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Sunday, 9 April 2023

भारत की जनविरोधी टैक्स व्यवस्था



*भारत की जनविरोधी टैक्स व्यवस्था*


भारत की टैक्स व्यवस्था को लेकर एक बेहद ग़लत धारणा प्रचलित है कि भारत में कुछ मुट्ठी-भर लोग ही टैक्स देते हैं, जबकि बहुसंख्या कोई टैक्स नहीं देती, बल्कि यह तबक़ा बिना टैक्स दिए सरकारों से मुफ़्त में सुविधाएँ माँगता है या जैसे मोदी ने एक बार कहा था कि यह हिस्सा "रेवड़ियों" का आदी है। टैक्स वितरण के बारे में यह धारणा मौलिक रूप से ही ग़लत है। यह झूठी धारणा शासकों द्वारा फैलाया गया झूठ है, जिसका मक़सद आम जनता की जेब पर लगते टैक्सों के भारी कट के बदले मिलने वाली नाममात्र सुविधाओं को और दूसरी तरफ़ अमीरों को दी जा रही रियायतों को छिपाना है।



कौन देता है ज़्यादा टैक्स?


किसी मुल्क़ का निज़ाम कितना जनपक्षधर है, यह तय करने का मोटा-मोटा पैमाना यह देखना है कि उस व्यवस्था में आम लोगों पर टैक्सों का बोझ कितना डाला जा रहा है यानी उस निज़ाम में ज़िंदगी जीने की लागत कितनी है? दूसरा यह कि टैक्सों के इस बोझ के बदले आम लोगों को कितनी सुविधाएँ मिलती हैं? अगर इन दोनों जायज़ पैमानों के आधार पर बात करें, तो हम कह सकते हैं कि भारतीय निज़ाम मेहनतकश जनता पर सबसे ज़्यादा बोझ डालने वाला निज़ाम है और बदले में यहाँ की आम आबादी को बेहद कम सुविधाएँ मिलती हैं।


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जनवरी के दूसरे हफ़्ते में 'ऑक्सफ़ैम' नाम की संस्था ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें भारत में ग़ैर-बराबरी का एक भयानक आँकड़ा सामने आया कि भारत में 2022 में आर्थिक तौर पर नीचे की 50% आबादी ने केंद्र सरकार की कुल जी.एस.टी. आमदनी में 64% हिस्सा डाला, जबकि इस हिस्से के पास भारत की कुल संपत्ति का सिर्फ़ 3% हिस्सा है। दूसरी ओर, ऊपर की 10% धनवान आबादी, जो कुल संपत्ति का 74% हिस्सा है, उसने टैक्स में सिर्फ़ 3% का योगदान दिया। जैसे कि शासक वर्ग के मीडिया से उम्मीद थी, भारत की टैक्स व्यवस्था की इस भयंकर ग़ैर-बराबरी पर किसी ने कोई चर्चा करनी ज़रूरी नहीं समझी।


वैसे तो अकेला यही आँकड़ा भारत की टैक्स व्यवस्था के बारे में प्रचलित झूठी धारणा को ख़ारिज करने के लिए काफ़ी है, लेकिन फिर भी हम विस्तार में देखते हैं कि कैसे भारत के मेहनतकश लोगों पर विभिन्न बहानों और ढंगों द्वारा टैक्सों का बोझ लादा जाता है।


भारत की मेहनतकश जनता को मुफ़्तख़ोर साबित करने के लिए दो आँकड़े दिए जाते हैं – पहला यह कि काम करने वाले 55-60 करोड़ लोगों में से सिर्फ़ ढाई-तीन करोड़ लोग ही आमदनी वाला टैक्स भरते हैं, जो कि बेहद कम गिनती है। दूसरा यह कहा जाता है कि भारत में कुल घरेलू उत्पादन में टैक्स आमदनी का हिस्सा 17-18% ही है, बल्कि अन्य विकसित और कम विकसित पूँजीवादी देशों में यह दर 24-40% तक है।


