इसी प्रकार ओग्युस्त कोम्त का भी यही विचार था कि "समूची सामाजिक प्रक्रिया अन्तिम रूप से विचारों पर ही आधारित होती है" यह विश्वकोशकारों के दृष्टिकोण का दुराव भर था, जिनका मानना था कि विचार ही दुनिया पर शासन करते हैं।
प्रत्ययवाद की एक और भी किस्म है, जिसकी अभिव्यक्ति हीगेल के निरपेक्ष प्रत्ययवाद में हुई। उसके दृष्टिकोण से मनुष्य के विकास का इतिहास कैसे व्याख्यायित किया गया? इसे मैं एक उदाहरण के जरिये स्पष्ट करना चाहूंगा। हीगल सवाल उठाता है: यूनान के पतन का क्या कारण था? वह इसके कई कारण बताता है, उसकी दृष्टि में, इसका मुख्य कारण यह था कि निरपेक्ष विचार के विकास में यूनान सिर्फ एक अवस्था को प्रतिबिम्बित करता था, और जब यह अवस्था गुजर गयी, तो उसका पतन होना ही था।
स्पष्ट है कि हीगेल के विचार से-हालांकि वह जानता था कि "लेसडाइमोन का पतन सम्पत्ति की असमानता के कारण हुआ"- सामाजिक सम्बन्धों और मानव-विकास के समूचे इतिहास का निर्धारण अन्ततः तर्क द्वारा, विचार के विकास द्वारा, होता है। इतिहास की भौतिकवादी दृष्टि इस दृष्टि के धुर विपरीत है। जहाँ सेण्ट-साइमन इतिहास को प्रत्ययवादी अवस्थिति से देखते हुए, यह मानता है कि यूनानियों के सामाजिक सम्बन्ध उनके धार्मिक विचारों के कारण बने थे, वहीं उसके विपरीत, मैं जो भौतिकवादी दृष्टि में विश्वास करता हूँ, यह कहना चाहूँगा कि यूनानियों की गण सभा ओलिम्पस उनकी सामाजिक प्रणाली का प्रतिबिम्बन थी। और, इस सवाल के जबाब में कि यूनानियों की धार्मिक दृष्टि कहाँ से पैदा हुई थी, जहाँ सेण्ट-साइमन कहता है कि यह उनकी वैज्ञानिक विश्व-दृष्टि से पैदा हुई थी, वहीं उसके विपरीत, मेरा मानना है कि यूनानियों की वैज्ञानिक विश्व दृष्टि स्वयं में, अपने ऐतिहासिक विकास के क्रम में, हेलेनिक लोगों (प्राचीन यूनानियों-अनु.) द्वारा किये गये उत्पादक शक्तियों के विकास से निर्धारित हुआ था।"
सामान्य रूप से मेरी इतिहास-दृष्टि यही है। क्या यह सही है? इसे सही सिद्ध करने का यह उपयुक्त अवसर नहीं है। यहाँ पर आपसे मैं यही चाहूँगा कि आप मान लें कि यह सही है, और इसे ही कला के बारे में हमारी जाँच-पड़ताल का प्रस्थान बिन्दु मानकर मेरे साथ चलें। कहने की जरूरत नहीं कि कला के इस विशिष्ट प्रश्न की
कई वर्ष पहले ए. एस्पिनास की पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ टेक्नोलॉजी' पेरिस में प्रकाशित हुई थी जो प्राचीन यूनानियों की विश्व-दृष्टि के विकास की व्याख्या उनकी उत्पादक शक्तियों के विकास से करने का एक प्रयास है। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प प्रयास है जिसके लिए हमें एस्पिनास का आभारी होना चाहिए, इस तथ्य के बावजूद कि उसकी विवेचना में ब्योरों की कई गलतियाँ हैं।
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पड़ताल के साथ ही इसकी मेरी सामान्य दृष्टि की भी जाँच हो जायेगी। क्योंकि अगर यह सामान्य दृष्टि गलत है, तो इसे अपना प्रस्थान मान लेने के बाद, हम कला के विकास की व्याख्या करने में ज्यादा आगे नहीं बढ़ पायेंगे। लेकिन अगर हमें ऐसा लगे कि अन्य किसी दृष्टि की अपेक्षा, इस दृष्टि से कला के विकास की बेहतर व्याख्या की जा सकती है, तो इस दृष्टि के समर्थन में हमें एक नया और सशक्त तर्क हासिल हो जायेगा।
लेकिन यहाँ मुझे एक आपत्ति उठाये जाने का पूर्वाभास हो रहा है। डार्विन ने अपनी कृति, मनुष्य की उत्पत्ति (Descent of man and Selection in Relation to Sex) ढेरों तथ्य यह दर्शाने के लिए पेश किये हैं कि प्राणियों के जीवन में सौन्दर्य का बोध एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन तथ्यों की ओर इंगित किया जायेगा और यह नतीजा निकाला जायेगा कि सौन्दर्यबोध की उत्पत्ति की जीववैज्ञानिक व्याख्या की जानी चाहिए। और तब मुझसे यह कहा जा सकता है कि यह अस्वीकार्य ("संकीर्ण) है कि मनुष्यों में इस बोध की उत्पत्ति को एकमात्र उनके समाज के आर्थिक रूप से ही सम्बद्ध किया जाये और चूंकि प्रजातियों के विकास के बारे में डार्विन की दृष्टि भी एक भौतिकवादी दृष्टि ही है, इसलिए मुझसे यह भी कहा जा सकता है कि एकांगी ऐतिहासिक ("आर्थिक") भौतिकवाद की आलोचना के लिए जीववैज्ञानिक भौतिकवाद पर्याप्त सूचनाएँ प्रदान करता है।
