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Sunday, 30 October 2022

बिहार में गठबंधन की सरकार और बामपंथियों का संकट!


          बिहार के महागठबंधन सरकार के तौर तरीके और कई जनविरोधी हरकतों के कारण कार्यकर्ताओं का धैर्य टूट रहा है। नेताओं के द्वारा गुलदस्ते और स्वागत के कार्यक्रम से वे क्षुब्ध दिख रहे हैं। उनका असंतोष लाजमी है। जब ये विपक्ष में थे, तो जनता को आंदोलन के रूप में संगठित कर रहे थे। सरकार को समर्थन देने के बाद बामपंथी पार्टियां अब सड़क पर विरोध से कतरा रही हैं। क्या वामपंथी विधायक सरकार की नीतियों का विधानसभा में आलोचना करने के लिए अब स्वतंत्र हैं ?
क्या सड़क पर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन आंदोलन करने के लिए वे स्वतंत्र हैं ? आंदोलन की जगह अब वे पैरवीकार और चिरौरी वाले नेता बनते जा रहे हैं!

सरकार का हिस्सा बनकर पार्टी ने कार्यकर्ताओं के आंदोलन के अधिकार को बक्से में बंद कर दिया है।  दूसरी तरफ सरकार पुराने ढर्रे पर ही चल रही है। पुलिस तथा प्रशासन का दमन जारी है।  पटना की सड़कों पर जुलूस और प्रदर्शन करने और धरना देने के अधिकार पर पाबंदी अभी भी जारी है? क्या वामपंथी पार्टियों ने गांधी मैदान तथा डाक बंगला चौराहा के इलाके में प्रदर्शन कराने पर लगाए गए रोक को हटाने के लिए सरकार पर दबाव बनाया?
वामपंथी पार्टियों के आंदोलन में भाग नहीं लेने से आंदोलन तो नहीं रुकेगा! स्वतंत्र जन संगठनों या विद्यार्थियों के द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन और प्रदर्शनों की बेरहमी से पिटाई हो रही है।मेहनतकशों के अधिकार और कल्याण लिए कोई नये कार्यक्रम नहीं किए जा रहे हैं। पूरी सरकार पर नौकरशाही का दबदबा जारी है। आंदोलनकारियों की पिटाई की जा रही है। आखिर क्या कारण है कि सरकार बदलने के बावजूद भी पुलिस तथा नौकरशाहों का मिजाज उतना ही घमंड में है? क्या सरकार का पुलिस और नौकरशाही पर नियंत्रण नहीं है या सरकार पार्टी और कार्यकर्ताओं के बजाय सिर्फ नौकरशाही और पुलिस पर निर्भर है ?इन सारे प्रश्नों पर बहस होनी चाहिए ।

वामपंथी संगठन आंदोलन और संघर्ष के बदौलत अस्तित्व में रहता है। अपनी जीवन धारा से कट करके ये और खत्म हो जाएगी। कांग्रेस तथा लालू प्रसाद यादव की पहली सरकार को समर्थन देने के कारण पूरे देश और बिहार में सीपीआई का अस्तित्व हाशिए पर आता गया। वे ही इनके जनाधार को खा गये। 90के दशक में भी लालू प्रसाद ने ही सीपीआई एमएल के विधायकों को तोड़ा था।इस बार दीपंकर के नेतृत्व वाली सीपीआई एमएल फिर वही गलती कर रही है।
   ज्योति बसु की सरकार ने "वर्गा आपरेशन" में किसानों को जमीन और कई अधिकार दिये जो देहातों में उनके जनाधार को मजबूत किया। लेकिन बाद में सीपीआईएम की सरकार अपने ही जनाधार किसानों पर पूंजीपतियों के पक्ष में सिंगूर तथा नंदीग्राम में दमन चलाया। परिणामस्वरूप सीपीएम को सत्ता से हाथ धोना पड़ा और बाजपेई की सरकार में मंत्री रहने वाली ममता बनर्जी ने आंदोलन की नायिका बनकर के बंगाल की सत्ता  पर कब्जा कर लिया। सीपीएम में राजनीतिक कार्यकर्ता की जगह धंधेबाजों ने कार्यकर्ताओं की जगह ले ली। पंचायत स्तर पर लूट बढ़ा और राजनीति से लैश कार्यकर्ताओं की जगह भोट लूटने वाले गैंगों को पार्टी में महत्व बढ़ता गया। नंदीग्राम में ऐसे ही लोग किसानों पर हमले का अगुआई किया। सत्ता चलाते हुए जो दमन और जनविरोधी नीतियों को सीपीएम ने बंगाल में लागू किया उसका परिणाम सामने है। सपीएम के हाथ से सत्ता खिसकने पर सत्ता में बने रहने के लिए  यही गैंग यानी कल के वामपंथी नेता बाद में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में शामिल होने लगे। 
      तो इतिहास की इन तमाम घटनाओं से वामपंथियों को सीखना चाहिए। लेकिन वह नहीं सीखेंगे, क्योंकि कहीं ना कहीं सरकार चलने के लिए सभी पार्टियों की तरह उन्हें भी पूंजी और पूंजीपतियों से समझौते यहां तक कि उनकी चाकरी करनी पड़ती है। और वे सरकार में ही रहना चाहते हैं,जन आंदोलन के द्वारा पूंजीवाद का विकल्प पेश करना अब उनके कार्यक्रम से गायब हो चुका है। यह अकारण थोड़े है कि केरल की सरकार को पूंजी की चिंता है। वह कह रहे हैं कि मिलिटेंट ट्रेड यूनियन आंदोलन से  पूंजी निवेश पर प्रभाव पड़ेगा। यानी सरकारों को हर हाल में पूंजी निवेशकों के हितों की रक्षा करनी है और पूंजी निवेशक यानी कि पूंजीपतियों का सेहत तभी ठीक रहेगा, जब मजदूरों सको कम से कम मजदूरी देकर काम कराने में सरकारी मदद करेंगी!

इसलिए कार्यकर्ताओं को फासीवाद का भय दिखाकर सत्ता धारी पार्टियों के पीछे पीछे घिसटते रहने की सलाह दी जा रही है। पार्टी नेताओं से सवाल कीजिए कि क्या वर्ग संघर्ष को बढ़ाए बगैर फासीवाद पराजित हो जायेगा? फासीवाद का मुख्य स्रोत शोषक वर्ग होता है। आज वह एकाधिकार पूंजी है जो साम्राज्यवाद और वित्त पूंजी के साथ मजबूत एकता बनाए हुए है।। लेकिन सभी सरकारें अडानी अंबानी जैस एकाधिकार पूंजी के मालिकों के लिए काम कर रही हैं। यूं ही इतनी तेजी से इनकी पूंजी नहीं बढ़ रही है। कांग्रेसी सरकारें राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इन्हीं की सेवा में लगी है। फासीवाद का विकल्प सिर्फ आंदोलन से गुजर कर ही आ सकता है। आज पूंजीवादी लोकतंत्र इंग्लैंड में हड़ताल और प्रदर्शन का अधिकार छीन रहा है,तो विकल्प हड़ताल और प्रदर्शन की झड़ी लगा कर ही दिया जा सकता है।

   बामपंथी कार्यकर्ताओं को सरकार के पीछे नहीं आगे चलना चाहिए, लेकिन उनके नेता सीटों के लिए मोहताज दीख रहे हैं।कार्यकर्ताओं से अपील है कि पार्टी में सवाल उठाइए। कभी कभी पार्टी में प्रेशर भी बनना पड़ता है और कभी कभी विद्रोह भी करना पड़ता है। सीपीआई एमएल खुद इस विद्रोह का नतीजा है, विद्रोह और सृजन की इस परंपरा को जारी रखिए। जो नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन और चारू मजूमदार के संशोधनवाद के खिलाफ संघर्ष की परंपरा को बढ़ाने वाले कार्यकर्ता हैं वे अवश्य एकबार फिर अपने ऐतिहासिक कार्यभार के लिए कमर कसेंगे।

Narendra Kumar

एफआईआर का क्या औचित्य है

इसमें एफआईआर का क्या औचित्य है, वह समझ से परे है। हमारे देश में अंधभक्त भी है तो नास्तिक तथा वैज्ञानिक भी। प्रत्येक स्तर पर विज्ञान ही एक मात्र तराजू होना ही चाहिए। 

Saturday, 29 October 2022

तुलसीदास

तुलसीदास जी के पहले उसी काशी में कबीर और रैदास का प्रादुर्भाव हो चुका था और इन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर बहुत गहरे रूप से सांस्कृतिक आघात किया था |संत आंदोलन भी पूरे भारत में जन चेतना को प्रभावित कर रहा था और एक समानांतर सांस्कृतिक बोध भी रच रहा था |ब्राह्मणवादी नाव में सुराख हो रहा था सूक्ष्म ही क्यों न सही |तुलसीदास की एक प्रमुख चिंता यह भी थी जिसे उन्होंने इस तरह से व्यक्त किया है

बाजहिं शूद्र द्विजन संग, आंख देखावहिं डाटि 
ब्रह्म सो जानइ विप्रवर हम तुमते कछु घाटि 

अर्थात शूद्र अब तर्क और वितर्क करने लगे हैं इसके साथ ही आंख दिखाकर डांट भी देते हैं ब्राह्मणों को |और यह तर्क देते हैं कि जो ब्रह्म को जानता है वही ब्राह्मण होता है |जन्मना ब्राह्मण की पूरी चिंतन प्रक्रिया को एक चुनौती देते हैं |कहीं ना कहीं ब्राह्मणवादी चिंतन पर प्रहार हो रहा था |यह नहीं कहा जा सकता की ब्राह्मणवादी परंपरा नष्ट हो गई थी लेकिन उसके सांस्कृतिक स्वरूप पर पत्थर जरूर मारे जा रहे थे दीवालें कुछ-कुछ चरमराने लगी थी | उनकी बहुत बड़ी चिंता थी कि शूद्र उनके बराबर आने लगा है और उन्हें आंख दिखाकर डाट रहा है उनके साथ अपनी तर्कणा प्रस्तुत कर रहा है | सांस्कृतिक रूप से ब्राह्मणवाद दरक तो कहीं जरूर रहा था |इसलिए तुलसी जी को यह बात कहनी पड़ी| इसीलिए ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक चेतना के चिर स्थायित्व एवं पुनर्यौवनीकरण के लिए तुलसीदास ने भरसक कोशिश किया और काफी हद तक उन्होंने सफलता भी पाई | पुनर्स्थापित का अर्थ है यहां नहीं कि ब्राह्मणवाद समूल नष्ट हो गया था लेकिन उस पर जो प्रश्न उठाए जा रहे थे जो शूद्र उसके विरुद्ध खड़े हो रहे थे उन प्रश्नों को समाप्त करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी 
|अगर ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर प्रश्न ना उठता तो उपरोक्त पंक्तियां उन्हें कहने की जरूरत नहीं पड़ती | जब कबीर कहते हैं तू काशी का बाभना मैं काशी का जुलाहा पूछ ले मेरा गियाना | इस चुनौती के लिए तुलसीदास के कंधों पर प्रति उत्तर देने की जवाबदारी भी थी| तुलसीदास के लिए ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि जो उन्हें अवतार रचने की जरूरत पड़ी |साधारण व्यक्ति की भी कहानी वह गा सकते थे | मीरा जहां कृष्ण का मानवीकरण कर उन्हें अपना दूल्हा बना लेती हैं और तुलसी दास राम का दैवी करण करके अवतार बताते हैं |
जबकि वाल्मीकि ने राम को ईश्वर या अवतार नहीं बताया है |तो यह उनकी जो समस्या थी उनके वर्ण की समस्या थी उनके वर्ग की समस्या थी |जिसे हल करने के लिए उन्होंने भली-भांति कोशिश की | तुलसीदास ने जिनके लिए लिखा था वह मुदित हो लेकिन जिनके विरुद्ध लिखा था वह क्यों मुदित हो भाई |वह तो अपना प्रतिनिधित्व कबीर और रैदास में ही खोजेंगे | कबीर और रैदास के द्वारा घायल ब्राह्मणवाद का उन्होंने मरहम पट्टी की और फिर से  फीके पड़ते ब्राह्मणवाद को सांस्कृतिक मंच के केंद्र बिंदु में लाने की कोशिश की | या इसे यूं कह सकते हैं कितुलसीदास ने ब्राह्मणवाद की फीकी पड़ती दीवालों को फिर से नया रंग रोगन दिया |
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Julmiram Singh Yadav




छठ Ratnesh kumar

खाली बाबा जी लोग से मंत्र नहीं फुंकवाना हो तो त्योहार कितना सुंदर हो जाता है। 😂😂😂

छठ में जितनी पवित्रता का ख्याल रखा जाता है उतना कोई त्योहार में नहीं होता, गेंहू उपजाने से लेकर गोयठा पाथने तक में जिस तरीके से कठोरता अपनाई जाती है उतना किसी त्योहार में नहीं होता उसके बावजूद दूसरे त्योहारों वाला ढकोसला नहीं होता यहां। अभी तक यह त्योहार संघ गिरोह से भी बचा हुआ है इस त्योहार के नाम पर दंगा नहीं फैला सकते। 

खैर अपना क्या है सूरज हाइड्रोजन और हीलियम गैस से बना एक विशाल गोला है जिसके चारों तरफ हमारी पृथ्वी घूमती है। धरती पर ऊर्जा का एकमात्र स्रोत जिसके कारण जीवन संभव है वह सूरज है तो एक दिन उसके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करना चलेगा। ☺️


धर्म रोग

पूरे साल मैं यह देखता हूँ कि औरतें धर्म रोग से पीड़ित रहती हैं. धर्मरोग अकेला ऐसा रोग है, जिसे प्राप्त करने के लिए अधिकतर लोग बेचैन रहते हैं. यहाँ तक कि लोग पैसे खर्च कर भी इस रोग को पाल लेते हैं. यह दूसरी बात है कि इसके इलाज में लगने वाले खर्च का वे हिसाब भी नहीं करते हैं. 

