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Friday, 19 August 2022

जन्माष्टमी पर कुछ बाते



१. मध्यम वर्ग के लिये कम्युनिष्ट बने रहना आसान नही

पूंजीवादी मुनाफे के मक्खन का एक छोटा सा हिस्सा हम पढ़े लिखे मध्यमवर्ग को भी आज मिल रहा है  और शायद इसलिये  धार्मिक अंधविश्वास का फफूंदी  हम कॉमरेडों के  बीच भी तेजी से फैला है।

पूंजीवादी कंश अक्सर नजरो से ओझल   हो जाता है, मक्खन खाते हुए सिर्फ कृष्ण दिखाई पड़ते है। किसानों के सर फोड़ने पर प्रशासन को लानत भेजे या न भेजे आज कल कामरेड  जन्माष्टमी की शुभकामनाएं भेजने में पीछे नही है। मध्यम वर्ग के लिये कम्युनिष्ट बने रहना आसान नही है।


जन्माष्टमी- Navneet Nav के वाल से

सीपीएम द्वारा जन्माष्टमी मनाने के पक्ष में कुछ कामरेड तर्क (अगर आप तर्क मानें तो) दे रहे हैं कि जनता से जुड़ने के लिए जनता के त्यौहारों में हिस्सा लेना पड़ता है। लेकिन इन कामरेडों से हम पूछना चाहेंगे कि जनता की रूढ़ियों को कौन तोड़ेगा? राहुल सांकृत्यायन ने ही यह भी कहा है कि "हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फ़ेंकने के लिए तैयार रहना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।" और यह भी कि "रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं है।"

अब रूढ़ियों को तोड़ने वाले उदाहरण अगर कम्युनिस्ट ही नहीं देंगे तो क्या आरएसएस देने आएगा? बोल्शेविकों का उदाहरण है। क्रांति पूर्व रूस में तमाम तरह की धार्मिक रूढ़ियाँ मौजूद थी लेकिन बोल्शेविक कभी भी किसी "बहाने" इन रूढ़ियों को फॉलो नहीं करते थे। लेकिन भारत के "कम्युनिस्ट" तो गजबै हैं। बहाना देखिये। लोगों से जुड़ने के लिए कर रहे हैं। कोई इनसे पूछे कि क्या और मुद्दे नहीं हैं लोगों से जुड़ने के? बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य, गरीबी, नशाखोरी न जाने कितनी समस्याएं देश समाज में विद्यमान हैं। क्या इनके खात्मे के लिए जनता के साथ संघर्ष करना काफी नहीं है जनता से जुड़ने के लिए? क्या खुद को मार्क्सवादी लेनिनवादी कहने वाले मार्क्स के कथन "धर्म जनता के लिए अफीम है" और लेनिन के कथन "नास्तिकता का प्रचार हमारे प्रचार तन्त्र का एक जरूरी हिस्सा है" को भूल गए हैं? मार्क्स लेनिन माओ को भी कभी जनता से जुड़ने के लिए जन्माष्टमी मनाने की जरूरत पड़ी थी? भगत सिंह ने कितनी जन्माष्टमियां मनाई थी? 


३. जन्माष्टमी और विश्व हिंदू परिषद द्वारा बिलकिस बानो के गैंग रेप करने वालो 11 दोषियों का माला पहनाकर स्वागत किया जाने के संदर्भ में

गिरीश मालवीय के वाल से


बलात्कारी भौमासुर का वध करने वाले और भरी सभा में द्रोपदी की लाज बचाने वाले श्रीकृष्ण के जन्मदिवस का पावन महोत्सव जन्माष्टमी आज पुरे देश में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है और उसी श्रीकृष्ण की कर्मस्थली गुजरात में विश्व हिंदू परिषद द्वारा बिलकिस बानो के गैंग रेप करने वालो 11 दोषियों का माला पहनाकर स्वागत किया जा रहा है