इस आपत्ति की गम्भीरता को महसूस करता हूँ और इसीलिए इसकी विवेचना करना चाहूँगा। यह काफी उपयोगी होगा, क्योंकि इसका जवाब देने के दौरान ही, मैं ऐसी ही उन सभी आपत्तियों का भी जवाब दे सकूँगा, जो प्राणियों के मानसिक (psychical) जीवन के आधार पर उठायी जा सकती हैं।
सबसे पहले, यथासम्भव पूरी शुद्धता के साथ उस निष्कर्ष को परिभाषित करने की कोशिश करें जो डार्विन द्वारा पेश किये गये तथ्यों से निकाला जा सकता है और इसके लिए, देखते हैं कि इन तथ्यों से स्वयं डार्विन ने क्या निष्कर्ष निकाला है। मनुष्य की उत्पत्ति के बारे उसकी पुस्तक के अध्याय दो, खण्ड एक में हम पढ़ते
"सौन्दर्य का बोध इस बोध को सिर्फ मनुष्य की ही विशिष्टता घोषित किया गया है। लेकिन जब हम एक नर पक्षी को मादा पक्षी के सामने अपने खूबसूरत पंखों या शानदार रंगों को प्रदर्शित करते हुए देखते हैं, जबकि दूसरे पक्षी जो इतने सजीले नहीं होते, ऐसा प्रदर्शन नहीं करते, तब इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जातो कि मादा पक्षी अपने नर साथी के सौन्दर्य को पसन्द करती है। चूंकि हर जगह की स्त्रियाँ इन पंखों से अपने आप को सजाती हैं, इसलिए इन अलंकरणों के सौन्दर्य पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। मर्मर-पक्षी के घोंसले और ब्रोवर पक्षी के
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कलरव-कुंज रंग-बिरंगी वस्तुओं से सजे होते हैं। इससे पता चलता कर उसे सौन्दर्य की धारणा होती है। यही बात पक्षियों के गाने के बारे में भी कही जा सकती है प्रणय की ऋतु में अनेक नर पक्षी जो मधुर तान छेड़ते है, उसकी सराहना निशा ही मादाए करती हैं। यदि मादाएं अपने नर साथियों के सुन्दर रंगों, अलंकरणों और स्वरों की सराहना नहीं करती तो नर पक्षियों द्वारा मादाओं के समक्ष अपने लुभावन गुणों के प्रदर्शन की सारी मेहनत और चिन्ता बेकार की होते और यह बात असम्भ लगती है।
"एक निश्चित ढंग से सजे हुए निश्चित रंग और निश्चित स्वर क्यों आनन्दित करते हैं, इसे समझा पाना वैसे ही कठिन है जैसे यह कि कुछ निश्चित स्वाद और सुगन्ध क्यों अधिक रुचिकर लगते हैं। लेकिन पूरे विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि मनुष्य और निम्नतर श्रेणी के बहुतेरे प्राणी एक जैसे रंगों और एक जैसे स्वरो की पसन्द करते हैं।""
इस प्रकार, डार्विन द्वारा पेश किये गये तथ्य यह संकेत देते हैं कि निम्नतर श्रेणी के प्राणी भी, मनुष्य की भाँति हो, सौन्दर्य-सुख अनुभव करने में समर्थ होते हैं, और कि हमारी सौन्दर्यात्मक रुचियाँ कभी-कभी निम्नतर श्रेणी के प्राणियों की सौन्दर्यात्मक रुचियों से मेल खाती हैं। लेकिन इन तथ्यों से इन रुचियों की उत्पत्ति स्पष्ट नहीं होती। यदि जीवविज्ञान हमारी सौन्दर्यात्मक रुचियों की उत्पत्ति को स्पष्ट नहीं कर पाता, तो उनके ऐतिहासिक विकास को तो और भी स्पष्ट नहीं कर सकता। बहरहाल, डार्विन की और सुनें।
यह आगे कहता है, "जहां तक स्त्री-सौन्दर्य की बात है, सुन्दर के प्रति रुचि मानव मस्तिष्क की कोई विशिष्ट प्रकृति नहीं है, कारण कि यह मनुष्य की भिन्न-भिन्न नस्लों में काफी भिन्न-भिन्न होती है; यहाँ तक कि यह एक ही नस्ल के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में भी एक समान नहीं होती। अगर हम अधिकांश आदिवासी लोगों द्वारा पसन्द किये जाने वाले भद्दे अलंकरणों और वैसे ही भद्दे संगीत को देखें तो, दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी सौन्दर्यबोध की क्षमता उतनी विकसित नहीं होती, जितनी कि कुछ निश्चित प्राणियों में, उदाहरणस्वरूप, पक्षियों में होती है।"
अब यदि सुन्दर के प्रति धारणा एक ही नस्ल के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में * चाल्र्स डार्विन की 'दि डिसेण्ट ऑफ मैन' का रूसी अनुवाद, सेण्ट पीटर्सवर्ग, 1999, श्री. आई.एम. सेचेनोव द्वारा सम्पादित
*" वालेस की राय में, डार्विन ने प्राणियों के लैंगिक चवन में सौन्दर्यबोध के महत्व को काफी बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है। वालेस की बात कितनी सही है, इसका फैसला जीव वैज्ञानिकों पर छोड़ते हुए में वह मान लेता हूँ कि डार्विन का विचार बिल्कुल सही है, और आप इस बात से सहमत होंगे कि यह मान्यता मेरे उद्देश्य के लिए सबसे कम अनुकूल है।
