पूरे साल मैं यह देखता हूँ कि औरतें धर्म रोग से पीड़ित रहती हैं. धर्मरोग अकेला ऐसा रोग है, जिसे प्राप्त करने के लिए अधिकतर लोग बेचैन रहते हैं. यहाँ तक कि लोग पैसे खर्च कर भी इस रोग को पाल लेते हैं. यह दूसरी बात है कि इसके इलाज में लगने वाले खर्च का वे हिसाब भी नहीं करते हैं.
दूसरे रोगों के इलाज में लगने वाले पैसे को देखकर लोग तंग आ जाते हैं, पर धर्मरोग अकेला ऐसा रोग है, जिस पर लोग जितना ही ज्यादा खर्च करते हैं, उतना ही खुश होते हैं और इतराते हैं. उधर धर्मरोग के डाक्टर बड़े ही धैर्य और परिश्रम से इन धर्मरोगियों के लिए नये-नये रोगों का आविष्कार करते रहते हैं.
इनकी पढ़ाई तो गाँव के अनपढ़ और टूटपूंजिये ब्राह्मण भी जत्रा-पत्रा और पचांग जैसी अनर्गल पोथियों से ही करा देते हैं. धर्मरोग अकेला ऐसा रोग है, जिसमें पैसे का खर्च लगातार होता रहता है, पर आपको भी कुछ फायदा हुआ कि नहीं, इसकी कोई भी गारंटी नहीं होती. यहाँ तो स्थिति यह है कि एक रोग के निदान के लिए दूसरा रोग भी पकड़ा देते हैं, जो छूत की बीमारी की तरह एक घर से दूसरे घर तक मुंहामुंही फैल जाती है.
एक और भी आश्चर्य है कि धर्मरोग से पीड़ितों के बीच बड़ा ही मधुर संबंध होता है, यह दूसरी बात है कि वह संबंध तत्कालिक ही होता है. इसी तरह धर्मरोग के डाक्टरों के बीच भी मधुर संबंध होते हैं, पर वे क्षणिक नहीं स्थायी होते हैं. कारण यह है कि इन डाक्टरों का अपनी औकात के अनुसार अपने-अपने मरीज और इलाके होते हैं, जहाँ प्रतिस्पर्धा नहीं होती, बल्कि सहयोग होता है.
धर्मरोग के इलाज के लिए भी सामान्य और विशेषज्ञ डाक्टरों की जरूरत होती है. वैसे विशेषज्ञ डाक्टरों की जरूरत विशेष परिस्थितियों में ही होती है, बाकी सब तो सामान्य डाक्टर ही सब कुछ देख-सुन लेते हैं. इनका आधा काम तो सिर्फ पंचाग से ही हो जाता है. पंचाग में दो होते हैं - काशी का पंचाग और मिथिला का पंचाग. मिथिला के पंचाग का दायरा बहुत ही सीमित होता है. वह सिर्फ मिथिला के क्षेत्र तक ही सीमित होता है. बाकी हर जगह के लिए काशी का पंचाग ही मान्य होता है.
धर्मरोग के इलाज के लिए भी विशिष्ट लोगों के लिए विशिष्ट व्यवस्था भी होती है. ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का विशिष्ट इलाज भी विशिष्ट डाक्टरों द्वारा ही कराया जाता है. गांवों में तो छोटे-छोटे खरभुसिया या कहिए कि झोलाछाप डाक्टरों की भरमार होती है. पर, ऐसे झोलाछाप डाक्टरों से शहरों के विशिष्ट लोगों का इलाज संभव नहीं है. नामी-गिरामी शहरों में कुछ नामी-गिरामी धर्म के डाक्टर भी होते हैं, जो सिर्फ विशिष्ट लोगों का ही इलाज करते हैं. वहाँ तक सबकी पहुँच हो भी नहीं सकती. ऐसे विशेषज्ञ डाक्टर शहर के हर मुहल्ले में अपना एजेंट रखते हैं, जो एक छोटे-से कमरे में कार्यालय खोलकर रोज बैठते हैं. छोटेमोटे रोग तो वे खुद ही संभाल लेते हैं, पर किसी विशिष्ट धर्मरोगी की पहचान होते ही बड़े बाबा की खोज होती है, जिनके शरण में जाकर ही वह धर्मरोग खत्म हो सकता है.
वैसे भी हर कोई अपनी-अपनी औकात के अनुसार ही इलाज की व्यवस्था भी करता है. अब पूंजीपति, नेता, नौकरशाह, सेठ, महाजन, बड़े दलाल, ठेकेदार, तस्कर, माफिया या बड़े अपराधी भला टूटपूंजिया डाक्टर से अपना इलाज क्यों कराएंगे? इससे उनकी इज्जत पर बट्टा लगता है. यह इसलिए और भी जरूरी हो जाता है कि सभी विशिष्ट लोगों को यह पता होता है कि किसने अपने किस रोग का इलाज किस डाक्टर से कराया है.
