"जाति उन्मूलन"
डा. अम्बेडकर के 1936 में लिखे गए भाषण जाति उन्मूलन के प्रमुख अंश या सार के रूप में मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। प्रस्तुत सार के बाद मैं अपनी राय भी जाहिर करूँगा।
डा. भीम राव अम्बेडकर कहते है, कि ...... यह उचित ही रहेगा ,कि शुरू में मैं यह बात याद दिलाऊ, कि अन्य समाजो के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था, ये है : ( 1 ) ( ब्राह्मण) ( 2) छत्रिय ( 3 ) वैश्य और शूद्र । इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा, कि आरम्भ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग विभाजन के अंतर्गत व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था। औऱ इसलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी हिन्दू इतिहास में किसी समय परोहित वर्ग ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया और इस तरह स्वयं सीमित विभाजन के सिद्धान्तानुसार अलग-2 खेमों में बंट गए.......इसी क्रम में जातियाँ पैदा हुई । आगे डा. अम्बेडकर लिखते है ,कि ऊपर की जातियों की नीचे के लोगों ने नकल की । जाति-प्रथा इसी नकल का फल है । पृष्ठ -18
आगे डा. अम्बेडकर लिखते है, कि ....भारत के समाजवादी यूरोप में अपने साथियों का अनुसरण करते हुए इतिहास की आर्थिक व्याख्या को भारत के तथ्यों पर लागू करना चाहते है । वे कहते है कि राजनीतिक और सामाजिक सुधार केवल भारी भ्रम है और संपत्ति के समानीकरण द्वारा आर्थिक सुधारों को अन्य हर प्रकार के सुधारों से बरियता दी जानी चाहिए । पेज- 50
आगे लिखते है,कि.. ....भारत के समाजवादियों का भ्रम इस कल्पना में निहित है, कि चूंकि आम यूरोपीय समाज मे संपत्ति सत्ता के स्रोत के रूप में अभिभावी है ,इसलिए यही बात भारत के सम्बंध में भी यही है ----पृष्ठ -51
आगे लिखते है , कि..... इतिहास की आर्थिक व्याख्या इस समाजवादी दावे की वैधता के लिए आवश्यक नही है,कि सम्पत्ति का समानीकरण ही एक मात्र वास्तविक सुधार है औऱ इसे अन्य सभी बातों से बरियता दी जानी चाहिए । फिर भी मैं समाजवादियों से पूछना चाहता हु, कि क्या आप पहले सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाये बिना आर्थिक सुधार कर सकते है ? ऐसा प्रतीत होता है ,कि भारत के समाजवादियों ने इस प्रश्न पर विचार नही किया है .. पृष्ठ- 52
डा. अम्बेडकर आगे लिखते है, कि ....समाजवादियों द्वारा अपेक्षित आर्थिक सुधार तब तक नही हो सकते , जब तक कि सत्ता को हथियाने के लिए क्रांति नही होती । सत्ता को सर्वहारा वर्ग द्वारा हथियाया जाना चाहिए । मेरा पहला प्रश्न है ,कि क्या भारत का सर्वहारा वर्ग यह क्रांति लाने के लिए संगठित हो जाएगा ? ऐसे कार्य के लिए व्यक्तियों को कौन प्रेरित करेगा ?.......पृष्ठ -52
आगे लिखते है,कि .......भारत का सर्वहारा वर्ग गरीब होने के नाते गरीब होते हुए भी गरीब और अमीर के अंतर के अलावा कोई दूसरा अंतर नही मानता ? क्या यह कहा जा सकता है ,कि भारत के गरीब लोग जातियाँ , नस्ल,ऊंच, नीच के ऐसे भेदों को नही मानते ?....पृष्ठ- 53
आगे लिखते है, कि..... यदि सर्वहारा वर्ग संगठित रूप से मोर्चा नही लगाता है तो क्रांति कैसे हो सकती है ? यदि तर्क के लिए मान लिया जाए, कि सौभाग्य से क्रांति हो जाती है और समाजवादी सत्ता में आ जाते है , तो क्या उन्हें उन समस्याओं से जूझना नही होगा, जो भारत मे प्रचलित विशेष सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न हुई है ....भारत मे फैली सामाजिक व्यवस्था एक ऐसा मामला है , जिससे समाजवादी को निपटना होगा ..... मेरे विचार से यह एक ऐसा तथ्य है , जो निर्विवाद है ।......इसे हम दूसरी प्रकार यूं कह सकते है,कि चाहे आप किसी भी दिशा में देखे , जाति एक ऐसा दैत्य है ,जो आपके मार्ग में खड़ा है । आप जब तक इस दैत्य को नही मारोगे , आप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकते है , न कोई आर्थिक सुधार । -- पृष्ठ- 53
