*दुनिया के मजदूरों एक हो*
"सर, आप लोग मुझे क़त्ल के इल्जाम में फांसी देना चाहते हैं, मैं इसलिए उसका विरोध कर रहा हूँ क्योंकि मैंने किसी का क़त्ल नहीं किया. हाँ, अगर आप मझे मेरे विचारों के लिए फांसी पर लटका रहे होते, इसलिए मुझे सज़ा-ए-मौत दे रहे होते कि मैं इंसानों की आज़ादी, बराबरी और भाईचारे, उनके गरिमापूर्ण जीवन की बात करता हूँ तो मैं उसका विरोध भी ना करता. मैं क़ातिल नहीं हूँ. अगर सच्चाई के साथ खड़े होने की सज़ा मौत है तो मैं ख़ुशी से अपनी जान अर्पित कर देता. मुझे क़ातिल कहे जाने से आपत्ति है. हाँ, मैं ये स्वीकार करता हूँ कि 4 मई 1886 को हे मार्केट में हुई मज़दूर सभा के आयोजकों में मैं भी था, मैं सभा में भी मौजूद था और मैंने अपने मज़दूर साथियों के अधिकारों के लिए भाषण भी दिया था. मैंने भाषण दिया, बम नहीं फेंका. (उसी वक़्त मज़दूरों के वकील मशहूर मानवाधिकार योद्धा मोसेस सालोमन उनके कटघरे में गए और उनके कान में फुसफुसाया लेकिन उन्होंने उन्हें भी पीछे धकेल दिया; मुझे बोलने दो). एक दिन पहले पुलिस ने हमारे साथियों को जिस तरह मारा उससे मैं बहुत आक्रोशित था. रात में हमारी मीटिंग हुई. मुझे परचा लिखने की ज़िम्मेदारी दी गई. मैंने परचा लिखा और उसकी 25000 प्रतियाँ छपवाईं और बांटीं. मैंने पर्चे में लिखा की मज़दूरो मीटिंग में 'तैयारी के साथ' आओ क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि पुलिस हम मज़दूरों को एक दिन पहले की तरह भून डाले. हालाँकि जब साथी पार्संस ने मुझे समझाया कि ऐसा लिखना ग़लत है क्योंकि इसका ग़लत अर्थ निकाला जा सकता है तो मैं मान गया था कि वो सही कह रहे हैं. हमने अपने साथियों के, पुलिस द्वारा गोलियां बरसाकर किए गए हत्याकांड का विरोध करने करने के लिए मीटिंग आयोजित की थी. हम वहाँ किसी को मारने के लिए मीटिंग नहीं कर रहे थे. मीटिंग पूरी भी नहीं हुई थी कि बारिश होने लगी. फिर हम कई साथी ज़ेम्फ हॉल में चले गए. मैंने और पार्सन्स ने बियर मंगाई. वो ख़त्म भी नहीं हुई थी कि बाहर बिस्फोट हो गया. क़त्ल तो छोडिए, मैंने अपने जीवन में कोई अपराध नहीं किया.
अगर आप ये जानना चाहते हैं कि क़ातिल कौन है, तो मैं कहता हूँ, असली क़ातिल ग्रिन्नेल है. (ग्रिन्नेल सरकारी वकील था). ये सब झूठे गवाह ग्रिन्नेल ही लेकर आ रहा है. वे सब झूठी कसम खाकर झूटे बयान दे रहे हैं जिसका परिणाम हम सब के क़त्ल में होगा. ग्रिन्नेल होने वाले क़ातिल का नाम है. एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ, अगर शासक वर्ग सोचता है कि हमें मारने से आप हमारे विचारों को मार पाएँगे तो आप ग़लत सोच रहे हैं. हम वो लोग हैं जिन्हें अपने विचार अपनी जान से ज्यादा प्यारे होते हैं. विचारों को फांसी नहीं दी जा सकती. दबाने से वे और फैलेंगे. सच बात तो ये है कि ज्यूरी के जो 12 'सम्माननीय जज' हैं, वे अगर हमारी मौत की सज़ा सुनाएँगे तो हमारे विचारों का प्रचार-प्रसार करने में वे बहुत अहम योगदान करेंगे. आपका ऐसा फैसला बोलने की आज़ादी, प्रेस की आज़ादी और सोचने की आज़ादी पर एक भयानक हमला होगा. बस मुझे और कुछ नहीं कहना."