श्रीकृष्ण को स्त्री अधिकारों के अनन्य योद्धा माना जाता है वे मानते हैं कि स्त्री के सम्मान की रक्षा का जिम्मा सिर्फ उसके पति या निकटस्थ बंधु बांधवों का नही अपितु उसके सम्मान की रक्षा का दायित्व राज्य का है, समाज का है ।

श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं में स्त्री सम्मान के लिए उसकी मर्यादा की रक्षा के लिए हर सीमा को पार कर देते हैं और इसलिए हिन्दू धर्म में उन्हे आराध्य माना जाता है कृष्ण के देहांत से द्वापर युग की समाप्ति हुई और कलियुग की शुरूआत हुई 

वाकई कलियुग ही है जहां दिन रात सनातन धर्म और संस्कृति की बात करने वाला दल एक स्त्री का बलात्कार और उसके बंधु बांधवों की जघन्य हत्या करने वालो का फूलो की माला पहना कर सम्मान कर रहा है, और हमारा आज का यह सनातन धर्म के गौरव की बात करने वालो का हिन्दू समाज ऐसे कुकृत्य पर मौन सहमति दे रहा है

यह तो हुई इस गिरे हुए समाज की बात अब इस प्रकरण में राज्य की भूमिका भी जान लीजिए

मुंबई में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने 2008 में बिलकिस बानो के साथ गैंगरेप और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के आरोप में इन 11 अभियुक्तों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई थी. बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस सज़ा पर अपनी सहमति की मुहर लगाई थी.

उम्रक़ैद की सज़ा पाए क़ैदी को कम से कम चौदह साल जेल में बिताने ही होते हैं. चौदह साल के बाद उसकी फ़ाइल को एक बार फिर रिव्यू में डाला जाता है. उम्र, अपराध की प्रकृति, जेल में व्यवहार वगैरह के आधार पर उनकी सज़ा घटाई जा सकती है लेकिन इस प्रावधान के तहत हल्के जुर्म के आरोप में बंद क़ैदियों को छोड़ा जाता है. संगीन मामलों में ऐसा नहीं होता है.

फिर भी बिलकिस बानो से गैंगरेप और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या में सज़ा काट रहे सभी 11 दोषियों को 14 अगस्त 2022 को रिहा कर दिया गया

केंद्र सरकार ने सज़ा भुगत रहे कैदियों की सज़ा माफ़ी के बारे में सभी राज्यों को जून 2022 में जो दिशा निर्देश जारी किए थे उसमें भी ये ही कहा था कि उम्रकै़द की सज़ा भुगत रहे और बलात्कार के दोषी पाए गए क़ैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जानी चाहिए.

गुजरात के गृह विभाग ने 23 जनवरी 2014 को कै़दियों की सज़ा माफ़ी और समय से पहले रिहाई के लिए दिशानिर्देश और नीति जारी की थी उसमें भी ये साफ़ तौर पर कहा गया था कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सामूहिक हत्या के लिए और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के दोषी सज़ायाफ़्ता कैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जाएगी.

इस नीति में ये भी कहा गया था कि जिन क़ैदियों को दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 1946 के तहत की गई जांच (सीबीआई जांच) में अपराध का दोषी पाया गया, उनकी सज़ा भी माफ़ नहीं की जा सकती और न ही उन्हें समय से पहले रिहा किया जा सकता है.

बीबीसी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में कार्यरत वकील प्योली स्वतिजा कहती हैं कि ये उनकी समझ से बाहर है कि किस तरह गुजरात सरकार की कमिटी ने इस मामले के दोषियों की सज़ा माफ़ करके उन्हें रिहा करने का फै़सला किया. वे कहती हैं, "एक बार जब सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि सज़ा माफ़ी का फ़ैसला गुजरात सरकार ही कर सकती है तो गुजरात सरकार ने जो कमिटी बनाई उसके पास शक्तियां थीं लेकिन वो उन शक्तियों का इस्तेमाल आँख मूंदकर नहीं कर सकती थी. उनको ये ज़रूर देखना चाहिए था कि अपराध की प्रकृति क्या थी. इन पहलुओं को देखना ही होता है कि न केवल क़ैदी का व्यवहार कैसा है पर अपराध की प्रकृति क्या है. अगर अपराध की प्रकृति देखी जाती तो मुझे नहीं लगता कि एक अच्छे अंतःकरण वाली कमिटी कैसे इस तरह का फ़ैसला ले सकती थी."

