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रिवाज़ कभी नही मरते।
पहचान लीजिए चलन, रिवाज़ व परंपरा और ढूँढ लीजिए कि धार्मिक किताबों में लिखा कचरा आपके क्षेत्र का है या बाहर से आया है???
कावङ का उपयोग उन क्षेत्रों में पानी भरने के लिए होता रहा है जहां 1400/1500 मि.मी. वर्षा होती है, साल भर पोखरों में साफ पानी भरा मिलता है, पानी ऊपर ही है झट डुबोया, पट भरा और दौड़ पड़े। एक तरफ पानी रखो और दूसरी तरफ कोई भी अन्य सामान रखो, बच्चे रखो, बूढ़े रखो।
वो उधर 1000 मि.मी. से कम वर्षा ही सूखा कहलाने लगता है।
अब बंगाल के पश्चिम से दूर ईरान तक वर्षा कम है। कुंए, नदी से पानी लेने दूर जाते हैं, तो मटकी/गगरी/कलसी का उपयोग करते हैं।
यह पोस्ट और तस्वीरें सावन के अंधे कबिलाई श्रवण कुमारों के लिए हैं, जो कावङ को इंडिया का रिवाज मानते हैं जबकि यह थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया का रिवाज है...
तस्वीरों में थाईलैंड, इंडोनेशिया और कंबोडिया में कावड़ टाइप कुछ...
वो उधर पहले माँ-बाप बच्चों को छाबङी में बैठा कर घुमाते हैं, फिर बच्चे उन्हें छाबङी में बैठा कर घुमाते हैं...
तस्वीरों में देखिए कि पहली और दूसरी तस्वीर में थाईलैंड में एक औरत बच्चों को छाबङी में लिए घूम रही है, तीसरी तस्वीर में इंडोनेशिया में एक छोटा सलवारी भी कावङ लेकर जा रहा है और चौथी तस्वीर में कंबोडिया की दीवारों पर कावङ खुदी पङी है...
न श्रवण कुमार की कहानी इंडिया की है और न कावङ का रिवाज इंडिया का है, यह इंडिया में पूरब के देशों से शरणार्थी बनकर घुसे लोगों की देन है...
अपना क्षेत्र और संस्कृति किताब में नहीं है।
राज बहुत गहरे हैं...
(प्रस्तुति by श्री देव कुमार पंवार)
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