1997 में अमर उजाला, मेरठ में मुलाजिम था, ड्यूटी 7 घंटे की होती थी पर समय काटे नहीं कटता था। कितना पान चबाएं और कितनी चाय पिएं। वजह यह थी कि मेरा काम सिर्फ हाथ की लिखी हुई कॉपी को ठीक करना था। टाइप, प्रूफ, पेज-मेकिंग सारे काम दूसरे किया करते थे। पन्ना बनवाने का काम इंचार्ज का हुआ करता था। फिर आया जमाना कंप्यूटर जी का। डेस्ककर्मी ही सारे काम करने लगा, सारे विभाग खत्म कर दिए गए। 8-9 घंटे की कार्यावधि में भी सांस लेने की फुर्सत नहीं रही। लगातार पीसी की स्क्रीन को ताकते रहने के कारण आँखें दुखने लगती थीं।
लगातार-तेजी से हाथ चलाने के लिए फोरमैन मजबूर करता रहता है। श्रम-सघनता को बढ़ाने के लिए अलग से बंदे रखे जाने लगे। ऑटोमेशन के दौर में मशीनों पर काम करने के लिए दैहिक चपलता बहुत जरूरी होती गई। यहाँ तक कि लिफाफे में आइटम भरने वाले वर्कर भी सीसीटीवी की निगरानी में रहने लगे और वे मनुष्य से यंत्र बन गए।
आप लोग भी मेहनत की तीव्रता-सघनता बढ़ाने के उदाहरण अपनी जिंदगी के आसपास से दे सकते हैं। खाना पहुँचाने वाले डिलेवरी ब्वाय को 30 मिनट में अपने गंतव्य पर पहुँच जाना होता है। यह उदाहरण तो तुरंत अपनी ओर ध्यान खींचता है लेकिन श्रम की खुद से बढ़ाई जाने वाली सघनता की ओर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता। Virendra Rajbhar और Ramesh Rajbhar ठेके पर पुताई-टाइल्स लगवाई का काम करते हैं। इन्हें आठ घंटे से ज्यादा समय तक एकदम से लगकर काम करने के लिए कोई नहीं कहता पर ये लोग 12-12 घंटे पूरा दम लगाकर खटते रहते हैं, ताकि दुइ पैसा ज्यादा कमा सकें।
मज़दूरों के चौतरफा शोषण की जब बात हो रही है तो श्रम की सघनता-मारकता पर भी बात होनी चाहिए। क्या श्रम की सघनता बढ़ाते जाने की मानव-द्रोही प्रवृत्ति पर हमें बात नहीं करनी चाहिए। हम सबका साझा शत्रु पूँजीवाद है, पर पूँजी की ताकत तो नजर नहीं आती, अदृश्य है। जब हम मजदूर साथियों को उस दुश्मन के बारे में बताते हैं जो हम सबका साझा है तो हमें उसके छुपे हुए होने की बात को भी ध्यान में रखना होता है और संप्रेषण के नानाविध तरीके से उस दुश्मन की हमें पहचान करानी होती है। कला के अनगिनत रूप इसमें हमारी मदद करते हैं।
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