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भिन्न-भिन्न हो सकती है, तो यह स्पष्ट ही है कि इस विभिन्नता का कारण जीवविज्ञान में नहीं खोजा जा सकता। डार्विन स्वयं कहता है कि हमारी यह खोज किसी और दिशा में निर्दिष्ट होनी चाहिए। उसकी पुस्तक के दूसरे अंग्रेजी संस्करण में, मेरे द्वारा ऊपर उद्धृत किये गये पैराग्राफ में निम्नलिखित शब्द देखने को मिलते हैं, जो पहले अंग्रेजी संस्करण के आई.एम. सेचेनोव द्वारा सम्पादित रूसी अनुवाद में नहीं है लेकिन सुसंस्कृत लोगों में ऐसे (अर्थात् सौन्दर्यात्मक) संवेदन संश्लिष्ट विचारों और विचार श्रृंखलाओं के साथ घनिष्ठता से जुड़े होते हैं।"
यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कथन है। यह हमें जीवविज्ञान से समाजशास्त्र की और निर्दिष्ट करता है, क्योंकि इससे स्पष्ट हो जाता है कि डार्विन के विचार से, सामाजिक कारण इस तथ्य को निर्धारित करते हैं कि सुसंस्कृत लोगों में सौन्दर्यात्मक संवेदन संश्लिष्ट विचारों के साथ जुड़े होते हैं। लेकिन डार्विन का यह सोचना क्या सही है कि ऐसे संवेदन केवल सुसंस्कृत लोगों में ही होते हैं? नहीं, उसका यह कहना सही नहीं है, और इसे आसानी से जाना जा सकता है। आइये, एक उदाहरण लें। सब जानते हैं कि प्राणियों की खालों, नाखूनों और दाँतों का आदिम लोगों के आभूषणों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका कारण क्या है? क्या इसका कारण इन वस्तुओं में रंग और रेखाओं के संयोजन में निहित है? नहीं, तथ्य यह है कि आदिम मनुष्य शेर की खाल, नाखून और दाँतों से या भैंस की खाल और सींगों से, खुद को अपनी फुर्ती और ताकत के प्रतीक के तौर पर सजाते हैं जिसने एक फुर्तीले शेर को हरा दिया हो, वह स्वयं फुर्तीला है, जिसने ताकतवर भैंसे को पछाड़ दिया हो, वह स्वयं ताकतवर है। इसमें अन्धविश्वास भी हो सकता है। स्कूलक्राफ्ट बताता है कि पश्चिमी अमेरिका के रेड इंण्डियन कबीले, अपने क्षेत्र में पाये जाने वाले सबसे खार जानवर, भूरे भालू, के नाखूनों से बने आभूषण पहनने के बेहद शौकीन होते हैं। इन रेड इण्डियन योद्धाओं का यह विश्वास है कि जो भी अपने आप को भूरे भालू के नाखूनों से सजाता है उसमें भालू जैसी ही उग्रता और साहस आ जाता है। उसके लिए, जैसा कि स्कूलकाफ्ट का कहना है, ये मासून अंशतः आभूषण होते हैं, और अंशतः ताबीज"
बेशक इस मामले में यह स्वीकार करना असम्भव है कि शुरू-शुरू में रेड इण्डियनों को जानवरों की खाल, नाखून और दौत इन चीजों के विशिष्ट रंग और
* दि डिसेण्ट ऑफ़ मैन, 1883, पृ. 92. ये शब्द सम्भवतः इस पुस्तक के नये रूसी अनुवाद में हैं, पर अभी वह मेरे पास नहीं है।
"कूल हिस्टॉरिकल ऐण्ड स्टेटिस्टिकल इंफॉर्मेशन रिस्पेक्टिंग दि हिस्ट्री कंग्रेशन एण्ड प्रॉस्पेक्ट्स ऑफ दि रेड इण्डियन ट्राइस ऑफ दि युनाइटेड स्टेट्स 5, 9.216
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रेखाओं के संयोजनों के कारण ही पसन्द आये थे। नहीं, इसके विपरीत सम्भव लगता है कि ये चीजें पहले-पहल मात्र साहस, फुर्ती और ताकत के प्रतीक के तौर पर धारण की गयी होंगी, और आगे चलकर साहस, फुर्ती और ताकत के प्रतीक होने के ही नाते, ये चीजें सौन्दर्यात्मक संवेदन जगाने लगीं और आभूषणों का रूप ग्रहण कर लिया। तब इसका मतलब यह है कि "आदिवासी लोगों में सौंदर्यात्मक संवेदनों को केवल संश्लिष्ट विचारों के साथ जोड़ा ही नहीं जा सकता" बल्कि कभी-कभी वे ठीक ऐसे विचारों के प्रभाव में ही उत्पन्न हो सकते हैं।
एक दूसरा उदाहरण लें। यह विदित है कि कई अफ्रीकी कबीलों की अपनी बाँहों और पैरों में लोहे के कड़े पहनती हैं। धनी लोगों की पलियाँ कभी-कभी तीस या चालीस पौण्ड के ऐसे आभूषणों से लदी रहती हैं।
