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Wednesday, 26 October 2022

पर्व- त्योहार

क्या कभी गौर से ध्यान दिया है कि सावन पुर्णिया से लेकर कार्तिक के गंगा स्नान तक उत्तर भारत में और खासकर हिन्दी बेल्ट में थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल पर कोई न कोई पर्व रहता ही है. राखी, नागपंचमी, गणेश चतुर्थी या गणेशोत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी,  अनंत चतुर्दशी, तीज, जिउतिया, करवाचौथ, विश्वकर्मा पूजा, पिंडदान, नवरात्रि, दुर्गापूजा, धनतेरस, दीपावली, गोवर्द्धन पूजा, भईया दूज, दवात पूजा, चित्रगुप्त पूजा, छठ व्रत, देवोत्थान और कार्तिक पूर्णिमा. 

               ये सारे पर्व और त्योहार हमारे उत्तर भारतीय कृषक जीवन से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं. आखिर क्या कारण है कि इतने सारे पर्व-त्योहार बरसात के मौसम में ही क्यों मनाए जाते हैं? इनमें से अधिकतर में उपवास रहने की परंपरा भी है, और यह उपवास सिर्फ औरतों के लिए ही अनिवार्य है, पुरुषों के लिए नहीं. जहाँ तक मेरी समझदारी है, जाड़े के शुरू में खरीफ की फसल तैयार होती है और गर्मी के शुरू में रब्बी की फसल. पर, बरसात में थोड़ी-बहुत कोई फसल हो भी गई तो उसका कोई खास महत्व नहीं होता. आज तो वह स्थिति नहीं है, पर अपने बचपन के दिनों में मैंने यह अपनी आँखों से देखा है कि अक्सर ही बरसात में भादों के आते-आते अधिकतर परिवारों में अनाज की किल्लत हो जाती थी.  चुल्हे जलते नहीं थे. लोग भूखे सोते थे. चौबीस घंटे में किसी तरह से एक वक्त का खाना नसीब होता था. लोग सत्तू चाटकर रहते थे. 

         तब महिलाओं की स्थिति सबसे दयनीय थी. इसलिए पेट काटने का सबसे पहला गाज महिलाओं पर ही गिरता था. कार्तिक पूर्णिमा के बाद ही खेतों में धान की कटनी होती थी और तब जाकर सबका पेट भरता था. तब अधिकतर घरों में दो तरह का खाना पकता था मर्दों के लिए अलग और औरतों के लिए अलग जो मर्दों की अपेक्षा घटिया होता था. बरसात के दुर्दिन से अपने को बचाने का यही एक उपाय उनके पास था. और करते भी क्या? कुछ लोग छोटी-मोटी चोरियां या सेंधमारी करते थे. लेकिन उसमें खतरे भी थे और नाम खुलने पर बदनामी भी थी. इसलिए सबसे सुरक्षित और आसान तरीका यही था कि औरतों को एक शाम भूखा या कभी-कभी चौबीस घंटे तक भूखा रखा जाए, और इसके लिए पर्व से बेहतर बहाना और क्या हो सकता था?

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