महानगर में कविता : कुछ नोट्स
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* विजय कुमार
अली सरदार जाफरी साहब की एक मशहूर नज़्म है मुंबई पर-
न जाने क्या कशिश है बम्बई तेरे शबिस्तां में
कि हम शामे-अवध, सुब्हे-बनारस छोड़ आये हैं
तेरे ज़िंदा की तारीकी में रातें हमने काटी हैं
तेरी सड़कों पे सोए, तेरी बारिश में नहाए हैं
कभी अश्कों के तारे आस की पलकों से टूटे हैं
कभी उम्मीद के दामन में मोती जगमगाए हैं
मगर फिर भी हमारा आलमे-मिहर-ओ-वफ़ा यह है
कि तुझको लखनऊ की तरह सीने से लगाए हैं
स्थानिकताओं के अपने इतिहास होते हैं- कुछ ज्ञातऔर कुछ अज्ञात।इस महानगर में देश के अन्य इलाकों से लेखकों - साहित्यकारों की कितनी ही पीढ़ियां आईं और फिर यहीं रच बस गईं। इस शहर में उनका जीवन , अपने समय और परिवेश की समझ और अपनी रचना धर्मिता में बुने गए उनके अनुभवों की एक लंबी दास्तान है।
युद्धोत्तर समय से लेकर आज तक हिंदी कवियों की अनेक पीढियां यहां विकसित हुईं हैं । उनके रचनात्मक योगदान की विविधरंगी छटाएं हैं । हिंदी के वे अनेक छोटे - बड़े कवि जो इस महानगर के बाशिंदे बने , अपनी जड़ - ज़मीन और अपने गांव - कस्बों से उखड़ कर यहाँ आये - कवि पीढ़ियों का यह इतिहास बीसवीं सदी में दूसरे महायुध्द के आसपास या उसके बाद के वर्षों में आकार लेता है । इस शहर की आबोहवा को इन कवियों ने आत्मसात किया, जीवकोपार्जन के लिए छोटी -बड़ी नौकरियां की, वे कल - कारखानों में श्रमिक बने , व्यापारिक संस्थानों या स्कूल कॉलेजों से जुड़े , अखबारों और आकाशवाणी में सेवारत रहे, सिनेमा में लेखन किया , साहित्यिक संस्थाए बनायीं, कवि सम्मेलनों के मंच पर अपनी कविताएं पढ़ीं और इस बहुभाषी महानगर में हिंदी कविता के एक वातावरण को रचा । इन रचनाकारों के जीवन और कृतित्व में कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त रूप से इस शहर का एक इतिहास बोलता रहा । कहीं कोई स्वप्न , कहीं वर्तमान का संघर्ष ,कुछ तल्ख अनुभव, यहाँ की दौड़ - भाग , मरना - खटना , परदेसी होने के विशिष्ट अनुभव , मिलन और बिछोह , भीड़ और अकेलापन, उम्मीद और हताशाएं , टूटन और थकन , कुछ नैतिक मूल्य और आदर्श । और इसी के साथ पीछे छूट गए गांव -घर ,नदी , अमराई ,खेत- खलिहान , ऋतुओ और पर्व त्योहारों की स्मृतियाँ । बेहद दिलचस्प हैं उनके जिये हुए परिवेश , उनकी अनुभव की वह सम्पदा और उनकी रचनाओ में धड़कती जीवन लय। यह ज़रूरी नहीं कि हर रचनाकार युग पुरुष ही बन जाये और हर रचना कालजयी कहलाये , लेकिन ऐसे अनेकानेक स्वर मिलकर एक समूचे समय और परिवेश का लैंडस्केप ज़रूर बनाते हैं । स्थानिकताओं के अलिखित अध्याय शायद सबसे रोचक होते हैं।
चालीस के दशक में प्रगतिशील लेखक संगठन का गठन यहाँ हुआ और । उसकी पहली सभा चर्नी रोड स्थित मारवाड़ी विद्यालय में हुई थी। सीपीआई के नेता पीसी जोशी और सांस्कृतिक मोर्चे के सेनानी सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों के प्रयत्न से मुंबई में तरक्कीपसन्द लेखकों कवियों का एक ' कम्यून ' भी बना था। हिंदी कवि शील के साथ साथ नेमिचन्द्र जैन दम्पति (पत्नी रंगकर्मी रेखा जैन )उस कम्यून में कुछ समय तक रहे थे। इसके थोड़ा पहले स्वतंत्रता पूर्व के उन दशकों में प्रेमचंद , उदय शंकर भट्ट, रामविलास शर्मा ,शमशेर ,भगवती चरण वर्मा और उपेंद्र नाथ अश्क जैसे साहित्यकारों का कुछ समय मुंबई शहर में प्रवास रहा । चालीस के दशक में भगवती चरण वर्मा बॉम्बे टाकीज में फ़िल्म लेखन कर रहे थे और उन्होंने यहां रहकर दैनिक 'नवजीवन ' का सम्पादन भी किया। 