिए l यहाँ तक कि संविधान भी उनके लिए है न कि मेहनतकश जनता के लिए, चाहे वह कारख़ाने-खदान में हो, खेत-खलिहान में हो या कहीं और हो l न्यायालय, पुलिस, सरकार, मंत्रालय, प्रशासन, गुप्तचर विभाग आदि भी उन्हीं की सेवा में दिन-रात लगे रहते हैं l
नए भारत में हिंदू-राष्ट्र के नाम पर मज़दूर वर्ग और प्रताड़ित जनता का एक हिस्सा भी सत्ताधारी वर्ग और पार्टी के साथ आ गया है, पैसे और सत्ता के सुख के लिए या फिर विचारधारा के प्रवाह में, जहाँ उसे लगता है कि अल्पसंख्यक जाति या धर्म वाले बहुसंख्यक बन जाएँगे l यह सत्ताधारी वर्ग के लगातार दशकों के दुष्प्रचार का फल है l ऐसी स्थिति को ही फासीवाद कहते हैं, जिसका भिन्न-भिन्न समय और जगह में भिन्न-भिन्न रूप हो सकता है l भारतीय फासीवादी प्रकरण में जातिवाद, धर्म, देशवाद और व्यक्तिवाद की अहम भूमिका है l राज्य सत्ता के हर विभाग और प्रजातंत्र के हर स्तंभ की इसमें अहम भूमिका है l नव फासीवाद, हिंदुत्व, तानाशाही या संघवाद कहने से स्थिति में कोई भी अंतर नहीं पड़ता है l हरिद्वार से लेकर सीतापुर तक में घृणा और हिंसा फैलाने के लिए खुलेआम भाषण दिए जा रहे हैं तथाकथित "संतों", असामाजिक तत्वों और क़ानून बनाने वालों द्वारा, जिनकी हिफ़ाज़त सरकार करती हैl
बुर्जुआ वर्ग (यानि सत्ताधारी वर्ग, जिसमें मुख्य पूँजीपति वर्ग ही है) की सेवा के लिए राजनीतिक दल दिन-रात मेहनत करते हैं और प्रपंच द्वारा जनता के एक हिस्से को अपनी पकड़ में लाने की चेष्टा करते रहते हैं l पक्ष (सत्ता में) या विपक्ष में हो, अंतर सिर्फ़ राजनीतिक और सामाजिक रूप में ही है l आर्थिक नीतियों में अंतर सिर्फ़ दिखावा ही है, पर कुछ अंतर हो सकते हैं जो पूँजीवाद के अंदरुनी अंतरद्वन्द और मज़दूर वर्ग और प्रताड़ित जनता के सक्षम और एकताबद्ध विरोध पर निर्भर करता है l उदाहरण के लिए 2014 तक कांग्रेस या भाजपा सरकार चाहकर भी आर्थिक "सुधार" को पूरे रूप से नवउदारवाद के रास्ते नहीं ला सकी, जिसके लिए आईएमएफ़ या वर्ल्ड बैंक प्रयत्नशील थे पर 2014 के बाद वही भाजपा सरकार इस प्रक्रिया को पूरी गति से क्रियान्वयन करने में सफल दिख रही है l धड़ल्ले से निजीकरण, सरकारी रोज़गारों को ख़त्म करना, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी हाथों में देना और जनता को भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे मद में भी भारी कटौती की गयी l स्त्री सुरक्षा के मद में भी कमी की गई l पेट्रोल, डीज़ल, गैस और आवश्यक वस्तुओं पर एकाधिकार मूल्य लागू किया जा रहा है और जनता की ख़रीदने की क्षमता का दोहन किया जा रहा है l और यह आज "संभव" हो सका है फासीवादी उफान और सत्ता के कारण l
इस नए भारत में (ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि यह प्रकरण वैश्विक है, पर कुछ देशों में अधिक गहनता के साथ, जैसे कि यूक्रेन, श्रीलंका, आदि में; तो कुछ अन्य देशों में सामान्य ढंग से) मज़दूर वर्ग और अन्य प्रताड़ित जनता की क्या भूमिका हो, हमें सोचना होगा l हम कौन हैं? हम वे लोग हैं जो आज की व्यवस्था से शोषित और प्रताड़ित हैं और फासीवाद के दुष्प्रचार से मुक्त हैं, भले ही सीमित ढंग से l
