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Sunday, 26 February 2023

'गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ फ़िल्म पर जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी में पारित प्रस्ताव


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आज जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के प्रतिनिधि मौजूद थे। बैठक में 'गाँधी गोडसे : एक युद्ध' फिल्म को लेकर कार्यकारिणी सदस्यों ने तीखा आक्रोश व्यक्त किया और निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ:

 

हिदी के प्रख्यात कथाकार और जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असग़र वजाहत ने आज से लगभग 12 साल पहले 2011 में 'गोडसे@गांधी.कॉम' नामक नाटक लिखा था। कई सालों बाद इस नाटक का संशोधित रूप 2020 में 'बनास जन' पत्रिका द्वारा प्रकाशित हुआ। नाटक इस दौरान कई बार खेला भी गया और कई अन्य भाषाओं में उसका अनुवाद भी हुआ। इसी वर्ष 25 जनवरी 2023 को इस नाटक पर बनी फ़िल्म 'गांधी-गोडसे : एक युद्ध' प्रदर्शित हुई है और इसके साथ ही इसको लेकर लेखकों के बीच तीव्र विवाद भी खड़ा हो गया है। 'गांधी-गोडसे : एक युद्ध' असग़र वजाहत के इसी संशोधित नाटक 'गोडसे@गांधी.कॉम' पर आधारित है। इसकी पटकथा इस फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक राजकुमार संतोषी ने लिखी है और संवाद लेखन में संतोषी और असग़र वजाहत के नामों का उल्लेख है। 

यह फ़िल्म काल्पनिक कथा पर आधारित है। लेखक ने इस काल्पनिक विचार को सामने रखते हुए अपनी कहानी गढ़ी है कि गोडसे की गोली से यदि गांधी नहीं मरते तो क्या होता और अगर गांधी और गोडसे जेल में एक साथ रहते तो उनके बीच किस तरह का संवाद होता। लेखक कुछ भी कल्पना करने और लिखने के लिए स्वतंत्र है और यही बात फ़िल्मकार पर भी लागू होती है। फ़िल्मकार भी अपनी सोच और कल्पना के अनुसार फ़िल्म बना सकता है। 

जनवादी लेखक संघ लेखकीय स्वतंत्रता का सदैव पक्षधर रहा है। वह इसमें यक़ीन नहीं करता है कि वह लेखकों को बताये कि उन्हें क्या लिखना चाहिए और कैसे लिखना चाहिए। वह जो कुछ भी लिखा गया है उसकी आलोचना करने की स्वतंत्रता का भी समर्थन करता है। लेकिन यदि  ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को आधार बनाकर लेखक और फ़िल्मकार अपनी कल्पना प्रस्तुत करते हैं तो यह सवाल ज़रूर पूछा जायेगा कि ठीक इस समय जब देश पर एक सांप्रदायिक फासीवादी राजनीतिक संगठन सत्ता में है और जो हिंदुत्व की उसी विचारधारा को मानता है जो सावरकर और गोडसे की विचारधारा थी, तो इस तरह की फ़िल्म आखिर किस लिए बनायी गयी है जो अपने वस्तुगत सत्व में उनके पक्ष की पैरवी करती नज़र आती है। दर्शक यह भी जानना चाहेगा कि क्या यह महज संयोग है कि आज़ादी के आंदोलन और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित हिंदुस्तान की जो व्याख्या यह फ़िल्म पेश करती है, वह ठीक वही है जिसे संघ परिवार शुरू से पेश करता रहा है। इस फ़िल्म ने गोडसे को न केवल गांधी के समकक्ष ला खड़ा किया है बल्कि उसे महान देशभक्त के रूप में स्थापित कर गोडसे (और प्रकारांतर से सावरकर) की व्यापक स्वीकृति का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। 