निस्सन्देह वे आभूषण बेहद असुविधाजनक होते हैं, लेकिन तब भी दासता की ये बेड़ियाँ, जैसा कि श्वीनफर्व उन्हें कहता है, खुशी-खुशी पहनी जाती हैं। आखिर क्यों नीग्रो स्त्री इन भारी-भरकम बेड़ियों को पहनकर खुश होती है? इसलिए कि इनकी वजह से वह खुद को और दूसरों को सुन्दर प्रतीत होती है। लेकिन वह सुन्दर क्या प्रतीत होती है? स्पष्टतः यह विचारों के एक संश्लिष्ट संयोजन का ही परिणाम है। ऐसे आभूषणों के प्रति आसक्ति उन्हीं कबीलों में पायी जाती है, जो श्वीनफर्म के शब्दों में, लौह युग से होकर गुजर रहे होते हैं, अर्थात्, दूसरे शब्दों में, वे ऐसे कबीले हैं, जिनके लिए लोहा एक बहुमूल्य धातु है। बहुमूल्य चीजें इसलिए सुन्दर लगती है कि उनके साथ सम्पत्ति की धारणा जुड़ी होती है। जब डिंका कबीले की कोई स्त्री बीस पौण्ड लोहे के कड़े पहनती है तो वह खुद को और दूसरों को उस समय से ज्यादा सुन्दर लगती है जब वह सिर्फ दो पौण्ड लोहा पहनती थी, यानी जब वह गरीब थी। स्पष्ट है कि यहाँ कड़ों की सुन्दरता नहीं, बल्कि उनके साथ जुड़ी सम्पत्ति की धारणा का मोल है।
एक तीसरा उदाहरण जाम्बेजी के ऊपरी भाग में बाटोका कबीले के लोग उस आदमी को कुरूप मानते हैं जिसके ऊपरी नुकीले दात निकाल नहीं लिये गये होते. हैं। सौन्दर्य की यह विचित्र अवधारणा कैसे पैदा हुई? स्पष्टतः यह विचारों के सष्टि संयोजन से उत्पन्न हुई। बाटोका कबीले के लोग अपने ऊपरी दाँत इसलिए निकलवा लेते हैं कि वे जुगाली करने वाले जानवरों की भांति दिखना पसन्द करते हैं। यह समझ आनेवाली बात नहीं लगती। लेकिन बाटोका एक पशुपालक कबीला है और वे अपने गाय-बैलों की लगभग पूजा करते हैं। यहाँ भी वही बात है कि जो बहुमूल्य है वह सुन्दर है, और कि सौन्दर्यात्मक अवधारणाएँ बिल्कुल भिन्न किस्म के विचारों से
'कुछ मामलों में ऐसी वस्तुएँ केवल अपने रंग के कारण ही प्रिय लगती हैं, लेकिन इसके बारे में बाद में।
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उत्पन्न होती है।
अन्त में, स्वयं डार्विन द्वारा लिविंस्टन के हवाले से दिये गये एक उदाहरणको ले। माकोलोलो कबीले की स्त्रियां अपना ऊपरी होठ छिदवाती है और उसके छेद में धातु या बॉस का बड़ा-सा छल्ला पहनती है, जिसे पलेले कहा जाता है। जब इस कबीले के एक मुखिया से पूछा गया कि स्त्रियां इसे क्यों पहनती हैं, तो उसने "ऐसे मुर्खतापूर्ण सवाल पर स्पष्टतः आश्चर्य प्रकट करते हुए", जवाब दिया: सौन्दर्य के लिए। स्त्रियों के पास बस यही एक सुन्दर चीज है। पुरुषों के दाढ़ी होती है, स्त्रियों के तो होती नहीं। पलेले के बिना वे कैसी दिखेंगी?" यह बता पाना कठिन है कि पलेले पहनने का यह रिवाज कहाँ से आया, लेकिन, सरष्टतः इसकी शुरुआत विचारों के किसी बहुत संश्लिष्ट संयोजन में ही खोजनी होगी, न कि जीवविज्ञान के नियमों में, जिनका तनिक भी (प्रत्यक्ष) सम्बन्ध इस चलन से नहीं है।"*
इन उदाहरणों की रोशनी में, मैं कह सकता हूँ कि आदिम मनुष्य के मन में भी रंगों या वस्तुओं के रूपों के निश्चित संयोजनों द्वारा उत्पन्न संवेदन बहुत संश्लिष्ट विचारों के साथ जुड़े होते हैं, और ऐसे अनेक रूप और संयोजन केवल इसके कारण सुन्दर प्रतीत होते हैं।
ऐसे संवेदन कैसे उत्पन्न होते हैं? और वे संश्लिष्ट विचार कहाँ से आते हैं जो किन्हीं वस्तुओं को देखते ही हमारे भीतर होने वाले संवेदनों से सम्बद्ध होते हैं? जाहिर है कि जीववैज्ञानिक इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता, इनका उत्तर केवल समाजशास्त्री ही दे सकता है। और यदि इतिहास की भौतिकवादी दृष्टि, अन्य किसी भी दृष्टि की अपेक्षा, यह जवाब देने में अधिक सक्षम है; यदि हमें यह मालूम है कि उपर्युक्त सम्बद्ध और संश्लिष्ट विचार, अन्तिम रूप से, किसी समाज और उसकी अर्थव्यवस्था की उत्पादक शक्तियों की स्थिति द्वारा निर्धारित होते हैं, तो यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि डार्विनवाद इतिहास को उस भौतिकवादी दृष्टि का कतई निषेध नहीं करता जिसका वर्णन करने की मैंने कोशिश की है। मैं यहाँ पर डार्विनवाद और इतिहास की भौतिकवादी दृष्टि के बीच सम्बन्ध को लेकर बहुत विस्तार में नहीं जा सकता। लेकिन इस विषय पर कुछ और बातें अवश्य कहना चाहूँगा।
इन पंक्तियों पर गौर करें: "सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना उचित हैं कि मैं "यह नहीं कहना चाहता कि किसी भी सामाजिक प्राणी की बौद्धिक क्षमताएँ यदि मनुष्य की बौद्धिक क्षमताओं की भांति सक्रिय और विकसित हो जायें तो उसमें हमारे जैसा ही नैतिकता बोध आ जायेगा।