*एडोल्फ फिशर*
*शिकागो के शहीद मजदूर नेता*
उन्हें 11 नवम्बर 1887 को जॉर्ज एंजिल, अल्बर्ट पार्संस और अगस्त स्पाइस के साथ फांसी पर लटका दिया गया था. चारों साथियों ने पहले पेरिस कम्यून का मर्शेल्स गीत गाया और फिर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल. फांसी से पहले अगस्त स्पाइस ने चीखकर कहा था "वक़्त आने वाला है जब हमारी बंद आवाजें दहाड़ेंगी". इन क्रांतिकारियों को फांसी सरे आम दी गई थी. उनके परिवार वालों को आने की अनुमति नहीं थी जबकि शहर के बड़े उद्योगपति वो 'तमाशा' देखने को मौजूद थे.
*मई दिवस जिंदाबाद*
*शिकागो के अमर शहीदों को लाल सलाम*
*सत्य वीर सिंह*
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*सुना है हमने*
सरकार कहती है
चल रहा है नक्सलमुक्त अभियान
क्योंकि,
नक्सलवाद ने बाध्य कर रखा है
गांवों के विकास को,
अगर यह सच है तब
पूर्ण विकसित होना चाहिए वह क्षेत्र
जहां नहीं हैं हथियारबंद दस्ता
यानी जहां नहीं है नक्सलवाद
यानी शहरों में, कस्बों में....
पर सुना है हमने
देश के खदानों में
कैद है कई मुर्दे
शायद सुरंग धंस जाने से
मर जाते हैं मजदूर।
सुना है हमने
फोर लेन सड़कों के किनारें
बड़े मॉल के बाहर
स्टेशनों और चौराहों पर
मिलते हैं मासूम बच्चे
भीख मांगते या प्लास्टिक चुनते
शायद आज भी उनके भविष्य का
कोई ठिकाना नहीं
सुना है हमने
आज भी शहरों में
घुमते हैं खानाबदोश
ढुंढते रहते हैं दर—बदर आशियाना
शायद उनके सर पर
आज भी छत नहीं है
सुना है हमने
आज भी अस्पताल के सामने
तोड़ देते हैं दम लोग
शायद महंगा इलाज
उनकी क्षमता के बाहर होता है
सुना है हमने
ईंट ढोतीं मजदूर औरतें
सहती है जुल्म और अपमान
गंदी नजरों का शोषण
फिर भी साधती हैं चुप्पी
शायद बच्चों के भूखे चेहरे
उसे मजबूर करते हैं
अपमान सहकर भी काम करने को
सुना है हमने
एक औरत अपनी बच्ची को
डरती है
अकेले कहीं भेजते वक्त
शायद महसूस करती है
बेटियों की असुरक्षा को
सुना है हमने
आज भी हर बच्चों की पहुंच से
दूर है पढ़ाई
क्योंकि सरकारी स्कूलेों की इमारतें
हैं बस ढांचे बनकर खड़ी
और दूसरी तरफ
बिक रही है शिक्षा बहुत महंगें दामों में
सुना है हमने
आज भी युवा करते हैं सुसाइड
शायद सारे सर्टिफिकेट भी उन्हें
नहीं दिला पाता एक रोजगार
सुना है हमनें
जगह जगह चल रहा है
मजदूरों का संघर्ष
शायद इतना तीखा है शोषण का रूप
सुना है हमने
चार पांच मंजिलों वाले क्वाटर के लोग भी
जूझ रहें हैं पानी बिजली की समस्या से
महंगाई, बेरोजगारी की समस्या से
सुना है हमने
फैक्टरियों के अंदर धूं—धूं करके
जल जाते हैं मजदूर असुरक्षा के कारण
कोई कानून उनकी रक्षा नहीं करता
शायद कानून उनकी रक्षा
करना भी नहीं चाहता
सुना है हमने
आज भी संतोष के नाम पर
कुछ नहीं है लोगों के पास
और लगता है हमें
हमने जो सुना है
बहुत कम सुना है
समस्याओं की सच्चाई
इससे कहीं जटिल हैं
क्या सरकार बता सकती है
ऐसा क्यों हैं?
जहां रोड हैं, इमारतें हैं,
फैक्टरियां हैं कारखानें हैं
स्कूल हैं, अस्पताल हैं
वहां समस्याएं क्यों हैं?
किसने किया है वहां विकास को बाधित
सरकार के मनसूबे साफ हैं
नहीं चाहिए उन्हें जनता का विकास
चाहिए पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का विकास
इसलिए चल रहा है नक्सलमुक्त अभियान
जो मासूम और भोले आदिवासी
नहीं जानते किसी का हिस्सा भी छीनना
छीनी जा रही है उनसे
उनकी शांतिपूर्ण जीवन जीने की आजादी
और सरकार चाहती है कि हम चुप रहें
क्योंकि सरकार कहती है
चल रहा नक्सलमुक्त अभियान
ऐसे में हमें तय करना होगा कि
हमें कहां खड़ा होना है
ऐसे शोषणमूलक अभियान के पक्ष में या
शोषण के विरूद्ध जनता की लड़ाई के साथ
*इलिका प्रिये*
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