दरअसल, यह पूरी फ़िल्म वस्तुगत रूप में संघ परिवार के हिंदुत्ववादी एजेंडे का समर्थन करती लगती है। यह फ़िल्म गांधी को संघ परिवार में समायोजित करने, साथ ही साथ उन्हें अवमानित करने, नेहरू और कांग्रेस को खलनायक बताने और इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन की गौरवशाली परंपरा को विकृत करने और हिंदुत्ववादी हत्यारे नाथुराम गोडसे को महान देशभक्त और जननायक के रूप में स्थापित करने के संघी अभियान की सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के प्रसार का हथियार बन गयी है। यह महज संयोग नहीं है कि विवादास्पद विषय पर फ़िल्म होने के बावजूद संघ परिवार द्वारा इसको लेकर किसी तरह का विरोध नहीं किया गया है। इस फ़िल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में हुई है जिसके लिए फ़िल्म के आरंभ में ही वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और बायकाट अभियान के सरगना गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र का आभार प्रकट किया गया है। साफ़ है कि फ़िल्म की शूटिंग की इजाज़त पटकथा देखकर ही दी गयी होगी। राजकुमार संतोषी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म निर्माता को सलाह दी है कि यह फ़िल्म स्कूलों और कालेजों में भी दिखायी जानी चाहिए। हिंदू महासभा ने फ़िल्म को कर-मुक्त करने की मांग भी की है। 

जनवादी लेखक संघ सदैव से सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर सक्रिय रहा है। 2014 से जलेस हिंदुत्ववादी नीतियों और गतिविधियों के विरुद्ध प्रखर रूप से संघर्षरत रहा है। यह फ़िल्म न केवल इस संघर्ष को कमज़ोर करती है वरन जनवादी लेखक संघ के बारे में भ्रम फैलाने में भी सहायक हुई है। यही वजह है कि जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह स्पष्ट करना ज़रूरी समझती है कि 'गांधी-गोडसे: एक युद्ध' फ़िल्म में व्यक्त किये गये विचारों और इतिहास को हिंदुत्ववादी ताकतों के पक्ष में विकृत करने की कोशिशों को वह पूरी तरह से अस्वीकार करती है और ऐसी कोशिश की भर्त्सना भी करती है। जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह मानती है कि ऐसे समय में जब देश हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताक़तों के चंगुल में जकड़ा हुआ है, उसके विरुद्ध समझौताविहीन अनवरत संघर्ष को और तेज़ करने की ज़रूरत है। ऐसे समय उन सभी लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों से, जो जनवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में यक़ीन करते हैं, जलेस उम्मीद करता है कि वे उन वैचारिक विभ्रमों से भी संघर्ष करेंगे जो कई बार वैचारिक भटकावों का कारण बन जाते हैं।
Janvadi Lekhak Sangh India से

Saturday, 25 February 2023

विकल्पहीन नहीं है दुनिया



सदियों से दार्शनिकों, वैज्ञानिकों और चिंतकों ने प्रकृति तथा समाज का अध्ययन कर इसके द्वंद्वात्मक संबंध, इसमें निहित अंतर्विरोध, टकराव तथा एकता को उद्घाटित करने का काम किया है जिसके कारण समय-समय पर इनके भीतर की गतिशीलता, परिवर्तन, बाह्य तथा आंतरिक परिवर्तन की व्याख्या होती रही है।

कई दार्शनिकों तथा चिंतकों ने अपनी कोशिश इसकी व्याख्या तक ही सीमित रखी, तो कई चिंतकों ने प्रकृति के नियमों को समझकर परिवर्तन के लिए सचेतन प्रयास किए। समाज वैज्ञानिकों ने प्रकृति तथा समाज की गतिशीलता के शाश्वत नियम को उद्घाटित कर सबसे महत्वपूर्ण काम किया। सामंती समाज में परिवर्तन और गतिशीलता के विचार को पेश कर कई चिंतकों व वैज्ञानिकों ने सम्राटों तथा राजाओं के विकल्प की उम्मीद को जगाया परिणामस्वरूप उस समय के चिंतकों को भयकर यातना झेलनी पड़ी। बावजूद इसके बौद्धिक समाज ने सम्राटों तथा राजाओं के विकल्प के तौर पर नई सामाजिक और शासन व्यवस्था को प्रस्तुत करने का साहस किया। ऊपर से गतिरुद्ध दिखने वाले समाज में परिवर्तन की उम्मीद का विश्वास जगाया क्योंकि सामंती समाज के शासक यह घोषणा करते रहते थे कि सम्राट तथा उनके नीचे सामंत प्रभुओं के शासन का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता है। ठीक उसी व्यवस्था के भीतर पल रहा पूंजीपति, किसान तथा मजदुर वर्ग उनके विकल्प के रूप में सामाजिक तथा राजनीतिक मंच पर आने के लिए संघर्षरत् था। सामाजिक व्यवस्था के विकल्प के इस अभियान ने 19वीं सदी में फ्रांस में तीन-तीन क्रांतियों को जन्म दिया। अंततः पूंजीपतियों के नेतृत्व में सामती सम्राटों के विकल्प के तौर पर संसदीय जनतल का प्रारम्भ हुआ। 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति ने पूंजीपतियों के हाथ में सत्ता सौंपी और लगभग एक सदी बाद 1871ई में पेरिस कम्यून के रूप में मजदूरों ने शासन अपने हाथ में लिया। मानव समाज के इतिहास में कोई भी विकल्प स्थाई जीत दर्ज नहीं करता है। अगर नई सामाजिक व्यवस्था तथा शासक वर्ग पुरानी व्यवस्था से टक्कर लेते हुए जीत हासिल कर भी ले तो भी उसे पुरानी प्रतिक्रियावादी शक्तियों का तीव्र प्रतिरोध झेलना पड़ता है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद पूंजीपति तथा किसान वर्ग कई बार पराजित हुए और पुराने सामंती शासक पहले से कमजोर होने के बावजूद सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को प्रभावी ढंग से बनाए रहे। बाद के दिनों में पूंजीपतियों द्वारा किसानों तथा मजदूरों के हितों से टकराव तथा गद्दारी के बावजूद नए विकल्प का संघर्ष जारी रहा।

