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Saturday, 29 April 2023

Man O Man!



 Man O Man!
 When without money,
 eats vegetables at home;
 When has money,
 eats the same vegetables in a fine restaurant.
 
 When without money, rides bicycle;
 When has money rides the same 'exercise machine'.
 
When without money walks to earn food
 When has money, walks to burn fat;

 Man O Man! Never fails to deceive thyself!
 
 When without money,
 wishes to get married;
 When has money,
 wishes to get divorced.
 
 When without money,
 wife becomes secretary;
 When has money,
 secretary becomes wife.
 
 When without money, acts like a rich man;
 When has money acts like a poor man.
 Man O Man! Never can tell the simple truth!
 
Says share market is bad,
 but keeps speculating;
 Says money is evil,
 but keeps accumulating.
 
 Says high Positions are lonely,
 but keeps wanting them.

 Says gambling & drinking is bad,
 but keeps indulging;

 Man O Man! Never means what he says and never says what he means..

Life is not about what 
you couldn't do so far, 
it's about what you can 
still do. 
Wait n dont ever give up..
Miracles happen every 
day....
                              
Rs.20 seems too much 
to give a beggar but it
seems okay when its 
given as tip at a fancy
restaurant.

After a whole day of 
work, Hours at the gym
seem alright but helping
your Mother out at home 
seems like a burden.

Praying to god for 3 min
takes too much time but
watching a movie for 3
hours doesn't.

Wait a whole year for
Valentine's day but we
always forget Mother's 
day.

Two poor starving kids
sitting on the pavement
weren't given even a slice 
of Bread but a painting of
them sold for lakhs of
Rupees.

We don't think twice 
About forwarding jokes 
But we will rethink about
sending this message on.

Think about It..
Make a change. 

Thursday, 27 April 2023

Mind's Wondrous Poetry Our Mind


Mind's Wondrous Poetry

Our Mind

In the realms of thought, where wonders reside,
There lies a realm where dreams coincide,
A mystic abode of boundless design,
Behold the marvels of the human mind.

It dances like a river, swift and free,
A canvas vast where thoughts find their decree,
In swirling tides of imagination's reign,
A symphony of ideas, a vibrant terrain.

A web of neurons, a network profound,
Weaving thoughts, emotions all around,
A tapestry woven with intricate threads,
Creating worlds within, where truth embeds.

The mind, a universe, uncharted, vast,
Where memories echo, remnants of the past,
It ponders questions, seeks knowledge's embrace,
Unveiling mysteries with unyielding grace.

Within its sanctuary, dreams take flight,
Transforming darkness into radiant light,
From whispered hopes to grandest schemes,
The mind is the architect of endless dreams.

Yet, within its labyrinthine expanse,
Lies battles fought, an eternal dance,
Between doubts and dreams, fears and desires,
A battleground where the soul aspires.

But fear not, for within this sacred sphere,
Resides the power to conquer and persevere,
To paint the world with hues of sheer delight,
To transform darkness into radiant light.

So cherish the mind, this wondrous domain,
A sanctuary where dreams and thoughts attain,
Their highest form, where magic is born,
And the essence of our humanity is sworn.

Oh, the mind, an infinite symphony,
A gift bestowed, a wellspring of creativity,
In its boundless depths, we find our way,
Unleashing the power to shape each day.

Embrace its depths, let curiosity ignite,
And embark on journeys, both day and night,
For within the mind, the cosmos unfurled,
A timeless treasure, the greatest wonder in our world.


मन की अद्भुत कविता

हमारा दिमाग

विचार के क्षेत्र में, जहां चमत्कार निवास करते हैं,
वहाँ एक क्षेत्र है जहाँ सपने मेल खाते हैं,
असीम डिजाइन का एक रहस्यवादी निवास,
मानव मन के चमत्कार देखें।

यह एक नदी की तरह नृत्य करता है, तेज और मुक्त,
एक कैनवास विशाल जहाँ विचार अपना फरमान पाते हैं,
कल्पना के शासन के घूमते ज्वार में,
विचारों की एक सिम्फनी, एक जीवंत इलाका।

न्यूरॉन्स की एक वेब, एक गहरा नेटवर्क,
बुन रहे विचार, भावनाएँ चारों ओर,
जटिल धागों से बुनी एक टेपेस्ट्री,
भीतर दुनिया बनाना, जहां सच्चाई एम्बेड होती है।

मन, एक ब्रह्मांड, अज्ञात, विशाल,
जहां यादें गूंजती हैं, अतीत के अवशेष,
यह सवालों पर विचार करता है, ज्ञान को गले लगाता है,
अटल अनुग्रह के साथ रहस्यों का अनावरण।

इसके अभयारण्य के भीतर, सपने उड़ान भरते हैं,
अँधेरे को रौशनी में बदलना,
फुसफुसाती आशाओं से लेकर भव्य योजनाओं तक,
मन अंतहीन सपनों का वास्तुकार है।

फिर भी, इसके भूलभुलैया विस्तार के भीतर,
लड़ी गई झूठ की लड़ाई, एक शाश्वत नृत्य,
संदेह और सपने, भय और इच्छाओं के बीच,
एक युद्ध का मैदान जहाँ आत्मा आकांक्षा करती है।

लेकिन डरो मत, क्योंकि इस पवित्र क्षेत्र के भीतर,
जीतने और दृढ़ रहने की शक्ति है,
दुनिया को खुशियों के रंग से रंगने के लिए,
अंधेरे को दीप्तिमान प्रकाश में बदलने के लिए।

इसलिए मन को संवारें, यह अद्भुत डोमेन,
एक अभयारण्य जहां सपने और विचार प्राप्त होते हैं,
उनका सर्वोच्च रूप, जहाँ जादू पैदा होता है,
और हमारी मानवता का सार शपथ है।

ओह, मन, एक अनंत सिम्फनी,
दिया गया उपहार, रचनात्मकता का स्रोत,
इसकी असीम गहराई में, हम अपना रास्ता खोजते हैं,
प्रत्येक दिन आकार देने की शक्ति को उजागर करना।

इसकी गहराइयों को गले लगाओ, जिज्ञासा को प्रज्वलित होने दो,
और यात्रा पर निकल पड़ते हैं, दिन और रात दोनों,
मन के भीतर के लिए, ब्रह्मांड फहराया,
एक कालातीत खजाना, हमारी दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य।

M K Azad

कल 96 वर्ष की आयु में हैरी बेलाफोनेट का निधन हो गया।


कल 96 वर्ष की आयु में हैरी बेलाफोनेट का निधन हो गया।

हैरी बेलाफोनेट एक प्रसिद्ध अमेरिकी गायक, अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता थे। 1 मार्च, 1927 को न्यूयॉर्क के हार्लेम में जन्मे, अपने पूरे करियर के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। बेलाफोंटे को संगीत उद्योग में उनके योगदान के लिए जाना जाता है, विशेष रूप से कैलीप्सो और पारंपरिक लोक संगीत की शैलियों में। उनके कुछ प्रसिद्ध गीतों में "बनाना बोट सॉन्ग (डे-ओ)" और "जंप इन द लाइन (शेक, सेनोरा)" शामिल हैं।

अपनी संगीत उपलब्धियों के अलावा, बेलाफोनेट नागरिक अधिकारों और मानवीय कारणों में सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं। वह डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के करीबी सहयोगी थे और उन्होंने नागरिक अधिकार आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बेलाफोनेट ने नस्लीय समानता और सामाजिक न्याय की वकालत करने के लिए अपनी प्रसिद्धि और मंच का इस्तेमाल किया।

"बनाना बोट सॉन्ग (डे-ओ)" एक प्रसिद्ध जमैका लोक गीत है जिसे हैरी बेलाफोनेट ने लोकप्रिय बनाया था। इस गीत की जड़ें पारंपरिक जमैका के मेंटो संगीत में हैं और बेलाफोनेट द्वारा उनके 1956 के एल्बम "कैलिप्सो" के लिए अनुकूलित किया गया था। यह जल्दी से उनके हस्ताक्षर गीतों में से एक बन गया और उनकी सबसे प्रसिद्ध रिकॉर्डिंग में से एक बना रहा।

"बनाना बोट सॉन्ग (डे-ओ)" एक कार्य गीत है जो जमैका के केले के व्यापार में नावों पर केले लोड करने के श्रमसाध्य कार्य को याद करता है। इसमें एक कॉल-एंड-रिस्पॉन्स शैली है, जिसमें बेलाफोनेट मुख्य मुखर राग का नेतृत्व करता है और प्रतिष्ठित "डे-ओ" रिफ्रेन के साथ दर्शकों या बैकिंग वोकलिस्ट का जवाब देता है।

इस गीत ने व्यापक लोकप्रियता हासिल की और वर्षों से विभिन्न फिल्मों, टेलीविजन शो और सांस्कृतिक संदर्भों में चित्रित किया गया है। यह कैरेबियन संगीत का प्रतीक बन गया है और अक्सर हैरी बेलाफोनेट की संगीत विरासत से जुड़ा हुआ है।

कल 96 वर्ष की आयु में हैरी बेलाफोनेट का निधन हो गया।

Red Saute.

Wednesday, 26 April 2023

*शोषण और दमन से मुक्त समाज बनाने के लिए संघर्ष को तेज़ करें!* *मई दिवस पर मज़दूर एकता कमेटी का बयान, 20 अप्रैल, 2023*

*शोषण और दमन से मुक्त समाज बनाने के लिए संघर्ष को तेज़ करें!*

*मई दिवस पर मज़दूर एकता कमेटी का बयान, 20 अप्रैल, 2023*

1 मई, 2023, मई दिवस पर दुनियाभर के मज़दूर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष में शहीद हुए अपने सभी साथियों को याद करेंगे। वे जुझारू प्रदर्शनों के ज़रिए अपनी मांगों को बुलंद करेंगे। रैलियों में निकलकर, एक बार फिर पूंजीवादी शोषण और दमन से मुक्ति हासिल करने के अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प जाहिर करेंगे। साथ ही साथ, यह निश्चय करेंगे कि पूंजीवादी शोषण और दमन के वर्तमान समाज का विकल्प कैसे लाया जाये। 

आज दुनिया के हर देश में मज़दूर बड़ी बहादुरी के साथ संघर्ष कर रहे हैं। वे सम्मानजनक जीवन जीने लायक वेतन के लिए, सुरक्षित रोज़गार के लिये, बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी के विरोध में, सड़कों पर निकल रहे हैं। वे पूंजीवादी शोषण के खि़लाफ़, राष्ट्रों के दमन, साम्प्रदायिक हिंसा, नस्लवाद और साम्राज्यवादी जंग के खि़लाफ़, अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। वे अपने अधिकारों के लिए तथा एक ऐसे समाज की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मज़दूर-किसान को अपने श्रम का फल मिले।

पूंजीवादी हुक्मरानों के निजीकरण के अजेंडे के विरोध में रेलवे, सड़क परिवहन, कोयला, पेट्रोलियम और रक्षा क्षेत्र, बिजली उत्पादन और वितरण, बैंकिंग और बीमा, आदि के मज़दूर बहुत ही बहादुरी से लड़ रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, आवास, बिजली, पानी, दूरसंचार, परिवहन सेवा - इन सभी सेवाओं को पूंजीपतियों के मुनाफे़ का स्रोत बनाया जा रहा है। मज़दूर इसका विरोध कर रहे हैं और इन सभी सेवाओं को अधिकार बतौर मुहैया कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मज़दूर एकता कमेटी उन सभी मज़दूरों को सलाम करती है, जो पूंजीपति वर्ग के निजीकरण के कार्यक्रम को चुनौती दे रहे हैं। 

