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Saturday, 1 October 2022

महिषासुर के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर ध्रुव गुप्त सर का आलेख)

2 मिनट विलेन को तय करने का विवेक !
(नवरात्रि के मौके पर असुरराज महिषासुर के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर ध्रुव गुप्त सर का आलेख)

दुनिया की किसी भी संस्कृति में हत्या का उत्सव जायज़ नहीं माना जाता चाहे मरने वाला हमारा प्रबल शत्रु ही क्यों न हो। दुर्भाग्य से हम महिषासुर की हत्या का भी उत्सव मनाते रहे हैं और रावण की हत्या का भी। अभी दुर्गा पूजा के दिनों में महिषासुर की हत्या का जश्न जारी है। जैसी कि पुराणों और काल्पनिक तस्वीरों के आधार पर आम धारणा बनी या बनाई गई है, महिषासुर कोई बलवान भैंसा, दुराचारी शासक या शैतानी ताकत नहीं था। बुराईयों का प्रतीक भी नहीं। प्राचीन भारत में वह असुर जनजाति का एक लोकप्रिय नायक हुआ करता था। इतिहासकारों - डी.डी कौशांबी और देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय सहित बहुत सारे शोधकर्ताओं ने पुराणों से इतर कई प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से यह नतीजा निकाला है कि महिषासुर प्राचीन काल का एक लोकप्रिय, समतावादी और पशुपालकों का आराध्य नायक था। देश के असुर जनजाति के लोगों में प्राचीन काल से ही उसके लोक कल्याणकारी और शूरवीर रूपों की अनेक कहानियां कही-सुनी जाती रही है। स्वयं पुराण भी स्वीकार करते हैं कि वह अपने समय का सबसे बड़ा आर्येतर योद्धा था। अपने विस्तार के क्रम में देवता कहे जाने वाले आर्य राजाओं ने उसे पराजित करने की कई बार कोशिशें की, लेकिन असफल रहे। उलटे महिषासुर ने ही उन्हें कई बार पराजित कर उनके स्वर्ग अर्थात उनके वैभवशाली नगरों पर अधिकार कर लिया था। 

दुर्गा और महिषासुर के बीच संग्राम के संबंध में पुराणों की कथाओं की तार्किक व्याख्या करें तो पता चलता है कि कई बार पराजित और हताश देवताओं ने अंततः इस तथ्य का पता लगा लिया कि स्त्रियों और पशुओं की रक्षा के लिए कृतसंकल्प महिष किसी भी स्थिति में उनपर हथियार नहीं उठाता। उसके चरित्र के इसी उज्जवल पक्ष का लाभ उठाते हुए देवताओं ने युद्ध में वीरांगना देवी दुर्गा को भेजकर महिषासुर को पराजित कर उसे मार डालने में सफलता हासिल की। इस युद्ध में बड़ी संख्या में असुर जनजाति के दूसरे योद्धा भी मारे गए। असुर जनश्रुतियों के अनुसार महिषासुर के पराजित समर्थकों और अनुयायियों ने असुरों के भीषण नरसंहार के पांच दिनों बाद शरद पूर्णिमा को एक विशाल सभा आयोजित की। सभा में उन्होंने अपनी संस्कृति और स्वाभिमान को जीवित रखने और देवों के हाथों लुटी अपनी संपदा को वापस हासिल करने का संकल्प लिया था। इसी संकल्प की याद में असुर जनजाति के लोग दशहरा के पांच दिनों बाद शरद पूर्णिमा को 'महिषासुर शहादत दिवस' के तौर पर मनाते हैं। महिषासुर अपने लोगों में कितना लोकप्रिय था इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि हजारों साल बाद भी उसकी जनजाति के लोग उसकी पूजा करते हैं। बुंदेलखंड में महोबा से लगभग सत्तर किमी की दूरी पर ग्राम चौका सोरा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित एक प्राचीन महिषासुर स्मारक मंदिर भी मौजूद है। 

महिषासुर के बारे में तमाम भ्रम इस शब्द का गलत अर्थ करने की वजह से पैदा हुआ है। उसका नाम महिष और असुर शब्दों के योग से बना है। महिष का सबसे  पुराना अर्थ महा शक्तिमान है। यह 'मह' धातु में 'इषन' प्रत्यय जोड़कर बना है, जिनमें गुरूता का भाव अन्तर्निहित है। भारत में राजतंत्र के विकास के साथ उसका नया अर्थ राजा हुआ क्योंकि धरती पर राजा ही महा शक्तिमान होते थे। रानी को आज भी महीषी ही कहा जाता है। महिष को भैंसा के अर्थ में प्रयोग बाद में पुराणों और स्मृति-ग्रंथों में हुआ है। असुर शब्द का पुराना और सही अर्थ भी राक्षस या नकारात्मक शक्ति नहीं है। वैदिक कोश के अनुसार 'असुराति ददाति इति असुर' -अर्थात जो असु (प्राण) दे, वह असुर (प्राणदाता) है। संस्कृत केे प्रख्यात कोशकार वीएस आप्टे ने भी असु का अर्थ प्राण ही किया है।

अपने वर्चस्व के लिए राजाओं, कबीलों और जातियों में युद्ध हमेशा से चलता रहा है। हमारा राष्ट्र पिछले हजारों वर्षों में हजारों जातियों और हजारों संस्कृतियों के अंतर्संघर्षों और समन्वय की विराट कोशिशों से ही बना है। हमारी संस्कृति में युद्ध में जीतने वालों को ही नहीं, युद्ध में पराजित होने और मरने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है। यहां देवी दुर्गा की भी पूजा होती रही है और महिषासुर की भी। राम की भी और रावण की भी। नाग जनजाति के सबसे बड़े विनाशक जनमेजय की भी और नागों के जातीय नायकों - वासुकि, कालिय और शेषनाग की भी। यही सांस्कृतिक विविधता हमारे देश की खूबसूरती है। देवी दुर्गा आर्यों की महान नायिका और महिषासुर असुर जनजाति के महान नायक रहे हैं। दोनों हमारे आदरणीय पूर्वज हैं। हमारा प्राचीन इतिहास आर्येतर जातियों ने नहीं, आर्यों अर्थात देवों के पुरोहितों द्वारा लिखा गया है। अपने आश्रयदाताओं के महिमामंडन के उद्देश्य से उनके विपक्षियों को शैतान और बुराईयों के प्रतीक के तौर पर चित्रित करना उनकी मजबूरी थी। हमारे आगे वैसी कोई विवशता नहीं। हमारे लिए वीरांगना देवी दुर्गा भी वंदनीय हैं और प्रतापी जननायक महिषासुर भी। युद्ध में मारे गए किसी भी पक्ष की हत्या का उत्सव मनाना हमारे लिए उचित नहीं।
Dhruv Gupt  sir

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