पूंजीपतियों ने अपने साथ लड़ने वाले मजदूरों तथा किसानों के साथ गद्दारी कर खुद को अपने वर्ग के कुत्सित हितों तक ही सीमित रखा। मजदूरों और किसानों के संघर्षों तथा चाहतों को खून में डुबोने से भी वे पीछे नहीं रहे। वर्गों के इस टकराव ने पुनः समाज को नए विकल्प तलाशने के लिए बाध्य किया। इस विकल्प से पहले प्रयास के रूप में पेरिस कम्यून में मजदूरों की सत्ता आई लेकिन पूजीपतियों ने इस व्यवस्था को पूरी तरह खून में डुबो दिया। अगले कई दशकों तक पूरे यूरोप में प्रतिक्रियावादियों का शासन चलता रहा। सामंती शासकों के खिलाफ संघर्ष करते पूंजीपतियों ने समानता, भाईचारे और जनतंत्र का नारा तो दिया लेकिन उन्हीं पूंजीपतियों ने जनमानस की इन तीनों आकांक्षाओं को कुचल कर सामंती शक्तियों के साथ समझौता भी किया। उन्होंने सामंती शक्तियों की क्रूर और दमनकारी नीतियों के साथ साथ फौज तथा नौकरशाही को अपने शासन तेल में शामिल किया। 19वीं सदी के अंतिम दशक में निराशापूर्ण माहौल के बावजूद जनमानस के अंदर विकल्प की इस छटपटाहट ने रूस के अंदर दो-दो क्रांतियों को जन्म दिया। अंततः 1917 ई. में रूस में समाजवादी क्रांति को अंजाम देकर मजदूरों-किसानों ने एक मजबूत विकल्प के साथ इतिहास के रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज की। रूस की समाजवादी क्रांति ने कई दशकों तक यूरोप तथा एशिया में क्रांति और परिवर्तन को गति दिया। इस परिवर्तन ने पूरी दुनिया में मानव समाज के सामने वैज्ञानिक समाजवाद को मजबूत विकल्प के रूप में पेश किया। बीसवीं सदी पूंजीवाद के विकल्प के रूप में मजदूरों और किसानों के समाजवाद के

स्वप्न तथा निर्माण के बीच से होकर गुजरी है। इतिहास एक बार फिर दुहराया गया। रूस और चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद वित्तीय पूंजी के मालिकों द्वारा संचालित प्रचार युद्ध ने दावा किया कि तमाम कमजोरियों के बावजूद पूंजीवाद का कोई विकल्प हीं नहीं इस दौर में मेहनतकश वर्ग, जो असीम कष्ट झेलते हुए भी परिवर्तन और विकल्प से ऊर्जा ग्रहण कर रहा था; पराजयबोध में जीते हुए भी पूंजी के हमले को झेलता रहा। पूंजीपतियों के भाड़े के बुद्धिजीवियों और प्रचार तल ने छोटे-छोटे सैकड़ों विकल्पों को इस तरह पेश किया कि मेहनतकशों को दुश्मन ही दोस्त नज़र आने लगे।

