दीवाली के अवसर पर कुछ कविताये
*शिवकाशी में पटाखे़ बनाने वाले बच्चे की कविता*
✍ कात्यायनी
बचपन में
बनवाते हो पटाख़े
और
नौजवानी में बम बनाने से
रोकते हो?
आज जीने के लिए
बनाते हैं पटाख़े
कल जीने के लिए
क्यों न बनाएँ बम?
आज
तुम्हारे मुनाफ़े की शर्त है
हमारा जीना
लेकिन मत भूलना
कि हमारे जीने की शर्त है
तुम्हारे मुनाफ़े का ख़ात्मा।
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*जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना*
✍ गोपालदास "नीरज"
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
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*शहर अँधेरे में*
✍ कुमार रवीन्द्र
बहुत रोशनी
राजमहल के परकोटे में
सारा शहर अँधेरे में डूबा है
ऊँचे-ऊँचे कंगूरों पर
धूप बड़ी है
नीचे परछाईं में सिमटी
प्रजा खड़ी है
लंबी-चौड़ी दीवारें हैं
राजभवन की
किरणों का पल इनके घेरे में डूबा है
उजली मीनारों में बंदी
नई रश्मियाँ
नीचे वही पुरानी
धुँधली कुहा-भस्मियाँ
मैली हैं साँसें बस्ती के
कोलाहल की
वातावरण धुएँ के डेरे में डूबा है
स्वप्नलोक में
ऊपर-ऊपर तैर रहे हैं
नीचे अंधकार के
सागर बहुत बहे हैं
बड़े चतुर हैं राजपथों के
सारे प्रहरी
सूरज तहख़ानों के फेरे में डूबा है
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*निहारिका पाण्डेय की कविता...*
एक ओर पटाखों का शोर है
पाँच से पाँच सौ के पटाखे धीं धीं करके जल रहे हैं
रात के अंधेरे आसमां को अपनी रंगीन रौशनी से भर रहे हैं
दूजी ओर सड़कों के भूखे नंगे
आज की रात अपने लिए छत तलाश रहे हैं
दिये की रोशनी से रौशन घरों की परछत्ती के नीचे
अपने लिए एक रात का बसेरा बना रहे हैं
रौशनी का ये त्योहार आज इन सब पर भारी है
आसमान को सजाते ये पटाखे
मौत बनकर इन बेघरों पर बरसते हैं
आज की रात लक्ष्मी चाहे जिस घर बसेरा बसाये
पर ये नंगे आज की रात छत के लिए सबसे ज्यादा तरसते हैं।
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*दीप का उत्सव मनेगा*
✍ आदित्य कमल
दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?...
धरा की बेचैन सिसकी
तिमिर की काली घटाएँ
रौंदी इस वसुधा पे फैली आह
और कुंठित हवाएँ
एक तरफ़ समृद्धि-वैभव
एक तरफ़ नम वेदनाएँ
धन-कुबेरों की बनी हैं ग्रास
हर संवेदनाएँ
यह है अँधा युग-
अँधेरा बहुत भीतर तक धंसा है
आदमी प्रतिगामी कितने
अंधकूपों में फँसा है
दम धरो , लाखों-करोड़ों लोग
जिस दिन ठान लेंगे
ज्ञान के दीपक ,
ध्वजा विज्ञान के जब तान लेंगे
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अंधेरा क्या छंटेगा ?.....
तमस के सत्ता-शिखर पर
भूखे जब हमला करेंगे
लुट चुके ये लोग , जब
हर चीज़ पर कब्ज़ा करेंगे
रौशनी के दावे ले
हर हाथ में मश्आल होगा
चेतना का जश्न होगा
नृत्य होगा , ताल होगा
सदियों की तन्द्रा को तोड़े
संगठित मानव जगेगा
तोड़ेगा जब अंध - कारा
अंधकारों से भिड़ेगा
एकता के गीत और
संगीत से जब सुर सजेगा
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?.....
मुक्त तन-मन के खुले
आकाश के फैले क्षितिज को
उषा की किरणें बिखर जब
लालिमा का रंग देंगी
प्राणों में आह्लाद जैसे
झुंड में गाते पखेरू
सारी कुदरत ज़िंदगी से
ज़िंदादिल अनुबंध लेगी
कर्मरत मानव के श्रम का
फल जब पूरा मिलेगा
मुक्तिदायी स्वप्न होगा
खुशियों का मेला लगेगा
कालिमा हर चीरता
जब मुक्ति का सूरज उगेगा
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?.....
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