1953 में प्रकाशित भगवती बाबू का उपन्यास 'आखिरी दांव' उनके फिल्मी जीवन के अनुभवों पर आधारित है।यह सच है कि हिंदी के इन विख्यात साहित्यकारों की इस शहर में उपस्थिति की कोई भी महत्वपूर्ण स्मृति अब यहां के स्थानीय लोगों में नहीं है पर फिर भी वह इस शहर की साहित्यिकता का एक महत्वपूर्ण इतिहास है।
पं. प्रदीप, पं. नरेंद्र शर्मा, भरत व्यास और सरस्वती कुमार दीपक जैसे हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि लगभग समवयस्क थे। ये सभी बीसवीं सदी में पहले महायुध्द के आसपास के वर्षों में जन्मे थे । चालीस के दशक के आरंभिक वर्षों में ये कवि अपनी युवावस्था में बम्बई आते हैं और यहां सिनेमा की दुनिया से जुड़ते हैं।पं. प्रदीप का 1940 में बॉम्बे टाकीज की फ़िल्म' 'बंधन' के लिए सरस्वती देवी के संगीत निर्देशन में रचा गया गीत ' चल चल रे नौजवान ' उन्हें दर घर मे लोकप्रिय बना देता है। फ़िल्म ' किस्मत ' के गीत 'दूर हटो के दुनियावालो , हिंदुस्तान हमारा है' की वजह से वे ब्रिटिश सरकार के कोप भाजन बनते हैं और उन्हें भूमिगत होना पड़ता है।
पं. प्रदीप के बाद पं.नरेंद्र शर्मा की यात्रा 1943 में बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म' हमारी बात' से आरम्भ होती है । लगभग 100 फिल्मों में उन्होंने गीत लिखे। पचास के दशक में पंडित नेहरू के अनुरोध पर वे ऑल इंडिया रेडियो की शाखा 'विविध भारती ' आरम्भ करते हैं और देश के सांस्कृतिक जगत का एक नया सोपान खुलता है।
भरत व्यास ने 1943 में पहली बार फ़िल्म 'दुहाई'के लिए गीत लिखा था। वी. शांताराम की फ़िल्म 'दो आँखे बारह हाथ'मे उनके लिखे गीत 'ऐ मालिक तेरे बन्दे हम ' ने एक क्लासिक का दर्जा पाया।सरस्वती कुमार दीपक ने लगभग 100 फिल्मों में 400 गीत लिखे।'सुहागन ', बूट पॉलिश ', 'आग 'और 'अफसाना 'जैसी फिल्मों के उनके गीत आज भी याद किये जाते हैं। कुछ बाद में आये शंकर शैलेन्द्र यहाँ वामपंथी सांस्कृतिक मोर्चे और 'इप्टा ' से जुड़े हुए थे और माटुंगा रेलवे वर्कशॉप मे श्रमिक थे।1949 में राजकपूर की फ़िल्म 'बरसात 'से शरू हुआ उनका सफ़र उन्हें हिंदी सिनेमा का एक शिखर गीतकार बना देता है। इंदीवर और अनजान भी लोकप्रिय सिने गीतकारों के रूप में उभरे । नीलकंठ तिवारी ने भी अनेक फिल्मों में गीत लिखे ।
सिने संसार से जुड़े इन लोकप्रिय गीतकारों के समानान्तर कवि सम्मेलन मंच के गीतकारों की एक बड़ी संख्या यहाँ रही । इसके अलावा कविता की एक धारा वह थी जिसे अकादमिक जगत के हिंदी प्राध्यापकों ने मूर्त किया। वंशीधर पंडा ,अनंत कुमार पाषाण, श्रीहरि , नंदलाल पाठक ,सुधाकर मिश्र ,हनुमंत नायडू ,शिवाधार शुक्ल , शोभनाथ यादव आदि ने हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण पहचान यहां बनाई। इसमें परम्परागत गीत ,ग़ज़ल और मुक्तक से लेकर आधुनिक छंद - मुक्त कविता तक रचनाधर्मिता के अनेक रूपाकार उभरे।