इतिहास का यह कितना क्रूर मजाक था कि पूंजीवाद का बचाव करने वाली सेना को ही जनमानस के सामने इसके विकल्प के रूप में पेश किया। और इस तरह पूंजीवाद को विकल्पहीन बताने के दावे किए गए। लेकिन इतिहास की अपनी गति होती है। हर व्यवस्था को अपने समय की उत्पादक शक्तियों को गति देना होता है अन्यथा विकासमान उत्पादक शक्तियां नये विकल्प की तरफ उद्वेलित होती हैं। 21 वीं सदी की शुरुआत में पूंजीवाद के गढ़ अमेरिका में वित्तीय पूंजी का विस्फोट सुनामी की तरह सामने आया। बैंकों तथा हजारों की परिसंपत्तियों, जो अर्थव्यवस्था को बैलून की तरह फुलाकर छोटी-छोटी पूंजी के मालिकों को अपनी गिरफ्त में लिए हुए थीं. पिचक गईं। परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर टुटपुँजिया वर्ग अपनी संपत्ति गवा कर तबाह हो गए। जिन लोगों ने पूजीवाद से अपने सुनहरे भविष्य की उम्मीद की थी, उनके भविष्य को पूंजीवाद ने अंधेरे के गर्त में धकेल दिया। फिर एक बार पश्चिम के इन्ही देशों में पूंजीवाद के विकल्प की तलाश शुरू हो गई है। पूरी दुनिया में यह तलाश जारी है। क्योंकि मुक्तिबोध के शब्दों में 'पूजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता!"

*सम्पादकीय से* 

मक्सिम गोर्की ('व्यक्तित्व का विघटन', 1909)

हमारे निकट विश्व-संस्कृति का इतिहास उदात्त और सुरीले षटपदी छन्दों में लिखा ग्रन्थ है। हम जानते हैं कि वह समय आयेगा जब सब स्त्री और पुरुष बीते युगों की उपलब्धियों का अभिनन्दन करेंगे और अखिल ब्रह्माण्ड के भीतर हमारी पृथ्वी को वह गौरवशाली स्थान प्राप्त होगा, जहाँ मृत्यु पर जीवन की विजय का महान दृश्य घटित हुआ है, एक ऐसा गौरवशाली स्थान जहाँ पर निश्चय ही कला के लिए जीने की, शान-शौकत और वैभव की सृष्टि करने की एक स्वतंत्र कला का अभ्युदय होगा।
मानव जाति का जीवन रचनात्मक श्रम में संलग्न है, जड़-पदार्थ के विरोध पर विजय प्राप्‍त करने में व्यस्त है, उस जड़-पदार्थ के समस्त रहस्यों को सीखने की इच्छा से प्रेरित है और उसकी शक्तियों से मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति करवाने और मनुष्यों के जीवन को सुख-आनन्द से भरपूर बनाने के लिए आकांक्षी है। इस लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए, हमें उसकी प्राप्ति को संभव बनाने के लिए पूरी सतर्कता से मन और शरीर की जीवन्त, जागरूक और क्रियात्मक शक्तियों की कुल मात्रा में लगातार अभिवृद्धि करते जाने का प्रयत्न करना चाहिए। इतिहास के प्रस्तुत क्षण का यह कर्तव्य है कि हर प्रकार से जन-समूह के पास शक्ति और ऊर्जा का जो विपुल भंडार है उसका निरन्तर विकास करते जाएँ, उस शक्ति और ऊर्जा को एक सक्रिय शक्ति के रूप में बदल दें और वर्ग, समूह और पार्टी की समष्टियाँ संगठित करें।

-- मक्सिम गोर्की ('व्यक्तित्व का विघटन', 1909)

Friday, 24 February 2023

Agricultural capitalism- socialising agricultural production

Summing up what has been said above on the progressive historical role of Russian agricultural capitalism, it may be said that it is socialising agricultural production. Indeed, the fact that agriculture has been transformed from the privileged occupation of the top estate or the duty of the bottom estate into an ordinary commercial and industrial occupation; that the product of the cultivator's labour has become subject to social reckoning on the market; that routine, uniform agriculture is being converted into technically transformed and diverse forms of commercial farming; that the local seclusion and scattered nature of the small farmers is breaking down; that the diverse forms of bondage and personal dependence are being replaced by impersonal transactions in the purchase and sale of labour-power, these are all links in a single process, which is socialising agricultural labour and is increasingly intensifying the contradiction between the anarchy of market fluctuations, between the individual character of the separate agricultural enterprises and the collective character of large-scale capitalist agriculture.