*आदिम समाज में उत्पादक शक्तियों के विकास के सम्बन्ध में इसकी व्याख्या में आगे फरूँगा।
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प्रत्ययवाद की एक और भी किस्म है, जिसकी अभिव्यक्ति हीगेल के निरपेक्ष प्रत्ययवाद में हुई। उसके दृष्टिकोण से मनुष्य के विकास का इतिहास कैसे व्याख्यायित किया गया? इसे मैं एक उदाहरण के जरिये स्पष्ट करना चाहूंगा। हीगल सवाल उठाता है: यूनान के पतन का क्या कारण था? वह इसके कई कारण बताता है, उसकी दृष्टि में, इसका मुख्य कारण यह था कि निरपेक्ष विचार के विकास में यूनान सिर्फ एक अवस्था को प्रतिबिम्बित करता था, और जब यह अवस्था गुजर गयी, तो उसका पतन होना ही था।
स्पष्ट है कि हीगेल के विचार से-हालांकि वह जानता था कि "लेसडाइमोन का पतन सम्पत्ति की असमानता के कारण हुआ"- सामाजिक सम्बन्धों और मानव-विकास के समूचे इतिहास का निर्धारण अन्ततः तर्क द्वारा, विचार के विकास द्वारा, होता है। इतिहास की भौतिकवादी दृष्टि इस दृष्टि के धुर विपरीत है। जहाँ सेण्ट-साइमन इतिहास को प्रत्ययवादी अवस्थिति से देखते हुए, यह मानता है कि यूनानियों के सामाजिक सम्बन्ध उनके धार्मिक विचारों के कारण बने थे, वहीं उसके विपरीत, मैं जो भौतिकवादी दृष्टि में विश्वास करता हूँ, यह कहना चाहूँगा कि यूनानियों की गण सभा ओलिम्पस उनकी सामाजिक प्रणाली का प्रतिबिम्बन थी। और, इस सवाल के जबाब में कि यूनानियों की धार्मिक दृष्टि कहाँ से पैदा हुई थी, जहाँ सेण्ट-साइमन कहता है कि यह उनकी वैज्ञानिक विश्व-दृष्टि से पैदा हुई थी, वहीं उसके विपरीत, मेरा मानना है कि यूनानियों की वैज्ञानिक विश्व दृष्टि स्वयं में, अपने ऐतिहासिक विकास के क्रम में, हेलेनिक लोगों (प्राचीन यूनानियों-अनु.) द्वारा किये गये उत्पादक शक्तियों के विकास से निर्धारित हुआ था।"
सामान्य रूप से मेरी इतिहास-दृष्टि यही है। क्या यह सही है? इसे सही सिद्ध करने का यह उपयुक्त अवसर नहीं है। यहाँ पर आपसे मैं यही चाहूँगा कि आप मान लें कि यह सही है, और इसे ही कला के बारे में हमारी जाँच-पड़ताल का प्रस्थान बिन्दु मानकर मेरे साथ चलें। कहने की जरूरत नहीं कि कला के इस विशिष्ट प्रश्न की
कई वर्ष पहले ए. एस्पिनास की पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ टेक्नोलॉजी' पेरिस में प्रकाशित हुई थी जो प्राचीन यूनानियों की विश्व-दृष्टि के विकास की व्याख्या उनकी उत्पादक शक्तियों के विकास से करने का एक प्रयास है। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और दिलचस्प प्रयास है जिसके लिए हमें एस्पिनास का आभारी होना चाहिए, इस तथ्य के बावजूद कि उसकी विवेचना में ब्योरों की कई गलतियाँ हैं।
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पड़ताल के साथ ही इसकी मेरी सामान्य दृष्टि की भी जाँच हो जायेगी। क्योंकि अगर यह सामान्य दृष्टि गलत है, तो इसे अपना प्रस्थान मान लेने के बाद, हम कला के विकास की व्याख्या करने में ज्यादा आगे नहीं बढ़ पायेंगे। लेकिन अगर हमें ऐसा लगे कि अन्य किसी दृष्टि की अपेक्षा, इस दृष्टि से कला के विकास की बेहतर व्याख्या की जा सकती है, तो इस दृष्टि के समर्थन में हमें एक नया और सशक्त तर्क हासिल हो जायेगा।
लेकिन यहाँ मुझे एक आपत्ति उठाये जाने का पूर्वाभास हो रहा है। डार्विन ने अपनी कृति, मनुष्य की उत्पत्ति (Descent of man and Selection in Relation to Sex) ढेरों तथ्य यह दर्शाने के लिए पेश किये हैं कि प्राणियों के जीवन में सौन्दर्य का बोध एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन तथ्यों की ओर इंगित किया जायेगा और यह नतीजा निकाला जायेगा कि सौन्दर्यबोध की उत्पत्ति की जीववैज्ञानिक व्याख्या की जानी चाहिए। और तब मुझसे यह कहा जा सकता है कि यह अस्वीकार्य ("संकीर्ण) है कि मनुष्यों में इस बोध की उत्पत्ति को एकमात्र उनके समाज के आर्थिक रूप से ही सम्बद्ध किया जाये और चूंकि प्रजातियों के विकास के बारे में डार्विन की दृष्टि भी एक भौतिकवादी दृष्टि ही है, इसलिए मुझसे यह भी कहा जा सकता है कि एकांगी ऐतिहासिक ("आर्थिक") भौतिकवाद की आलोचना के लिए जीववैज्ञानिक भौतिकवाद पर्याप्त सूचनाएँ प्रदान करता है।
