फिल्म इस लिंक से देखी जा सकती है - https://www.youtube.com/watch?v=eHfrHDBxCFU
परिचय साभार - https://www.facebook.com/LucknowCinephiles/
इस फ़िल्म को बने आधी सदी गुज़र गयी है लेकिन कई चीज़ें आज भी नहीं बदली हैं। 1973 में इस फ़िल्म को बनाते समय निर्देशक एम.एस. सथ्यू को तीखे विरोध और दुष्प्रचार का सामना करना पड़ा था। हालत यह थी कि आगरा में शूटिंग के समय जगह-जगह होने वाले उग्र विरोध से बचने का यह तरीक़ा निकाला गया कि एक नकली फ़िल्म यूनिट को कैमरे के साथ शहर में भेज दिया जाता था ताकि विरोधियों का ध्यान उधर चला जाये और असली शूटिंग किसी और जगह चुपचाप कर ली जाती थी। बाद में सेंसर बोर्ड ने भी महीनों तक इसे लटकाये रखा। काफ़ी कोशिशों के बाद जब इसे मंज़ूरी मिली तो शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने ऐलान कर दिया कि बम्बई में जो सिनेमा हॉल इसे दिखायेगा उसे जला दिया जायेगा। फ़िल्म देखे बिना ही उन्होंने इसे ''मुसलमान-परस्त'' और भारत-विरोधी करार दिया। हालाँकि आख़िरकार जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो काफ़ी पसन्द की गयी और इसे कई राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले।
संक्षिप्त कथानक
फ़िल्म का मुख्य किरदार सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) आगरा में जूतों का एक छोटा कारख़ाना चलाता है। विभाजन के बाद उसके परिवार के लोग एक-एक करके पाकिस्तान चले जा रहे हैं मगर वह कहता है कि मैं अपना वतन छोड़कर कहीं नहीं जाउँगा। वह बार-बार कहता है कि गांधीजी की शहादत के बाद अब लोग इन हालात के बारे में सोचने पर मजबूर होंगे और धीरे-धीरे सबकुछ ठीक हो जायेगा। लेकिन ऐसा नहीं होता है। नफ़रत, कट्टरपन और सन्देह का माहौल हावी रहता है और मिर्ज़ा परिवार को क़दम-क़दम पर उपेक्षा, अविश्वास और अपमान का सामना करना पड़ता है। फ़िल्म कुछ मुस्लिम नेताओं की मौक़ापरस्ती और स्वार्थ को भी सामने लाती है और दूसरी तरफ़ यह भी दिखाती है कि उस माहौल में भी कई हिन्दू मिर्ज़ा की मदद करते हैं। मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी तंग आकर पाकिस्तान चला जाता है। मिर्ज़ा की बेटी काज़िम से प्यार करती है मगर उसका परिवार पाकिस्तान चला जाता है। आमिना से शादी करने के लिए काज़िम लौटकर आता है लेकिन पुलिस उसे पकड़कर वापस भेज देती है। उसका दूसरा प्रेमी भी एक दिन परिवार के साथ पाकिस्तान चला जाता है और फिर ख़बर मिलती है कि वह वहीं शादी कर रहा है। आमिना ख़ुदकुशी कर लेती है। एक मामूली सी बात पर भड़के दंगे में मिर्ज़ा का कारख़ाना जला दिया जाता है। लेकिन वह हिम्मत हारने के बजाय मज़दूरों के साथ मिलकर ख़ुद जूते बनाने लगता है।
मिर्ज़ा का छोटा बेटा सिकन्दर पढ़ाई पूरी करके नौकरी तलाश कर रहा है। कई जगह उसे भी पाकिस्तान चले जाने के ताने सुनने को मिलते हैं लेकिन वह कहता है कि हमें भागने के बजाय यहीं रहकर आम लोगों के कन्धे से कन्धा मिलाकर अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। वह अपने बेरोज़गार दोस्तों के साथ मिलकर एक माँगपत्रक तैयार करता है। इसी बीच मिर्ज़ा को पाकिस्तान के लिए जासूसी करने के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया जाता है क्योंकि उसने अपने घर का नक्शा अपने बेटे के पास पाकिस्तान भेजा था। अदालत में वह बरी हो जाता है लेकिन हर जगह उसे उपेक्षा और अपमान का सामना करना पड़ता है।
आख़िरकार मिर्ज़ा भी टूट जाता है और बेटे व पत्नी के साथ पाकिस्तान चले जाने का फ़ैसला कर लेता है। ताँगे पर स्टेशन की ओर जाते हुए उन्हें रास्ते में एक जुलूस की वजह से रुक जाना पड़ता है। शहर के नौजवान काम के अधिकार को लेकर मोर्चा निकाल रहे होते हैं। सिकन्दर के दोस्त उसे देखकर आवाज़ देते हैं। मिर्ज़ा कहता है कि अब मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा, इंसान अख़िर कब तक अकेला रह सकता है। सिकन्दर जुलूस में शामिल होकर नारे लगाने लगता है। कुछ पल सोचने के बाद मिर्ज़ा भी बीवी को घर भेजकर जुलूस के पीछे-पीछे चल देता है। पृष्ठभूमि से सुनायी देती इन पंक्तियों से फ़िल्म का अन्त होता है:
जो दूर से तूफ़ान का करते हैं नज़ारा, उनके लिए तूफ़ान वहाँ भी है यहाँ भी
धारे में जो मिल जाओगे बन जाओगे धारा, ये वक़्त का एलान वहाँ भी है यहाँ भी
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🖥 प्रस्तुति - Uniting Working Class
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