भारत की जनता पर टैक्स के बोझ की चर्चा करने से पहले इन दोनों तर्कों के बारे में बात करते हैं। भारत की कुल मेहनतकश आबादी में आमदनी टैक्स देने वाले लोगों की गिनती इतनी कम होने का कुतर्क मेहनतकश जनता पर सवाल नहीं, बल्कि इस व्यवस्था पर सवाल है, जहाँ सरकार द्वारा बनाए गए पैमानों के मुताबिक़ ही बहुसंख्य लोगों की आमदनी इतनी भी नहीं कि वे टैक्स दे सकें। आज भारत में प्रति व्यक्ति औसत आमदनी करीब सवा लाख रुपए सालाना है यानी काम करने वाले 60 करोड़ लोगों में करीब 57 करोड़ लोगों की आमदनी इतनी भी नहीं कि वे टैक्स दे सकें! असमानता पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था के नाजायज होने पर इससे बड़ा सवाल और क्या होगा? जहाँ तक दूसरे कुतर्क का सवाल है, तो इसे नीचे तालिका में दिए अन्य देशों के टैक्स हिस्से से मिलाकर समझते हैं।


उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि अन्य मुल्क़ों के मुकाबले भारत में प्रति-व्यक्ति आमदनी पाँच-छह से लेकर कई गुना कम होने के बावजूद भी यहाँ कुल घरेलू उत्पादन में टैक्स आमदनी का हिस्सा ठीक-ठाक यानी 17% तक है। पर इस तालिका में भी टैक्स बोझ की पूरी तस्वीर सामने नहीं आ पाती। उपरोक्त आँकड़े आमदनी टैक्स संबंधी हैं, लेकिन भारत में टैक्स का बड़ा हिस्सा ग़ैर-आमदनी टैक्स यानी खपत टैक्स द्वारा आम लोगों से लिया जाता है। इस मामले में भारत यहाँ के लोगों पर सबसे ज़्यादा टैक्स लगाने वाले मुल्क़ों में से है।


भारत में अहम खपत टैक्स जी.एस.टी. की औसत दर 18% है, जबकि दुनिया के लिए यह औसत 14% है। लेकिन जी.एस.टी. के बिना पेट्रोल, डीजल, बिजली-पानी, मकानों की रजिस्ट्री, टोल टैक्स वग़ैरा के रूप में लगाया जाने वाला टैक्स इस सबसे अलग है। अकेले पेट्रोल-डीजल पर केंद्र सरकार के टैक्स वग़ैरा के अलावा 15-35% टैक्स राज्यों द्वारा लगाया जाता है, जिससे तकरीबन 35 रुपए की लागत वाला यह तेल बाज़ार में 90-100 तक बिकता है। अगर यह सारा टैक्स जोड़ लिया जाए तो दुनिया की औसत 14% के मुक़ाबले भारत में यह खपत टैक्स 25% से ऊपर चला जाता है। और टैक्स का यह बोझ पिछले एक दशक में बेतहाशा बढ़ता गया है। साल 2010-2022 के दरमियान भारत का कुल घरेलू उत्पादन 76.5 लाख करोड़ से बढ़कर 147.40 लाख करोड़ हो गया यानी इसमें 93% का इज़ाफ़ा हुआ। पर सरकार की तानाशाही देखिए कि इस अरसे में केंद्र सरकार की टैक्स आमदनी 6.2 लाख करोड़ से बढ़कर 25.2 लाख करोड़ हो गई यानी इसमें 303% रिकॉर्ड तोड़ इज़ाफ़ा हुआ! यानी इन पूरे बारह सालों के अरसे में इस अर्थव्यवस्था के विकास की रफ़्तार का तीन गुना ज़्यादा बोझ मेहनतकश जनता पर डाला गया है और यह बोझ और भी बढ़ रहा है। इसके अलावा राज्य सरकारें अलग से 36-37 लाख करोड़ कुल टैक्स वसूल करती है यानी भारत की मेहनतकश जनता से एक साल में तकरीबन 60 लाख करोड़ से ज़्यादा टैक्स वसूला जाता है।  


इतने भारी टैक्स के बदले मेहनतकश जनता को मिलता क्या है?


हम ऊपर आँकड़ों से देख सकते हैं कि भारत में औसतन हर मेहनतकश की आमदनी का 35-45% हिस्सा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष टैक्सों द्वारा सरकार को चला जाता है। लेकिन बदले में इस तबक़े को सरकार से क्या मिलता है?