आज ख़बर आई है कि इस अच्छे अंतःकरण वाली कमिटी मे अध्यक्ष थे पंचमहल के कलेक्टर सजल मायतरा और सदस्य थे.....गोधरा भाजपा सचिव स्नेहा भाटिया,भाजपा विधायक सी के राउजी,भाजपा विधायक सुमन चौहान, गोधरा नगर पालिका के पूर्व प्रमुख भाजपा के मुरलीधर मूलचंदानी 

यह है आज के देश समाज का हाल, आज रात 12 बजे लोग श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव तो जरूर मनाएंगे लेकिन समाज में चल रहे हैं ऐसे घोर पाप की चर्चा करना पसंद नही करेंगे !......


४. कृष्ण को कैसे देखे? प्रेमकुमार मणि

कृष्ण -जन्म 
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 कृष्ण को कैसे देखें 
 प्रेमकुमार मणि 

 कृष्ण के जन्मदिन को अष्टमी,जन्माष्टमी या कृष्णाष्टमी कहा जाता है . यह भाद्र मास के कृष्णपक्ष की आठवीं तारीख होती है . ध्यान दीजिए , भाद्र और कृष्ण पक्ष . हिन्दू मानस इसे पवित्र और मांगलिक नहीं मानता . राम का जन्म दिन नौमी होता है - चैत शुक्लपक्ष की नौवीं तारीख . सब कुछ मांगलिक . कृष्ण ने अपने लिए शुक्ल नहीं, कृष्णपक्ष चुना . कुछ रहस्य की  प्रतीति  होती है . 
 
   रहस्य इसलिए कि कृष्ण इतिहास पुरुष नहीं ,पुराण -पुरुष हैं . जैसे राम या परशुराम . इतिहास पुरुषों का  जन्म संयोग होता है . पुराण -पुरुषों का जन्म तय- शुदा होता है . वे अवतार लेते हैं ,जन्म नहीं . उनका अपना सब कुछ चुनना पड़ता है .जन्म की तारीख से लेकर कुल ,कुक्षि सब . सबके कुछ मतलब होते हैं .जैसे किसी कथा या उपन्यास में दर्ज़ हर पात्र या घटना के कुछ मतलब होते हैं . कृष्ण ने यदि यह कृष्ण पक्ष और भाद्र जैसा अपावन मास चुना है ,तब इसके मतलब हैं . 

 हिन्दू  पौराणिकता ने जो युग निर्धारित किये हैं ,उसमे राम पहले आते हैं .कृष्ण बाद में .राम का युग त्रेता है ,कृष्ण का द्वापर . दोनों के व्यक्तित्व और युग चेतना को लेकर दो खूबसूरत और वृहद् काव्य ग्रन्थ लिखे गए हैं -रामायण और महाभारत . इन कथाओं को लेकर भारतीय वांग्मय में हज़ारों काव्य व कथाएं लिखी गयी हैं . आश्चर्य है कि तीसरा पौराणिक पुरुष परशुराम रामायण और महाभारत दोनों में है . यही तो पौराणिकता और कल्पनाशीलता  का जादू है . 

  राम को हमारे यहाँ पूर्णावतार नहीं माना गया ., कृष्ण पूर्णावतार हैं . हिन्दू पौराणिकता की यह विकासवादी पद्धति मुझे पसंद है .जो भी बाद में होता है वह अपेक्षया अधिक पूर्ण होता है . हालांकि हिन्दू चिंतन ही अनेक मामलों में इसका खंडन भी करता है . युग व्यवस्था में  सतयुग पहले आता है और वह पूर्ण है ; कलयुग सबसे आखिर में ,और वह अपूर्ण व दोषित है . इसका रहस्य आज तक मुझे समझ में नहीं आया . 
 