इस आपत्ति की गम्भीरता को महसूस करता हूँ और इसीलिए इसकी विवेचना करना चाहूँगा। यह काफी उपयोगी होगा, क्योंकि इसका जवाब देने के दौरान ही, मैं ऐसी ही उन सभी आपत्तियों का भी जवाब दे सकूँगा, जो प्राणियों के मानसिक (psychical) जीवन के आधार पर उठायी जा सकती हैं।
सबसे पहले, यथासम्भव पूरी शुद्धता के साथ उस निष्कर्ष को परिभाषित करने की कोशिश करें जो डार्विन द्वारा पेश किये गये तथ्यों से निकाला जा सकता है और इसके लिए, देखते हैं कि इन तथ्यों से स्वयं डार्विन ने क्या निष्कर्ष निकाला है। मनुष्य की उत्पत्ति के बारे उसकी पुस्तक के अध्याय दो, खण्ड एक में हम पढ़ते
"सौन्दर्य का बोध इस बोध को सिर्फ मनुष्य की ही विशिष्टता घोषित किया गया है। लेकिन जब हम एक नर पक्षी को मादा पक्षी के सामने अपने खूबसूरत पंखों या शानदार रंगों को प्रदर्शित करते हुए देखते हैं, जबकि दूसरे पक्षी जो इतने सजीले नहीं होते, ऐसा प्रदर्शन नहीं करते, तब इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जातो कि मादा पक्षी अपने नर साथी के सौन्दर्य को पसन्द करती है। चूंकि हर जगह की स्त्रियाँ इन पंखों से अपने आप को सजाती हैं, इसलिए इन अलंकरणों के सौन्दर्य पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। मर्मर-पक्षी के घोंसले और ब्रोवर पक्षी के
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कलरव-कुंज रंग-बिरंगी वस्तुओं से सजे होते हैं। इससे पता चलता कर उसे सौन्दर्य की धारणा होती है। यही बात पक्षियों के गाने के बारे में भी कही जा सकती है प्रणय की ऋतु में अनेक नर पक्षी जो मधुर तान छेड़ते है, उसकी सराहना निशा ही मादाए करती हैं। यदि मादाएं अपने नर साथियों के सुन्दर रंगों, अलंकरणों और स्वरों की सराहना नहीं करती तो नर पक्षियों द्वारा मादाओं के समक्ष अपने लुभावन गुणों के प्रदर्शन की सारी मेहनत और चिन्ता बेकार की होते और यह बात असम्भ लगती है।
"एक निश्चित ढंग से सजे हुए निश्चित रंग और निश्चित स्वर क्यों आनन्दित करते हैं, इसे समझा पाना वैसे ही कठिन है जैसे यह कि कुछ निश्चित स्वाद और सुगन्ध क्यों अधिक रुचिकर लगते हैं। लेकिन पूरे विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि मनुष्य और निम्नतर श्रेणी के बहुतेरे प्राणी एक जैसे रंगों और एक जैसे स्वरो की पसन्द करते हैं।""
इस प्रकार, डार्विन द्वारा पेश किये गये तथ्य यह संकेत देते हैं कि निम्नतर श्रेणी के प्राणी भी, मनुष्य की भाँति हो, सौन्दर्य-सुख अनुभव करने में समर्थ होते हैं, और कि हमारी सौन्दर्यात्मक रुचियाँ कभी-कभी निम्नतर श्रेणी के प्राणियों की सौन्दर्यात्मक रुचियों से मेल खाती हैं। लेकिन इन तथ्यों से इन रुचियों की उत्पत्ति स्पष्ट नहीं होती। यदि जीवविज्ञान हमारी सौन्दर्यात्मक रुचियों की उत्पत्ति को स्पष्ट नहीं कर पाता, तो उनके ऐतिहासिक विकास को तो और भी स्पष्ट नहीं कर सकता। बहरहाल, डार्विन की और सुनें।
यह आगे कहता है, "जहां तक स्त्री-सौन्दर्य की बात है, सुन्दर के प्रति रुचि मानव मस्तिष्क की कोई विशिष्ट प्रकृति नहीं है, कारण कि यह मनुष्य की भिन्न-भिन्न नस्लों में काफी भिन्न-भिन्न होती है; यहाँ तक कि यह एक ही नस्ल के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में भी एक समान नहीं होती। अगर हम अधिकांश आदिवासी लोगों द्वारा पसन्द किये जाने वाले भद्दे अलंकरणों और वैसे ही भद्दे संगीत को देखें तो, दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी सौन्दर्यबोध की क्षमता उतनी विकसित नहीं होती, जितनी कि कुछ निश्चित प्राणियों में, उदाहरणस्वरूप, पक्षियों में होती है।"
अब यदि सुन्दर के प्रति धारणा एक ही नस्ल के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में * चाल्र्स डार्विन की 'दि डिसेण्ट ऑफ मैन' का रूसी अनुवाद, सेण्ट पीटर्सवर्ग, 1999, श्री. आई.एम. सेचेनोव द्वारा सम्पादित
*" वालेस की राय में, डार्विन ने प्राणियों के लैंगिक चवन में सौन्दर्यबोध के महत्व को काफी बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है। वालेस की बात कितनी सही है, इसका फैसला जीव वैज्ञानिकों पर छोड़ते हुए में वह मान लेता हूँ कि डार्विन का विचार बिल्कुल सही है, और आप इस बात से सहमत होंगे कि यह मान्यता मेरे उद्देश्य के लिए सबसे कम अनुकूल है।