                     दूसरे रोगों के इलाज में लगने वाले पैसे को देखकर लोग तंग आ जाते हैं, पर धर्मरोग अकेला ऐसा रोग है, जिस पर लोग जितना ही ज्यादा खर्च करते हैं, उतना ही खुश होते हैं और इतराते हैं. उधर धर्मरोग के डाक्टर बड़े ही धैर्य और परिश्रम से इन धर्मरोगियों के लिए नये-नये रोगों का आविष्कार करते रहते हैं. 

                इनकी पढ़ाई तो गाँव के अनपढ़ और टूटपूंजिये ब्राह्मण भी जत्रा-पत्रा और पचांग जैसी अनर्गल पोथियों से ही करा देते हैं. धर्मरोग अकेला ऐसा रोग है, जिसमें पैसे का खर्च लगातार होता रहता है, पर आपको भी कुछ फायदा हुआ कि नहीं, इसकी कोई भी गारंटी नहीं होती. यहाँ तो स्थिति यह है कि एक रोग के निदान के लिए दूसरा रोग भी पकड़ा देते हैं, जो छूत की बीमारी की तरह एक घर से दूसरे घर तक मुंहामुंही फैल जाती है.

               एक और भी आश्चर्य है कि धर्मरोग से पीड़ितों के बीच बड़ा ही मधुर संबंध होता है, यह दूसरी बात है कि वह संबंध तत्कालिक ही होता है. इसी तरह धर्मरोग के डाक्टरों के बीच भी मधुर संबंध होते हैं, पर वे क्षणिक नहीं स्थायी होते हैं. कारण यह है कि इन डाक्टरों का अपनी औकात के अनुसार अपने-अपने मरीज और इलाके होते हैं, जहाँ प्रतिस्पर्धा नहीं होती, बल्कि सहयोग होता है. 

               धर्मरोग के इलाज के लिए भी सामान्य और विशेषज्ञ डाक्टरों की जरूरत होती है. वैसे विशेषज्ञ डाक्टरों की जरूरत विशेष परिस्थितियों में ही होती है, बाकी सब तो सामान्य डाक्टर ही सब कुछ देख-सुन लेते हैं. इनका आधा काम तो सिर्फ पंचाग से ही हो जाता है. पंचाग में दो होते हैं - काशी का पंचाग और मिथिला का पंचाग. मिथिला के पंचाग का दायरा बहुत ही सीमित होता है. वह सिर्फ मिथिला के क्षेत्र तक ही सीमित होता है. बाकी हर जगह के लिए काशी का पंचाग ही मान्य होता है.

                धर्मरोग के इलाज के लिए भी विशिष्ट लोगों के लिए विशिष्ट व्यवस्था भी होती है. ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का विशिष्ट इलाज भी विशिष्ट डाक्टरों द्वारा ही कराया जाता है. गांवों में तो छोटे-छोटे खरभुसिया या कहिए कि झोलाछाप डाक्टरों की भरमार होती है. पर, ऐसे झोलाछाप डाक्टरों से शहरों के विशिष्ट लोगों का इलाज संभव नहीं है. नामी-गिरामी शहरों में कुछ नामी-गिरामी धर्म के डाक्टर भी होते हैं, जो सिर्फ विशिष्ट लोगों का ही इलाज करते हैं. वहाँ तक सबकी पहुँच हो भी नहीं सकती. ऐसे विशेषज्ञ डाक्टर शहर के हर मुहल्ले में अपना एजेंट रखते हैं, जो एक छोटे-से कमरे में कार्यालय खोलकर रोज बैठते हैं. छोटेमोटे रोग तो वे खुद ही संभाल लेते हैं, पर किसी विशिष्ट धर्मरोगी की पहचान होते ही बड़े बाबा की खोज होती है, जिनके शरण में जाकर ही वह धर्मरोग खत्म हो सकता है.

              वैसे भी हर कोई अपनी-अपनी औकात के अनुसार ही इलाज की व्यवस्था भी करता है. अब पूंजीपति, नेता, नौकरशाह, सेठ, महाजन, बड़े दलाल, ठेकेदार, तस्कर, माफिया या बड़े अपराधी भला टूटपूंजिया डाक्टर से अपना इलाज क्यों कराएंगे? इससे उनकी इज्जत पर बट्टा लगता है. यह इसलिए और भी जरूरी हो जाता है कि सभी विशिष्ट लोगों को यह पता होता है कि किसने अपने किस रोग का इलाज किस डाक्टर से कराया है. 

                 शरीर के रोगों के डाक्टर और धर्मरोग के डाक्टर के बीच एक समानता होती है कि ये सिर्फ बैठे रहते हैं और मरीज खुद ही पता लगाकर इनके पास आते रहते हैं. पर इनके बीच सबसे बड़ा अंतर है वह यह है कि जहाँ शरीर के डाक्टर सिर्फ शरीर का इलाज करते हैं, वहीं धर्मरोग के डाक्टर शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, ऊपरवार, भौतिक, नैतिक और उच्चाटन से लेकर मारण तक का इलाज करते हैं. किसी विरोधी पूंजीपति का काम अटका देना या उसकी प्रगति में बाधा खड़ी कर देना, नेताओं के लिए ऊंची कुर्सी का इंतजाम कर देना, किसी दूसरे की कुर्सी खिसका देना, दुश्मन को पराजित करा देना, शत्रु को बेवजह परेशान करना और दुश्मन के दुश्मनों से मित्रता कर लेने जैसे बहुतेरे काम हैं, जिनका संपादन और निष्पादन ये धर्मरोग के डाक्टर करते हैं.

                इन धर्मरोग के डाक्टरों का काम तभी से शुरू हो जाता है जब बच्चा अपनी माँ के गर्भ आ जाता है. शुभ मुहूर्त की जानकारी तभी से शुरू हो जाती है. पहले तो बेटा या बेटी का सवाल भी यही धर्मरोग के डाक्टर ही करते थे, पर अब तो हर बड़े क्लिनिक में बच्चे के लिंग निर्धारण की सुविधा है. बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए माँ को क्या-क्या करना चाहिए, इसकी विस्तृत सूची धर्मरोग के डाक्टर प्रस्तुत करते हैं. उसके बाद जन्म के समय का शुभ मुहूर्त, सतईसा, गंडमूल, नामकरण, मुंडन, यज्ञोपवीत और अन्य पौरोहित्य कर्मों से होते हुए शादी तक के सारे काम इन्हीं धर्मरोग के डाक्टरों द्वारा संपन्न होते हैं.

               भूत-प्रेत की बाधाओं से मुक्ति दिलाना हो, बेहतर कमाई वाली जगह पर पोस्टिंग हो, धन-संपति बनानी हो (वैसे तो अब इस काम के लिए चार्टर्ड एकाउंटेंट की सेवा ली जाती है), नेता जी की कृपा चाहिए, दुश्मन की सफलता में अड़चन डालनी हो, पत्नी को मानसिक शांति चाहिए होती है, तो इनके लिए भी धर्मरोग के डाक्टरों की सेवा उपलब्ध रहती है. इन्हें हमेशा ही यह पता होना चाहिए कि किस दिन कौनसा पर्व है, कौन-से दिन कब शुभ मुहूर्त है या कि कब लड़की की विदाई और बहु के आगमन का शुभ मुहूर्त है.

               धर्मरोगों में पर्वों की तो ऐसी लंबी श्रृंखला है कि वह हमेशा ही हनुमान की पुंछ की तरह बढ़ती ही जाती है. मंगल, वृहस्पति, शनि, एतवार, प्रदोष, एकादशी, अमावस्या और पुर्णिमा तो हर महीने ही हैं. इसके बाद देवोत्थान, संक्रांति, बसंतपंचमी, माघ अमावस्या, माघवास, फागुन, होलिका, होली, चैतनमी, प्रतिपदा, रामनवमी, गुरु पुर्णिया, गंगा पूजन, नागपंचमी, रक्षाबंधन, करमाधरमा, तीज, गणेश चतुर्थी, कृष्ण जन्माष्टमी, अनंत चतुर्दशी, नवरात्रि, दशहरा, जिउतिया, वट सावित्री, दिवाली, भैया दुज, गोधन, गायडाढ़ (गोवर्धन पूजा) छठव्रत, कार्तिक पूर्णिमा जैसे और भी न जाने कितने पर्व और त्योहार हैं, जिनके बारे में पूरी जानकारी धर्मरोग के डाक्टरों को रहती है, और जिनसे ये लोग अपने बुद्धिविहीन धर्मरोग से पीड़ित जजमानों को परिचित कराते रहते हैं.

                  इन धर्मरोगों से सबसे ज्यादा पीड़ित औरतें ही होती हैं. असल में धर्म का भार ढोने की जिम्मेदारी भी तो उन्हीं के कंधों पर लाद दी गई है. कंधे तो मजबूत होते हैं मर्दों के, पर जब भार ढोने की बात आती है तो वह औरतों पर लाद दिया जाता है, और धर्मरोग से पीड़ित औरतें बिना किसी नानुकुर के सहर्ष ही इसे स्वीकार कर लेती हैं. भार ढोने का सारा ही काम औरतों के ही जिम्मे होता है. गर्भधारण का भार औरतें, बच्चे को जन्म देने का कष्ट औरतें, पालन-पोषण का भार औरतें, कम खाना औरतों को, गम खाना औरतों को, उपवास के नाम पर भूखे रहना औरतों को, अशिक्षा औरतों को, परिवार की किसी भी समस्या के समाधान के लिए सबसे उपेक्षित औरतें, बुढ़ापे में सबसे ज्यादा कष्ट औरतों को, और न जाने कितने ही दबाव और असुविधाओं के बीच औरतों की जिंदगी गुजरती है, और वे सब कुछ सहती चली जाती हैं, चुपचाप.


रामचरितमानस पर

कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। वे आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो सतंभ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे। 


रामचरितमानस पर महाकवि नागार्जुन के विचार
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"रामचरितमानस हमारी जनता के लिए क्या नही है? .. दकियानूसी का दस्तावेज है, नियतिवाद की नैया है.. जातिवाद की जुगाली है. सामंतशाही की शहनाई है.  ब्राह्मणवाद के लिए वातानुकूलित विश्रामागार.. पौराणिकता का पूजामंडप.. सब कुछ बहुत कुछ है.  रामचरितमानस की ही बदौलत उत्तर भारत की लोकचेतना सही तौर पर स्पंदित नहीं होती. रामचरितमानस की महिमा ही जनसंघ के लिए सबसे बड़ा भरोसा होती है हिंदी भाषी प्रदेशों में." 