पूंजीपतियों द्वारा मज़दूरों के शोषण को और आसान करने के लिए, सरकार ने 44 श्रम क़ानूनों को सरल बनाने के नाम पर, 4 लेबर कोड को घोषित कर दिया है। इसका मतलब यह है कि जो कुछ अधिकार अलग-अलग क्षेत्रों के मज़दूरों ने संघर्ष करके हासिल किये थे, उन्हें भी वापस लिया जायेगा। 12 से 16 घंटे प्रतिदिन काम अब नियम बन जायेगा। महिला मज़दूरों को बिना किसी सुरक्षा की गारंटी के, रात की पाली में काम करने को मजबूर किया जायेगा। अपना ट्रेड यूनियन बनाकर अपने अधिकारों के लिए संगठित रूप से लड़ना अधिकतम मज़दूरों के लिये बहुत मुश्किल हो जायेगा।

किसान अपनी फ़सलों के लिये सरकारी ख़रीदी की गारंटी और लाभकारी दाम की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आये हैं। मज़दूर एक सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की मांग कर रहे हैं, जिसमें सभी मेहनतकश लोगों को सस्ते दामों पर पर्याप्त मात्रा में सभी आवश्यक वस्तुयें प्राप्त हो सकें। ये मज़दूरों और किसानों की लंबे समय से चली आ रही मांगें हैं।

मज़दूरों और किसानों के तमाम संघर्षों के बावजूद, ये मांगें पूरी क्यों नहीं होती हैं? बड़े-बड़े पूंजीवादी घरानों - टाटा, बिरला, अम्बानी, अदानी, आदि - की दौलत क्यों बढ़ती रहती है? मज़दूरों-किसानों की हालत क्यों बिगड़ती रहती है? इसकी वजह है अधिक से अधिक मुनाफ़ा हड़पने की इजारेदार पूंजीपतियों की लालच, जो इन मांगों को पूरा होने से रोक देती है। इजारेदार पूंजीपति हर क्षेत्र में मज़दूरों के शोषण और किसानों की लूट को खूब तेज़ करके, जल्दी से जल्दी, खुद को और अमीर बना रहे हैं। पूंजीपति वर्ग ही हिन्दोस्तान का असली हुक्मरान है। उसकी अगुवाई बड़े-बड़े इजारेदार पूंजीवादी घराने करते हैं। पूंजीपति वर्ग की सेवा हिन्दोस्तानी राज्य करता है। राज्य यह सुनिश्चित करता है कि पूंजीपति वर्ग का अजेंडा ही हमेशा लागू होता रहे, चाहे सरकार किसी भी राजनीतिक पार्टी की हो।

देश के लोगों की सभी समस्याओं का स्रोत पूंजीवादी व्यवस्था है। हिन्दोस्तानी राज्य के सभी संस्थान - सरकार संभालने वाली राजनीतिक पार्टी और उसका मंत्रीमंडल, उसके साथ-साथ संसदीय विपक्ष, पुलिस, सेना, न्यायपालिका, न्यूज मीडिया - ये सब मज़दूरों और किसानों पर पूंजीपति वर्ग की हुक्मशाही को क़ायम रखने के साधन हैं। 

'दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र' कहलाये जाने वाले इस देश में जो राजनीतिक व्यवस्था और प्रक्रिया क़ायम है, उसके ज़रिये यह सुनिश्चित किया जाता है कि मज़दूरों, किसानों और सभी मेहनतकश लोगों को हमेशा ही सत्ता से बाहर रखा जायेगा। संसद में बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टी की सरकार बनती है। उसी पार्टी का मंत्रीमंडल बनता है। उसी मंत्रीमंडल के हाथों में हमारे जीवन पर असर डालने वाले हर फ़ैसले को लेने की शक्ति होती है। लोगों के पास चुनाव में अपने उम्मीदवारों का चयन करने का कोई साधन नहीं है। चुने गए प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने या उन्हें वापस बुलाने का कोई साधन नहीं है। हम मज़दूर-मेहनतकश न तो क़ानून बना सकते हैं और न ही मज़दूर-विरोधी, किसान-विरोधी, जन-विरोधी क़ानूनों को बदल सकते हैं।

यह भ्रम फैलाया जाता है कि चुनावों में मतदान करके लोग अपनी पसंद की सरकार को चुनते हैं। यह बहुत बड़ा धोखा है। हक़ीक़त तो यह है कि पूंजीपति करोड़ों-करोड़ों रुपए खर्च करके अपनी भरोसेमंद राजनीतिक पार्टियों में से उस पार्टी की जीत को सुनिश्चित करते हैं, जो उनके एजेंडे को सबसे बेहतर तरीक़े से लागू करेगी। सरकार उसी पार्टी की बनायी जाती है जो सबसे ज्यादा चतुराई से, पूंजीपतियों के अजेंडे को "लोकहित" में बताकर, लोगों को बुद्धू बना सकती है।

राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा और राजकीय आतंकवाद हुक्मरानों का पसंदीदा हथकंडा है। इस हथकंडे का इस्तेमाल करके वे बार-बार मज़दूरों और किसानों की एकता को तोड़ते हैं। हमारे संघर्षों को कमजोर करते हैं। हमारी एकता को तोड़ने की हुक्मरानों की सभी कोशिशों से हमें चौकन्ने रहना होगा।

आज हमारे संघर्ष के सामने एक बड़ी रुकावट उन ताक़तों से है, जो इस भ्रम को फैलाने में लगे हुए हैं कि हिन्दोस्तान का लोकतंत्र और संविधान एकदम ठीक हैं, कि समस्या सिर्फ कुछ ग़लत और भ्रष्ट नेताओं की वजह से है। उनका कहना है कि अगर वर्तमान भाजपा सरकार को हटा दिया जाये तो मज़दूरों और किसानों की सारी समस्याएं हल हो जायेंगी। वे संघर्षरत लोगों को आगामी लोक सभा चुनावों में भाजपा के किसी विकल्प की सरकार को चुनने के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं।

हमारे पास बीते 76 वर्षों का अनुभव है। हमने सरकार में पार्टियों को बार-बार बदलते हुए देखा है। परन्तु पूंजीपतियों का अजेंडा बेरोक चलता रहा है। अमीरों और ग़रीबों के बीच की खाई बढ़ती ही रही है। क्या, हमें फिर से उसी चक्र में फंसना है? 

हमें वर्तमान संसदीय व्यवस्था की जगह पर श्रमजीवी लोकतंत्र की व्यवस्था स्थापित करनी होगी। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसमें कार्यपालिका, निर्वाचित विधायिकी के प्रति जवाबदेह होगी और चुने गए प्रतिनिधि मतदाताओं के प्रति जवाबदेह होंगे। राजनीतिक प्रक्रिया 18 साल से ऊपर के प्रत्येक नागरिक के चुनने और चुने जाने के अधिकार की पुष्टि करेगी, जिसमें किसी भी चुनाव से पहले उम्मीदवारों का चयन करने का अधिकार शामिल होगा। चुनाव अभियान के लिए सार्वजनिक धन का इस्तेमाल किया जायेगा और किसी निजी धन के इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जायेगी।

हम मज़दूर और किसान समाज की अधिकतम आबादी हैं। हम देश की दौलत को पैदा करते हैं परन्तु हुक्मरान पूंजीपति वर्ग हमारे श्रम का फल हड़प लेता है। पूंजीपतियों की अमीरी बढ़ती रहती है जबकि हमारी हालत बद से बदतर होती जाती है। इसे बदलना होगा। पूंजीपति वर्ग को सत्ता से हटाना होगा। देश की दौलत पैदा करने वालों को देश का मालिक बनना होगा। ऐसा करके ही हम वह नया समाज स्थापित कर सकेंगे, जिसमें देश की अर्थव्यवस्था को जनता की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में संचालित किया जायेगा और लोग देश के भविष्य को निर्धारित करने वाले फ़ैसलों को लेने में सक्षम होंगे।

मज़दूर साथियों,

आज से 133 वर्ष पहले, 1 मई, 1890 को यूरोप के सभी देशों के मज़दूर 8 घंटे के काम के दिन की मांग को लेकर, सड़कों पर उतरे थे। 1889 में स्थापित सोशलिस्ट इंटरनेशनल के आह्वान पर, 1 मई के दिन को पूंजीवादी शोषण के खि़लाफ़ मज़दूरों के संघर्षों के प्रतीक के रूप में ऐलान किया गया था। उस समय से लेकर आज तक, सारी दुनिया में मई दिवस पर मज़दूर पूंजीवादी शोषण से मुक्ति के लिए अपने संघर्ष को और मजबूत करने के संकल्प के साथ आगे आते हैं।

मज़दूर वर्ग को पूंजीवादी व्यवस्था से समाज को मुक्त कराना होगा। जब तक पूंजीवादी व्यवस्था बरकरार रहेगी तब तक मज़दूरों, किसानों और सभी मेहनतकशों का शोषण-दमन ख़त्म नहीं हो सकता है। 

आइए, हम मज़दूरों, किसानों और सभी उत्पीड़ित लोगों के अधिकारों के लिए, अपने एकजुट संघर्ष को और तेज़ करें। आइए, हम इजारेदार पूंजीवादी घरानों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग की हुकूमत की जगह पर, मज़दूरों और किसानों की हुकूमत स्थापित करने के लक्ष्य के साथ, देश के सभी शोषित और पीड़ित लोगों को संघर्ष में लामबंध करें।

*हम हैं इसके मालिक, हम हैं हिन्दोस्तान, मज़दूर, किसान, औरत और जवान!*

*मई दिवस ज़िन्दाबाद!* 

*इंक़लाब ज़िन्दाबाद!*

Tuesday, 25 April 2023

Removal of the theory of evolution from the NCERT's 10th-grade science textbook

The Indian government has decided to remove the theory of evolution from the 10th-grade science textbook by the National Council of Educational Research and Training (NCERT) in India.  The decision was made after the removal of Mughal and Mahatma Gandhi's history. The theory of Charles Darwin states that humans and apes have a common ancestor, which conflicts with the belief that humans were created by God. By removing the theory of evolution, India is denying its true history and perpetuating blind faith and superstition.
 
The decision has sparked criticism and concern among  members of the scientific community and the public, with over 1,800 individuals and organizations signing a petition to have the topic reinstated. The CBSE and UP boards are expected to implement the changes in the curriculum, which include the removal of the chapter on evolution, from 2023-24. 

 The removal of the theory of evolution from the NCERT's 10th-grade science textbook is a matter of concern for many members of the scientific community. The theory of evolution is supported by a vast amount of scientific evidence and is widely accepted as the scientific explanation for the diversity of life on Earth. The removal of this theory from the textbook could lead to a lack of understanding and appreciation for the scientific method and could hinder scientific progress in India. It is important to note that scientific theories are not absolute truths and are subject to change based on new evidence and research. However, the removal of a well-established theory based on ideological or political reasons is not supported by scientific principles.

This move will have  the impact of perpetuating blind faith and superstition in education?