34/ कला के सामाजिक उद्गम
भिन्न-भिन्न हो सकती है, तो यह स्पष्ट ही है कि इस विभिन्नता का कारण जीवविज्ञान में नहीं खोजा जा सकता। डार्विन स्वयं कहता है कि हमारी यह खोज किसी और दिशा में निर्दिष्ट होनी चाहिए। उसकी पुस्तक के दूसरे अंग्रेजी संस्करण में, मेरे द्वारा ऊपर उद्धृत किये गये पैराग्राफ में निम्नलिखित शब्द देखने को मिलते हैं, जो पहले अंग्रेजी संस्करण के आई.एम. सेचेनोव द्वारा सम्पादित रूसी अनुवाद में नहीं है लेकिन सुसंस्कृत लोगों में ऐसे (अर्थात् सौन्दर्यात्मक) संवेदन संश्लिष्ट विचारों और विचार श्रृंखलाओं के साथ घनिष्ठता से जुड़े होते हैं।"
यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कथन है। यह हमें जीवविज्ञान से समाजशास्त्र की और निर्दिष्ट करता है, क्योंकि इससे स्पष्ट हो जाता है कि डार्विन के विचार से, सामाजिक कारण इस तथ्य को निर्धारित करते हैं कि सुसंस्कृत लोगों में सौन्दर्यात्मक संवेदन संश्लिष्ट विचारों के साथ जुड़े होते हैं। लेकिन डार्विन का यह सोचना क्या सही है कि ऐसे संवेदन केवल सुसंस्कृत लोगों में ही होते हैं? नहीं, उसका यह कहना सही नहीं है, और इसे आसानी से जाना जा सकता है। आइये, एक उदाहरण लें। सब जानते हैं कि प्राणियों की खालों, नाखूनों और दाँतों का आदिम लोगों के आभूषणों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका कारण क्या है? क्या इसका कारण इन वस्तुओं में रंग और रेखाओं के संयोजन में निहित है? नहीं, तथ्य यह है कि आदिम मनुष्य शेर की खाल, नाखून और दाँतों से या भैंस की खाल और सींगों से, खुद को अपनी फुर्ती और ताकत के प्रतीक के तौर पर सजाते हैं जिसने एक फुर्तीले शेर को हरा दिया हो, वह स्वयं फुर्तीला है, जिसने ताकतवर भैंसे को पछाड़ दिया हो, वह स्वयं ताकतवर है। इसमें अन्धविश्वास भी हो सकता है। स्कूलक्राफ्ट बताता है कि पश्चिमी अमेरिका के रेड इंण्डियन कबीले, अपने क्षेत्र में पाये जाने वाले सबसे खार जानवर, भूरे भालू, के नाखूनों से बने आभूषण पहनने के बेहद शौकीन होते हैं। इन रेड इण्डियन योद्धाओं का यह विश्वास है कि जो भी अपने आप को भूरे भालू के नाखूनों से सजाता है उसमें भालू जैसी ही उग्रता और साहस आ जाता है। उसके लिए, जैसा कि स्कूलकाफ्ट का कहना है, ये मासून अंशतः आभूषण होते हैं, और अंशतः ताबीज"
बेशक इस मामले में यह स्वीकार करना असम्भव है कि शुरू-शुरू में रेड इण्डियनों को जानवरों की खाल, नाखून और दौत इन चीजों के विशिष्ट रंग और
* दि डिसेण्ट ऑफ़ मैन, 1883, पृ. 92. ये शब्द सम्भवतः इस पुस्तक के नये रूसी अनुवाद में हैं, पर अभी वह मेरे पास नहीं है।
"कूल हिस्टॉरिकल ऐण्ड स्टेटिस्टिकल इंफॉर्मेशन रिस्पेक्टिंग दि हिस्ट्री कंग्रेशन एण्ड प्रॉस्पेक्ट्स ऑफ दि रेड इण्डियन ट्राइस ऑफ दि युनाइटेड स्टेट्स 5, 9.216
असम्बोधित पत्र-एक / 35
रेखाओं के संयोजनों के कारण ही पसन्द आये थे। नहीं, इसके विपरीत सम्भव लगता है कि ये चीजें पहले-पहल मात्र साहस, फुर्ती और ताकत के प्रतीक के तौर पर धारण की गयी होंगी, और आगे चलकर साहस, फुर्ती और ताकत के प्रतीक होने के ही नाते, ये चीजें सौन्दर्यात्मक संवेदन जगाने लगीं और आभूषणों का रूप ग्रहण कर लिया। तब इसका मतलब यह है कि "आदिवासी लोगों में सौंदर्यात्मक संवेदनों को केवल संश्लिष्ट विचारों के साथ जोड़ा ही नहीं जा सकता" बल्कि कभी-कभी वे ठीक ऐसे विचारों के प्रभाव में ही उत्पन्न हो सकते हैं।
एक दूसरा उदाहरण लें। यह विदित है कि कई अफ्रीकी कबीलों की अपनी बाँहों और पैरों में लोहे के कड़े पहनती हैं। धनी लोगों की पलियाँ कभी-कभी तीस या चालीस पौण्ड के ऐसे आभूषणों से लदी रहती हैं।