शरीर के रोगों के डाक्टर और धर्मरोग के डाक्टर के बीच एक समानता होती है कि ये सिर्फ बैठे रहते हैं और मरीज खुद ही पता लगाकर इनके पास आते रहते हैं. पर इनके बीच सबसे बड़ा अंतर है वह यह है कि जहाँ शरीर के डाक्टर सिर्फ शरीर का इलाज करते हैं, वहीं धर्मरोग के डाक्टर शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, ऊपरवार, भौतिक, नैतिक और उच्चाटन से लेकर मारण तक का इलाज करते हैं. किसी विरोधी पूंजीपति का काम अटका देना या उसकी प्रगति में बाधा खड़ी कर देना, नेताओं के लिए ऊंची कुर्सी का इंतजाम कर देना, किसी दूसरे की कुर्सी खिसका देना, दुश्मन को पराजित करा देना, शत्रु को बेवजह परेशान करना और दुश्मन के दुश्मनों से मित्रता कर लेने जैसे बहुतेरे काम हैं, जिनका संपादन और निष्पादन ये धर्मरोग के डाक्टर करते हैं.
इन धर्मरोग के डाक्टरों का काम तभी से शुरू हो जाता है जब बच्चा अपनी माँ के गर्भ आ जाता है. शुभ मुहूर्त की जानकारी तभी से शुरू हो जाती है. पहले तो बेटा या बेटी का सवाल भी यही धर्मरोग के डाक्टर ही करते थे, पर अब तो हर बड़े क्लिनिक में बच्चे के लिंग निर्धारण की सुविधा है. बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए माँ को क्या-क्या करना चाहिए, इसकी विस्तृत सूची धर्मरोग के डाक्टर प्रस्तुत करते हैं. उसके बाद जन्म के समय का शुभ मुहूर्त, सतईसा, गंडमूल, नामकरण, मुंडन, यज्ञोपवीत और अन्य पौरोहित्य कर्मों से होते हुए शादी तक के सारे काम इन्हीं धर्मरोग के डाक्टरों द्वारा संपन्न होते हैं.
भूत-प्रेत की बाधाओं से मुक्ति दिलाना हो, बेहतर कमाई वाली जगह पर पोस्टिंग हो, धन-संपति बनानी हो (वैसे तो अब इस काम के लिए चार्टर्ड एकाउंटेंट की सेवा ली जाती है), नेता जी की कृपा चाहिए, दुश्मन की सफलता में अड़चन डालनी हो, पत्नी को मानसिक शांति चाहिए होती है, तो इनके लिए भी धर्मरोग के डाक्टरों की सेवा उपलब्ध रहती है. इन्हें हमेशा ही यह पता होना चाहिए कि किस दिन कौनसा पर्व है, कौन-से दिन कब शुभ मुहूर्त है या कि कब लड़की की विदाई और बहु के आगमन का शुभ मुहूर्त है.
धर्मरोगों में पर्वों की तो ऐसी लंबी श्रृंखला है कि वह हमेशा ही हनुमान की पुंछ की तरह बढ़ती ही जाती है. मंगल, वृहस्पति, शनि, एतवार, प्रदोष, एकादशी, अमावस्या और पुर्णिमा तो हर महीने ही हैं. इसके बाद देवोत्थान, संक्रांति, बसंतपंचमी, माघ अमावस्या, माघवास, फागुन, होलिका, होली, चैतनमी, प्रतिपदा, रामनवमी, गुरु पुर्णिया, गंगा पूजन, नागपंचमी, रक्षाबंधन, करमाधरमा, तीज, गणेश चतुर्थी, कृष्ण जन्माष्टमी, अनंत चतुर्दशी, नवरात्रि, दशहरा, जिउतिया, वट सावित्री, दिवाली, भैया दुज, गोधन, गायडाढ़ (गोवर्धन पूजा) छठव्रत, कार्तिक पूर्णिमा जैसे और भी न जाने कितने पर्व और त्योहार हैं, जिनके बारे में पूरी जानकारी धर्मरोग के डाक्टरों को रहती है, और जिनसे ये लोग अपने बुद्धिविहीन धर्मरोग से पीड़ित जजमानों को परिचित कराते रहते हैं.
इन धर्मरोगों से सबसे ज्यादा पीड़ित औरतें ही होती हैं. असल में धर्म का भार ढोने की जिम्मेदारी भी तो उन्हीं के कंधों पर लाद दी गई है. कंधे तो मजबूत होते हैं मर्दों के, पर जब भार ढोने की बात आती है तो वह औरतों पर लाद दिया जाता है, और धर्मरोग से पीड़ित औरतें बिना किसी नानुकुर के सहर्ष ही इसे स्वीकार कर लेती हैं. भार ढोने का सारा ही काम औरतों के ही जिम्मे होता है. गर्भधारण का भार औरतें, बच्चे को जन्म देने का कष्ट औरतें, पालन-पोषण का भार औरतें, कम खाना औरतों को, गम खाना औरतों को, उपवास के नाम पर भूखे रहना औरतों को, अशिक्षा औरतों को, परिवार की किसी भी समस्या के समाधान के लिए सबसे उपेक्षित औरतें, बुढ़ापे में सबसे ज्यादा कष्ट औरतों को, और न जाने कितने ही दबाव और असुविधाओं के बीच औरतों की जिंदगी गुजरती है, और वे सब कुछ सहती चली जाती हैं, चुपचाप.
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