(नागार्जुन रचनावली खंड ६)

तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग १


[1]
भारत के नभ के प्रभापूर्य
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान;
है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।

[2]
शत-शत शब्दों का सांध्य काल
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;
आया पहले पंजाब प्रान्त,
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।

[3]
मोगल-दल बल के जलद-यान,
दर्पित-पद उन्मद पठान
बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,
छाया ऊपर घन-अन्धकार--
टूटता वज्र यह दुर्निवार,
नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।

[4]
रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड
आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;
निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,
निःशेष सुरभि, कुरबक-समान
संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ।

Friday, 28 October 2022

दीवाली पोस्टर

दीवाली पोस्टर

जाति उन्मूलन

"जाति उन्मूलन"
डा. अम्बेडकर के 1936 में लिखे गए भाषण जाति उन्मूलन के  प्रमुख अंश या सार के रूप में मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। प्रस्तुत सार के बाद मैं अपनी राय भी जाहिर करूँगा।
डा. भीम राव अम्बेडकर कहते है, कि ...... यह उचित ही रहेगा ,कि शुरू में मैं यह बात याद दिलाऊ, कि अन्य समाजो के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था, ये है : ( 1 )  ( ब्राह्मण) ( 2) छत्रिय ( 3 ) वैश्य और शूद्र । इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा, कि आरम्भ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग विभाजन के अंतर्गत व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ण  बदल सकता था। औऱ इसलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी हिन्दू इतिहास में किसी समय परोहित वर्ग ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया और  इस तरह स्वयं सीमित विभाजन के सिद्धान्तानुसार अलग-2 खेमों में बंट गए.......इसी क्रम में जातियाँ पैदा हुई । आगे डा. अम्बेडकर लिखते है ,कि ऊपर की जातियों की नीचे के लोगों ने नकल की । जाति-प्रथा इसी नकल का फल है । पृष्ठ -18
आगे डा. अम्बेडकर लिखते है, कि ....भारत के समाजवादी यूरोप में अपने साथियों का अनुसरण करते हुए इतिहास की आर्थिक व्याख्या को भारत के तथ्यों पर लागू करना चाहते है । वे कहते है कि राजनीतिक और सामाजिक सुधार केवल भारी भ्रम है और संपत्ति के समानीकरण द्वारा आर्थिक सुधारों को अन्य हर प्रकार के सुधारों से बरियता दी जानी चाहिए । पेज- 50
 आगे लिखते है,कि.. ....भारत के समाजवादियों का भ्रम इस कल्पना में निहित है, कि चूंकि आम यूरोपीय समाज मे संपत्ति सत्ता के स्रोत के रूप में अभिभावी है ,इसलिए यही बात भारत के सम्बंध में भी यही है ----पृष्ठ -51 
आगे लिखते है , कि..... इतिहास की आर्थिक व्याख्या इस समाजवादी दावे की वैधता के लिए आवश्यक नही है,कि सम्पत्ति का समानीकरण ही एक मात्र वास्तविक सुधार है औऱ इसे अन्य सभी बातों से बरियता दी जानी चाहिए । फिर भी मैं समाजवादियों से पूछना चाहता हु, कि क्या आप पहले सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाये बिना आर्थिक सुधार कर सकते है ? ऐसा प्रतीत होता है ,कि भारत के समाजवादियों ने  इस प्रश्न पर विचार नही किया है .. पृष्ठ- 52
डा. अम्बेडकर आगे लिखते है, कि ....समाजवादियों द्वारा अपेक्षित आर्थिक सुधार तब तक नही हो सकते , जब तक कि सत्ता को हथियाने के लिए क्रांति नही होती । सत्ता को सर्वहारा वर्ग द्वारा हथियाया जाना चाहिए । मेरा पहला प्रश्न है ,कि क्या भारत का सर्वहारा वर्ग यह क्रांति लाने के लिए संगठित हो जाएगा ? ऐसे कार्य के लिए व्यक्तियों को कौन प्रेरित करेगा ?.......पृष्ठ -52
आगे लिखते है,कि .......भारत का सर्वहारा वर्ग गरीब होने के नाते गरीब होते हुए भी गरीब और अमीर के अंतर के अलावा कोई दूसरा अंतर नही मानता ? क्या यह कहा जा सकता है ,कि भारत के गरीब लोग जातियाँ , नस्ल,ऊंच, नीच के ऐसे भेदों को नही मानते ?....पृष्ठ- 53 
आगे लिखते है, कि..... यदि सर्वहारा वर्ग संगठित रूप से मोर्चा नही लगाता है तो क्रांति कैसे हो सकती है ? यदि तर्क के लिए मान लिया जाए, कि सौभाग्य से  क्रांति हो जाती है और समाजवादी सत्ता में आ जाते है , तो क्या उन्हें  उन समस्याओं से जूझना  नही होगा, जो भारत मे प्रचलित विशेष सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न हुई है ....भारत मे फैली सामाजिक व्यवस्था एक ऐसा मामला है , जिससे समाजवादी को निपटना होगा ..... मेरे विचार से यह एक ऐसा तथ्य है , जो निर्विवाद है ।......इसे हम दूसरी प्रकार यूं कह सकते है,कि चाहे  आप किसी भी दिशा में देखे , जाति एक ऐसा दैत्य है ,जो आपके मार्ग में खड़ा है । आप जब तक इस दैत्य को नही मारोगे , आप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकते है , न कोई आर्थिक सुधार । -- पृष्ठ- 53 
आगे लिखते है कि.....खेद है, कि आज भी जाति -प्रथा के समर्थक मौजूद है । इसके समर्थक अनेक है । इसका समर्थन इस प्रकार किया जाता है ,कि जाति-प्रथा श्रम के विभाजन का एक अन्य नाम ही है .......इस विचार के विरुद्ध पहली बात  यह है कि जाति-प्रथा केवल श्रम का विभाजन नही है । यह श्रमिकों का विभाजन भी है ।...यह एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है , जिसमे श्रमिकों का विभाजन एक के ऊपर दूसरे क्रम में होता है ।....पृष्ठ--54
आगे डा. अम्बेडकर जाति-प्रथा के दुष्परिणामों व आर्यसमाज के वर्णव्यवस्था के चतुर्वर्ण के सिद्धांतों के प्रभावों के सम्बंध में विस्तृत व्याख्या करते है - पृष्ठ- 65 
आगे लिखते है,कि। ...... अब केवल केवल एक प्रश्न रहता है , जिस पर विचार करना है । वह यह है ,कि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में सुधार कैसे किया जाए ? जाति-प्रथा को  कैसे  समाप्त किया जाये ? यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है ।--पेज-78 
उपाय के तौर पर। डा. अम्बेडकर जाति व्यवस्था समाप्त करने के लिए अंतरजातीय विवाह एवम वेद-शास्त्रों का निषेध बताते है । पृष्ठ- 81
आगे डा. अम्बेडकर कहते है ,कि " यद्यपि मैं  धर्म के नियमों की निंदा करता हूँ , इसका अर्थ यह न लगाया जाये, कि धर्म की आवश्यकता ही नही है ।इसके विपरीत मैं वर्क के कथन से सहमत हूँ जो कहता है ,कि " सच्चा धर्म समाज की नीवं है , जिस पर  सब नागरिक सरकारे टिकी हुई है ।"
आगे डा. अम्बेडकर हिंदुओं को हिन्दू धर्म मे सुधार की सलाहें देते है औऱ भाषण की समाप्ति करते है ।
सम्पूर्ण वाङमय , खण्ड- 1

बाबा साहेब पहले सामाजिक क्रांति चाहते है  और  उनके मुताबिक जाति एक ऐसा दैत्य है, जिसको मारे बिना कोई भी समाज का निर्माण नही हो सकता है । समाजवादियों  पर आरोप लगाते है,कि वे आर्थिक प्राणी है  क्योकि वे  आर्थिक क्रांति चाहते है ।
मूलतः   मतभेद समाज को देखने के नजरिये पर मौजूद है । मतभेद दृश्टिकोण या समाज को देखने के भाववादी नजरिये एवम द्वंद्वात्म भौतिकवादी नजरिये का मतभेद है । इसी से विश्लेषण का यह तरीका  भी भिन्न हो जाता है ,कि मूलाधार प्रमुख है या समाज का ऊपरी ढांचा । बाबा साहेब ऊपरी ढांचे को प्रमुख मानते है ।उनके मुताबिक ऊपरी ढांचे को यानी संस्कृति ,मूल्य-मान्यताओं को बदल देंगे तो बुनियादी ढांचा भी बदल जायेगा । यही भाव वादी दर्शन है जो चेतना को प्रधान  मानता है और पदार्थ को गौण ।
यह प्रकृति और समाज को देखने के दर्शन शास्त्र में दार्शनिकों के बीच मे एक विवाद का विषय रहा है मार्क्सवादी दर्शन शास्त्र के मुताबिक समाज मे उत्पादन औऱ उत्पादन के साधन औऱ सम्बन्ध किसी भी समाज का मूल आधार होता है  । ऊपरी ढांचा जिसमे संस्कृति, परम्पराए, मूल्य- मान्यताये मूल आधार का ही प्रतिबिम्ब होती है । द्वंद्व वादी दृश्टिकोण के मुताबिक प्रकृति और समाज मे अंतर्विरोध मौजूद है ।विपतित तत्वों का संघर्ष विकास का पतन का कारण होता है । मार्क्सवादी दृष्टिकोण के मुताबिक समाज  आदिम कम्यून समाज से दास प्रथा, सामन्तवाद, से पूंजीवाद में पहुचता है तो पहले उत्पादन के साधनों ओर सम्बन्धों में  परिवर्तन ,विकास होता है उसके अनुरूप ऊपरी ढांचा बनता है ।
भारत मे जाति व्यवस्था के आधार पर ही कुछ निचली जातियों को उत्पादन के साधनों के मालिकाने से वंचित किया गया था । जाति व्यवथा सामंती व्यवस्था के मुला आधार में मौजूद रही है । आज भी उत्पादन के साधनों का मालिकाना ऊपरी जातियों के ही हाथ मे है और अनुसूचित जातियाँ  साधनों के मालिकाने से वंचित है ,बल्कि वे मजदूरों में परिवर्तित हो गयी है , इसलिए भौतिक आधार को बदले बिना जाति विहीन समाज की कल्पना नही की जा सकती है ।




Wednesday, 26 October 2022

दिवाली त्योहार

दिवाली त्योहार को मनाये जाने के पीछे यूँ तो अलग-अलग मत हैं, पर सबसे अधिक प्रचलित मत के अनुसार अयोध्या के राजकुमार रामचन्द्र चौदह वर्ष का वनवास बिताकर लंका के राजा रावण की हत्या करके इसी दिन अयोध्या वापस आये थे। उनके अयोध्या लौटने की ख़ुशी में उनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर नगर को सजाया। स्वादिष्ट पकवान व मिठाइयाँ बाँटी तभी से  दिवाली के रूप में यह दिन मनाया जाने लगा।

पर यह कहानी हिन्दू धर्मग्रंथों व इस त्योहार को मनाने के तौर तरीक़ों से मेल नहीं खाती है…

सबसे प्राचीन रामायण 'बाल्मीकी रामायण' में राम के अयोध्या लौटने पर नगर में सुगन्धित द्रव्यों के छिड़काव करने, पुष्प बरसाने का उल्लेख तो मिलता है, राम-लक्ष्मण-सीता का भव्य स्वागत का उल्लेख भी मिलता है, लेकिन कहीं भी इस ख़ुशी पर दीप जलाने, गणेश-लक्ष्मी की पूजा करने का उल्लेख नहीं मिलता है।

यदि मान भी लिया जाये कि यह राम के स्वागत करने का उत्सव था तो फिर इस दिन पूजा भी राम, सीता, लक्ष्मण की होनी चाहिये लेकिन इस त्योहार पर तो लक्ष्मी व गणेश की पूजा होती है। उनके अयोध्या वापसी की वार्षिकी पर शुभ स्वागतम, शुभ आगमन आदि लिखा होना चाहिये लेकिन लिखा जाता है शुभ लाभ जिसका सम्बन्ध धन-सम्पत्ति की प्राप्ति से है। दिवाली का आरम्भ धन तेरस से होना, धन की देवी लक्ष्मी की पूजा करना दिखाता है कि इस त्योहार का सम्बन्ध धन अर्जित करने की इच्छा से रहा होगा।

हाँ, इसका संदर्भ एक दूसरे ग्रन्थ 'दंपति चतुर्थी' में ज़रूर मिलता है। इस ग्रंथ में दिवाली को वैश्यों का त्योहार बताया गया है। परम्परागत व्यापारी आज भी इसी दिन से अपना खाता खतौनी आरम्भ करते हैं। इस दिन वैश्य लोग धन की देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा करते आये हैं।वही आज भी दिवाली पर होता है, बल्कि दिवाली पर अब यह पूजा हिन्दू समाज के बड़े हिस्से में की जाने लगी है।

इस बात की बहुत सम्भावना है कि इस त्योहार की जड़ें धन की देवी की पूजा करने से भी पहले से किसी न किसी रूप में किन्ही आदिम समाजों की परम्पराओं में रही होगी। अधिकतर त्योहार अपनी उत्पत्ति के समय कृषि, पशुपालन, मौसम आदि से जुड़े हुए थे। फिर संस्‍थाबद्ध धर्मों के आगमन के बाद तत्कालीन शासकवर्गों के हितों के अनुरूप इन त्‍योहारों के साथ तरह-तरह की धार्मिक मिथकीय कथाऍं और अनुष्‍ठान जोड़ दिये गये। आज पूँजीवाद ने इन त्योहारों के साथ उपभोक्तावाद, दिखावे का भोंडा प्रदर्शन आदि विकृतियाँ भी जोड़ दी हैं।

आज के समाज में त्योहार जो भी रूप धारण कर चुके हों लेकिन मानव समाज में सामूहिक ख़ुशियाँ मनाने, उल्लास, उमंग भरने के लिये त्योहारों का महत्व हमेशा बना रहेगा। 
शोषण उत्पीड़न पर टिके वर्गीय समाज में त्योहार मेहनतकशों की संस्कृति को भी प्रतिबिम्बित कर रहे हों ऐसी कल्पना करना ही निरर्थक है। निश्चित ही भविष्य के गर्भ में पल रहे जन आन्दोलनों/ क्रान्तियों से महान जन नायक पैदा होंगे, सामूहिकता की नयी मिसालें क़ायम होंगी, वहीं से जनता नये त्योहार गढ़ेगी जो मेहनतकशों की संस्कृति से ओत प्रोत होंगे।जब तक जनता के बीच से ऐसे त्योहार नहीं पैदा होते हैं तब तक जनता इन अतीत के त्योहारों में ही अपने लिये भी जीवन की ख़ुशियाँ ढूँढती रहेगी, यह स्वाभाविक भी है। समाज में कोई न कोई त्योहार मौजूद रहेंगे, समाज में त्योहार रिक्तता की स्थिति न तो सम्भव है, न यह समाज के हित में है। प्रगतिशील समाज निर्माण के काम में लगे लोगों का भी त्योहारों से दूर रहना, जनता से उनकी दूरी ही बनायेगा। 