निस्सन्देह वे आभूषण बेहद असुविधाजनक होते हैं, लेकिन तब भी दासता की ये बेड़ियाँ, जैसा कि श्वीनफर्व उन्हें कहता है, खुशी-खुशी पहनी जाती हैं। आखिर क्यों नीग्रो स्त्री इन भारी-भरकम बेड़ियों को पहनकर खुश होती है? इसलिए कि इनकी वजह से वह खुद को और दूसरों को सुन्दर प्रतीत होती है। लेकिन वह सुन्दर क्या प्रतीत होती है? स्पष्टतः यह विचारों के एक संश्लिष्ट संयोजन का ही परिणाम है। ऐसे आभूषणों के प्रति आसक्ति उन्हीं कबीलों में पायी जाती है, जो श्वीनफर्म के शब्दों में, लौह युग से होकर गुजर रहे होते हैं, अर्थात्, दूसरे शब्दों में, वे ऐसे कबीले हैं, जिनके लिए लोहा एक बहुमूल्य धातु है। बहुमूल्य चीजें इसलिए सुन्दर लगती है कि उनके साथ सम्पत्ति की धारणा जुड़ी होती है। जब डिंका कबीले की कोई स्त्री बीस पौण्ड लोहे के कड़े पहनती है तो वह खुद को और दूसरों को उस समय से ज्यादा सुन्दर लगती है जब वह सिर्फ दो पौण्ड लोहा पहनती थी, यानी जब वह गरीब थी। स्पष्ट है कि यहाँ कड़ों की सुन्दरता नहीं, बल्कि उनके साथ जुड़ी सम्पत्ति की धारणा का मोल है।
एक तीसरा उदाहरण जाम्बेजी के ऊपरी भाग में बाटोका कबीले के लोग उस आदमी को कुरूप मानते हैं जिसके ऊपरी नुकीले दात निकाल नहीं लिये गये होते. हैं। सौन्दर्य की यह विचित्र अवधारणा कैसे पैदा हुई? स्पष्टतः यह विचारों के सष्टि संयोजन से उत्पन्न हुई। बाटोका कबीले के लोग अपने ऊपरी दाँत इसलिए निकलवा लेते हैं कि वे जुगाली करने वाले जानवरों की भांति दिखना पसन्द करते हैं। यह समझ आनेवाली बात नहीं लगती। लेकिन बाटोका एक पशुपालक कबीला है और वे अपने गाय-बैलों की लगभग पूजा करते हैं। यहाँ भी वही बात है कि जो बहुमूल्य है वह सुन्दर है, और कि सौन्दर्यात्मक अवधारणाएँ बिल्कुल भिन्न किस्म के विचारों से
'कुछ मामलों में ऐसी वस्तुएँ केवल अपने रंग के कारण ही प्रिय लगती हैं, लेकिन इसके बारे में बाद में।
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उत्पन्न होती है।
अन्त में, स्वयं डार्विन द्वारा लिविंस्टन के हवाले से दिये गये एक उदाहरणको ले। माकोलोलो कबीले की स्त्रियां अपना ऊपरी होठ छिदवाती है और उसके छेद में धातु या बॉस का बड़ा-सा छल्ला पहनती है, जिसे पलेले कहा जाता है। जब इस कबीले के एक मुखिया से पूछा गया कि स्त्रियां इसे क्यों पहनती हैं, तो उसने "ऐसे मुर्खतापूर्ण सवाल पर स्पष्टतः आश्चर्य प्रकट करते हुए", जवाब दिया: सौन्दर्य के लिए। स्त्रियों के पास बस यही एक सुन्दर चीज है। पुरुषों के दाढ़ी होती है, स्त्रियों के तो होती नहीं। पलेले के बिना वे कैसी दिखेंगी?" यह बता पाना कठिन है कि पलेले पहनने का यह रिवाज कहाँ से आया, लेकिन, सरष्टतः इसकी शुरुआत विचारों के किसी बहुत संश्लिष्ट संयोजन में ही खोजनी होगी, न कि जीवविज्ञान के नियमों में, जिनका तनिक भी (प्रत्यक्ष) सम्बन्ध इस चलन से नहीं है।"*
इन उदाहरणों की रोशनी में, मैं कह सकता हूँ कि आदिम मनुष्य के मन में भी रंगों या वस्तुओं के रूपों के निश्चित संयोजनों द्वारा उत्पन्न संवेदन बहुत संश्लिष्ट विचारों के साथ जुड़े होते हैं, और ऐसे अनेक रूप और संयोजन केवल इसके कारण सुन्दर प्रतीत होते हैं।
ऐसे संवेदन कैसे उत्पन्न होते हैं? और वे संश्लिष्ट विचार कहाँ से आते हैं जो किन्हीं वस्तुओं को देखते ही हमारे भीतर होने वाले संवेदनों से सम्बद्ध होते हैं? जाहिर है कि जीववैज्ञानिक इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता, इनका उत्तर केवल समाजशास्त्री ही दे सकता है। और यदि इतिहास की भौतिकवादी दृष्टि, अन्य किसी भी दृष्टि की अपेक्षा, यह जवाब देने में अधिक सक्षम है; यदि हमें यह मालूम है कि उपर्युक्त सम्बद्ध और संश्लिष्ट विचार, अन्तिम रूप से, किसी समाज और उसकी अर्थव्यवस्था की उत्पादक शक्तियों की स्थिति द्वारा निर्धारित होते हैं, तो यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि डार्विनवाद इतिहास को उस भौतिकवादी दृष्टि का कतई निषेध नहीं करता जिसका वर्णन करने की मैंने कोशिश की है। मैं यहाँ पर डार्विनवाद और इतिहास की भौतिकवादी दृष्टि के बीच सम्बन्ध को लेकर बहुत विस्तार में नहीं जा सकता। लेकिन इस विषय पर कुछ और बातें अवश्य कहना चाहूँगा।
इन पंक्तियों पर गौर करें: "सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना उचित हैं कि मैं "यह नहीं कहना चाहता कि किसी भी सामाजिक प्राणी की बौद्धिक क्षमताएँ यदि मनुष्य की बौद्धिक क्षमताओं की भांति सक्रिय और विकसित हो जायें तो उसमें हमारे जैसा ही नैतिकता बोध आ जायेगा।
*आदिम समाज में उत्पादक शक्तियों के विकास के सम्बन्ध में इसकी व्याख्या में आगे फरूँगा।
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