गीतकारों और अकादमिक जगत के कवियों से अलग एक तीसरी धारा उन वरिष्ठ कवियों की रही जो हिंदी पत्रकारिता और कविता के आधुनिक बोध से जुड़े । इनकी रचनाओं में समसायिक सन्दर्भो , साहित्य के एक व्यापक जगत से सम्वाद और कविता के नये मुहावरे की प्रमुखता रही। इनमें धर्मयुग के सम्पादक और नयी कविता के चर्चित हस्ताक्षर डॉ. धर्मवीर भारती का नाम तो प्रमुखता से उभरता ही है पर उन्हीं के साथ वीरेन्द्र कुमार जैन ,अनन्त कुमार पाषाण , वसन्त देव , रामावतार चेतन ,कन्हैयालाल नंदन आदि के योगदान को भी हमेशा याद किया जाता रहेगा।' नयी कविता ' युग की चर्चित कवयित्री कीर्ति चौधरी अपने पति ओंकारनाथ श्रीवास्तव के साथ लदंन स्थानान्तरित होने से पहले साठ के दशक में अनेक वर्षों तक बम्बई में रहीं ।
समय करवट बदलता है।साठ और सत्तर के दशक में शहर और कविता के रिश्तों को बुनती एक युवा पीढी इस शहर में आकार लेती है । उन वर्षों में हिंदी प्रदेश में उभरी युवा लेखन की मुख्य धारा के समानांतर एक उपधारा इस महानगर में ऐसी युवा पीढी की थी जिसने अपना होश ही इस महानगर में सम्भाला था । बदलते दृश्य में ये सांस्कृतिक दृष्टि से ये बड़े परिवर्तन थे। साठ के दशक के उन अंतिम वर्षों में जब कुछ युवा कवि यहां उभर रहे थे तो उन्हीं के समांतर इस महानगर में कहानी विधा में भी जितेंद्र भाटिया, सुदीप,विश्वेश्वर, निरुपमा सेवती , हृदय लानी, राम अरोड़ा और साजिद रशीद जैसे कुछ युवा कथाकार उभर रहे थे। उन्हीं वर्षों में यहाँ थियेटर बड़े सभागारों से निकल कर प्रयोगात्मक नाट्य आंदोलन के रूप में दादर के छबीलदास स्कूल के सादा से अंतरंग सभागार में पहुंच रहा था। मराठी में दलित कविता की धूम थी। इन सांस्कृतिक परिवर्तनों के बीच हिंदी कविता में वह युवा पीढी यहां उभरी जो इस शहर को अपना 'परदेस' नहीं मानती थी। उसमें पीछे छूट गए की स्मृतियाँ नहीं ,अपने वर्तमान की तल्खी थी। इस युवा पीढी का स्वभाव , लेखन की विषय वस्तु , शैली , प्राथमिकताएं अपनी पिछली पीढ़ियों से भिन्न थीं । साठ और सत्तर के ये दशक बहुत तीव्र उथल - पुथल से भरे हुए थे। समय, समाज और संस्कृति को लेकर यह एक तीव्र मोहभंग का समय था। इन युवाओं का हिन्दी क्षेत्र की तमाम लघु पत्रिकाओं और नव लेखन की बहसों से एक निकट सम्बन्ध बन रहा था। कविता के परिदृश्य में एक तरुणाई और एक नयी चेतना के साथ जो कवि यहाँ उभरे उनमें कुंतल कुमार जैन , अक्षय जैन , सोहन शर्मा , विश्वनाथ सचदेव ,सतीश वर्मा, यज्ञ शर्मा, विनोद गोदरे, महेंद्र कार्तिकेय , मनोज सोनकर , विजय कुमार , हरजिंदर सेठी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। देश भर में युवा लेखन की सरगर्मी थी। पहली बार इस शहर में भी युवा लेखन की एक संस्था 'क्रमशः ' गठित होती है। पीछे मुड़कर देखो तो आज ये घटनाएं किसी महत्वपूर्ण मोड़ की तरह से प्रतीत होती हैं। साठ के दशक के अंतिम वर्षों में रुइया कॉलेज में 'क्रमशः ' की ओर से 'कविता की एक शाम' नाम से मुंबई के इन युवा कवियों की एक महत्वपूर्ण गोष्ठी हुई थी , जिसमें