लेनिन के जन्‍मदिवस (22 अप्रैल) पर बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट की कविता

लेनिन के जन्‍मदिवस (22 अप्रैल) पर बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट की कविता
लेनिन की मृत्‍यु पर कैंटाटा* (अनुवाद- सत्यम)
1. 
जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बताया: मैं 
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्‍लाया: 'इलिच
शोषक आ रहे हैं।' वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।
2.
जब कोई भला आदमी जाना चाहे
तो आप कैसे रोक सकते हैं उसे?
उसे बताइये कि अभी क्‍यों है उसकी ज़रूरत।
यही तरीक़ा है उसे रोकने का।
3.
और क्‍या चीज़ रोक सकती थी भला लेनिन को जाने से?
4. 
सोचा उस सैनिक ने
जब वो सुनेंगे, शोषक आ रहे हैं
उठ पड़ेंगे वो, चाहे जितने बीमार हों
शायद वो बैसाखियों पर चले आयें
शायद वो इजाज़त दे दें कि उन्‍हें उठाकर ले आया जाये, लेकिन
उठ ही पड़ेंगे वो और आकर
सामना करेंगे शोषकों का।
5. 
जानता था वो सैनिक, कि लेनिन
सारी उमर लड़ते रहे थे
शोषकों के ख़ि‍लाफ़
6.
और वो सैनिक शामिल था
शीत प्रासाद पर धावे में, और घर लौटना चाहता था
क्‍योंकि वहाँ बाँटी जा रही थी ज़मीन
तब लेनिन ने उससे कहा था: अभी यहीं रुको !
शोषक अब भी मौजूद हैं।
और जब तक मौजूद है शोषण
लड़ते रहना होगा उसके ख़ि‍लाफ़
जब तक तुम्‍हारा वजूद है
तुम्‍हें लड़ना होगा उसके ख़ि‍लाफ़।
7. 
जो कमज़ोर हैं वे लड़ते नहीं। थोड़े मज़बूत
शायद घंटे भर तक लड़ते हैं।
जो हैं और भी मज़बूत वे लड़ते हैं कई बरस तक।
सबसे मज़बूत होते हैं वे 
जो लड़ते रहते हैं ताज़ि‍न्‍दगी।
वही हैं जिनके बग़ैर दुनिया नहीं चलती।
8.
इंक़लाबी की शान में क़सीदा
जब शोषण बढ़ता जाता है
बहुतों के हौसले हो जाते हैं पस्‍त
मगर उसकी हिम्‍मत और बुलंद होती है।
वह संगठित करता है अपना संघर्ष
मज़दूरी के लिए, रोटी और चाय के लिए
और फिर सत्ता दखल करने के लिए।
वह पूछता है दौलत से:
कहाँ से आई तुम?
पूछता है दृष्टिकोणों से:
किसकी सेवा करते हो तुम?
जब पसरा हो सन्‍नाटा
वह बोल उठता है
जहाँ भी हो ज़ुल्‍म, और लोग बात करते हों किस्मत की
वह चीज़ों को पुकारता है उनके सही-सही नाम से।
जहाँ वह बैठता है खाने की मेज़ पर
साथ बैठता है असंतोष भी
खाना लगने लगता है ख़राब
और कमरा कुछ ज्‍़यादा ही तंग।
जहाँ भी उसे भगाया जाता है
पीछे-पीछे चली आती है उथल-पुथल
और अशांति बनी रह जाती है
जहाँ किया जाता है उसका शिकार।
9.
जब लेनिन नहीं रहे और
लोगों को उनकी याद आई
जीत हासिल हो चुकी थी, मगर
देश था तबाहो-बर्बाद
लोग उठकर बढ़ चले थे, मगर
रास्‍ता था अँधियारा
जब लेनिन नहीं रहे
फुटपाथ पर बैठे सैनिक रोये और
मज़दूरों ने अपनी मशीनों पर काम बंद कर दिया 
और मुट्ठियाँ भींच लीं।
10.
जब लेनिन गये,
तो ये ऐसा था 
जैसे पेड़ ने कहा पत्तियों से
मैं चलता हूँ।
11. 
तब से गुज़र गये पंद्रह बरस
दुनिया का छठवाँ हिस्‍सा 
आज़ाद है अब शोषण से।
'शोषक आ रहे हैं!': इस पुकार पर
जनता फिर उठ खड़ी होती है
हमेशा की तरह।
जूझने के लिए तैयार।
12.
लेनिन बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में,
वो थे हमारे शिक्षक।
वो हमारे साथ मिलकर लड़ते रहे।
वो बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में।
(1935)
* कैंटाटा – वाद्य संगीत के साथ गायी जाने वाली संगीत रचना, जो प्राय: वर्णनात्‍मक और कई भागों में होती है (कुछ-कुछ हमारे बिरहा की तरह)। इस कैंटाटा के संगीत को अंतिम रूप दिया था ब्रेष्‍ट के साथी और महान जर्मन संगीतकार हान्‍स आइस्‍लर ने। इस रचना का आठवाँ भाग 'इंक़लाबी की शान में क़सीदा' ब्रेष्‍ट ने पहलेपहल 1933 में, गोर्की के उपन्‍यास 'माँ' पर आधारित अपने नाटक के लिए लिखा था।
अनुवाद: सत्‍यम

मई दिवस का ऐलान

मई दिवस का ऐलान,

समाजवाद हमारा भविष्य है!



दुनिया का पूरा का पूरा लुटेरा पूंजीपति वर्ग, मजदूरों और किसानों व मेहनतकश जनता की एकता से सबसे ज्यादा डरता है और खौफ खाता है, क्यों कि उनको पता है कि इसी एकता और भाईचारा के हथियार से वे इस लुटेरी पूंजीवादी राजव्यवस्था का तख्ता पलटेंगे और एक ऐसी समाज व्यवस्था का निर्माण करेंगे,,,,, 


जहां सब बराबर होंगे, 

जहां सब आजाद होंगे, 

जहां अन्याय नही होंगे, 

जहां सब तरह का शोषण ,,,,,

मनुष्य का मनुष्य द्वारा और एक देश का दुसरे देशों द्वारा,,,, 

खत्म हो जाएगा, 


जहां अमीर, गरीब नही होंगे, 

जहां ऊंच नीच का नाम नही रहेगा, 

जहां सब पढे लिखे होंगे, 

जहां सब मिलजुलकर रहेंगे, 

जहां सब अपनी काबलियत के हिसाब से काम करेंगे, 

जहां कोई किसी का गुलाम नही होगा, 

जहां सब भाई बहन की तरह रहेंगे, 

जहां कोई किसी का शोषण नही करेगा, 

जहां सब समाज के लिए जियेंगे, 


और 


सारा समाज प्रत्येक आदमी के लिए काम करेगा और उसका ध्यान रखेगा, 

जहां सरकार मजदूरों और किसानों की होगी, 

जहां सरकार केवल अमीरों की तिजोरियां भरने का काम नही करेगी, 

जहां सच्चा जनवाद आ जायेगा,

जहां शोषण करने वालों का और आदमी का खून पीने वालों का खात्मा कर दिया जायेगा,

जहां पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का विनाश कर दिया जायेगा, 

जहां, धर्म, जाति, रंग, लिंग, स्थान और नस्ल पर आधारित सभी तरह की विषमताओं, गैरबराबरी, शोषण और अन्याय का समूल विनाश कर दिया जायेगा,

जहां राज्य धर्म से दूरी बना कर रखेगा अर्थात जहां धर्म राज्य के कामकाज में कोई हस्तक्षेप नही करेगा, 

जहां धर्म की मनमानी नही चलेगी, 

जहां वैज्ञानिक संस्कृति और सोच का साम्राज्य होगा, 

जहां अंधविश्वास, ढपोरशंखी,मान्यताओं, तर्कहीनता, विवेकहीनता का सर्वनाश कर दिया जायेगा, 

जहां ज्ञान-विज्ञान  और तकनीक का बोलबाला होगा, 

जहां वैज्ञानिक संस्कृति का साम्राज्य कायम हो जायगा, 

जहां चारों तरफ प्यार, मुहब्बत, आपसी भाईचारा, आपसी मेलमिलाप और आपसी सहयोग होगा, 

ऐसी अदभुत व्यवस्था को समाजवादी समाज और समाजवादी व्यवस्था कहते हैं।

    

यहां यह बात भी ध्यान रखने की है कि यह व्यवस्था खुद नही आयेगी, बल्कि इसके लिये मानव यानि कम्युनिस्टों, मजदूरों और किसानों और व्यापक मेहनतकश जनता की एकता के बल पर शोषण, अन्याय भेदभाव और गैरबराबरी पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को उखाडकर फैंकना होगा।


      मित्रों और साथियों, आइए हम मई दिवस के अभियान में शामिल होकर आठ घण्टे कार्यावधि की मांग करे और, पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और शोषण मुक्त समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए संगठित होने और एकजुट होकर काम करने के अपने दृढ़ संकल्प और लौह इच्छाशक्ति की घोषणा करें…।


मई दिवस जिंदाबाद, 

इंकलाब जिंदाबाद, 

समाजवाद जिंदाबाद।


                  साथियों, आओ मई दिवस पर  होने वाले कार्यक्रमो में बढ़चढ कर भारी संख्या में हिस्सेदारी करें।


क़ान्तीकारी अभिवादन के साथ,


लाल सलाम




Declaration of May Day, Socialism is our future!


The entire world's predatory capitalist class is most afraid and in awe of the unity of workers, farmers and toiling people, because they know that with this weapon of unity and brotherhood, they will overturn this predatory polity and create a Society


Where all are equal,

Where everyone is free

Where there will be no injustice,

Where all forms of exploitation, of man by man 

and of one country by another, shall come to an end.


Where there will be no rich, no poor,

Where there will be no name of high and low,

Where everyone will be educated,

Where everyone will live together

Where everyone will work according to their ability,

Where no one will be slave of anyone,

Where everyone will live like brothers and sisters,

Where no one exploits anyone,

Where everyone will live for the society,

And

The whole society will work for and take care of every man,

Where the government will be of workers and farmers,

Where the government will not only work to fill the coffers of the rich,

Where true democracy will come,

Where the exploiters and the drinkers of human blood will be put to an end,

where capitalism and imperialism will be destroyed,

Where all inequalities, exploitation and injustice based on religion, caste, colour, sex, place and race shall be completely destroyed,

Where the state will keep a distance from religion, that is, where religion will not interfere in the functioning of the state,

Where the arbitrariness of religion will not work,

Where there will be an empire of scientific culture and thought,

Where superstition, hypocrisy, beliefs, irrationality, irrationality will be annihilated,

Where knowledge-science and technology will dominate,

Where the empire of scientific culture will be established,

Where there will be love, affection, mutual brotherhood, mutual reconciliation and mutual cooperation all around,

Such a wonderful system is called socialist society and socialist system.


     Here it is also to be kept in mind that this system will not come by itself, but for this the capitalist system based on exploitation, injustice, discrimination and inequality will have to be uprooted on the strength of the unity of human beings i.e. communists, workers, farmers and toiling people. 


       Friends and comrades, let us join the May Day campaign to demand eight-hour working hours and show our determination and iron will to organize and work unitedly to overthrow the capitalist system and establish an exploitation-free  socialist system……


Long Live May Day!

Inquilab Zindabad,

Long Live Socialism.


                   Friends, come and participate in large numbers in the programs organized on May Day.


With warm greetings,


Red Salute

मई 1886 का वह रक्तरंजित दिन जब मज़दूरों के बहते ख़ून से जन्मा लाल झण्डा 🔴🔴🔴



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मज़दूरों का त्योहार मई दिवस आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों के" शानदार आन्दोलन से पैदा हुआ। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर सोलह-सोलह घण्टे तक खटते थे। सारी दुनिया में अलग-अलग इस माँग को लेकर आन्दोलन होते रहे थे। अपने देश में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस माँग को लेकर कामबन्दी की थी। लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर 1886 में अमेरिका के विभिन्न मज़दूर संगठनों ने मिलकर आठ घण्टे काम के दिन की माँग पर एक विशाल आन्दोलन खड़ा करने का फैसला किया।
एक मई 1886 को पूरे अमेरिका के लाखों मज़दूरों ने एक साथ हड़ताल शुरू की। इसमें 11,000 फैक्टरियों के कम से कम तीन लाख अस्सी हज़ार मज़दूर शामिल थे। शिकागो महानगर के आसपास सारा रेल यातायात ठप्प हो गया और शिकागो के ज़्यादातर कारख़ाने और वर्कशाप बन्द हो गये। शहर के मुख्य मार्ग मिशिगन एवेन्यू पर अल्बर्ट पार्सन्स के नेतृत्व में मज़दूरों ने एक शानदार जुलूस निकला।
उधर मज़दूरों की बढ़ती ताकत और उनके नेताओं के अडिग संकल्प से भयभीत उद्योगपति लगातार उन पर हमला करने की घात में थे। सारे के सारे अख़बार (जिनके मालिक पूँजीपति थे।) "लाल ख़तरे" के बारे में चिल्ल-पों मचा रहे थे। पूँजीपतियों ने आसपास से भी पुलिस के सिपाही और सुरक्षाकर्मियों को बुला रखा था। इसके अलावा कुख्यात पिंकरटन एजेंसी के गुण्डों को भी हथियारों से लैस करके मज़दूरों पर हमला करने के लिए तैयार रखा गया था। पूँजीपतियों ने इसे "आपात स्थिति" घोषित कर दिया था। शहर के तमाम धन्नासेठों और व्यापारियों की बैठक लगातार चल रही थी जिसमें इस "खतरनाक स्थिति" से निपटने पर विचार किया जा रहा था।

