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Sunday, 16 October 2022

चे-ग्वारा- आम आदमी के हालात कभी बदलेंगे क्या!..........



इससे पहले कि,
भूखे–नंगे,
आसमान से बगावत कर बैठते,
उलट जाते मठाधीशों के सिंहासन,
जिल्लेसुभानी बनने वालों के
ताज नोंच दिए जाते,

इससे पहले कि बराबरी का
हक मांगने के लिए
लहू पसीने की अंतिम क्रांति                                                                     
उठ खड़ी होती,

पोथियों–उपदेशों-बाजों ने
'वह सबकी परीक्षा लेता है-
धीरज रखो बन्दों'
'उसके घर देर है अँधेर नही'
की अफीम देकर
सुला दीं फैले हुए हाथों की फरियादें।

फिर भी कोई आवाज़ अगर
इन्साफ के लिए कराही
तुरंत ज़बान काट कर खामोश
कर दी गयी।

समय के जंजाल में फँसा
हिमालय कचरे का ढ़ेर बन गया है
मैली हो गई पवित्र गँगा भी
पर महलों-अट्टालिकाओं की आभा है वही
वही है फतवों–धर्मादेशों की चमक
वही है अभावों की चक्की में
पिसता आम आदमी।

न कुछ बदला है न बदलेगा
चींटी के पगों आवाज़ सुनने वाले
तेरे घर सदा देर है!

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