आठ युवा कवियों ने काव्य पाठ किया और धर्मवीर भारती उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे । भारती जी जैसे शिखर व्यक्तित्व की ऐसे किसी कार्यक्रम में सहभागिता ही एक बड़ी बात थी। बदलते समय और युवा कविता के नए मिजाज पर राम मनोहर त्रिपाठी और डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर जैसे वरिष्ठों ने इस गोष्ठी में अपने महत्वपूर्ण पर्चे पढे थे। युवा रचनाशीलता के व्यवस्था विरोधी स्वर और अंदाज़ से असहमत धर्मवीर भारती ने कार्यक्रम में अपने अध्यक्षीय व्याख्यान में युवाओं के बागी तेवर को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठाए थे ।वह एक विचारोत्तेजक , असहमतियों , संवेदना दृष्टि की टकराहटों और बहसों से भरा समय था। स्वयं भारती जी ने यह स्वीकार किया कि बम्बई महानगर में रचनाशीलता का ऐसा जीवंत दृश्य उन्होंने पहली बार देखा है और उभरते हुए युवाओं के महत्व को अस्वीकार करना किसी के लिए संभव नहीं है । उन्हीं दिनों अक्षय जैन , रविनाथ सिंह और मनोज सोनकर का एक संयुक्त कविता संग्रह 'पंख कटा मेघदूत 'नाम से प्रकाशित हुआ था और तभी वरिष्ठ कवयित्री कीर्ति चौधरी का भी कविता संग्रह 'खुले आसमान के नीचे' शीर्षक से आया था।के. सी. कॉलेज में इन दो कविता संग्रहों की समीक्षा के बहाने धर्मवीर भारती की ही उपस्थिति में ' युवा लेखन बनाम पिछली पीढी की रचनाशीलता ' को लेकर एक विचारोत्तेजक और तीखी गोष्ठी हुई थी। और इसके कुछ समय बाद मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ सी .एल. प्रभात ने 'कविता ' नाम से नवलेखन की कविताओं का एक महत्वपूर्ण संकलन संपादित किया था जिसमें अक्षय जैन ,कुंतल कुमार जैन ,नामवर ,मनोज सोनकर, रविनाथ सिंह ,विनोद गोदरे, विश्वनाथ सचदेव, शोभनाथ यादव ,सतीश वर्मा ,सोहन शर्मा और विजय कुमार की कविताएं संकलित की गई थीं । अक्षय जैन ने डॉ. रविनाथ सिंह के सम्पादन में युवा लेखन की एक महत्वपूर्ण लघु पत्रिका 'अन्विता ' आरम्भ की। सीमित साधनों के कारण उसके कुछ ही अंक निकले पर वह एक महत्वपूर्ण पत्रिका मानी गयी । रामावतार चेतन ने अपनी त्रैमासिक कला पत्रिका 'आधार' का एक पूरा अंक ही इस महानगर के युवा लेखन पर केंद्रित किया था। आज यह सब इस शहर के एक अलिखित साहित्यिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लगता है। सत्तर के दशक में यहाँ नवलेखन की नियमित गोष्ठियां होने लगीं थीं। इस तरह इस महानगर में साहित्य के अनेक समय थे ।एक मंचीय कविताओं वाला समय। दूसरा बंधे- बंधाये प्राध्यापकीय सोच वाला अकादमिक समय ।और तीसरा उभरते हुए युवाओं का एक प्रश्नाकुल बेचैन समय। कालबादेवी के महाजन टी हाउस में होने वाली 'काव्य कुंज ' की गोष्ठियों में पुराने गीतकार और शायर भाग लेते थे तो कालाघोडा के आर्टिस्ट सेंटर में प्रख्यात चित्रकार के.एच. आरा के सानिध्य में होने वाली 'छकड़ा ' संस्था की अंतरंग काव्यगोष्ठियों से नव लेखन से जुड़े से कवियों की मंडली मौजूद रहती थी ।