  कृष्ण को लेकर कई तरह की रूप -छवियां मेरे मन में बनती रही हैं .उनका जीवन चरित जितना मनोरम और चित्ताकर्षक है ,उतना संभवतः किसी अन्य का नहीं . कारागार में जन्म ,हज़ार कठिनाइयों के साथ उनका गोकुल पहुंचना , बचपन से ही संकट पर संकट ; लाख तरह के टोने , जाने कितनी पूतनाएँ - कितने शत्रु - और सबसे जूझते गोपाल कृष्ण  श्रीकृष्ण बनते हैं .कोई योगी कहता है ,कोई भोगी , कोई शांति का परम पुजारी कहता है ,कोई महाभारत जैसे संग्राम का सूत्रधार ; कोई मर्यादा का परम रक्षक  मानता है ,कोई परम भंजक . इतने अंतर्विरोधी ध्रुवों से मंडित है श्रीकृष्ण का चरित्र . एक द्वंद्वात्मक चरित्र है कृष्ण का ; गतिशील ,लेकिन लय- हीन  नहीं . इसीलिए कृष्ण का चरित्र रचनात्मक है ,सम्यक है और यही रचनात्मकता उन्हें पूर्णता प्रदान करती है . उनके इसी चरित्र को लेकर तमाम हिन्दू ग्रंथों ने उन्हें प्रभु या ईश्वर का पूर्णावतार माना है . इसी पूर्णता पर रीझ कर हिन्दू जन - मानस उन्हें ईश्वर कहता है ,अपना सब कुछ . 

   श्रीकृष्ण के अनेक रूप हैं और इनकी विविधता को लेकर अनेक लोग भ्रमित हो जाते हैं कि क्या ये सभी कृष्ण एक ही कृष्ण के विकास हैं या फिर अलग -अलग हैं .कई लोगों ने कई कृष्णों की बात की है . वे लोग गोपाल कृष्ण ,देवकीपुत्र कृष्ण ,योगेश्वर  कृष्ण और गीता   के कृष्ण को अलग -अलग मानते  हैं . सचमुच इन चरित्रों की जो विविधताएं हैं  वह किसी को भी चक्कर में डाल सकती हैं .कोई कैसे विश्वास करे कि गौवों के साथ सुबह से शाम तक वन -वन घूमने वाला ,बासी रोटी खाने वाला , मक्खन चुराने वाला ,हज़ार -हज़ार शरारतें करने वाला कृष्ण वही कृष्ण है ,जिस पर जमाने की सारी कुमारियाँ रीझी हुई हैं .जो कृष्ण वृंदा  और राधा के प्रेम में आपादमस्तक डूबा हुआ है , वही कृष्ण छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार ऋषि सांदीपनि के आश्रम में कठिन त्याग -तपस्या के द्वारा शास्त्रों के अध्ययन में भी तल्लीन है . जो कृष्ण अनेकों बार युद्ध से भाग खड़ा हुआ है ,वही अपने युग के सबसे बड़े संग्राम का निदेशक और विजेता है . वीर जिसकी प्रभुवत वंदना करते हैं , वही कृष्ण उस महासमर में भृत्यवत  सारथी -ड्राइवर - बन जाता है . देवता तक जिसकी कृपा के आकांक्षी हैं ,वह कृष्ण युधिष्ठिर के यज्ञ में लोगों के पाँव पखारते और जूठी पत्तल उठाते दिखते हैं . कृष्ण के जीवन की यह विविधता हमें हैरत में डाल देती है . वह हमारे कानों में फुसफुसाते स्वर में कहते हैं -- महान बनने केलिए सामान्य बनना पड़ता है मित्र ! मैं अपनी सृष्टि का सेवक भी हूँ और नायक भी .यज्ञ का जूठन भी उठाता हूँ और पौरोहित्य भी करता हूँ . 