दिवाली के त्योहार पर नये/साफ़ सुथरे कपड़े पहनना, घर की साफ़ सफ़ाई करना,घर को सजाना, प्रकाशमान करना, लोगों से मिलना-जुलना, मिठाइयाँ बाँटना आदि परम्पराओं का आनन्द लेने में भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन आतिशबाजी कर पर्यावरण को धुएँ व ध्वनि प्रदूषण से भर देना, जुआ खेलकर पैसा लुटाना,अथाह धन खर्च कर त्योहार को भी दौलत का भोंडा प्रदर्शन का मौक़ा बनाना, काल्पनिक देवी देवताओं से धन प्राप्त करने की प्रार्थना कर अंधविश्वास के अंधे कुएँ में गोते लगाने जैसी परम्पराओं से पर्यावरण व समाज का नुक़सान ही होता है। इनसे दूर रहने व समाज को भी इनसे दूर रहने के वैचारिक प्रयास ज़रूर किये जाने चाहिये।

त्योहार मनाने के साथ एक और महत्वपूर्ण पहलू पर विचार करना चाहिये कि क्या वो लोग जो त्योहार मनाना चाहते हैं पर ग़रीबी-मुफ़लिसी की वजह से त्योहार मना पाने की स्थिति में नहीं हैं, आख़िर उनके जीवन में त्योहारों का उल्लास कैसे लाया जा सकता है?
सरकार का कहना है कि गांवों में रहने वाला व्यक्ति हर दिन 26 रुपये और शहर में रहने वाला व्यक्ति 32 रुपये खर्च नहीं कर पा रहा है तो वह गरीबी रेखा से नीचे माना जाएगा। सरकार द्वारा ग़रीबी की रेखा को इतना नीचे निर्धारित करने के बावजूद भी देश में 27 करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं। 26 या 32 रुपए भी रोज़ न कमा पाने वाली विशाल आबादी क्या त्योहार पर नये कपड़े ख़रीदने, बिना मिलावट वाली मिठाइयाँ ख़रीदने, भाँति-भाँति के पकवान बनाने आदि के लिये पैसे जुटा सकते हैं? देश की 22 करोड़ कुपोषित आबादी, जिसे भरपेट खाना तक नहीं मिल पाता है, वह भला त्योहार का जश्न कैसे मना सकती है? खुले आसमान के नीचे जीवन बिताने को मजबूर करोड़ों बेघर लोग आख़िर त्योहार पर किस घर को सजायें? रोज़गार की खोज में दर-दर की ठोकरें खाने वाले करोड़ों बेरोज़गार लोग आख़िर कहाँ से उल्लास व उमंग बटोरकर त्योहार मनायें? 

जब तक मेहनतकश आबादी की मेहनत की कमाई अमीरों की तिजोरियों में समाती रहेगी, हर व्यक्ति को सम्माजनक रोज़गार, हर मेहनतकश परिवार को रहने को पक्का मकान नहीं मिल जाता तब तक दिवाली या कोई भी अन्य त्योहार पूरे समाज का त्योहार बन ही नहीं सकता है। कोई भी त्योहार समूचे समाज का त्योहार बन सके इसके लिये धन सम्पदा व संसाधनों को कुछ लोगों के चंगुल से बाहर निकालकर उस पर समूचे समाज का मालिकाना स्थापित करना होगा। तभी त्योहार सभी लोगों के जीवन में उमंग व उल्लास ला पायेंगे। तब त्योहार पर एक बड़ी आबादी के सामने कुंठित होकर अभावों के साथ जीने की मजबूरी नहीं होगी। ख़ुशहाली व सम्पन्नता का ऐसा समाज लक्ष्मी की पूजा करने से नहीं बल्कि संगठित होकर बेहतर समाज निर्माण करने के संघर्ष करने से ही हासिल होगा।

साथी धर्मेंद्र आजाद के वाल से।

पर्व- त्योहार

क्या कभी गौर से ध्यान दिया है कि सावन पुर्णिया से लेकर कार्तिक के गंगा स्नान तक उत्तर भारत में और खासकर हिन्दी बेल्ट में थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल पर कोई न कोई पर्व रहता ही है. राखी, नागपंचमी, गणेश चतुर्थी या गणेशोत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी,  अनंत चतुर्दशी, तीज, जिउतिया, करवाचौथ, विश्वकर्मा पूजा, पिंडदान, नवरात्रि, दुर्गापूजा, धनतेरस, दीपावली, गोवर्द्धन पूजा, भईया दूज, दवात पूजा, चित्रगुप्त पूजा, छठ व्रत, देवोत्थान और कार्तिक पूर्णिमा. 

               ये सारे पर्व और त्योहार हमारे उत्तर भारतीय कृषक जीवन से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं. आखिर क्या कारण है कि इतने सारे पर्व-त्योहार बरसात के मौसम में ही क्यों मनाए जाते हैं? इनमें से अधिकतर में उपवास रहने की परंपरा भी है, और यह उपवास सिर्फ औरतों के लिए ही अनिवार्य है, पुरुषों के लिए नहीं. जहाँ तक मेरी समझदारी है, जाड़े के शुरू में खरीफ की फसल तैयार होती है और गर्मी के शुरू में रब्बी की फसल. पर, बरसात में थोड़ी-बहुत कोई फसल हो भी गई तो उसका कोई खास महत्व नहीं होता. आज तो वह स्थिति नहीं है, पर अपने बचपन के दिनों में मैंने यह अपनी आँखों से देखा है कि अक्सर ही बरसात में भादों के आते-आते अधिकतर परिवारों में अनाज की किल्लत हो जाती थी.  चुल्हे जलते नहीं थे. लोग भूखे सोते थे. चौबीस घंटे में किसी तरह से एक वक्त का खाना नसीब होता था. लोग सत्तू चाटकर रहते थे. 

         तब महिलाओं की स्थिति सबसे दयनीय थी. इसलिए पेट काटने का सबसे पहला गाज महिलाओं पर ही गिरता था. कार्तिक पूर्णिमा के बाद ही खेतों में धान की कटनी होती थी और तब जाकर सबका पेट भरता था. तब अधिकतर घरों में दो तरह का खाना पकता था मर्दों के लिए अलग और औरतों के लिए अलग जो मर्दों की अपेक्षा घटिया होता था. बरसात के दुर्दिन से अपने को बचाने का यही एक उपाय उनके पास था. और करते भी क्या? कुछ लोग छोटी-मोटी चोरियां या सेंधमारी करते थे. लेकिन उसमें खतरे भी थे और नाम खुलने पर बदनामी भी थी. इसलिए सबसे सुरक्षित और आसान तरीका यही था कि औरतों को एक शाम भूखा या कभी-कभी चौबीस घंटे तक भूखा रखा जाए, और इसके लिए पर्व से बेहतर बहाना और क्या हो सकता था?

Tuesday, 25 October 2022

विक्टर हारा: एक अंतहीन गीत....



सितम्बर 1970 में चिली में जब डॉ. अलेंदे जीत कर सत्ता में आये तो जीत के समारोह में एक विशाल बैनर लगा था – 'गीत नहीं तो क्रांति नहीं'. पृष्ठभूमि में एक गीत बज रहा था – 'हम जीतेंगे' (Venceremos)... 

गीतों को इस ताकत तक पहुंचाया था चिली के मशहूर क्रांतिकारी कवि–गायक विक्टर हारा (Victor Jara) ने.

 विक्टर के एक गीत की ताकत दुश्मन के लिए 100 मशीन गन के बराबर थी. इसलिए वे विक्टर हारा से डरते थे, उससे नफ़रत करते थे. इसीलिए जब 11 सितम्बर 1973 को अमरीकी सरपरस्ती में पिनोशे की सेना ने कू किया और अलेंदे मारे गए. सेना की एक टुकड़ी विश्वविद्यालय पहुंची और अलेंदे समेत तमाम बुद्धिजीवियों, लेखकों, अध्यापकों को बंदी बना लिया. हज़ारों लोग बंदी बना कर स्टेडियम ले जाये गए. 

क्रान्तिकारी विक्टर हज़ारों के भीड़ में पहचाने गए. शुरू हुआ उनका जघन्य टार्चर. यातना के इस दौर में भी उन्होंने एक उन्होंने अपने एक साथी से गीत लिखने के लिए पेंसिल और पेपर माँगा. और गीत लिखा – 
मेरे गीत कितनी भयानक है तुम्हारी धुन 
जब मुझे इस दहशत को गाना है 
दहशत जिसमें मैं अभी जी रहा हूं 
दहशत जिसमें मैं अभी मर रहा हूं....
इसके 2 घंटे बाद उनकी हत्या कर दी गई.

एक क्रूर सैन्य अधिकारी ने उनकी उँगलियों और कलाई को यह कहते हुए बूटों से मसल दिया कि इन्हीं हाथों से तुम गिटार बजाते हो न! 

मशीन गन की गोलियों से छलनी उनका शरीर सड़क पर लाशों के बीच फेंक दिया गया. विक्टर हारा की उम्र उस वक्त महज़ 40 साल की थी. उनकी पत्नी जोन हारा ने उनके शव को पहचाना. 

विक्टर,जोन को बेपनाह मुहब्बत करते थे. और उन्होंने कई गीत उनके प्यार पर समर्पित किया है. 'अपने एकांत में मैं तुम्हें सबसे अधिक प्यार करता हूं', उनका प्रसिद्द गीत है. 'मेनिफेस्टो' उनका अंतिम हिट गीत था. एक अन्य प्रसिद्द गीत 'शान्ति में जीने का अधिकार है' उन्होंने हो ची मिंह को समर्पित किया था. 
उस स्टेडियम हत्याकाण्ड में हत्यारे सैनिकों ने हज़ारों लोगों का कत्लेआम कर दिया था. 

आज 95 साल की हो गई जोन हारा 45 साल तक विक्टर और उनके साथियों को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ती रहीं.

 3 जुलाई 2018 को 8 रिटायर्ड सैनिकों को 15 साल की सज़ा हुई. लेकिन विक्टर पर गोली चलाने वाला और उनकी कलाई तोड़ने वाला सैन्य अफसर पेद्रो बरिएन्तोस अमरीका भाग गया. उसे आज तक चिली सरकार प्रत्यर्पण नहीं करा पायी. 

वैसे भी अमरीका ऐसे हत्यारों की पनाहगाह है, जहां हत्यारे अपराधी न केवल पनाह पाते हैं बल्कि पूरी राजकीय सुरक्षा में स्वतंत्र घूमते हैं. वैसे भी वह तख्तापलट अमेरिका और कुख्यात सीआईए ने ही कराया था. 

2003 में चिली के उसी स्टेडियम का नाम विक्टर हारा के नाम समर्पित किया गया. आज भी हर साल लगभग 1000 गिटार वादक विक्टर हारा के संगीत की स्मृति में उत्सव मानते हैं और अपने प्यारे संगीतज्ञ को याद करते हैं. 

गीत जिसमें सैकड़ों मशीन गन से अधिक की ताकत हो सकती है, कभी खामोश नहीं किये जा सकते. हां हत्यारों के प्रति नफ़रत पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती ही जाती है....हत्यारों का कोई नाम लेवा नहीं होता...विक्टर के गीत और विक्टर हारा रहती दुनिया तक ज़िन्दा रहेंगे...

इस पूरी दास्तान को दर्ज किया है 2019 में नेटफ्लिक्स पर आई एक बेहतरीन डोक्युमेंटरी – ReMasterd: Massacre at the stadium  ने. इसके निर्देशक हैं Bent- Jorgen Perlmutt. 

लगभग एक घंटे 5 मिनट की इस डॉक्यूमेंटरी को देखते हुए पूरे समय मेरे ज़हन में छाया रहा – हाल ही में जी. एन. साईंबाबा और अन्य 6 लोगों पर आनन-फ़ानन में छुट्टी के दिन अपनी मन-माफ़िक बेंच को बिठा कर सुप्रीम कोर्ट द्वारा बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा उन्हें बरी कर दिए जाने के फैसले को उलट देने का फैसला. 

कैसे आईने और अपने बच्चों से नज़रें मिलाते होंगे ऐसे जुल्मी जज, सैन्य अधिकारी, पुलिस अधिकारी और ऐसी यातना में शामिल अन्य लोग. 

सलाम है ऐसे क्रांतिकारी गायक विक्टर हारा और तमाम उम्र विक्टर को अपने संघर्ष में ज़िन्दा रखने वाली जोन हारा को!

 जोन ने 1983 में विक्टर हारा के जीवन पर एक किताब लिखी– An Unfinished Song. 

यह महज इत्तेफ़ाक है कि 8 जुलाई 2019 को जब वे हमें गिरफ्तार करने आये तो उस रात मैं यही किताब पढ़ रही थी. जिसे वे अपने साथ लेते गए. वह किताब अभी भी अधूरी है....

ज़ाहिर है जुल्म करने वाले हर युग में नफ़रत के प्रतीक बन जाते हैं और विक्टर जैसों के गीत प्रतिरोध के प्रतीक बन हवाओं में तैरते रहते हैं. क्रांतिकारी गीत कभी मरते नहीं....गूंजते रहते हैं लोगों के दिमागों में आवाज़ों में और प्रतिरोधों में....