3 मई को शहर के हालात बहुत तनावपूर्ण हो गये जब मैकार्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कम्पनी के मज़दूरों ने दो महीने से चल रहे लॉक आउट के विरोध में और आठ घण्टे काम के दिन के समर्थन में कार्रवाई शुरू कर दी। जब हड़ताली मज़दूरों ने पुलिस पहरे में हड़ताल तोड़ने के लिए लाये गये तीन सौ ग़द्दार मज़दूरों के खिलाफ मीटिंग शुरू की तो निहत्थे मज़दूरों पर गोलियाँ चलायी गयीं। चार मज़दूर मारे गये और बहुत से घायल हुए। अगले दिन भी मज़दूर ग्रुपों पर हमले जारी रहे। इस बर्बर पुलिस दमन के खिलाफ चार मई की शाम को शहर के मुख्य बाज़ार हे मार्केट स्क्वायर में एक जनसभा रखी गयी। इसके लिए शहर के मेयर से इजाज़त भी ले ली गयी थी।
मीटिंग रात आठ बजे शुरू हुई। करीब तीन हज़ार लोगों के बीच पार्सन्स और स्पाइस ने मज़दूरों का आह्नान किया कि वे एकजुट और संगठित रहकर पुलिस दमन का मुकाबला करें। तीसरे वक्ता सैमुअल फील्डेन बोलने के लिए जब खड़े हुए तो रात के दस बज रहे थे और ज़ोरों की बारिश शुरू हो गयी थी। इस समय तक स्पाइस और पार्सन्स अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ वहाँ से जा चुके थे। इस समय तक भीड़ बहुत कम हो चुकी थी – करीब दो सौ लोग ही रह गये थे। मीटिंग करीब-करीब ख़त्म हो चुकी थी कि 180 पुलिसवालों का एक जत्था धड़धड़ाते हुए हे मार्केट स्क्वायर आ पहुँचा। उसकी अगुवाई कैप्टन बॉनफील्ड कर रहा था जिससे शिकागो के नागरिक उसके क्रूर और बेहूदे स्वभाव के कारण नफरत करते थे। मीटिंग में शामिल लोगों को चले जाने का हुक्म दिया गया। सैमुअल फील्डेन पुलिसवालों को यह बताने की कोशिश ही कर रहे थे कि यह शान्तिपूर्ण सभा है, कि इसी बीच किसी ने मानो इशारा पाकर एक बम फेंक दिया
आज तक बम फेंकने वाले का पता नहीं चल पाया है। शिकागो में यह माना जाता है कि बम फेंकने वाला पुलिस का भाड़े का टट्टू था। स्पष्ट था कि बम का निशाना मज़दूर थे लेकिन पुलिस चारों और फैल गयी थी और नतीजतन बम का प्रहार पुलिसवालों पर हुआ। एक मारा गया और पाँच घायल हुए। पगलाये पुलिसवालों ने चौक को चारों ओर से घेरकर भीड़ पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। जिसने भी भागने की कोशिश की उस पर गोलियाँ और लाठियाँ बरसायी गयीं। छः मज़दूर मारे गये और 200 से ज़्यादा जख्मी हुए। मज़दूरों ने अपने ख़ून से अपने कपड़े रँगकर उन्हें ही झण्डा बना लिया। तभी से मज़दूरों के झण्डे का रंग लाल हो गया।

इस घटना के बाद पूरे शिकागो में पुलिस ने मज़दूर बस्तियों, मज़दूर संगठनों के दफ्तरों, छापाख़ानों आदि में ज़बरदस्त छापे डाले। प्रमाण जुटाने के लिए हर चीज़ उलट-पुलट डाली गयी। सैकड़ों लोगों को मामूली शक पर पीटा गया और बुरी तरह टॉर्चर किया गया। हज़ारों गिरफ्तार किये गये।
आठ मज़दूर नेताओं – अल्बर्ट पार्सन्स, आगस्टस स्पाइस, जार्ज एंजेल, एडाल्फ फिशर, सैमुअल फील्डेन, माइकेल श्वाब, लुइस लिंग्ग और आस्कर नीबे पर मुकदमा चलाकर उन्हें हत्या का मुजरिम करार दिया गया। इनमें से सिर्फ एक, सैमुअल फील्डेन बम फटने के समय घटनास्थल पर मौजूद था। जब मुकदमा शुरू हुआ तो सात लोग ही कठघरे में थे। डेढ़ महीने तक अल्बर्ट पार्सन्स पुलिस से बचता रहा। वह पुलिस की पकड़ में आने से बच सकता था लेकिन उसकी आत्मा ने यह गवारा नहीं किया कि वह आज़ाद रहे जबकि उसके बेकसूर साथी फर्जी मुकदमें में फँसाये जा रहे हों। पार्सन्स ख़ुद अदालत में आया और जज से कहा, "मैं अपने बेकसूर कॉमरेडों के साथ कठघरे में खड़ा होने आया हूँ।"
पूँजीवादी न्याय के लम्बे नाटक के बाद 20 अगस्त 1887 को शिकागो की अदालत ने अपना फैसला दिया। सात लोगों को सज़ाए-मौत और एक (नीबे) को पन्‍द्रह साल कैद बामशक्कत की सज़ा दी गयी। स्पाइस ने अदालत में चिल्लाकर कहा था कि "अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को… ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करनेवाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो … आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।"
सारे अमेरिका और तमाम दूसरे देशों में इस क्रूर फैसले के खिलाफ भड़क उठे जनता के ग़ुस्से के दबाव में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो अपील मानने से इन्कार कर दिया लेकिन बाद में इलिनाय प्रान्त के गर्वनर ने फील्डेन और श्वाब की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया। 10 नवम्बर 1887 को सबसे कम उम्र के नेता लुइस लिंग्ग ने कालकोठरी में आत्महत्या कर ली

काला शुक्रवार
अगला दिन (11 नवम्बर 1887) मज़दूर वर्ग के इतिहास में काला शुक्रवार था। पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फिशर को शिकागो की कुक काउण्टी जेल में फाँसी दे दी गयी। अफसरों ने मज़दूर नेताओं की मौत का तमाशा देखने के लिए शिकागो के दो सौ धनवान शहरियों को बुला रखा था। लेकिन मज़दूरों को डर से काँपते-घिघियाते देखने की उनकी तमन्ना धरी की धरी रह गयी। वहाँ मौजूद एक पत्रकार ने बाद में लिखा : "चारों मज़दूर नेता क्रान्तिकारी गीत गाते हुए फाँसी के तख्ते तक पहुँचे और शान के साथ अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो हुए। फाँसी के फन्दे उनके गलों में डाल दिये गये। स्पाइस का फन्दा ज़्यादा सख्त था, फिशर ने जब उसे ठीक किया तो स्पाइस ने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा। फिर स्पाइस ने चीख़कर कहा, 'एक समय आयेगा जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा ताकतवर होगी जिन्हें तुम आज दबा डाल रहे हो।…' फिर पार्सन्स ने बोलना शुरू किया, 'मेरी बात सुनो… अमेरिका के लोगो! मेरी बात सुनो… जनता की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकेगा…' लेकिन इसी समय तख्ता खींच लिया गया।"
13 नवम्बर को चारों मज़दूर नेताओं की शवयात्रा शिकागो के मज़दूरों की एक विशाल रैली में बदल गयी। पाँच लाख से भी ज़्यादा लोग इन नायकों को आखि़री सलाम देने के लिए सड़कों पर उमड़ पड़े।
तब से गुज़रे 123 सालों में अनगिन संघर्षों में बहा करोड़ों मज़दूरों का ख़ून इतनी आसानी से धरती में जज़्ब नहीं होगा। फाँसी के तख्ते से गूँजती स्पाइस की पुकार पूँजीपतियों के दिलों में ख़ौफ पैदा करती रहेगी। अनगिन मज़दूरों के ख़ून की आभा से चमकता लाल झण्डा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहेगा।

मई दिवस के अवसर पर ऐलान, समाजवाद ही है हमारा भविष्य



दुनिया का पूरा का पूरा लुटेरा पूंजीपति वर्ग ,मजदूरों और किसानों व मेहनतकशों की एकता से सबसे ज्यादा डरता है और खौफ खाता है, क्यों कि उनको पता है कि इसी एकता और भाईचारा के हथियार से वे इस लुटेरी राजव्यवस्था का तख्ता पलटेंगे और एक ऐसी समाज व्यवस्था का निर्माण करेंगे,,,,, 
जहां सब बराबर होंगे, 
जहां सब आजाद होंगे, 
जहां अन्याय नही होंगे, 
जहां सब तरह का शोषण ,,,,,मनुष्य का मनुष्य द्वारा और एक देश का दुसरे देशों द्वारा,,,, खत्म हो जाएगा, 
जहां अमीर गरीब नही होंगे, 
जहां ऊंच नीच का नाम नही रहेगा, 
जहां सब पढे लिखे होंगे, 
जहां सब मिलजुलकर रहेंगे, 
जहां सब अपनी काबलियत के हिसाब से काम करेंगे, 
जहां कोई किसी का गुलाम नही होगा, 
जहां सब भाई बहन की तरह रहेंगे, 
जहां कोई किसी का शोषण नही करेगा, 
जहां सब समाज के लिए जियेंगे, 
और 
सारा समाज प्रत्येक आदमी के लिए काम करेगा और उसका ध्यान रखेगा, 
जहां सरकार मजदूरों और किसानों की होगी, 
जहां सरकार केवल अमीरों की तिजोरियां भरने का काम नही करेगी, 
जहां सच्चा जनवाद आ जायेगा,
जहां शोषण करने वालों का और आदमी का खून पीने वालों का खात्मा कर दिया जायेगा,
जहां पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का विनाश कर दिया जायेगा, 
जहां, धर्म, जाति, रंग, लिंग, स्थान और नस्ल के आधार पर आधारित सभी तरह की विषमताओं, गैरबराबरी, शोषण और अन्याय का समूल विनाश कर दिया जायेगा,
जहां राज्य धर्म से दूरी बना कर रखेगा अर्थात जहां धर्म राज्य के कामकाज में कोई हस्तक्षेप नही करेगा, 
जहां धर्म की मनमानी नही चलेगी, 
जहां वैज्ञानिक संस्कृति और सोच का साम्राज्य होगा, 
जहां अंधविश्वास, ढपोरशंखी,मान्यताओं, तर्कहीनता, विवेकहीनता का सर्वनाश कर दिया जायेगा, 
जहां ज्ञान-विज्ञान  और तकनीक का बोलबाला होगा, 
जहां वैज्ञानिक संस्कृति का साम्राज्य कायम हो जायगा, 
जहां चारों तरफ प्यार, मुहब्बत, आपसी भाईचारा, आपसी मेलमिलाप और आपसी सहयोग होगा, 
ऐसी अदभुत व्यवस्था को समाजवादी समाज और समाजवादी व्यवस्था कहते हैं।
    यहां यह बात भी ध्यान रखने की है कि यह व्यवस्था खुद नही आयेगी, बल्कि इसके लिये मानव यानि कम्युनिस्टों, किसानों और मेहनतकशों की एकता के बल पर शोषण, अन्याय भेदभाव और गैरबराबरी पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को उखाडकर फैंकना होगा. यह एक लम्बे संघर्ष की दरकार रखता है. 