इस दृश्य में इसके कुछ समय बाद शामिल हुए अनूप सेठी, हृदयेश मयंक, आलोक भट्टाचार्य , हरि मृदुल, आलोक श्रीवास्तव , बोधिसत्व ,संजय भिसे , आदि का भी कृतित्व इस शहर में उभरने लगता है। गीत चतुर्वेदी का आरंभिक समय मुम्बई में बीता है। इस शहर में सिनेमा के प्रोफेशनल लेखन और अपनी गम्भीर साहित्यिक सृजनात्मकता के बीच जिन युवाओं ने एक पुल बनाया उनमें बोधिसत्व, निलय उपाध्याय,इरशाद कामिल और संजय मासूम के नाम लिए जा सकते हैं।
समकालीन कविता के रूप में जो काव्य प्रवृतियां रेखांकित की जा रही थीं उनमें अपने परिवेश के अंतर्विरोध थे,विडम्बनाओं के आख्यान थे, खंडित चेतनाओं के नए धरातल थे, कभी कुछ वैचारिक प्रतिबद्धताएं थीं और शहर एक सामान्य संदर्भ नहीं,बल्कि जीवन यथार्थ के विरोधाभासों को रचता एक रूपक , एक प्रतीक था। इस कविता में स्मृति का कोई पुराना रोमान नहीं रह गया था ।
इन अर्थों में मुम्बई में लिखी गयी हिन्दी कविता का यह विकास बहुत महत्वपूर्ण है । इसके अलावा गीत और गज़ल की विधा को कवियों की एक पुरानी पीढी ने जहाँ छोड़ा था , बाद के समय में यहाँ सूर्यभानु गुप्त , राजेश रेड्डी , हस्तीमल हस्ती , सिब्बन बैज़ी और राकेश शर्मा जैसी समर्थ प्रतिभाएं उस विधा में निरी रुमानियत को अपदस्थ करते हुए आधुनिकता बोध , महानगरीय जीवन के विरोधाभासों और राजनीतिक चेतना के रंग भरती हैं , उसमें अनुभव के नये आयाम जोड़ती हैं और भाषा शिल्प के नये नये प्रयोग करती हैं ।
इधर के वर्षों में इस महानगर में लिखी जा रही कविता में और एक नया अध्याय जुड़ा है । पिछले कुछ वर्षों में हिंदी कविता के अनेक संभावनाशील युवा स्त्री स्वर यहां से उभरे हैं। संवेदना रावत, अनुराधा सिंह, चित्रा देसाई ,आभा बोधिसत्व ,रीता दास राम , शैलजा पाठक जैसे नाम सहज ही रेखांकित किये जा सकते हैं। ये सभी स्त्री – स्वर अब राष्ट्रीय फलक पर जाने – पहचाने नाम हैं।
मुम्बई महानगर भले ही कार्पोरेट संस्कृति , तिज़ारत , कल -कारख़ानों , श्रम शक्ति, भीड़, तेज गति, और यांत्रिक जीवन शैली के लिए जाना जाता हो पर उसकी भीतरी तहों में मनुष्य की धड़कनों का एक मार्मिक संसार भी है। इसे यहां अनेक भाषाओं में लिखी गयी कविताओं ने दर्ज किया है।हिंदी कविता में भी यह अनुभव जगत अलग अलग तरह से उभरा है। हृदयेश मयंक ने अपनी दो निबंध पुस्तकों में इस शहर की हिंदी रचनाशीलता के कुछ उदाहरणों को रेखांकित भी किया हैं।पर इस सांस्कृतिक इतिहास को व्यवस्थित रूप से लिखा जाना अभी शेष है। महानगरीय परिवेश में उभरा लेखन अपने अनेक समाज शास्त्रीय पहलुओं, संवेदना के विविध धरातलों और समय शिला पर घटित परिवर्तनों की शिनाख्त के रूप में हमेशा एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ बना रहेगा । उसकी साहित्यिक विवेचना को जब शहरी विकास, राजनीति, नागरिक जीवन ,घर -परिवार के बदलते ढांचों , आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के विविध पहलुओं और मनोविज्ञान से सम्बंधित बातों से सम्बध्द किया जाएगा तो वह एक समय, स्थानिकता और रचनाशीलता के परिवर्तनों का एक रोचक सांस्कृतिक इतिहास बन जाएगा । अकादमिक जगत में इस तरह के अध्य्यन होने अभी बाकी हैं।
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मो. 9820370825
विजय कुमार के वाल से
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