#अमिताशीरीं


Sunday, 23 October 2022

दीवाली के अवसर पर कुछ कविताये


दीवाली के अवसर पर कुछ कविताये


*शिवकाशी में पटाखे़ बनाने वाले बच्चे की कविता*
✍ कात्यायनी

बचपन में
बनवाते हो पटाख़े
और
नौजवानी में बम बनाने से
रोकते हो?
आज जीने के लिए
बनाते हैं पटाख़े
कल जीने के लिए
क्यों न बनाएँ बम?
आज
तुम्हारे मुनाफ़े की शर्त है
हमारा जीना
लेकिन मत भूलना
कि हमारे जीने की शर्त है
तुम्हारे मुनाफ़े का ख़ात्मा।
_________________
*जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना*
✍ गोपालदास "नीरज"

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
_________________
*शहर अँधेरे में*
✍ कुमार रवीन्द्र

बहुत रोशनी
राजमहल के परकोटे में
सारा शहर अँधेरे में डूबा है

ऊँचे-ऊँचे कंगूरों पर
धूप बड़ी है
नीचे परछाईं में सिमटी
प्रजा खड़ी है

लंबी-चौड़ी दीवारें हैं
राजभवन की
किरणों का पल इनके घेरे में डूबा है

उजली मीनारों में बंदी
नई रश्मियाँ
नीचे वही पुरानी
धुँधली कुहा-भस्मियाँ

मैली हैं साँसें बस्ती के
कोलाहल की
वातावरण धुएँ के डेरे में डूबा है

स्वप्नलोक में
ऊपर-ऊपर तैर रहे हैं
नीचे अंधकार के
सागर बहुत बहे हैं

बड़े चतुर हैं राजपथों के
सारे प्रहरी
सूरज तहख़ानों के फेरे में डूबा है

_________________
*निहारिका पाण्डेय  की कविता...*

एक ओर पटाखों का शोर है
पाँच से पाँच सौ के पटाखे धीं धीं करके जल रहे हैं
रात के अंधेरे आसमां को अपनी रंगीन रौशनी से भर रहे हैं
दूजी ओर सड़कों के भूखे नंगे
आज की रात अपने लिए छत तलाश रहे हैं
दिये की रोशनी से रौशन घरों की परछत्ती के नीचे
अपने लिए एक रात का बसेरा बना रहे हैं
रौशनी का ये त्योहार आज इन सब पर भारी है
आसमान को सजाते ये पटाखे
मौत बनकर इन बेघरों पर बरसते हैं
आज की रात लक्ष्मी चाहे जिस घर बसेरा बसाये
पर ये नंगे आज की रात छत के लिए सबसे ज्यादा तरसते हैं।
_________________
*दीप का उत्सव मनेगा*
✍ आदित्य कमल

दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?...
धरा की बेचैन सिसकी
तिमिर की काली घटाएँ
रौंदी इस वसुधा पे फैली आह
और कुंठित हवाएँ
एक तरफ़ समृद्धि-वैभव
एक तरफ़ नम वेदनाएँ
धन-कुबेरों की बनी हैं ग्रास
हर संवेदनाएँ
यह है अँधा युग-
अँधेरा बहुत भीतर तक धंसा है
आदमी प्रतिगामी कितने
अंधकूपों में फँसा है
दम धरो , लाखों-करोड़ों लोग
जिस दिन ठान लेंगे
ज्ञान के दीपक ,
ध्वजा विज्ञान के जब तान लेंगे
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अंधेरा क्या छंटेगा ?.....
तमस के सत्ता-शिखर पर
भूखे जब हमला करेंगे
लुट चुके ये लोग , जब
हर चीज़ पर कब्ज़ा करेंगे
रौशनी के दावे ले
हर हाथ में मश्आल होगा
चेतना का जश्न होगा
नृत्य होगा , ताल होगा
सदियों की तन्द्रा को तोड़े
संगठित मानव जगेगा
तोड़ेगा जब अंध - कारा
अंधकारों से भिड़ेगा
एकता के गीत और
संगीत से जब सुर सजेगा
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?.....
मुक्त तन-मन के खुले
आकाश के फैले क्षितिज को
उषा की किरणें बिखर जब
लालिमा का रंग देंगी
प्राणों में आह्लाद जैसे
झुंड में गाते पखेरू
सारी कुदरत ज़िंदगी से
ज़िंदादिल अनुबंध लेगी
कर्मरत मानव के श्रम का
फल जब पूरा मिलेगा
मुक्तिदायी स्वप्न होगा
खुशियों का मेला लगेगा
कालिमा हर चीरता
जब मुक्ति का सूरज उगेगा
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?.....
➖➖➖➖➖➖➖➖

दीवाली की अनन्त शुभकामनायें!

आइये *दीवाली* पर तोहफ़े ठीक से छाँटे, ...... इस बार *मिठाई* नहीं, भरपूर *मिठास* बाँटे 😍

चलो मिलकर इस बार दीवाली ऐसे मनायें,  ....... *दिये* तो जलायें पर, *दिल* ना जलायें✍🏻

नये दिये जलाने से *बेहतर* हैं, ....... जो *दिये* बुझ रहे हैं, उन्हे बचायें🤟🏻

*रोशनी* करने का ढंग बदलना होगा,  ....... *दिया* जलाकर नही  ,,, *दिया बनकर*  जलना होगा☺️

आप सभी को दीवाली की अनन्त शुभकामनायें!

दूसरा वनवास* / कैफ़ी आज़मी

*दूसरा वनवास*  / कैफ़ी आज़मी


राम बनवास से जब लौटकर घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये

धर्म क्या उनका है, क्या जात है ये जानता कौन
घर ना जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे ख़ंजर

तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर

है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आये

पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे

कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे

पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे

राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे

राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे

छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे
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मुस्लिम नाम डरा कर हिन्दू किसानों का जमीन औने पौने दाम में खरीदा

इसे देख लें, पढ लें, समझ लें। हिंदुत्व आम हिंदुओं को भी लूटता ही है। मुस्लिम विरोधी नफरत के पीछे बजरंग दलियों के लुटेरे धंधे भी हैं।
कतरन साभार Girish Malviya

Saturday, 22 October 2022

उम्मीद क्या करे....उम्मीद भी क्या करे....


जिस मुल्क की रियाया  सिर्फ आंसुओं से  झोली भरे
वो एक तंगदिल बादशाह से कोई उम्मीद भी क्या करे

चंद महलों में सिमटती दौलत को देखती वीरान आंखें
इक बेरहम सल्तनत से भला कोई चाहत भी क्या करे

कुछ जगमगाती रोशनियां और दमकते हुए चंद चेहरे
भूखे पेट कराहती आंखे  छुपे हुए  अंधेरों में क्या करें

बदलते चेहरों चमकते लिबासों से नसीब नहीं बदलते
गरीब त्योहारों की  चकाचौंध में  अपने पेट  कैसे भरें 

हुक्मरानों को कहां फुर्सत  कि गुरबत  की ओर देखें
बदनसीब अवाम ऐसे में आख़िर करे भी तो क्या करे

(दिनेश के वोहरा)

Friday, 21 October 2022

अनुवाद, कविवर, आदित्य की रचनाओं का

नेपाल से साथी शेषमणि आचार्य ने इधर मेरी कुछ रचनाओं का नेपाली भाषा में अनुवाद कर मुझे मैसेंजर पर प्रेषित किया है । साथ में उनका दोस्ताना पत्र भी मुझे हरबार मिलता है । आप मित्रगण भी इन रचनाओं से गुजरने का प्रयास करें । पेश है साथी शेषमणि जी का पत्र और उनके द्वारा किया गया अनुवाद :-
कामरेड कविवर, आदित्य जी,
शाम की अभिवादन,
 कोई दोस्ती इस तरह पनप सकता है,मैँ अभी यही सोच रहा हूँ।मुझे आप के वारे मेँ वहुत कुछ पता नहीँ है,लेकिन आप मेरी दिल मेँ बैठ गए हैँ,यही हकिकत है।इसबार सायद चौथी वार आप की १७हवाँ कविता कोराना की रचना मैने भावानुवाद के रूप मेँ सामाजिक सञ्जाल मेँ सम्मिलित कर रहा हूँ।मुझे आप की कलम की जादू ने सम्मोहित कर दिया है!!काश आप मेरे अन्तर साथी बने रहे,कामना करता हूँ।अभी फिर एक वार अभिनन्दन!!
आप का एक साथी
शेषमणि आचार्य
नेपाल से,
२०२२/१०/२०(खृष्टाब्द,)आप की तरफ से कोइ प्रतिक्रिया की इन्तजार मे भी हूँ।शुभ साँझ।

कोरोना काल की रचना१७,"रस्ता बनाया जाए अब"की भावानुवाद,नेपाली मेँ।--
 बाटो बनाऊ छिटो-
आदित्य कमल 
[भारतीय प्रगतिशील कवि आदित्य कमलजीका कविता गजल शैलीका ऊर्जा सम्पन्न कविता छन्।उनका कविता पढ्दा र सुन्दा पनि यसै भित्रैदेखि जोश उत्पन्न हुन्छ।कवि कमलजी एक प्रतिभाशाली गायक पनि हुनुहुन्छ।उहाँको कलम,उहाँको स्वर अत्यन्त उल्लासयुक्त छ।मैले उहाँका केही कविता हिन्दीबाट नेपालीमा अनुवाद गर्ने प्रयास गरेको छु।अनुवाद ज्यादै जटिल कर्म हो।अझ कविताको अनुवाद त मजस्तो सामान्य मान्छेको निम्ति सिर्फ रहर मात्र हो,तर कलमको सम्मान गर्न मैले प्रयास गरेको मात्र हूँ।कविले कविता भारतीय परिवेशमा लेखेका हुन्,तर नेपाल पनि यस्तै परिवेशको नियति भोगिरहेछ,यसमा नेपाल पनि चित्रित भएजस्तो मलाई लाग्यो र यो भावानुवाद गर्ने प्रयास गरेको छु,कविले मलाई यसको अनुमति दिनुभएकोमा आभारी छु।------शेषमणि आचार्य,नेपाल।
शीर्षक'
बाटो बनाऊ छिटो!
(यो कविता कविको कोराना काल की रचना १७को रस्ता वनाया जाए अब:--शीर्षकमा छ,जसको अनुवाद:बाटो बनाऊ छिटो!--दिएको छु।)
कविता यसप्रकार छ:--
पथमा छरिएका पत्थरहरू हटाऊ छिटो,
आऊ साथ आऊ बाटो बनाऊ छिटो!
माटो कडा छ त के भयो,उठाऊ गैँची  कोदालीहरू!
दबाब बढाऊ हम्मर उठाऊ छिटो उठाऊ छिटो
उध्याऊ ती भुत्ते धारहरू हँसिया उध्याऊ छिटो
बाली पाकिसक्यो सम्हाल फसल छिटो !
उठ सुतेकाहरू हो!तन्काऊ कम्मर सिधा
जुधाऊ आँखा सिधा गाउनु छ गाऊ गीत छिटो
साथ सँगै छ नयाँ नक्शा लगाऊ अग्नि ज्वाला
सडेपडेका फोहर मैला जलाऊ सब अब छिटो
 व्यवस्थाको जीर्ण परखाल,जग छाना सबै गले!
जोर धक्का लगाऊ,ढल्नुपर्छ  छिटो अब छिटो।
अनुवाद:२०७९/०७/०३(वि.सं.)
        २०२२/१०/२०(खृष्टाब्द)
नेपाल

                         --- आदित्य कमल

जातियाँ भेदभाव का कारण

प्राचीन समय भारत मे कभी छुआछुत रहा ही नहीं, और ना ही कभी जातियाँ भेदभाव का कारण होती थी।
चलिए हजारो साल पुराना इतिहास पढ़ते हैं। 

सम्राट शांतनु ने विवाह किया एक मछवारे की पुत्री सत्यवती से।उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके,आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की।

सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?