      मित्रों और कामरेडों आइये ,ऐसी व्यवस्था को स्थापित करने के अभियान में शामिल हों और एकजुट होकर काम करें......
मई दिवस जिंदाबाद, 
इंकलाब जिंदाबाद, 
समाजवाद जिंदाबाद.
                  साथियों आओ मई दिवस पर आज होने वाले कार्यक्रमो में बढ़चढ कर हिस्सेदारी करें।

क़ान्तीकारी अभिवादन के साथ,

लाल सलाम

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विरासत और योगदान



    10 मई 1857 का पावनतम दिवस हिंदुस्तान के इतिहास में हमेशा ही सबसे दैदिप्यमान सितारे की मानिंद चमकता रहेगा. भारत का  प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हिंदू मुस्लिम एकता की अनुपम मिसाल है. आजादी के इस महाभारत ने भारतीयों में स्वाभिमान और मनुष्यत्व का बोध जगाया, इस महासंग्राम ने अंग्रेजों के अजेय होने या बने रहने के होंसले को चकनाचूर कर दिया. 
       भारत के इस स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीयों के दिलों में आशा और उम्मीद व विश्वास का दिया जला दिया और एक ऐसी मशाल प्रज्वलित की कि जो नब्बे सालों तक यानी आजादी प्राप्त होने तक जलती रही. 1857 की आजादी की लडाई ने एशिया के मुल्कों को अंग्रेजों के गुलाम और तबाह होने से बचा लिया और सबसे बड़ी बात यह कि भारतीय जन और मन ने अंग्रेजों की सुपरनेचुरल होने के घमंड को चूरचूर कर दिया और यह भी कि उन्हें जंग में बाकायदा हराया जा सकता है. 
       मेरठ से शुरू हुई 1857 की आजादी और क्रांति की चिंगारी में मेरठ के 85 सैनिक थे जिनमें 53 मुस्लिम और 32 हिंदू सैनिक थे. जंगे आजादी के संग्राम में यह एक अद्भुत मिसाल है. भारत के मुक्ति संग्राम के लिए 1763 से सन 1900 तक भारत की जनता ने लुटेरे अंगरेजों से 123 विद्रोह किये. यानि की भारतीयों ने अपने निरंतर संग्राम से उन्हें अमन सुकून से नही जीने दिया. 
      अंग्रेजों जानपूछकर और एक षडयंत्र के तहत इस महान संग्राम को सिपाही बगावत ही बताते और लिखवाते रहे, मगर हकीकत कुछ और ही थी, महान क्रांतिकारी कार्ल मार्क्स और ऐंगेल्स ने इस लडाई को फौदी बगावत नही सचमुच राष्ट्रीय विद्रोह बताया और उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन को उखाड़ फैंकने के लिए यह भारतीय जनता की क्रांति है. ब्रिटिश लेबर लीडर अर्नेस्ट जोन्स ने कहा कि विश्व के इतिहास में जितने भी विद्रोहों की चेष्टा की गई है यह एक सबसे ज्यादा न्यायपूर्ण, भद्र और आवश्यक विद्रोह है. ब्रिटिश सांसद डिजरेली ने कहा कि 1857 का विद्रोह राष्ट्रीय विद्रोह है. भारतीय इतिहासकार अयोध्या सिंह ने बताया कि भारतीय स्वाधीनता के लिए यह पहला राष्ट्रीय संग्राम था. 
      इस संग्राम को विस्तार देने और लोकप्रिय बनाने के लिए पंडितों, साधुओं, मौलवियों और फकीरों को पलटनों में भेजकर उन्हें फिरंगियों के खिलाफ भडकाया गया. संग्राम को संगठित करने के लिए "तीर्थयात्रायें" की गयीं, विद्रोह के गुप्त दूत" कमल के फूल" हिंदुस्तानी पलटनों में और "रोटियां" गांवों में किसानों को जाग्रित करने और विद्रोह की तैयारियों के लिए एक सोची समझी रणनिती के तहत भेजी गयीं. 
 इस महासंग्राम का मकसद था, फिरंगियों को मार भगाना, देश को आजाद कराना, लुटेरे अंगरेजों की लूट, अत्याचार और शोषण से जनता और वतन को बचाना. 
      इस आजादी के संग्राम के सिपाही थे,,, किसान मजदूर, जमींदार ताल्लुकदार, राजा रानी और नवाब व बेगम, कारीगर सेठ साहूकार, और हिंदू मुस्लिम भारतीय सैनिक.इस संग्राम की तैयारियां 1854 से एक साझा अभियान और रणनिती के साथ चल रही थीं. इस संग्राम के अगुवा सम्राट बहादुर शाह जफर कोऔर उनके सचिव अमिचंद बनाये गये. संग्राम की कमान नाना साहिब और उनके सचिव अजीमुल्ला खां के हाथों में सौंपी गयी थी .
      इस महायुद्ध के संचालन के लिये एक युध्द संचालन समिति का गठन किया गया था जिसमें पचास प्रतिशत हिंदू और पचास फीसदी मुस्लिम थे.आजादी की इस लडाई में सबसे बहादुर दो महिलायें थी, महारानी लक्छमीबाई जिनके तोपची गौसखान और कर्नल जमां खां और खुदा बख्श थे. महारानी लक्छमीबाई ने सभी जातियों के नौजवानों और नवयुवतियों की मिली जुली फौज तैयार की थी. 
     दूसरी बहुत ही बहादुर, पराक्रमी और सुयोग्य सेनापति बेगम हजरत महल अवध की महारानी थी जो अपनी जिंदगी के आखिरी लम्हों तक अंगरेजों से युध्दरत रही, उनके अनेक हिंदू राजा और सरदार थे जैसे सरदार मामू, रावराम बख्शसिंह, चंदा सिंह, गुलाब सिंह, हनुमंत सिंह आदि आदि. राजा बालकृष्ण सिंह उनके प्रधानमंत्री थे. 
      इस संग्राम की सफलता के लिये बहादुरशाह जफर ने अपने हाथों से भारत के कई राजाओं को अपने हाथ से  एक खत लिखा था,,,,, मेरी यह दिली इच्छा है कि फिरंगी किसी भी तरह और किसी भी कीमत पर हिंदुस्तान से भगा दिये जायं और सारा हिंदुस्तान आजाद हो जाये. 
      इस महासंग्राम में औरतों का भी बडा योगदान है. एक औरत थी अजीजन. कौन भुला सकता है उनके योगदान को? ये नर्तकी थीं. ये भारतीय सिपाहियों की 
बहुत प्यारी थीं, ये मर्दाना भेस धारण करती और हमारे स्वतंत्रता सेनानी सिपाहियों को जंगेआजादी के लिए प्रोत्साहित करती. यह भी कहा जाता है कि ये अंग्रेजों के भेद हमारे सिपाहियों को बताती थीं. 
       बैरकपुर में मंगलपांडे के शहीद हो जाने के बाद अंग्रेज ,हिंदुस्तानी सैनिकों से इस कदर खफा और खौफजदा हो गये थे कि वे विद्रोहियों को "पांडे "और विद्रोहीसेना को "पांडे सेना" कहने लगे थे .
      आइये देखते हैं कि हमारे शहीद जंग और हमें गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों के बारे में क्या कहते थे. शहीद अली  नकी खां ने कहा था कि हिंदुस्तान की क्रांति इंसाफपसंद है और अंग्रेजों का रास्ता अन्याय और जुल्मोसितम, ठगी व खुदगर्जी का है " एक पुस्तक विक्रेता पीर अली ने फांसी के फंदे पर खडा होकर कहा था कि तुम हम जैसे लोगों को फांसी दे सकते हो मगर हमारे आजादी के अादर्श को नही और मेरे खून से हजारों वीर पैदा होंगे ."
      देखिये बिहार के अस्सी साला वीर  कुंवर सिंह का अदभुत कारनामा, वे मैदानेजंग में लड रहे थे कि एक गोला उनको आकर लगता है और उनका एक हाथ कोहनी से नीचे से जखमी हो जाता है तो वे दूसरे हाथ से इसे काट कर गंगा मैया में अर्पित कर देते हैं और लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं और मरने से पहले लडाई की कमान अपने छोटे भाई अमरसिंह को सौंप जाते हैं जो आजादी की जंग में लडते हुए शहीद हो जाते हैं, 
       इस मादरेवतन को आजाद कराने वाला एक और आश्चर्य चकित करने वाला कारनामा देखिये, वीर कुंवर सिंह के परिवार की 150 औरतों ने 19वीं सदी का "जौहर व्रत" किया.अपने को अंग्रेजों के हाथों पडकर अपना पत्नीत्व लुटवाने से बचने के लिए इन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों ने तोपों के मुहाने पर खडे होकर, तोप के पलीतों में खुद ही आग लगाली और आजादी के लिए कुरबान हो गयीं, कुरबान जाऊं इन सबसे बहादुर औरतों पर.नंदन वंदन और अभिनंदन इन सब माताओं, बहनों बेटियों बहुओं का. क्या ऐसी मिसाल दुनिया के किसी जंगेआजादी के आंदोलन में मिल सकती है? 
      दगाबाजी, छल कपट और मक्कारियां अंग्रेजों के सबसे बडे हथियार रहे हैं और इनमें उनका कोई सानी नही था. अब देखिये इस आजादी के संग्राम में कुछ गद्दार और देशद्रोहियों भारतीय राजाओं, नवाबों की कारस्तानियां,,,,,, गद्दार सिंधिया और उसके मंत्री दीवान दिनकर ने महारानी लक्छमीबाई को अपने किले में नही घुसने दिया था, जीयाजी राव सिंधिया के बारे में तत्कालीन गवर्नर जनरल कैंनिंग का विलायत को भेजा गया तार से जानिये कि वह क्या कहता है,,,,," अगर जियाजी राव विद्रोह में शामिल हो जाता तो हमें कल ही अपना बिस्तर बोरिया बांधकर चले आना होगा ".
      और गद्दारों के बारे में भी जानिये,,,,, पोबाई के राजा गद्दार जगन्नाथ सिंह ने इस स्वाधीनता संग्राम के सबसे बेहतरीन वक्ता और संगठनकर्ता मौलाना अहमदशाह का सिर कलम करके अंग्रेजों को भेंट किया और अंग्रेजों से 50000रू का इनाम पाया. यही पर एक और गद्दार की कारस्तानी देखिये,,,,, दग़ाबाज़ जागीरदार मानसिंह ने इस महासंग्राम के सर्वश्रेष्ठ वीर तातिया टोपे को पकडकर अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया, तातिया टोपे दक्षिण भारत में जाकर अंग्रेजों से छापामार जंग जारी रखना चाहते थे, अंग्रेजों ने महान राष्ट्रवादी वीर तातिया टोपे को 18 अपैल 1859को शिवपुरी में फांसी लगा दी. 
        और देखिये इस गद्दारों की फहरिस्त में कौन कौन शामिल थे,,, अधिकांश सिख सामंतों, गुरखा सामंतों, राजाओं, जमांदारों,  हैदराबाद के निजाम, सम्राट बहादुरशाह जफर के समधी मिर्जा इलाही बख्श ने जमकर दगाबाजी और गद्दारी की और क्रांतिकारियों की बैठकों की सूचनायें अंग्रेजों को दी और लगातार अंग्रेजों का बखूबी साथ निभाया. 
         इन्हीं तमाम सूचनाओं के आधार पर खूंखार, खूनी और हत्यारे अंग्रेज हडसन ने साम्राट बहादुरशाह जफर के दो बेटों और एक पौते को  सडक पर खडा करके गोलियों से उडा दिया, उनकी लाशें कई दिनों तक वहीं पडी रही, उन्हें चील कऊऐ नोचते रहे और बाद में उनके कंकालों को जमना नदी में फैंक दिया गया. 
       यह है संक्षेप में हमारे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की छोटी सी दास्तान. यह दुनिया के आजादी के इतिहास में सबसे बडी लडाई, यह था स्वाधीनता के लिये भारतीय जनता का अद्भुत इतिहास.दोस्तों हम अभी भी पूरी तरह से आजाद नही हुऐ हैं, हम आर्थिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से अभी भी गुलाम बने हुए हैं. हमें अभी भी पूर्ण रूप से आजाद होना है, 1857 की आजादी की जंग हमें पूर्ण रूप से आजाद होने के कुछ मंत्र, कुछ हथियार, कुछ दाँवपेंच मौहिया कराती है, हमें पूर्ण रूप से आजाद होने के लिए इनका प्रयोग करना ही होगा.याद रखना वही साम्राज्यवाद दूसरे भेष भरके हमारी बची खुची आजादी पर हमले करके हमें फिर से गुलाम बनाने पर आमादा है. हमें उम्मीद है कि हिंदुस्तान की महान जनता जातिवाद, जुमलेबाजी, साम्प्रदायिकता बेईमानी और भ्रष्टाचार की विकृतियों को परास्त करके, किसानों, मजदूरों और तमाम मेहनतकशों को पूर्ण रूप से आजाद कराने की जंग एकबार फिर लडेगी. 
       अपने इस लेख में हम कुछ काव्यांश भी डाल रहे हैं, दिखिये जरा,,,,,,, देखिये सुभद्रा कुमारी चौहान क्या कहती हैं,,,,,,, 
   चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी, 
   दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी..... 
बहादुरशाह जफर का एक बहुत ही खूबसूरत और मशहूर शेर देखिये,,,,,,, 
     गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमाम की, 
     तख्त लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की. 
उनकी एक और ख़्वाहिश भी देखिये, वे अपनी मादरेवतन मे दफनाये जाने के लिए कितने बैचेन और लालायित थे,,,,,,, 
    कितना बदनसीब है जफर, दफ्न के लिए, 
    दो गज जमीन भी न मिली कू-ऐ-यार में. 
और देखिये हिंदुस्तानी जनता की जुल्म से उलझने और लडने की इच्छा और कुव्ववत,,,,,,,, 
     यूं ही हमेशा जुल्म से उलझती रही है खल्क, 
     न उनकी रस्म नयी और ऩ अपनी रीत नयी. 
     यूं ही हमेशा हमने खिलायें हैं आग में फूल ,
     न उनकी हार नयी और न अपनी जीत नयी .
          भारत की जंगे आजादी में इस महाभारत का बहुत बडा योगदान है.इसका इतिहास डेढ लाख पन्नों में लिखा गया है, दुनिया में आजादी का सबसे लंबा विस्तृत विवरण.  इस महासंग्राम की  बडी विरासत है,हिंदू मुस्लिम की एकता की विरासत , यह धरम को राजनीति में आडे नही आने देता, यह हमारी आजादी का  मक़सद तय कर देती है, और इस देश और दुनिया को एक महामंत्र दे जाता है कि इस देश के मजदूर किसान और मेहनतकशऔर बुध्दिजीवी एकजुट होकर किसी भी दुश्मन को हरा सकते हैं और किसी भी जंग को जीत सकते हैं, यहीं इस जंग के सबसे बड़े सबक हैं.