ऊपर के विश्लेषण का निचोड़: भारत एक ऐसी दिशा में चल चुका है जिसका अनुमान किसी भी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक विद्वान को शायद ही था l ऐतिहासिक भौतिकवाद के जानकार, कम्युनिस्ट दलों के विचारकों को भी इसका इल्म नहीं था; अगर उन्हें था भी तो उन्हें इसका प्रतिकार या प्रतिरोध "चुनाव से चुनाव" तक की राजनीति से ही किया और हम नतीजा ढूँढ़ रहे हैं l फ्रेडरिक एंगेल्स ने एक बार कहा था: बुर्जुआ समाज चौराहे पर खड़ा है, या तो समाजवाद में परिवर्तन या बर्बरता में प्रतिगमन। (गूगल द्वारा अनुवाद, इन पंक्ति का: Friedrich Engels once said: 'Bourgeois society stands at the crossroads, either transition to socialism or regression into barbarism.) आज वह कथन ज्यादा सही दिख रहा है|
1992 में भारत के बुर्जुआ वर्ग (पूँजीपत वर्ग और उसकी सरकार) ने नवउदारवादी रास्ता इख़्तियार किया l भारतीय बाज़ार विश्व पूँजी के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया l श्रम क़ानूनों को ध्वस्त किया जाने लगा, ज़मीन अधिग्रहण क़ानून बनाने की क़वाएद शुरू हुई, पर्यावरण क़ानून भी ख़त्म करने की कोशिश की गई l यह सब केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के अधिकांश देशों में हो रहा था l सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक संघ के विघटन के बाद सर्वहारा वर्ग पर आक्रमण खुलेआम होने लगा l समाजवाद (जो वास्तव में पूँजीवाद ही था, पर समाजवादी मुखौटा के पीछे छिपा था) के 'ध्वस्त' होने की ख़बर पूरी दुनिया में फैल चुकी थी और दूसरे बुर्जुआ वर्ग और उनकी सरकार अब बड़ी शान और हिम्मत से सर्वहारा वर्ग को लूटने लग गए हैंl
यह लूट सिर्फ़ औद्योगिक मज़दूरों की ही नहीं थी बल्कि अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों, खेतिहर मजदूरों, ग़रीब से लेकर मझोले किसानों की भी थी l बाल-मज़दूरों और कार्यरत स्त्रियों (भले ही घरों में ही काम करती हों) का भी शोषण और प्रताड़ना बढ़ी है l क़ानून बना कर किसानों की ज़मीन सीधे-सीधे हड़पने की कोशिश होने लगी है l भारत में किसानों और उनकी यूनियनों का सरकार और पूँजीपति वर्ग से सीधा-सीधा संघर्ष चला और नतीजा के बारे में चर्चा ऊपर कर चुके हैं l इस संघर्ष को विश्व का सबसे बड़ा संघर्ष माना जा रहा था और पूँजीपति वर्ग को अल्पकालीन "पीछे" हटना पड़ा था l
इस बीच 5 राज्यों में विधानसभा का चुनाव भी संपन्न हुआ; उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में l चुनाव के दौरान जो राजनीति का 'सांस्कृतिक' पतन होना था, वह हुआ l ढोंग, दुष्प्रचार, गाली-गलौच, मारपीट से लेकर हिंसा तक, करोड़ों-अरबों रुपये का 'निवेश', निर्वाचन आयोग और पुलिस (अर्धसैनिक बलों का भी) और मीडिया का भरपूर इस्तेमाल या उपयोग (दुरुपयोग अब शायद कहा नहीं जा सकता) भरपूर हुआ l सत्ता के उपयोग या दुरुपयोग को अब नैतिक माना जा रहा है समर्थकों द्वारा, या तो पैसे के लिए या फिर उस विचारधारा के लिए, जो फासीवाद को मज़बूत करती है l
हम क्या करें? संक्षेप में इसकी बात नहीं कर सकते हैं l आगे हम इसकी चर्चा ज़रुर करेंगे; विचारधारा, संगठन, ट्रेड यूनियन सहित, इनसे सम्बंधित सवालों और कार्यक्रमों पर l अभी इतना कहना ज़रुरी है कि हम वह कोई भी काम न करें जिससे पूँजीवाद मज़बूत होता है और वह हर काम करें जिससे हमारी समाजवादी सोच या चेतना और संगठन मज़बूत होता है l
कृष्ण कांत