महाभारत लिखने वाले वेद व्यास भी मछवारे थे, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।

विदुर, जिन्हें महा पंडित कहा जाता है वो एक दासी के पुत्र थे, हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई विदुर नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है।

भीम ने वनवासी हिडिम्बा से विवाह किया।

श्री कृष्ण दूध का व्यवसाय करने वालों के परिवार से थे, 

उनके भाई बलराम खेती करते थे, हमेशा हल साथ रखते थे।

यादव क्षत्रिय रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और श्री कृष्ण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ विश्व को दिया।

राम के साथ वनवासी निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे।

उनके पुत्र लव कुश महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में पढ़े जो वनवासी थे

तो ये हो गयी वैदिक काल की बात, स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था,सबको शिक्षा का अधिकार था, कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।

वर्ण सिर्फ काम के आधार पर थे वो बदले जा सकते थे, जिसको आज इकोनॉमिक्स में डिवीज़न ऑफ़ लेबर कहते हैं वो ही।

प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा वो जाति से नाई थे । 

नन्द वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये।

उसके बाद मौर्य वंश का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत चन्द्रगुप्त से हुई,जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे और एक ब्राह्मण चाणक्य ने उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया । 506 साल देश पर मौर्यों का राज रहा।

फिर गुप्त वंश का राज हुआ, जो कि घोड़े का अस्तबल चलाते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे।140 साल देश पर गुप्ताओं का राज रहा।

केवल पुष्यमित्र शुंग के 36 साल के राज को छोड़ कर 92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्ही का  रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं तो शोषण कहां से हो गया? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है।

फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100- 1750 तक है, इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम आक्रमणकारियो का समय रहा और कुछ स्थानों पर उनका शासन भी चला।

अंत में मराठों का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, ने गाय चराने वाले गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया, चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया।

अहिल्या बाई होलकर खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थी। ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये। 

मीरा बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार रविदास थे और रविदास के गुरु ब्राह्मण रामानंद थे|।

यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।

मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई और यहां से पर्दा प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह जैसी चीजें शुरू होती हैं।

1800 -1947 तक अंग्रेजो के शासन रहा और यहीं से जातिवाद शुरू हुआ । जो उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत किया। 

अंग्रेज अधिकारी निकोलस डार्क की किताब "कास्ट ऑफ़ माइंड" में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।

इन हजारों सालों के इतिहास में देश में कई विदेशी आये जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं, जैसे कि मेगास्थनीज ने इंडिका लिखी, फाहियान,  ह्यू सांग और अलबरूनी जैसे कई। किसी ने भी नहीं लिखा की यहां किसी का शोषण होता था।

योगी आदित्यनाथ जो ब्राह्मण नहीं हैं, गोरखपुर मंदिर के महंत  हैं, पिछड़ी जाति की उमा भारती महा मंडलेश्वर रही हैं। जन्म आधारित जाति को छुआछुत व्यवस्था हिन्दुओ को कमजोर करने के लिए लाई गई थी।

इसलिए भारतीय होने पर गर्व करें और घृणा, द्वेष और भेदभाव के षड्यंत्रों से खुद भी बचें और औरों को भी बचाएं।

❤️❤️❤️❤️
प्रवीन भारद्वाज 🙏


Wednesday, 19 October 2022

औरत • ज़िंदगी • आज़ादी

#ZanZendegiAzadi { women • life • freedom } के नारे के साथ पिछले तीन सप्ताह से चल रहा ईरान प्रोटेस्ट अब सरहदें भी पार करने लगा है. आज़ादी के इस आंदोलन की आहट यूरोपीय देशों मसलन बर्लिन, मैड्रिड, लंदन, रोम, अमेरिका वगैरह में साफ़ सुनाई देने लगी है जहां न सिर्फ़ नुक्कड़-चौराहों पर छोटी-बड़ी जन सभाएं हो रहीं हैं बल्कि ईरानी औरतों की एकजुटता में यहां की औरतें भी अपने बाल काट रहीं हैं.

"औरत • ज़िंदगी • आज़ादी" के इस आंदोलन में अब तक लगभग 100 से ज़्यादा जानें जा चुकी हैं (जिनमें औरत और मर्द दोनों शामिल हैं) लेकिन इनके जज़्बे में रत्ती भर फ़र्क़ नहीं आया है.. बल्कि खबरें तो ये हैं कि जहां ईरान के शासक आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने अपने सैनिकों को आंदोलन के 'बर्बर दमन' का आदेश दे रखा है वहीं स्कूल की लड़कियां क्लास रूम में टंगी खुमैनी की तस्वीरों को पटककर लोगों में आज़ादी का नया जोश भर रहीं हैं..

...और लोगों का हाल यह है कि ईरानी 'मोरल पुलिस' के हाथों शहीद हुईं 22 साल की 'म्हासा आमीनी' का नाम वे कुछ इस अंदाज़ में ले रहे हैं जैसे, अपने देश में शाहीन बाग़ आंदोलन के दौरान लोग 'आज़ादी' - 'आज़ादी' चिल्लाते नहीं थकते थे.. .

#MahsaAmini


Sunday, 16 October 2022

चे-ग्वारा- आम आदमी के हालात कभी बदलेंगे क्या!..........



इससे पहले कि,
भूखे–नंगे,
आसमान से बगावत कर बैठते,
उलट जाते मठाधीशों के सिंहासन,
जिल्लेसुभानी बनने वालों के
ताज नोंच दिए जाते,

इससे पहले कि बराबरी का
हक मांगने के लिए
लहू पसीने की अंतिम क्रांति                                                                     
उठ खड़ी होती,

पोथियों–उपदेशों-बाजों ने
'वह सबकी परीक्षा लेता है-
धीरज रखो बन्दों'
'उसके घर देर है अँधेर नही'
की अफीम देकर
सुला दीं फैले हुए हाथों की फरियादें।

फिर भी कोई आवाज़ अगर
इन्साफ के लिए कराही
तुरंत ज़बान काट कर खामोश
कर दी गयी।

समय के जंजाल में फँसा
हिमालय कचरे का ढ़ेर बन गया है
मैली हो गई पवित्र गँगा भी
पर महलों-अट्टालिकाओं की आभा है वही
वही है फतवों–धर्मादेशों की चमक
वही है अभावों की चक्की में
पिसता आम आदमी।

न कुछ बदला है न बदलेगा
चींटी के पगों आवाज़ सुनने वाले
तेरे घर सदा देर है!

Saturday, 15 October 2022

वैश्विक भूख सूचकांक

वैश्विक भूख सूचकांक (Global Hunger Index ) की सालाना रिपोर्ट में 121 देशों की सूची में भारत 107 वें स्थान पर खिसक चुका है.
जो देश 121 वें स्थान पर है वह आज सबसे भयंकर स्थिति में है भूख से लड़ने में.
सरकार के प्रचार-प्रसार और दरबारी मीडिया की नज़र में तो भारत उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है.
फिर सच क्या है? क्या वैश्विक संस्थाएँ भारत को बदनाम करने के मिशन पर हैं. करोना काल में सर्वोच्च न्यायालय के दख़ल के बाद सरकारी मुफ़्त राशन योजना का लाभ क़रीब 80 करोड़ लोगों को देने का दावा किया गया. यह योजना हिमाचल प्रदेश और गुजरात में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र इसी माह से आगे तीन माह के लिए विस्तार पा गई है.
जब सरकार मुफ़्त राशन उपलब्ध करा रही है ग़रीबों को तो फिर भुखमरी के सूचकांक में फिसलने का असल कारण क्या है?
हाल ही में भारी मात्रा में सरकारी लापरवाही के चलते सरकारी गेहूँ सड़ने की ख़बर आई थी. सरकार को पता लगाना चाहिए कि यह मुफ़्त राशन योजना कहीं बड़े भ्रष्टाचार के चंगुल में तो नहीं फँस चुकी है.
#globalhungerindex2022

Friday, 14 October 2022

कविता *हर आपदा में क्यों मरे मजदूर ?



भूख से तड़पकर, मौत से लड़कर
घर पहुंचा मजदूर पैदल चलकर।
नर्क की तमाम तकलीफों को झेला उसने
स्वर्ग का निर्माण अपने हाथों से किया जिसने।

अभावग्रस्त जीवन क्यों जिए मजदूर ?
हर आपदा में क्यों मरे मजदूर ?

जिसने अपने खून से हर शहर को बसाया
पसीने से हर गली, हर दीवार को चमकाया
उसी ने दुनिया की हर चीज को बनाई है
जिसे हर सरकार ने लॉकडाउन में मरने को छोड़ दी है।

हर ज़ुल्म का शिकार क्यों बने मजदूर ?
हर आपदा में क्यों मरे मजदूर ?

जो मर रहे थे शहरों में भूख से लड़कर
मिली ना उन्हें इससे मुक्ति अपने-अपने घर आकर।
जो झेल रहे हैं आज बेरोजगारी की मार
उन्हें झेलना है अब छोड़े गए पानी की बाढ़।

कृत्रिम त्रासदी को क्यों झेले मजदूर ?
हर आपदा में क्यों मरे मजदूर ?

गर हम मजदूर रहें एकजुट
रहे विरोध, पर ना रहे आपसी फूट
तो अपने पसीने की पूरी कीमत ले पाएंगे हम।
श्रम की हर लूट को बंद कर पाएंगे हम।।

सही वक्त में क्यों बिखरा रहे मजदूर ?
हर आपदा में क्यों मरे मजदूर ?
                    ✍🏽 mzf kabir

(नोट : वो कोई भी व्यक्ति जो अपने शारीरिक या मानसिक या दोनों प्रकार के श्रम से अपनी आजीविका अर्जित करते हैं, उसे मजदूर कहते हैं। यहां मजदूर शब्द का प्रयोग व्यापक मेहनतकश जनता के लिए किया गया है।) 

प्रोफ़ेसर जीएन साईंबाबा सभी आरोपों से बरी

पाँच साल तक जेल में रहने के बाद प्रोफ़ेसर जीएन साईंबाबा को आज सभी आरोपों से बरी कर दिया गया। जो व्यक्ति 80 प्रतिशत से ज़्यादा विकलांग है और अपने पैरों पर चल भी नहीं सकता, उसे इस समय का बड़ा हिस्सा अमानवीय 'अण्डा सेल' में बिताना पड़ा। सेहत के आधार पर उनकी ज़मानत की सभी अपीलें बार-बार ख़ारिज की जाती रहीं। उनके साथ प्रशांत राही, हेम मिश्रा, विजय तिकरी और महेश टिकरी भी कई वर्ष जेलों में बिताने और यातनाएँ सहने के बाद सभी आरोपों से बरी कर दिये गये।

लेकिन पाँच निर्दोष लोगों के साथ ऐसे अमानवीय और क्रूर व्यवहार और उनके जीवन और शरीर को शायद हमेशा के लिए बरबाद कर देने के लिए ज़िम्मेदार किसी भी व्यक्ति को कोई सज़ा नहीं मिलेगी। उनके विरुद्ध झूठे आरोप गढ़ने वाले पुलिस अफ़सरों, न्याय और मानवीयता के तभी तकाज़ों को कुचलकर उनकी ज़मानत से इंकार करने और अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बटोरने के लिए उनके बारे में ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयानबाज़ियाँ करने वाले जजों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होगी और वे फिर किसी और राजनीतिक क़ैदी की न्यायिक हत्या की साज़िश में पूरी बेशर्मी के साथ लिप्त हो जायेंगे। फिर किसी स्टैन स्वामी को मार दिया जायेगा, किसी गौतम नवलखा और वरवर राव को मौत के मुहाने पर धकेल दिया जायेगा। 

दूसरी ओर, न जाने कितनी मौतों और समाज में ज़हर फैलाने के लिए ज़िम्मेदार नफ़रती भाषणों के "दोषी पाये गये" भाजपा विधायक संगीत सोम पर 800 रुपये का जुरमाना लगाकर भगवा ख़ेमे में उसे और हीरो बना दिया गया है। यह मैसेज भी दे दिया गया है कि जमकर नफ़रत फैलाओ, क़ानूनी पेचीदगियों के चक्कर में अगर "दोषी" मान भी लिया गया तो सज़ा के नाम पर कोई चुटकुला सुना दिया जायेगा। 

फिर भी कुछ लोग हैं कि महान भारतीय लोकतंत्र की महान न्याय व्यवस्था पर भरोसा जताते रहेंगे। 

इस ठोकतंत्र के चारों खम्भों में न जाने कितने मासूमों की लाशें चुनी हुई हैं। ये जितनी जल्दी ध्वस्त हो जायें उतना ही अच्छा है। जिनके हित इसी बर्बर शोषक व्यवस्था को बचाये रखने में हैं, उन्हें इसमें बाँस-बल्ली लगाने, मरम्मत और पर्देदारी करने में लगे रहने दीजिए। इंसाफ़ और बराबरी पर खड़ी नयी व्यवस्था के जन्म के लिए इसका ध्वंस ज़रूरी है। और इसके लिए ज़रूरी है इसके असली ख़ूनी चरित्र को ढँकने वाली रामनामी चादर को उतार फेंकना।
सत्यम वर्मा

Wednesday, 12 October 2022

राम मनोहर लोहिया

एक दौर था जब  साम्यवाद का विरोध खुल कर करना राजनैतिक रूप से फलदायी नही था। साम्यवाद के बढ़ते तूफान को रोकने, दिगभ्रमित करने के लिये साम्यवाद को किसी न किसी रूप में स्वीकार कर के ही किया जा सकता था। कांग्रेस के अंदर जो बाम धड़ा था, वह इसी जरूरत को पूरा कर रहा था। उसी बाम धड़ा के अत्यंत मुखर प्रतिनिधि लोहिया और जयप्रकाश नारायण थे जिसकी तारीफ गांधी तक किया करते थे। राम मनोहर लोहिया   और जयप्रकाश नारायण  के  बारे में एक बार गांधी जी ने कहा था कि –

_मैं शांति से नहीं बैठ सकता जब मैं राममनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण को जेल में देखता हूँ. मैं उनसे साहसी और स्पष्टवादी व्यक्ति को नहीं जानता हूँ._

लोहिया और जयप्रकाश नारायण में समाजवाद का खुला विरोध करने का साहस नही था इसलिये वे समाजवाद के बारे में भौंडी समझ यदा-कदा रखते थे और कम्युनिस्ट पार्टी का, कम्युनिष्टों का विरोध करते थे, उनके खिलाफ दुष्प्रचार फैलाते थे। और इस तरह इनलोगो ने लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था बचाने में अपना योगदान दिया। नीचे उद्धरित लोहिया का समाजवाद के बारे में विचार भी इसी चीज को दर्शाता है।

*हमें समृद्धि बढानी है, कृषि का विस्तार करना है, फैक्ट्रियों की संख्या अधिक करनी है लेकिन हमें सामूहिक सम्पत्ति बढाने के बारे में सोचना चाहिए; अगर हम निजी सम्पति के प्रति प्रेम को ख़त्म करने का प्रयास करें, तो शायद हम भारत में एक नए समाजवाद की स्थापना कर पाएं.*

मुलायम और लालू इसी धारा के सड़ांध थे/है। 

विजयदशमी

आज विजयदशमी है...
#रावण पर #राम की जीत की याद का दिन!

