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Saturday, 22 October 2022

उम्मीद क्या करे....उम्मीद भी क्या करे....


जिस मुल्क की रियाया  सिर्फ आंसुओं से  झोली भरे
वो एक तंगदिल बादशाह से कोई उम्मीद भी क्या करे

चंद महलों में सिमटती दौलत को देखती वीरान आंखें
इक बेरहम सल्तनत से भला कोई चाहत भी क्या करे

कुछ जगमगाती रोशनियां और दमकते हुए चंद चेहरे
भूखे पेट कराहती आंखे  छुपे हुए  अंधेरों में क्या करें

बदलते चेहरों चमकते लिबासों से नसीब नहीं बदलते
गरीब त्योहारों की  चकाचौंध में  अपने पेट  कैसे भरें 

हुक्मरानों को कहां फुर्सत  कि गुरबत  की ओर देखें
बदनसीब अवाम ऐसे में आख़िर करे भी तो क्या करे

(दिनेश के वोहरा)

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