भारत में ज़्यादातर सरकारी स्कूलों की बेहद खस्ता हालत होने के कारण 50% माँ-बाप अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। इन स्कूलों में पढ़ाने के लिए महँगी फ़ीस, किताबें, वर्दियाँ आदि के ख़र्चे सभी आम लोगों की जेबों से जा रहे हैं। इन सभी चीज़ों पर लोग खपत टैक्स भी भरते हैं यानी टैक्स की दोगुनी मार सहकर लोग अपने बच्चों को निजी संस्थानों में पढ़ा रहे हैं। अगर स्वास्थ्य क्षेत्र की बात करें, तो भारत के दो-तिहाई मेहनतकश लोग दवा-इलाज, जाँच आदि के लिए निजी अस्पतालों, क्लीनिकों पर निर्भर हैं और मेडिकल के सारे सामान पर भी टैक्स लगा होता है। और देखें, अगर सरकार यह दावा करती है कि वह लोगों को मुफ़्त राशन देती है (जो अब लगातार ख़त्म किया जा रहा है) तो उस राशन को पकाने के लिए ज़रूरी गैस, मसाले आदि सब पर लोग टैक्स भर रहे हैं! यानी आम लोग सरकार से कुछ भी मुफ़्त नहीं ले रहे हैं, सबकी महँगी क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है। आमदनी का 35-45% हिस्सा सरकारों को चुकाने के बाद भी आबादी के बड़े हिस्से के पास ना नौकरी की गारंटी है, ना कम-से-कम वेतन के नियम लागू होते हैं, ना कोई पेंशन-भत्तों की सुविधा मिलती है, ना ढंग की शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाएँ है, सड़की, रेल, हवाई आदि सब ट्रांसपोर्ट निजी हाथों में दिया जा चुका है।


फिर आम लोगों के टैक्स का पैसा कौन खा जाता है?


अब सवाल यह उठता है कि अपनी आमदनी का इतना हिस्सा टैक्स भरकर भी अगर आम लोगों को सरकारी सुविधाएँ नाममात्र की मिलती हैं, तो यह सारा पैसा जाता कहाँ है? जवाब है अमीरों के पास!


पहले की सरकारें और अब मोदी सरकार ज़ोर-शोर से बड़े पूँजीपतियों के पक्ष में नीतियाँ बना रही हैं, जिसके तहत उन्हें लगातार टैक्स रियायतें, सब्सिडियाँ दी जा रही हैं। भारत में बड़े पूँजीपतियों पर लगने वाले कारपोरेट टैक्स की दर को मोदी हुकूमत ने 2019-20 में 30% से घटाकर 22% कर दिया था, जिससे पहले दो सालों में ही केंद्र सरकार को 1.84 लाख करोड़ का नुक़सान हुआ, पर यह नुक़सान सरकार ने मेहनतकश लोगों पर टैक्स बढ़ाकर पूरा कर लिया। इसी तरह पूँजीपतियों को सस्ते क़र्ज़ देना, उन क़र्ज़ों को माफ़ करना और नतीजतन होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए आम लोगों पर टैक्स बढ़ाना – यह सरकार की आम नीति हो गई है। सिर्फ़ पिछले पाँच सालों में ही मोदी सरकार में सरकारी बैंकों ने बड़े पूँजीपतियों का 10 लाख करोड़ से ज़्यादा का क़र्ज़ माफ़ कर दिया है। एक और अहम बात यह है कि मेहनतकश जनता पर विभिन्न प्रकार के टैक्स लगाने वाली इस सरकार ने आज तक अमीरों की दौलत पर कोई संपत्ति टैक्स नहीं लगाया। अगर भारत के ऊपर के 10% अमीरों पर 10-20% ही संपत्ति टैक्स लगाया जाए, तो इससे भारत की बाक़ी की करोड़ों की आबादी को सभी जन-कल्याणकारी सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। लेकिन मौजूदा पूँजीवादी निज़ाम ऐसा नहीं करेगा। यहाँ पूँजीपति सरकार बनाते ही इसलिए हैं कि वह उनकी सेवा करे, उन्हें रियायतें दें और बदले में सरकार की आमदनी में जो कमी आए, उसे आम लोगों पर विभिन्न टैक्स लगाकर वसूल करे। मौजूदा पूँजीवादी निज़ाम के जनविरोधी स्वभाव को उसकी टैक्स प्रणाली को देखकर साफ़ समझा जा सकता है। इस पूरी व्यवस्था का बोझ अपने कंधों पर ढो रही मेहनतकश जनता की मुक्ति इस भ्रष्ट व्यवस्था को बदलकर और जनपक्षधर समाजवादी व्यवस्था स्थापित करके ही प्राप्त की जा सकती है।


मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 29 ♦ अप्रैल 2023 में प्रकाशित
















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