इतिहास और समाजशास्त्र के विद्वानों को भी कृष्ण का जीवन आकर्षित करता है . ईसापूर्व चौथी सदी में ,यूनानियों ने जब भारत पर आक्रमण किया तब उन्होंने देखा कि पंजाब के मैदानी इलाके में हेराक्लीज से मिलते -जुलते एक नर -देवता की पूजा का प्रचलन है . प्रसिद्ध इतिहासकार डी डी कोसंबी कहते हैं कि वह कृष्ण ही हैं . यूनानियों ने अपने जिस देवता हेराक्लीज से कृष्ण की तुलना की थी ,उसके जीवन और कृष्ण के जीवन में थोड़ा- सा ही सही , लेकिन सचमुच का साम्य है . हेराक्लीज एक योद्धा है ,जो कड़ी धूप में तपकर सांवला हो गया है . हेराक्लीज ने भी कालिय नाग से मिलते -जुलते एक बहुमुखी जल- सर्प ,जिसे हाइड्रा कहा जाता है , का वध किया था . उसने भी अनेक अप्सराओं -रमणियों से विवाह किया था . 

कोसंबी के अनुसार पंजाब की किसान जातियों को अपनी जरुरत के अनुसार एक देवता चाहिए था . कृष्ण का चरित्र किसानो की जरुरत के अनुकूल था . कृष्ण गौतम बुद्ध की तरह यज्ञों का सीधे विरोध नहीं करते ,लेकिन किसी ऐसे यज्ञ में कृष्ण की स्तुति नहीं की जाती ,जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है . वैदिक देवता इंद्र के विरुद्ध कृष्ण खुल कर खड़े हो जाते हैं . तमाम गोकुलों के कम्यूनों में उन्होंने इंद्र की पूजा बंद करवा दी थी और इसकी जगह प्रतीक- स्वरूप पहाड़ (गोबर्धन ) की पूजा की शुरुआत की ,जिस पर गोपालकों की गायें चरती थीं . उनके भाई बलराम तो हल को उसी रूप में लिए होते थे ,जिस रूप में हमारे ज़माने के जवाहरलाल जी गुलाब का फूल . किसानों को ऐसे ही नायक की जरुरत थी . गोपालक और हलधर . कृष्ण -बलराम . अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'पुनर्नवा' में हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने लोरिक -चंदा की लोक कथा को जो औपन्यासिक रूप दिया है , उस से भी यही संकेत मिलता है . 

  कन्नड़ लेखक भैरप्पा ने महाभारत -कथा को अभिनव कथा का रूप दिया है ,अपने उपन्यास 'पर्व ' में . इस उपन्यास का कृष्ण जननायक है . वह युद्ध के मैदान में कुलीनता की शेखी और वर्णसंकरता की चिंता बघार रहे अर्जुन से कहता है -- " ..युद्ध में पुरुष मरते हैं .स्त्रियां आश्रयहीन हो जाती हैं . बाद में स्त्रियां परपुरुषों के हाथ पड़  जाती हैं ,बलात्कार से या  अपनी इच्छा से . जो भी हो ,यह सब होता ही है . पर तुम यह  सब क्यों सोचते हो कि केवल क्षत्रिय स्त्रियों के साथ यह सब होने से ही अनर्थ होता है ? ...आर्य स्त्रियों केलिए तो पवित्रता चाहिए , दूसरी स्त्रियों केलिए क्यों नहीं ? क्या तुम्हार पड़दादी आर्य थी ? भीष्म की माता गंगा क्या आर्य थी ? तुमने उलूपी के साथ विवाह कर के एक वर्ष तक गृहस्थ जीवन बिताया , क्या वह आर्य थी ? क्या पहले कभी हमारे -तुम्हारे वंश में आर्येतर लोग आकर नहीं मिले ? तुम जिसे बहू बना कर लाये हो , उस उत्तरा की माँ सुदेष्णा आर्य होने पर भी सूत कुल की नहीं है क्या ? यदि पवित्रता जैसी कोई चीज है तो वह उनके पास भी है और हमारी स्त्रियों के पास भी . इस प्रकार के भेद भाव करना अहंकार की बात होगी "  