मई दिवस का संक्षिप्त इतिहास: हे मार्केट के शहीदों का खून बेकार नहीं जायेगा


कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिख एंगेल्स ने 'कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा–पत्र' का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया था – समूचे यूरोप को एक भूत सता रहा है – कम्युनिज्म का भूत। 1848 में लिखे गये इन शब्दों के बाद आज 167 वर्ष बीत गये हैं और सचाई यह है कि आज भी दुनिया के हर कोने में शोषक वर्ग की रातों की नींद को यदि किसी चीज ने हराम कर रखा है तो वह है मजदूर वर्ग के सचेत संगठनों के क्रांतिकारी शक्ति में बदल जाने की आशंका ने, आम लोगों में अपनी आर्थि‍क बदहाली के बारे में बढती हुई चेतना ने।

सोवियत संघ में जब सबसे पहले राजसत्ता पर मजदूर वर्ग का अधिकार हुआ उसके पहले तक सारी दुनिया में पूंजीपतियों के भोंपू कम्युनिज्म को यूटोपिया (काल्पनिक खयाल) कह कर उसका मजाक उड़ाया करते थे या उसे आतंकवाद बता कर उसके प्रति खौफ पैदा किया करते थे। 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति के बाद पूंजीवादी शासन के तमाम पैरोकार सोवियत व्यवस्था की नुक्ताचीनी करते हुए उसके छोटे से छोटे दोष को बढ़ा–चढ़ा कर पेश करने लगे और यह घोषणा करने लगे कि यह व्यवस्था चल नहीं सकती है। अब सोवियत संघ के पतने के बाद वे फिर उसी पुरानी रट पर लौट आये हैं कि कम्युनिज्म एक बेकार के यूटोपिया के अलावा और कुछ नहीं है।

कम्युनिज्म की सचाई को नकारने की ये तमाम कोशिशें मजदूर वर्ग के प्रति उनके गहरे डर और आशंका की उपज भर है। रूस, चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और दुनिया के अनेक स्थानों पर होने वाली क्रांतियां इस बात का सबूत हैं कि पूंजीवादी शासन सदा–सदा के लिये सुरक्षित नहीं है। सभी जगह मजदूर वर्ग विजयी हो सकता है। यही सच शोषक वर्गों और उनके तमाम भोंपुओं को हमेशा आतंकित किये रहता है। और, मई दिवस के दिन दुनिया के कोने–कोने में मजदूरों के, पूंजीवाद की कब्र खोदने के लिये तैयार हो रही शक्ति के, विशाल प्रदर्शनों और हड़तालों से हर वर्ष इसी सच की पुरजोर घोषणा की जाती है कि 'पूंजीवाद चल नहीं सकता'। इस दिन शासक वर्गों को उनके शासन के अवश्यंभावी अंत की याद दिलाई जाती है, उन्हें बता दिया जाता है कि उनके लिये अब बहुत अधिक दिन नहीं बचे हैं।

कैसे मई दिवस सारी दुनिया में मजदूर वर्ग के एक सबसे बड़े उत्सव के रूप में स्वीकृत हुआ? क्योंि इसे हर देश का मजदूर वर्ग अपना उत्सव मानता है और सारी दुनिया के मजदूर इस दिन अपनी एकजुटता का परिचय देते हैं? क्यों आज भी वित्त और उद्योग के नेतृत्वकारी लोग मई दिवस के पालन से आतंकित रहते हैं? इन सारे सवालों का जवाब और कही नहीं, मई दिवस के इतिहास की पर्तों के अंदर छिपा हुआ है।
मई दिवस का जन्म आठ घंटों के दिन की लड़ाई के अंदर से हुआ था। यही लड़ाई क्रमश: सारी दुनिया के मजदूर वर्ग के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गयी।

इस धरती पर कृषि के जन्म के साथ ही पिछले दस हजार वर्षों से मेहनतकशों का अस्तित्व रहा है। गुलाम, रैयत, कारीगर आदि नाना रूपों में ऐसी मेहनतकश जमात रही है जो अपनी मेहनत की कमाई को शोषक वर्गों के हाथ में सौंपती रही है। लेकिन आज का आधुनिक मजदूर वर्ग, जिसका शोषण वेतन की प्रणाली की ओट में छिपा रहता है, इसका उदय कुछ सौ वर्ष पहले ही हुआ था। इस मजदूर के शोषण पर एक चादर होने के बावजूद यह शोषण किसी से भी कम बर्बर नहीं रहा है। किसी तरह मात्र जिंदा रहने के लिये पुरुषों, औरतों, और बच्चों तक को निहायत बुरी परिस्थितियों में दिन के सोलह–सोलह, अठारह–अठारह घंटे काम करना पड़ता था। इन परिस्थितियों के अंदर से काम के दिन की सीमा तय करने की मांग का जन्म हुआ। सन् 1867 में मार्क्स ने इस बात को नोट किया कि सामान्य (निश्चित) काम के दिन का जन्म पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच लगभग बिखरे हुए लंबे गृह युद्ध का परिणाम है।

काल्पनिक समाजवादी रौबर्ट ओवेन ने 1810 में ही इंगलैंड में 10 घंटे के काम के दिन की मांग उठायी थी और इसे अपने समाजवादी फर्म 'न्यू लानार्क' में लागू भी किया था। इंगलैंड के बाकी मजदूरों को यह अधिकार काफी बाद में मिला। 1847 में वहां महिलाओं और बच्चों के लिये 10 घंटे के काम के दिन को माना गया। फ्रांसीसी मजदूरों को 1848 की फरवरी क्रांति के बाद ही 12 घंटे का काम का दिन हासिल हो पाया।

जिस संयुक्त राज्य अमरीका में मई दिवस का जन्म हुआ वहां 1791 में ही फिलाडेलफिया के बढ़इयों ने 10 घंटे के दिन की मांग पर काम रोक दिया था। 1830 के बाद तो यह एक आम मांग बन गयी। 1835 में फिलाडेलफिया के मजदूरों ने कोयला खदानों के मजदूरों के नेतृत्व में इसी मांग पर आम हड़ताल की जिसके बैनर पर लिख हुआ था – 6 से 6 दस घंटे काम और दो घंटे भोजन के लिये।

इस 10 घंटे के आंदोलन ने मजदूरों की जिंदगी पर वास्तविक प्रभाव डाला। सन् 1830 से 1860 के बीच औसत काम के दिन 12 घंटे से कम होकर 11 घंटे हो गये।

इसी काल में 8 घंटे की मांग भी उठ गयी थी। 1836 में फिलाडेलफिया में 10 घंटे की जीत हासिल करने के बाद 'नेशनल लेबरर' ने यह ऐलान किया कि  दस घंटे के दिन को जारी रखने की हमारी कोई इच्छा नहीं है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि किसी भी आदमी के लिये दिन में आठ घंटे काम करना काफी होता है। मशीन निर्माताओं और लोहारों की यूनियन के 1863 के कन्वेंशन में 8 घंटे के दिन की मांग को सबसे पहली मांग के रूप में रखा गया।

जिस समय अमरीका में यह आंदोलन चल रहा था, उसी समय वहां दास प्रथा के खिलाफ गृह युद्ध भी चल रहा था। इस गृह युद्ध में दास प्रथा का अंत हुआ और स्वतंत्र श्रम पर टिके पूंजीवाद का सूत्रपात हुआ। गृह युद्ध के बाद के काल में हजारों पूर्व दासों की आकांक्षाओं को बढ़ा दिया। इसके साथ आठ घंटे का आंदोलन भी जुड़ गया। मार्क्सस ने लिखा:  दास प्रथा की मौत के अंदर से तत्काल एक नयी जिंदगी पैदा हुई। गृह युद्ध का पहला वास्तविक फल आठ घंटे के आंदोलन के रूप में मिला। यह आंदोलन वामन के डगों की गति से अटलांटिक से लेकर पेसिफिक तक, नये इंगलैंड से लेकर कैलिफोर्निया तक फैल गया।

प्रमाण के तौर पर मार्क्स ने 1866 में बाल्टीमोर में हुई जैनरल कांग्रेस आफ लेबर की घोषणा से यह उद्धरण भी दिया था कि  इस देश को पूंजीवादी गुलामी से मुक्त करने के लिये आज की पहली और सबसे बड़ी जरूरत ऐसा कानून पारित करवाने की है जिससे अमरीकी संघ के सभी राज्यों में सामान्य कार्य दिवस आठ घंटों का हो जाये।

इसके छ: वर्षों बाद, 1872 में न्यूयार्क शहर में एक लाख मजदूरों ने हड़ताल की और निर्माण मजदूरों के लिये आठ घंटे के दिन की मांग को मनवा लिया। आठ घंटे के दिन को लेकर इसी प्रकार के जोरदार आंदोलन के गर्भ से मई दिवस का जन्म हुआ था। आठ घंटे के लिये संघर्ष को 1 मई के साथ 1884 में अमरीका और कनाडा के फेडरेशन आफ आरगेनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन (एफओटीएलयू) के एक कंवेशन में जोड़ा गया था। इसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि  यह संकल्प लिया जाता है कि 1 मई 1886 के बाद कानूनन श्रम का एक दिन आठ घंटों का होगा और इस जिले के सभी श्रम संगठनों से यह सिफारिश की जाती है कि वे इस उल्लेखित समय तक इस प्रस्ताव के अनुसार अपने कानून बनवा लें।