महापण्डित रावण एक महिला के अपहरण से कैसे सब की नज़रों में गिर गया कि पीढ़ी दर पीढ़ी हम उसकी हार का जश्न मनाते हैं। यह दिन हमें स्त्री की गरिमा का बोध कराता है।

आज रावण वध देख कर लौटते समय ज़रा अंकिता भंडारी से ले कर हाथरस की निर्भया, कश्मीर की आसिफा और उन सभी लड़कियों तथा महिलाओं को भी याद करें जो रावण से भी बड़े पापियों की शिकार बनीं।

आज रावण की याद करते हुए एक बार फिर गुजरात से ले कर मुजफ्फरनगर के दंगों की पीड़ित उन लड़कियों और उन औरतों को भी याद करना न भूलें जिनके देह के घाव तो समय के साथ भर गए लेकिन जिनकी चेतना और आत्मा का ज़ख्म अब भी ताज़ा हा। 

आज रावण का पुतला जलते देख बिल्कीस बानो को भी याद करें जिनके बलात्कारियों को, जिनकी बेटी और रिश्तेदारों के हत्यारों को न सिर्फ़ छोड़ दिया गया, बल्कि जेल से आने के बाद उनका "स्वागत" फूल मालाओं से किया। उन्होंने वे पाप किए थे जो रावण ने नहीं किया था।

 विजयदशमी के दिन उन महिलाओं को भी याद कर लें जो #Metoo के तहत अपने-अपने रावणों का नाम दर्ज कराती रही हैं। उनके रावणों के प्रति भी अपना रुख़ तय करना न भूलें।

रावण की लंका आज भी है जो एम जे अकबरों और सेंगरों को प्रश्रय देती रही, जिसने अब भी उससे नाता नहीं तोड़ा है। 

आधुनिक लंका के गली कूचों में यहां वहां आसीन आधुनिक रावणों के होंठों पे ज़हरीली मुस्कुराहट आपसे कुछ कहती है, उसे भी पढ़ें।

सदियों पुराने रावण के कागज़ के पुतलों को जला कर लौटते वक्त ज़रूर याद रखियेगा की हाड़ मांस का असली रावण सत्ता के गलियारों से ले कर हमारी गली कूचों में दनदना रहे हैं। हम आप कई बार उन्हें देख कर, उनका नाम-धर्म - जाति देख कर चुप हो जाते हैं, और नज़रें मोड़ लेते हैं। उनसे दो-दो हाथ कर ही हम असली विजयदशमी मनाएंगे!

यह विजयदशमी अंकिता भंडारी के नाम करें!

यह विजयदशमी अंकिता भंडारी जैसी हज़ारों लड़कियों और महिलाओं के नाम करें!

इस विजयदशमी पर असली रावण की पहचान करें!!

इस विजयदशमी पर असली रावण के संहार का प्रण करें!!
@everyone


कैसे स्वीकार्य हो यह अन्याय?

दूसरों की गंदगी साफ कर खुद गंदगी के बीच रहना
दूसरों के घर बनाकर खुद बेघर रहना
दूसरों के भोजन पैदा कर खुद भूखा रहना
औरों के लिए कपड़ों को पैदा कर ठंड से ठिठुरना
दूसरों के पाठशाला बना खुद अशिक्षित होना
बड़े बड़े अस्पताल बनाकर अपनों को बेइलाज मरते देखना
दूसरों के लिए संपत्ति पैदा कर खुद तंगहाल होना
दूसरों के साम्राज्य के लिए लड़ाई में जान गवाना
देशभक्ति की आड़ में इस्तेमाल होना
आस्था और पाखंड का नियति का षड्यंत्र
भाग्य और दुर्भाग्य का गढ़ा गया वह तंत्र
फिर आदम स्मिथ का अदृश्य हाथ
और श्रम शक्ति वह का अदृश्य लूट।
कैसे स्वीकार्य हो यह अन्याय?
क्यों स्वीकार्य हो ऐसा तंत्र?

Vidyanand Chaudhary

Tuesday, 11 October 2022

हमने बनाई इमारत, हमें क्या मिला ? कविता

हमने बनाई इमारत, हमें क्या मिला ?
हमने सजाई दुनिया, हमें क्या मिला ?
मालिकों को मिली बेशुमार दौलत
भुखमरी के सिवा हमें क्या मिला ?

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

हमने बनाया मोटर कार, हमें क्या मिला ?
हमने चलाई रेल गाड़ी, हमें क्या मिला ?
मालिकों की बढ़ती रही पूंजी
इक ग़रीबी के सिवा हमें क्या मिला ?

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

हमेशा मालिकों ने हमें सताया
रोजी-रोटी के लिए हमें तरसाया
जब भी हमने मांगा अपना हक़
उसने पुलिस बुलाई, डंडा बरसाया

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ, आ कदम मिला।

सरकारों ने सदा पूंजी का गुण गाया
उसी के फायदे में श्रम कोड लाया
सारे अधिकारों को हमसे छीन कर
हमारे गले में मौत का फंदा लगाया।

काटने फंदे को हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

मजदूरों का ऐलान, हम साथ चलें
नौजवानों का गान, हम साथ चलें
इंकलाबियों का आह्वान, हम साथ चलें
दिल्ली में फहराने लाल निशान, हम साथ चलें

कह दो लेने हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

       ✍️ एम.जेड.एफ कबीर 

हम सभी मजदूर गरीब किसान- कविता

मेरा विश्वास है
तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी
यह खबर आग की तरह फ़ैलती जाएगी
तमाम शहरी मजदूर भाइयो 
तक।

मौज़-मस्ती में डूबे लोग
सहम जायेगे
गहरी नींद में सोए
अलसाए भी जाग जाएगें
जब यह खबर आग बनकर
उतरेगी जालिम हुक्मरानों की साँसों में।

खेत –खलिहान
कर्ज में डूबे किसान 
मिहनतकसो की ललकार
उत्पीडित जनों की हुंकार
जब गूंज उठे गी संसद के गलियारों तक।

हमने देखा है इन्ही आँखों से
 मुनाफा तो मुनाफा लागत भी डूबते हुए
उम्मीदें, ख्वाहिशें, 
और ... और बहुत कुछ... सब कुछ ...
 बेटियों के रिश्ते .... बहु कि बिदाई ...
किसी की बरसी ... किसी का खतना .... 
किसी का मुंडन... किसी की मंगनी ....
हमने देखा है सबकुछ खत्म होते हुए...
हमने देखा है
विकते हुए अपनी प्यारी गाय..... 
कुर्बानी वाला बकरा ..... 
मुर्गियाँ .... अपनेे गहने ....... 
अपने बहु बेटियों की आबरू ...अपनी पगड़ी.....  
और इस लिए
 आत्महत्या करने के बजाये
घुटने के बल जीने के बजाये 
हमने फैसला किया है 
उठ खड़ा होने का
इस पूंजीवादी शोषण के खिलाफ
हम सभी मजदूर गरीब किसान।

2016
एम के आज़ाद

Monday, 10 October 2022

मुलायम सिंह ने गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में ली आख़िरी साँस।


किसी के भी जाने पर दुःख होता है। लेकिन हैरानी भी होती है कि मुलायम सिंह को अपना इलाज करवाने मेदांता जैसे महँगे प्राइवेट अस्पताल में आना पड़ा, ये ख़ुद तीन बार यूपी में मुख्यमंत्री रह चुके हैं, एक बार अखिलेश के नेतृत्व में इनकी पार्टी सरकार चला चुकी है। लेकिन तब भी ये तथाकथित नेता उत्तर प्रदेश में ऐसे सरकारी अस्पताल नहीं बना पाये जो इन्हें अपने इलाज करने के लिये उचित लगे।यही नहीं इनके पहले व बाद वाले सत्ताधीसों का भी यही हाल है, पार्टी व झंडे का रंग चाहे जो भी रहा हो, जन सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के मामले में ये सभी पार्टियाँ व नेता कमोबेश एक ही जैसे हैं।

ऐसे तथाकथित नेताओं का सम्मान करना या मृत्योपरांत उनको नमन करना देश की आज़ादी के 75 सालों बाद भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम रख दी गयी जनता का अपमान करना है। ये 'नेता' ख़ुद तो जनता के पैसे पर महँगे अस्पतालों में इलाज करवाते हैं, ज़रूरत पड़ी तो इलाज करवाने विदेश भी चले जाते हैं, पर जनता के लिये आधुनिक सुविधाओं से लैस तो छोड़िए, पिछड़े हुए अस्पतालों की भी उपलब्धता बनाना ज़रूरी नहीं समझते हैं। आज आज़ादी के 75 सालों बाद भी स्थिति यह है कि शहरों में भी सरकारी अस्पतालों की संख्या बहुत कम हैं, दूर दराज के क्षेत्रों में तो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक उपलब्ध नहीं हैं। जो स्वास्थ्य ढाँचा एक समय पर खड़ा किया भी गया था आज वह भी जर्जर हालात में पहुँच चुका है, अधिकतर जगहों पर तो स्वास्थ्य तन्त्र ही मृत्युशैया पर पड़ा हुआ है।

उत्तराखंड के लोग कभी भी मुलायम सिंह को माफ़ नहीं कर पायेंगे। पृथक उत्तराखंड आंदोलन के दौरान शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने दिल्ली आ रहे आंदोलनकारियों के साथ मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर 1-2 अक्टूबर, 1994 की रात को मुलायम सिंह की पुलिस द्वारा की गयी बर्बरता को याद कर आज भी रूह कांप जाती है। उस रात न सिर्फ कई लोगों ने पुलिस की गोलियों का शिकार होकर शहादत दी बल्कि मुलायम सिंह के पुलिसकर्मीयों ने कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ दुराचार किया, बलात्कार किये। इस घटना को आज 27 साल बीत चुके हैं लेकिन लोगों के जख्म अभी भी हरे हैं। मुलायम सिंह ने इस अपराध के लिये माफ़ी माँगना भी ज़रूरी नहीं समझा।

इसे हास्यास्पद ही कहा जा सकता है कि मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी का नाम समाजवादी पार्टी रखा था लेकिन अपने व्यवहार में ये आजीवन पूँजीपतियों की सेवा में लगे रहे, यही नहीं इनकी महिला विरोधी सोच इन्हें पित्रसत्तात्मक व सामन्ती सोच से ग्रसित प्रगतिशीलता विरोधी व्यक्ति बना देती थी।

ऐसे नेताओं को 'धरती पुत्र' जैसे तमग़ों से नवाजना तो दूर, इन्हें जनता की ओर से ढेर सारी लानतें भेजी जानी चाहिये। ऐसे सारे नेताओं व इनको पैदा करने वाली पूँजीवादी व्यवस्था से इस समाज को मुक्ति मिल सके, देश में बड़े बड़े जन आंदोलनों के उभार से सच्चे जन नायक पैदा हो सकें जो जनता की फ़ौलादी ताक़त के दम पर सच्ची समाजवादी व्यवस्था क़ायम कर सकें इसी में मेहनतकश समाज की भलाई है।

Dharmendra Azad



Sunday, 9 October 2022

मैं एक कम्युनिस्ट हूँ

मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मुझे साम्यवाद से बेहतर विश्व अर्थव्यवस्था नहीं दिखती।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि लोगों को पीड़ित देखकर मुझे दुख होता है।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं न्यायपूर्ण समाज के स्वप्नलोक में दृढ़ विश्वास रखता हूं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि सभी के पास वह होना चाहिए जो उन्हें चाहिए और जो वे कर सकते हैं वह दें।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मेरा मानना ​​है कि मनुष्य की खुशी एकजुटता में है।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मेरा मानना ​​है कि हर किसी को घर, स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्मानजनक नौकरी और पेंशन पाने का अधिकार है।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं भगवान को नहीं मानता।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि अभी तक किसी के पास बेहतर विचार नहीं था।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं इंसानों में विश्वास करता हूं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मुझे उम्मीद है कि एक दिन पूरी मानवता कम्युनिस्ट होगी।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं मुक्त बाजार में विश्वास नहीं करता।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि दुनिया के कुछ बेहतरीन लोग कम्युनिस्ट थे और हैं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मुझे पाखंड से नफरत है और मैं सच्चाई में विश्वास करता हूं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मुझमें और दूसरों में कोई भेद नहीं है।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं पूरी जिंदगी इंसानियत की भलाई के लिए लड़ना चाहता हूं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि एकजुट लोग कभी पराजित नहीं होंगे।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि आप गलत हो सकते हैं, लेकिन पूंजीवादी होने की हद तक नहीं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं जिंदगी से प्यार करता हूं और उसके साथ लड़ता हूं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि बहुत कम लोग कम्युनिस्ट हैं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि वे कम्युनिस्ट हैं लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मनुष्य का मनुष्य का शोषण मौजूद है क्योंकि साम्यवाद नहीं है।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मेरा दिमाग और मेरा दिल कम्युनिस्ट हैं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं रोज खुद की आलोचना करता हूं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि लोगों का सहयोग ही मानव जाति की शांति प्राप्त करने का एकमात्र तरीका है।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मानवता में इस सारे दुख की जिम्मेदारी उन सभी लोगों की है जो कम्युनिस्ट नहीं हैं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि मैं व्यक्तिगत शक्ति नहीं बल्कि लोगों को शक्ति देता हूं।
 मैं एक कम्युनिस्ट हूँ
 क्योंकि किसी ने भी मुझे कभी एक नहीं होने के लिए राजी किया है। 

 - नाजिम हिक्मत।

Saturday, 8 October 2022

मजदूर गीत : आ कदम मिला


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हमने बनाई इमारत, हमें क्या मिला ?
हमने सजाई दुनिया, हमें क्या मिला ?
मालिकों को मिली बेशुमार दौलत 
भुखमरी के सिवा हमें क्या मिला ? 
 
लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

हमने बनाया मोटर कार, हमें क्या मिला ? 
हमने चलाई रेल गाड़ी, हमें क्या मिला ?
मालिकों की बढ़ती रही पूंजी
इक ग़रीबी के सिवा हमें क्या मिला ?

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

हमेशा मालिकों ने हमें सताया 
रोजी-रोटी के लिए हमें तरसाया 
जब भी हमने मांगा अपना हक़
उसने पुलिस बुलाई, डंडा बरसाया 

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया 
मजदूर साथी उठ, आ कदम मिला। 

सरकारों ने सदा पूंजी का गुण गाया 
उसी के फायदे में श्रम कोड लाया 
सारे अधिकारों को हमसे छीन कर 
हमारे गले में मौत का फंदा लगाया। 

काटने फंदे को हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

मजदूरों का ऐलान, हम साथ चलें 
नौजवानों का गान, हम साथ चलें 
इंकलाबियों का आह्वान, हम साथ चलें
दिल्ली में फहराने लाल निशान, हम साथ चलें

कह दो लेने हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला। 

       ✍️ एम.जेड.एफ कबीर

ज़िन्दगी को वह गढ़ेंगे जो शिलाएं तोड़ते है

*ज़िन्दगी को वह गढ़ेंगे जो शिलाएं तोड़ते है*

जिन्दगी को
वह गढ़ेंगे जो शिलाएं तोड़ते हैं
जो भगीरथ नीर की निर्भय शिराएं मोड़ते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूं।

ज़िन्दगी को
वह गढ़ेंगे जो खदानें खोदते हैं,
लौह के सोये असुर को कर्म-रथ में जोतते हैं।
यज्ञ को इस श्रम-शक्ति के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूं।

ज़िन्दगी को
वह गढ़ेंगे जो प्रभंजन हांकते हैं,
शूरवीरों के चरण से रक्त-रेखा आंकते हैं।
यज्ञ को इस श्रम-शक्ति के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूं।

ज़िन्दगी को
वह गढ़ेंगे जो प्रलय को रोकते हैं,
रक्त से रंजित धरा पर शान्ति का पथ खोजते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूं।

मैं नया इंसान हूं इस यज्ञ में सहयोग दूंगा।
ख़ूबसूरत ज़िन्दगी की नौजवानी भोग लूंगा।

- *केदारनाथ अग्रवाल* 

असंगठित कामगार

हम असंगठित कामगार है
इस लिए लाचार है
देखो, संगठन बिना हम,
कैसे बे-बस, बे-हथियार है। 

फ्रेंच लेखिका एनी एरनॉक्‍स को मिला वर्ष 2022 का साहित्य का नोबेल पुरुस्कार

फ्रेंच लेखिका एनी एरनॉक्‍स को मिला वर्ष 2022 का साहित्य का नोबेल पुरुस्कार...  नोबेल कमेटी के अनुसार, 'एनी को उनके साहस और नैतिक सटीकता के साथ अपनी यादों की जड़ों को खोदकर, सामाजिक प्रतिबंधों को उजागर करने के लिए नोबेल के लिए चुना गया है.' 

सर्वोच्च न्यायालय के नाम खुला पत्र सन 2011

इलाहबाद में सीमा आज़ाद बता रही थी कि " आपके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के नाम लिखा गया खुला पत्र नैनी जेल इलाहबाद में महिला बैरक में पढ़ा गया था ! इसे पढ़ कर अनेकों महिला बंदियां रोयीं।"

लेकिन जिनके लिये लिखा गया उनकी आँख में आंसू कब आयेंगे ?

यह है वह पत्र 

सर्वोच्च न्यायालय के नाम खुला पत्र
सन 2011

माननीय न्यायाधीश महोदय,
सर्वोच्च न्यायालय,
नईदिल्ली

यह पत्र मैं आपको सोनी सोरी नाम की आदिवासी लड़की के सम्बन्ध में लिख रहा हूँ, जिसके गुप्तांगो में दंतेवाडा के एसपी ने पत्थर भर दिये थे और जिसका मुकदमा आपकी अदालत में चल रहा हैІ 

उस लड़की की मेडिकल जाँच आपके आदेश से कराई गई और डाक्टरों ने उस आदिवासी लड़की के आरोपों को सही पाया और डाक्टरी रिपोर्ट के साथ उस लड़की के गुप्तांगो से निकले हुए तीन पत्थर भी आपको भेज दियेІ

कल दिनांक 02-12-2011 को आपने वो पत्थर देखने के बाद भी उस आदिवासी लड़की को छत्तीसगढ़ के जेल में ही रखने का आदेश दिया और छत्तीसगढ़ सरकार को डेढ़ महीने का समय जवाब देने के लिए दिया है І

जज साहब मेरी दो बेटियाँ हैं अगर किसी ने मेरी बेटियों के साथ ये सब किया होता तो मैं ऐसा करने वाले को डेढ़ महीना तो क्या डेढ़ मिनट की भी मोहलत न देता |

और जज साहब अगर यह लड़की आपकी अपनी बेटी होती तो क्या उसके गुप्तांगों में पत्थर डालने वालों को भी आप पैंतालीस दिनों का समय देते? और क्या उससे ये पूछते कि आपने मेरी बेटी के गुप्तांगों में पत्थर क्यों डाले? पैंतालीस दिन के बाद आकर बता देना और तब तक तुम मेरी बेटी को अपने घर में बंद कर के रख सकते हो ?

पत्थर डालने वाले उस बदमाश एसपी को पता है कि उसकी रक्षा करने के लिये आप यहाँ सुप्रीम कोर्ट में बैठे हुए हैं इसलिए वह बेफिक्र होकर खुलेआम इस तरह की हरकत करता है 

और आपके कल के आदेश ने इस बात को और पुख्ता कर दिया है, कि इस तरह से हरकत करने वालों की रक्षा सुप्रीम कोर्ट लगातार उसी तरह करता रहेगा जिस प्रकार वो अंग्रेजों के समय से सरकारी पुलिस की रक्षा के लिए करता रहा हैІ

जज साहब, ये अदालत उस आदिवासी लड़की की रक्षा के लिए बनायी गयी थी उस बदमाश एसपी के लिए नहीं І 

ये इस लोकतांत्रिक देश की सर्वोच्च न्यायालय है और इसका पहला काम देश के सबसे कमजोर लोगों की रक्षा सबसे पहले करने का है । 

आपको याद रखना पड़ेगा कि इस देश के सबसे कमजोर लोग महिलायें, आदिवासी, दलित, भूख से मरते हुए करोडों लोग हैं और इस अदालत को हर फैसला इन लोगों की हालत को बेहतर बनाने के लिए देना पड़ेगाІ 

लेकिन आजादी के बाद से इन सभी लोगों को आपकी तरफ से उपेक्षा और इनकी दुर्गति के लिए जिम्मेदार लोगों को संरक्षण दिया गया हैІ

मेरे पिताजी इस देश के आजादी के लिए लड़े थेІ उन सभी आज़ादी के दीवानों के क्या सपने थे? उन लोगों ने कभी कल्पना भी की होगी कि आज़ादी मिलने के बाद एक दिन इस देश की सर्वोच्च न्यायालय एक आदिवासी बच्ची के बजाय उसपर अत्याचार करनेवाले को संरक्षण प्रदान करेगी ?

हमें बचपन से बताया गया इस देश में लोकतंत्र है इसका मतलब है करोडों आदिवासियों, करोडों दलितों, करोडों भूखों का तंत्रІ 

लेकिन आपके सारे फैसले इन करोडों लोगों को बदहाली में धकेलने वाले लोगों के पक्ष में होते हैंІ आपको अपनी जमीन बचाने के लिए पुलिस की गोली खाने वाले औरतें व बच्चे दिखाई नहीं देते?

उनके लिए आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओ को जमीन छीनने वाली कंपनी मालिकों के आदेश पर सरकार द्वारा गिरफ्तारी आपको दिखाई नहीं देती?

आपकी अदालत में गोमपाड गांव में सरकारी सुरक्षाबलों द्वारा तलवारों से काट डाले गये सोलह आदिवासियों का मुकदमा पिछले दो साल से घिसट रहा हैІ

इस अदालत में उन आदिवासियों को लाते समय मुझे एक नक्सलवादी नेता ने चुनौती दी थी और कहा था कि इन आदिवासियों की हत्या करने वाले पुलिसवालों को अगर तुम सजा दिलवा दोगे तो मैं बंदूक छोड़ दूँगाІ 

लेकिन मैं हार गयाІ इस अदालत में आने के सजा के तौर पर पुलिस ने उन आदिवासियों के परिवारों का अपहरण कर लिया और वे लोग आज भी पुलिस की अवैध हिरासत में हैंІ 

आपने दोषियों को अब तक सजा न देकर इस देश की सरकार को नहीं जिताया, आपने मुझे चुनौती देने वाले उस नक्सलवादी को जीता दियाІ 

अब मैं किस मुंह से उस नक्सलवादी के सामने इस देश के महान लोकतंत्र और निष्पक्ष न्यायतंत्र की डींगे हांक सकता हूँ ? और उसके बन्दूक उठाने को गलत ठहरा पाऊँगा ?

अगर इस देश में तानाशाही होती तो हमें संतोष होता, हम उस तानाशाही के खिलाफ लड़ रहे होते, परन्तु हमसे कहा गया कि देश में लोकतंत्र है । परन्तु इस तंत्र की प्रत्येक संस्था, विधायिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका मिलकर करोडों लोगों के विरुद्ध और कुछ धनपशुओं के पक्ष में पूरी बेशर्मी के साथ कार्य कर रहे हैंІ 

इसे हम लोकतंत्र नहीं लोकतंत्र का ढोंगतंत्र कहेंगे और अब हम लोकतन्त्र के नाम पर इस ढोंगतंत्र को एक दिन के लिए भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैंІ

आज मैं प्रण करता हूँ कि आज के बाद किसी गरीब का मुकदमा लेकर आपकी अदालत नहीं आऊंगाІ अब मैं जनता के बीच जाऊंगा और जनता को भड़काऊगा कि वह इस ढोंगतंत्र पर हमला करके इसे नष्ट कर दें ताकि सच्चे लोकतन्त्र की इमारत खड़ी करने के लिए स्थान बनाया जा सकेІ

अगर आप इस लड़की को इसलिए न्याय नहीं दे पा रहे हैं कि उससे सरकार नाराज हो जाएगी और उससे आपकी तरक्की रुक जायेगी І तो ज़रा इतिहास पर नजर डालिए ।

इतिहास गलत फैसला देने वाले न्यायाधीशों को कोई स्थान नहीं देता І सुकरात को सत्य बोलने के अपराध की सजा देने वाले न्यायाधीश का नाम कितने लोगों को याद है? जीसस को चोरों के साथ सूली पर कीलों के साथ ठोक देने वाले जज को आज कौन जानता है?

आपके इस अन्याय के बाद सोनी सोरी इतिहास में अमर हो जायेगी और इतिहास आपको अपनी किताब में आपका नाम लिखने के लिए एक छोटा सा कोना भी प्रदान नहीं करेगाІ 

हाँ अगर आप संविधान की सच्ची भावना के अनुरूप इस कमजोर, अकेली आदिवासी महिला को न्याय देते हैं तो सत्ताधीश भले ही आपको तरक्की न दें लेकिन आप अपनी नजरों में, अपनी परिवार के नजरों में और इस देश के नजरों में बहुत तरक्की पा जायेंगेІ

अगर आप इस पत्र को लिखने के बाद मुझे गिरफ्तार करते हैं तो मुझे गिरफ्तार होने का जरा भी दुःख नहीं होगा क्योंकि उसके बाद मैं कम से कम अपनी दोनों बेटियों से आँख मिलाकर बात तो कर पाउँगा ,और कह पाउँगा कि मैं सोनी सोरी दीदी के साथ होनेवाले अत्याचारों के समय डर के कारण चुप नहीं रहा, और मैंने वही किया जो एक पिता को अपनी बेटी के अपमान के बाद करना चाहिए थाІ

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