आगे लिखते है कि.....खेद है, कि आज भी जाति -प्रथा के समर्थक मौजूद है । इसके समर्थक अनेक है । इसका समर्थन इस प्रकार किया जाता है ,कि जाति-प्रथा श्रम के विभाजन का एक अन्य नाम ही है .......इस विचार के विरुद्ध पहली बात यह है कि जाति-प्रथा केवल श्रम का विभाजन नही है । यह श्रमिकों का विभाजन भी है ।...यह एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है , जिसमे श्रमिकों का विभाजन एक के ऊपर दूसरे क्रम में होता है ।....पृष्ठ--54
आगे डा. अम्बेडकर जाति-प्रथा के दुष्परिणामों व आर्यसमाज के वर्णव्यवस्था के चतुर्वर्ण के सिद्धांतों के प्रभावों के सम्बंध में विस्तृत व्याख्या करते है - पृष्ठ- 65
आगे लिखते है,कि। ...... अब केवल केवल एक प्रश्न रहता है , जिस पर विचार करना है । वह यह है ,कि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में सुधार कैसे किया जाए ? जाति-प्रथा को कैसे समाप्त किया जाये ? यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है ।--पेज-78
उपाय के तौर पर। डा. अम्बेडकर जाति व्यवस्था समाप्त करने के लिए अंतरजातीय विवाह एवम वेद-शास्त्रों का निषेध बताते है । पृष्ठ- 81
आगे डा. अम्बेडकर कहते है ,कि " यद्यपि मैं धर्म के नियमों की निंदा करता हूँ , इसका अर्थ यह न लगाया जाये, कि धर्म की आवश्यकता ही नही है ।इसके विपरीत मैं वर्क के कथन से सहमत हूँ जो कहता है ,कि " सच्चा धर्म समाज की नीवं है , जिस पर सब नागरिक सरकारे टिकी हुई है ।"
आगे डा. अम्बेडकर हिंदुओं को हिन्दू धर्म मे सुधार की सलाहें देते है औऱ भाषण की समाप्ति करते है ।
सम्पूर्ण वाङमय , खण्ड- 1
बाबा साहेब पहले सामाजिक क्रांति चाहते है और उनके मुताबिक जाति एक ऐसा दैत्य है, जिसको मारे बिना कोई भी समाज का निर्माण नही हो सकता है । समाजवादियों पर आरोप लगाते है,कि वे आर्थिक प्राणी है क्योकि वे आर्थिक क्रांति चाहते है ।
मूलतः मतभेद समाज को देखने के नजरिये पर मौजूद है । मतभेद दृश्टिकोण या समाज को देखने के भाववादी नजरिये एवम द्वंद्वात्म भौतिकवादी नजरिये का मतभेद है । इसी से विश्लेषण का यह तरीका भी भिन्न हो जाता है ,कि मूलाधार प्रमुख है या समाज का ऊपरी ढांचा । बाबा साहेब ऊपरी ढांचे को प्रमुख मानते है ।उनके मुताबिक ऊपरी ढांचे को यानी संस्कृति ,मूल्य-मान्यताओं को बदल देंगे तो बुनियादी ढांचा भी बदल जायेगा । यही भाव वादी दर्शन है जो चेतना को प्रधान मानता है और पदार्थ को गौण ।
यह प्रकृति और समाज को देखने के दर्शन शास्त्र में दार्शनिकों के बीच मे एक विवाद का विषय रहा है मार्क्सवादी दर्शन शास्त्र के मुताबिक समाज मे उत्पादन औऱ उत्पादन के साधन औऱ सम्बन्ध किसी भी समाज का मूल आधार होता है । ऊपरी ढांचा जिसमे संस्कृति, परम्पराए, मूल्य- मान्यताये मूल आधार का ही प्रतिबिम्ब होती है । द्वंद्व वादी दृश्टिकोण के मुताबिक प्रकृति और समाज मे अंतर्विरोध मौजूद है ।विपतित तत्वों का संघर्ष विकास का पतन का कारण होता है । मार्क्सवादी दृष्टिकोण के मुताबिक समाज आदिम कम्यून समाज से दास प्रथा, सामन्तवाद, से पूंजीवाद में पहुचता है तो पहले उत्पादन के साधनों ओर सम्बन्धों में परिवर्तन ,विकास होता है उसके अनुरूप ऊपरी ढांचा बनता है ।
भारत मे जाति व्यवस्था के आधार पर ही कुछ निचली जातियों को उत्पादन के साधनों के मालिकाने से वंचित किया गया था । जाति व्यवथा सामंती व्यवस्था के मुला आधार में मौजूद रही है । आज भी उत्पादन के साधनों का मालिकाना ऊपरी जातियों के ही हाथ मे है और अनुसूचित जातियाँ साधनों के मालिकाने से वंचित है ,बल्कि वे मजदूरों में परिवर्तित हो गयी है , इसलिए भौतिक आधार को बदले बिना जाति विहीन समाज की कल्पना नही की जा सकती है ।
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