    कृष्ण आगे कहते हैं -- " भीष्म ,द्रोण की बात लो . दुर्योधन का कहना है कि तुमलोग पाण्डुपुत्र नहीं हो .वे लोग उसकी ओर मिल चुके हैं . इसका अर्थ यह हुआ कि वे लोग भी उसी की बात मानते हैं .यदि तुमलोग यह मानते हो कि वे बड़े धर्मात्मा हैं तो यह अर्थ निकला कि तुम लोग व्यभिचार से जन्मे हो .क्या तुम यह मानते हो कि तुम व्यभिचार की संतान हो ? .. " 

  कृष्ण ने अर्जुन की सवर्ण -कुलीन मानसिकता की धज्जियाँ उड़ा दी . और इस मनोविकार के दूर होने पर ही उसे दिव्यज्ञान की प्राप्ति होती है . युद्ध करो ,लेकिन धर्म केलिए ; अधर्म केलिए युद्ध कभी मत करो . यही क्षात्रधर्म है और मानव -धर्म भी . 

कृष्ण का एक दार्शनिक रूप भी है . कुछ लोगों केलिए तो वह भारतीय दर्शन के पर्याय बन चुके हैं . गीता को पर्याप्त संशोधित कर उसे और कृष्ण -चरित्र को  वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुकूल बनाने की कोशिश की गयी है . लेकिन कृष्ण का जो क्रांतिधर्मी चरित्र किसान -दस्तकार जनता ने बनाया ,इस देश के नारी समाज ने बनाया ,वह अत्यंत उदार है . उनका मुकाबला बस एक ही व्यक्ति से है ,वह है बुद्ध . लेकिन दोनों में भेद नहीं , अन्तर्सम्बन्ध दिखते हैं . यूरोपीय लेखक रेनन ने अपनी किताब 'लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट ' में लिखा है -' क्राइस्ट शब्द में कुछ बौद्ध जरूर है . ' वह क्राइस्ट पर बुद्ध की छाया देखते हैं . हमे कृष्ण पर बुद्ध और क्राइस्ट दोनों के तत्व मिलते हैं . प्रेम ,करुणा और प्रज्ञा से ओत-प्रोत है कृष्ण का चरित्र . 

बुद्ध और कृष्ण दोनों हमे भयमुक्त होने की शिक्षा देते हैं . मृत्यु का भय हमेशा लोगों के मन को मथता रहा है . बुद्ध और कृष्ण के जमाने से लेकर आज ज्यां पाल सार्त्र और अल्बेर कामू के जमाने तक .सभी देशों के दर्शन और साहित्य पर इस भय की परछाई डोलती दिखती है .गीता का अर्जुन भयग्रस्त है . कृष्ण बतलाते हैं , दुनिया को खंड -खंड में मत देखो ,सातत्य में देखो , नैरंतर्य में देखों , प्रवाह में देखो . जहाँ प्रवाहमयता है ,वहां स्थिरता नहीं है , और जहाँ स्थिरता  नहीं है वहां द्वंद्वात्मकता है . कुछ भी स्थिर नहीं है यहां ;न नाम न रूप . हर क्षण विनाश और सृष्टि . विनाश और सृष्टि साथ -साथ . यही है जीवन और जगत की चयापचयता -मेटाबोलिज्म - यही प्रतीत्यसमुत्पाद है और जरा सा ही भिन्न रूप में वेदांत भी .   
  
(कादम्बिनी ,सितम्बर 2018  में प्रकाशित )




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