एफओटीएलयू के इस आह्वान के बावजूद सचाई यह थी कि यह यूनियन अपने आप में इतनी बड़ी नहीं थी कि उसकी पुकार पर कोई राष्ट्र–व्यापी आंदोलन शुरू हो सके। इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया स्थानीय स्तर की कमेटियों ने। तय हुआ कि देश भर में 1 मई को दिन व्यापक प्रदर्शन और हड़तालें की जायेगी। शासक वर्गों में इससे भारी आतंक फैल गया। अखबारों के जरिये यह व्यापक प्रचार किया गया कि इस आंदोलन में कम्युनिस्ट घुसपैठियें आ गये हैं। लेकिन कई मालिकों ने पहले से ही इस मांग को मानना शुरू कर दिया और अप्रैल 1886 तक लगभग 30 हजार मजदूरों को 8 घंटे काम का अधिकार मिल चुका था।

मालिकों की ओर से 1 मई के प्रदर्शनों में भारी हिंसा का आतंक पैदा किये जाने के बावजूद दुनिया के पहले मई दिवस पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सबसे बड़ा प्रदर्शन अमरीका के शिकागो शहर में हुआ जिसमें 90,000 लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें से 40,000 ऐसे थे, जिन्होंने इस दिन हड़ताल का पालन किया था। न्यूयार्क में 10,000, डेट्रोयट में 11000 मजदूरों ने हिस्सा लिया। लुईसविले, बाल्टीमोर आदि अन्य स्थानों पर भी जोरदार प्रदर्शन हुए। लेकिन इतिहास में मई दिवस के स्थान को सुनिश्चित करने वाला प्रदर्शन शिकागो का ही था।
शिकागो में 8 घंटे की मांग पर पहले से ही एक शक्तिशाली आंदोलन के अस्तित्व के अलावा आईडब्लूपीए नामक संस्था की मजबूत उपस्थिति थी जो यह मानती थी कि यूनियनें किसी भी वर्ग–विहीन समाज के भ्रूण के समान होती हैं। इसके नेता अल्बर्त पार्सन्स और अगस्त स्पाइस की तरह के प्रभावशाल व्यक्तित्व थे। यह संस्था तीन भाषाओं में पांच अखबार निकालती थी और इसके सदस्यों की संख्या हजारों में थी। यहां 1 मई के प्रदर्शन के बाद भी हड़तालों का सिलसिला जारी रहा और 3 मई तक हड़ताली मजदूरों की संख्या 65,000 तक पंहुच गयी। इससे खौफ खाये उद्योग के प्रतिनिधियों ने मजदूरों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने का फैसला किया। 3 मई की दोपहर से ही जंग शुरू हो गयी। स्पाईस आरा मिल के मजदूरों को संबोधित कर रहे थे और मालिकों के साथ आठ घंटे के लिये समझौते की तैयारियां करने में लगे हुए थे। उसी समय कुछ सौ मजदूर लगभग चौथाई मील दूर स्थित मैक्कौर्मिक हार्वेस्टर वर्क्स  की ओर चल दिये जहां इस आरा मिल से निकाले गये मजदूर मौजूद थे। मिल कुछ गद्दार मजदूरों के जरिये चलायी जा रही थी।

पंद्रह मिनट के अंदर ही वहां पुलिस के सैकड़ों सिपाही पंहुच गये। गोलियों की आवाज सुन कर इधर सभा में उपस्थित स्पाईस और बाकी आरा मजदूर मैक्कौर्मिक की ओर बढ़े। पुलिस ने उन पर भी गोलियां चलायी और घटना–स्थल पर ही चार मजदूरों की मौत हो गयी।

इसके ठीक बाद ही स्पाईस ने अंग्रेजी और जर्मन भाषा में दो पर्चे जारी किये। एक का शीर्षक था प्रतिशोध! मजदूरो, हथियार उठाओ। इस पर्चे में पुलिस के हमलों के लिये सीधे मालिकों को जिम्मेदार ठहराया गया था। दूसरे पर्चे में पुलिस के हमले के प्रतिवाद में हे मार्केट स्क्वायर पर एक जन–सभा का आह्वान किया गया था।
चार मई को सभा के दिन पुलिस ने मजदूरों का दमन शुरू कर दिया, इसके बावजूद शाम की सभा के समय हे मार्केट स्क्वायर पर 3000 लोग इके हुए। शहर के मेयर भी आये थे, यह सुनिश्चित करने के लिये कि सभा शांतिपूर्ण रहे। सभा को सबसे पहले स्पाईस ने संबोधित किया। उन्होंने 3 मई के हमले की भत्र्सना की। इसके बाद पार्सन्स बोले और आठ घंटे की लड़ाई के महत्व पर प्रकाश डाला। जब ये दोनों नेता बोल कर चले गये तब बचे हुए लोगों को सैमुएल फील्डेन ने संबोधित करना शुरू किया। फील्डेन के शुरू करने के कुछ मिनट बाद ही मेयर भी चले गये।

मेयर के जाते ही लगभग 180 पुलिस वालों ने वक्ताओं को घेर लिया और सभा को भंग करने की मांग करने लगे। फील्डेन ने कहा कि यह सभा पूरी तरह से शांतिपूर्ण है, इसे क्यों भंग किया जाये। इसी समय भीड़ में से पुलिस वालों पर एक बम गिरा। इससे 66 पुलिसकर्मी घायल होगये जिनमें से सात बाद में मारे गये। इसके साथ ही पुलिस ने भीड़ पर अंधाधु्ंध गोलियां चलानी शुरू कर दी, जिसमे कई लोग मारे गये और 200 से ज्यादा जख्मी हुए।

इसके साथ ही अखबारों और मालिकों ने मजदूरों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया, व्यापक धर–पकड़ शुरू हो गयी। मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । स्पाईस, फील्डेन, माइकल स्वाब, अडोल्फ फिशर, जार्ज एंजेल, लुईस लिंग, और आस्कर नीबे पकड़ लिये गये। पार्सन्स को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर पायी, वे खुद ही मुकदमे के दिन अदालत में हाजिर हो गये।

इन सब के खिलाफ अदालत में जिस प्रकार मुकदमा चलाया गया वह एक कोरे प्रहसन के अलावा और कुछ नहीं था। अभियुक्तों के खिलाफ किसी प्रकार के प्रमाण पेश नहीं किये गये। सरकार की ओर से सिफर्  यही कहा गया कि  आज कानून दाव पर है। अराजकता पर राय सुनानी है। न्यायमूर्तियों ने इन लोगों को चुना है और इन्हें अभियुक्त बनाया गया है क्योंकि ये नेता हैं। ये अपने हजारों समर्थकों से कहीं ज्यादा दोषी हैं। ... इन लोगों को दंडित करके एक उदाहरण पेश किया जाए, हमारी संस्थाओं, हमारे समाज को बचाने के लिये इन्हें फांसी दी जायें।

नीबे को छोड़ कर सबको फांसी की सजा सुनायी गयी। फील्डेन और स्वाब ने माफीनामा दिया तो उनकी सजा कम करके उन्हें उम्र कैद दी गयी। 21 वर्षीय लिंग फांसी देने वाले के मूंह में डाइनामाइट का विस्फोट करके उसे चकमा देकर भाग गया। बाकी को 11 नवंबर 1887 के दिन फांसी दे दी गयी।

मजे की बात यह है कि इसके छ: साल बाद इलिनोइस के गवर्नर जान ऐटजेल्ड ने नीबे,फील्डेन और स्वाब को दोषमुक्त कर दिया तथा जिन पांच लोगों को फांसी दी गयी थी, उन्हें मृत्युपरांत माफ कर दिया गया, क्योंकि मामले की जांच करने पर पाया गया कि उनके खिलाफ सबूतों में कोई दम नहीं था और वह मुकदमा एक दिखावा भर था।

गौर करने लायक बात यह भी है कि हे मार्केट की उस घटना के ठीक बाद सारी दुनिया में मजदूरों के खिलाफ व्यापक दमन का दौर शुरू हो गया था। जिन मजदूरों ने अमरीका में आठ घंटे काम का अधिकार हासिल कर लिया था, उनसे भी यह अधिकार छीन लिया गया। इंगलैंड, हालैंड, रूस, इटली, फ्रांस, स्पेन सब जगह मजदूरों की सभाओं पर पाबंदियां लगा दी गयी। लेकिन हे मार्केट की इस घटना ने अमरीका में चल रही आठ घंटे की लड़ाई को सारी दुनिया के मजदूर आंदोलन के केंद्र में स्थापित कर दिया। इसीलिये 1888 में जब अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर(एएफएल) ने यह ऐलान किया कि 1 मई 1990 का दिन आठ घंटे काम की मांग पर हड़तालों और प्रदर्शनों के जरिये मनाया जायेगा तो इस आान की तरफ सारी दुनिया का ध्यान गया था।
1889 में पैरिस में फ्रांसीसी क्रांति की शताब्दी पर मार्क्सि ‍स्टे  इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस की सभा में जिसमें 400 प्रतिनिधि उपस्थित थे, वहां एएफएल की ओर से एक प्रतिनिधि एक मई के आंदोलन के कार्यक्रम का आहवान करने पंहुचा था। कांग्रेस में सारी दुनिया में इस दिन विशाल प्रदर्शन करने का प्रस्ताव पारित किया गया। दुनिया के कोने–कोने में 1 मई 1990 के दिन मजदूरों के शानदार प्रदर्शन हुए और यहीं से आठ घंटे की लड़ाई ने एक अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष का रूप ले लिया।

फ्रेडरिख ऐंगेल्स इस दिन लंदन के हाईड पार्क में मजदूरों की 5 लाख की सभा में शामिल हुए थे। इसके बारे में 3 मई को उन्होंने लिखा: जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं, यूरोप और अमरीका के मजदूर अपनी ताकत का जायजा ले रहे हैं; वे पहली बार एक फौज की तरह, एक झंडे के तले, एक फौरी लक्ष्य के लिये लड़ाई के खातिर, आठ घंटों के काम के दिन के लिये इके हुए हैं।

इसके बाद धीरे–धीरे हर साल मई दिवस के आयोजन में दुनिया के एक–एक देश के मजदूर शामिल होने लगे। 1891 में रूस, ब्राजील, और आयरलैंड के मजदूरों ने भी मई दिवस मनाया। 1920 में पहली बार रूस की समाजवादी क्रांति के बाद चीन के मजदूरों ने मई दिवस मनाया। भारत में 1927 में कलकत्ता, मद्रास और बंबई में व्यापक प्रदर्शनों के जरिये पहली बार मई दिवस का पालन किया गया। और, इस प्रकार मई दिवस सच्चे अर्थों में मजदूरों का एक अन्तररयष्ट्रीय दिवस बन गया।

हे मार्केट के शहीदों के स्मारक पर अगस्त स्पाईस के ये शब्द खुदे हुए हैं कि  वह दिन आयेगा जब हमारी खामोशी आज हमारी दबा दी गयी आवाज से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होगी।

सारी दुनिया में आज जिस पैमाने पर मई दिवस का पालन होता है और इस अवसर पर लाल झंडा उठाये मजदूर दुनिया की परिस्थितियों का ठोस जायजा लेते हुए जिस प्रकार अपने आगे के आंदोलन की रूप–रेखा तैयार करते हैं, इससे स्पाईस के शब्द आज बिल्कुल सच में बदलते हुए जान पड़ते हैं। आज भी यह सच है कि साम्राज्यवादियों और पूंजीपतियों की रूह मई दिवस के नाम से कांपती है। मई दिवस आज भी मजदूर वर्ग को उसकी निश्चित विजय की प्रेरणा देता है और शासक वर्गों की निश्चित हार का ऐलान करता है।

जी डी शर्मा


Monday, 24 April 2023

शेक्सपियर - सोना

वलीमियाँ शेख़पीर उर्फ़ चचा विलियम शेक्सपियर कह गये हैं -

सोना? पीला, चमचमाता, बहुमूल्य सोना?
नहीं, देवताओ, मैं नहीं झूठा उपासक!..
इतना-सा सोना बनाता स्याह को सफ़ेद, अनुचित को उचित,
निकृष्ट को उदात्त, वृद्ध को तरुण, कायर को नायक!
...यह छीन लेता तुमसे तुम्हारे पुजारी और सेवक,
खींच लेता तकिये बलवानों के सिर के नीचे से :
यह पीत दास
जोड़ता-तोड़ता धर्मों को, अभिशप्तों को देता वरदान,
जीर्ण कोढ़ को बनाता उपास्य, दिलाता चोरों को सम्मान,
और पदवी, अवलम्ब, सांसदों के बीच स्थान :
यह क्रन्दन करती विधवा को फिर बना देता दुल्हन;
रिसते नासूर और अस्पताल भी भागें जिससे दूर,
कर देता उसे सुरभित, पुष्पित;
पीछे मुड़, अभिशप्त धरती, गणिका सारे जगत की,
कारण राष्ट्रों के युद्धों, वैमनस्य का।
... ... ...
राजाओं का मधुर हत्यारा!
बच्चों से पिता का नाता प्यार से तोड़ता तू,
दम्पति की पवित्र शय्या का दूषणकर्ता,
शूरवीर युद्ध देवता, तू!
चिर तरुण, चिर नूतन,
प्रणय-पात्र, प्रणय-याचक सुकोमल,
डियान की गोदी का पावन हिम
तेरी लज्जारुणिमा से जाता पिघल!
तू प्रत्यक्ष भगवान,
असम्भव है जिन्हें करना संलग्न,
उन्हें देता तू जोड़, बाध्य कर देता
उन्हें लेने को एक दूसरे का चुम्बन !
हर उद्देश्य के लिए, हर भाषा बोलने वाला तू,
ओ हृदय को छूने वाले, ज़रा सोच यह,
दास तेरा करता विद्रोह, तेरे बूते पर
उनमें होता कलह, रक्तपात,
ताकि संसार पर हो जाये हैवानों का राज !

'तिमोन ऑफ़ एथेन्स', अंक 4, दृश्य तीन
कार्ल मार्क्स, '1844 की आर्थिक-दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ' में उद्धृत

Thursday, 20 April 2023

आमने-सामने की दुकान

*आमने-सामने की दुकान*

एक बाजार में दो दुकाने आमने-सामने लगी होती हैं। दोनों दुकानों के दुकानदार अपना-अपना माल बेचने के लिए किस तरह से ग्राहकों को पटाने की होड़ कर रहे हैं। एक चिल्ला रहा है-सामने वाली दुकान पर रखी आलू अंदर से सड़ी हुई है, दूसरा चिल्ला रहा है सामने वाली दुकान पर रखी प्याज जहरीले रसायन से तैयार की गई है, उसकी मटर की फलियों में फफूंद है,.... इत्यादि। दोनों एक दूसरे के माल के बारे में बुरा-भला कह रहे हैं। यह उस बाजार की कहानी है जहां सबको अपनी दुकान चलाने की व अपने माल के प्रचार-प्रसार की संवैधानिक आजादी है।
         
यही बात धर्म की दुकान पर फिट बैठ रही है, कुछ लोग 22 तरह की प्रतिज्ञाएं दिला रहे हैं, यानी सामने वाली दुकान पर खरीद-फरोख्त ना करने की कसम दिला रहे हैं। जिससे लोग उनकी अपनी दुकान के पक्के ग्राहक बन सके। वे सिद्ध करना की कोशिश कर रहे हैं कि यह दुनिया में चलने वाली सबसे बड़ी दुकान "बौद्ध धर्म" की दुकान है। दूसरी दुकान वाला भी कुछ इसी तरह से भीड़ में चिल्ला रहा है। वह भी सामने वाली दुकान के माल सडे़ होने की बात कहते हुए, अपने दुकान के पक्के ग्राहक बनाने की कसम दिला रहा है। कह रहा है, इस दुकान का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है, यह हिंदू धर्म की दुकान है। हालाँकि पहले ऐसी या इस नाम की कोई दुकान नहीं थी, यह दुकान अभी निर्माणाधीन है।

इसी तरह से तीसरी दुकान वाला चिल्ला कर कह रहा है। वह भी अपनी दुकान के पक्के ग्राहक तैयार करने की फिराक में लगा हुआ है। कह रहा है यह दुनिया में फैले हुए इस्लाम धर्म की दुकान है। कोई कह रहा है यह ईसाई धर्म की दुकान है। कोई यहूदी धर्म की बता रहा है।
     
यह उस भारतीय बाजार की कहानी है, जहां धर्म और आस्था की संवैधानिक आजादी है। लोग चिल्ला चिल्ला कर संविधान की रक्षा की बात करते हैं। यही संविधान की रक्षा की बात करने वाले लोग, एक दूसरे धर्म के खिलाफ नफरत का माहौल तैयार कर रहे हैं। लगता है संविधान ने उन्हें धार्मिक आजादी इसी तरह की दे रखी है कि वे एक दूसरे की आस्था पर कुठाराघात कर रहें। और रोज नये-नये दंगों की तैयारी करते रहें। उनका धार्मिक उन्माद सिर्फ चंदा चढ़ावा की होड़ का परिणाम है।
          
कार्ल मार्क्स ने पूँजी प्रथम खण्ड की भूमिका में सही कहा है कि– "चर्च के चालीस नियम होते हैं, कोई उनमें से 39 नियमों की अवहेलना कर डाले तो पादरी उसे माफ कर सकता है, परन्तु एक नियम ऐसा है जिसकी अवहेलना करने पर पादरी कभी भी आप को माफ नहीं कर सकता। वह नियम है- चढ़ावा प्राप्त करने का नियम।"

यह बात लगभग सभी धर्मों के मठाधीशों पर लागू होती है। सभी धर्मों के ठेकेदार दान, चन्दा, चढ़ावा प्राप्त करने के लिए धार्मिक उन्माद पैदा करते हैं।

धर्म में आस्था रखने वाली भोली भाली जनता निष्कपट भाव से प्रार्थना करती है। यह जनता आम तौर पर किसी दूसरे धर्म से नफ़रत नहीं करती। ये मठाधीश ही होते हैं जो अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिए धार्मिक उन्मादफैला कर दंगे-फसाद कराते रहते हैं।

*राजेन्द्र प्रसाद*

*यह लेख नया अभियान मासिक पत्रिका के मार्च-अप्रैल संयुक्ताक से लिया गया है।*

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जब भारत में पहली बार मनाया गया मई दिवसः इतिहास के झरोखे से-6

जब भारत में पहली बार मनाया गया मई दिवसः इतिहास के झरोखे से-6
August 27, 2020 - by Workers Unity Team

By सुकोमल सेन

नवंबर 1927 में कानपुर मे संपन्न ए.आई.टी.यू.सी. के आठवें सम्मेलन में महासचिव की रिपोर्ट में मुबंई और भारत के कई अन्य स्थानों पर मई दिवस मनाए जाने का उल्लेख है। सन् 1927 से ही भारत में संगठित रुप से मई दिवस मनाने की शुरूआत हुई।

भारत में मई दिवस मनाने की शुरूवात वास्तव में बहुत देर से हुई। अमरीकी मजदूर वर्ग ने उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में आठ घंटे कार्यदिवस के लिए आंदोलन शुरू किया था।

यह आंदोलन 1 मई 1886 को शिकागो में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। पुलिस की बर्बरता ने चार मजदूरों की जान ले ली।

इसके बाद मुकदमा चलाने का प्रहसन हुआ और अमरीकी मजदूर वर्ग के चार नोताओं पारसंस, स्पाइज, फिशर और एंगेल को फांसी पर चढ़ा दिया गया।

शिकागो की घटना के तीन वर्ष बाद विश्व के विभिन्न देशों के समाजवादी सोशलिस्ट आंदोलन के नेता, बास्टिल के किले को जनता द्वारा ठहाए जाने की शानदार विजय की 100वीं वर्षगाठ मनाने के लिए 14 जुलाई 1889 को पेरिस में एकत्र हुए थे।

सोशलिस्टों के इस पेरिस सम्मेलन ने एक प्रस्ताव पारित कर दुनिया भर के मजदूरों से 1 मई 1890 को अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन का दिवस मनाने की अपील की।

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कैसे हुई मई दिवस की शुरुआत
इसके बाद यूरोप के तमाम देशों में 1890 मई दिवस मनाया गया। तभी से 1 मई को हर वर्ष दुनिया भर के मजदूरों द्वारा अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के रुप में मई दिवस मनाया जाता है।

हालांकि भारत में एटक की अगुवाई में सन् 1927 में पहली बार मुंबई, कोलकाता, मद्रास और अन्य मजदूर केंद्रों पर मई दिवस मनाया गया, लेकिन इससे पहले भी बिखरे तौर पर मई दिवस मनाने का उल्लेख मिलता है।

सन् 1926 में भी मुंबई मे मई दिवस मनाया गया। इस आयोजन की मुख्य शक्ति म्युनिसिपैलिटी के कर्मचारी थे।

इस मई दिवस के प्रदर्शन का नेतृत्व एन.एम.जोशी, एस.एस मिराजकर, एस.बी घाटे और अन्य नेताओं ने किया।

लेकिन मार्क्सवाद में विश्वास रखने वाले क्रांतिकारी सिंगरावेलू चेट्टियर ने मद्रास में 1923 में सर्वप्रथम अपनी पहलकदमी से मई दिवस मनाया था।

मद्रास से प्रकाशित हिंदू अखबार ने मई दिवस मनाए जाने का समाचार छापा। समाचार के अनुसार, मद्रास में मई दिवस के दो सभाएं हुईं एक, उच्च न्यायालय के सामने समुद्र के किनारे जिसकी अध्यक्षता सिंगरावेलू चेट्ट्यर ने की और दूसरी त्रिपनीकेन बीच पर जिसकी अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी ने की।

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अख़बारों की ज़ुबानी
द हिंदू ने लिखा 'वहां मजदूरों की उत्साहपूर्ण भीड़ एकत्र हुई।' द हिंदू ने मई दिवस सभा में सिंगरावेलू चेट्टियर के भाषण के अंश से अपनी रिपोर्ट समाप्त की-

"एम सिगरावेल चेट्टियर ने मई दिवस का महत्व बताते हुए कहा कि 1 मई विश्व के तमाम मजदूरों के लिए एक पवित्र दिन है।

भारत के मजदूरों को भी इस प्रकार से मई दिवस मनाना चाहिए कि दुनिया के अन्य भागों के मजदूर उनके सहयोग को पहचान सकें और हम खुद अपनी शक्ति का औचित्य साबित कर सकें।

हमें मजदूर कार्यालय के लिए नींव के पत्थर की स्थापना करना चाहिए, ताकि आने वाले वर्षों में यह भव्य कार्यकाल बन सके और देश के शोषित-पीड़ित मजदूरों के लिए एक शक्ति का स्रोत बन सके। उनको वास्तव में यह महसूस हो कि वह भी एक वर्ग हैं।"

मद्रास मेल में एक विपरीत टिप्पणी छपी-

"नई पार्टी के संदर्भ में वक्ता ने कहा कि केवल 'सद्भावना रखने वाले' मजदूर ही मई दिवस मना रहे थे और इसलिए कोई चिंता की बात नहीं थी।

यह सभा समान उद्देश्य के प्रति एकजुटता दिखाने के लिए थी। विकास के स्वाभाविक क्रम में संघर्ष करते हुए मजदूर सत्ता पर नियंत्रण कर लेंगे।"

(भारत का मज़दूर वर्ग, उद्भव और विकास (1830-2010) किताब का अंश। ग्रंथशिल्पी से प्रकाशित)

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