Wednesday, 22 February 2023

मक्सिम गोर्की ('व्यक्तित्व का विघटन', 1909)

जिस प्रकार बलूत का विशाल और शक्तिशाली वृक्ष दलदली ज़मीन में पैदा नहीं हो सकता, क्योंकि वह दुर्बल और बीमार किस्म के बर्च और नन्हे-नन्हे फर के पेड़ों को ही उगा सकती है, उसी तरह ह्रासग्रस्त यह परिवेश ऐसी महान और प्रचण्ड प्रतिभा को प्रस्फुटित होने से रोक देता है, जो दैनंदिक जीवन की क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर गरुड़-दृष्टि से देश और संसार की बहुविध घटनाओं को देख सके, ऐसी प्रतिभा जो भविष्य के पथ और उन महान लक्ष्यों को आलोकित कर सके जो हम जैसे लघु मानवों को उड़ने के लिए पंख प्रदान करते हैं।
फिलिस्टाइनवाद (जाहिल व्यक्तिवादी) अमरबेल जैसा पौधा है, जिसमें आत्म-प्रजनन की अपार क्षमता है, यह ऐसी बेल है जो जिस पेड़ से भी लिपटती है, उसपर चारों ओर छाकर उसका दम घोंटने की कोशिश करती है। ज़रा कल्पना कीजिए कि कितने महान कवियों को इसने बर्बाद किया है।
फिलिस्टाइनवाद सारे संसार का एक अभिशाप है। यह व्यक्तित्व को अन्दर से ही खा जाता है, जिस तरह गिडार फल को खा जाती है। यह ऐसी जंगली सरकंडों की झाड़ी है जिसकी अनवरत खर-खर सौन्दर्य की घ‍ंटियों और जीवन के उल्लसित सत्य के सबल स्वरों को नीचे दबा देती है। यह एक अतल दलदल है जो अपने बदबूदार गर्तों में जीनियस और प्रेम, कविता और विचार, कला और विज्ञान को खींच लेती है।
हम देखते हैं कि मानवजाति के भीमकाय शरीर के इस सड़े हुए घाव ने व्यक्तित्व को पूरी तरह नष्ट कर दिया है, उसके नास्तिवादी व्यक्तिवाद के ज़हर से भर दिया है और मनुष्य को एक विशेष प्रकार के ख़तरनाक, उच्छृंखल जन्तु में परिवर्तित कर दिया है, ऐसा प्राणी बना दिया है जिसके विचारों में कोई आन्तरिक संगति नहीं है, जिसके दिमाग और स्नायुओं का सन्तुलन नष्ट हो चुका है, जिसके कान अपनी अन्ध-वृत्तियों की यप-यप और उपने हृदयावेगों की कुत्सित फुसफुसाहटों के अलावा और किसी भी स्वर को सुनने में असमर्थ है।
फिलिस्टाइन दृष्टिकोण के ही कारण हम प्रमुथस से चलकर आज उच्छृंखल गुंडे तक पहुँच गये हैं।
लेकिन गुंडा तो स्वंय ही फिलिस्टाइनवाद की ही सन्तान है, उसके ही वीर्य से जन्मा है। इतिहास ने पहले से ही उसके लिए एक पितृघाती की भूमिका नियत कर दी है और यह पितृघाती ही बनकर रहेगा। जिस पिता ने उसको पैदा किया था, उसकी ही वह हत्या करेगा।
क्योंकि यह नाटक हमारे दुश्मन के घर में खेला जा रहा है, इसलिए हम अट्टहास करते हुए खुशी से इसे देख सकते है, लेकिन हमें दुख सिर्फ इस बात से होता है कि फिलिस्टाइनवाद स्वयं अपने पितृघाती बेटे के विरुद्ध जो लड़ाई कर रहा है उसमें योग्य और प्रतिभाशाली लोग भी खींच लिए गये हैं। संवेदनशील और प्रतिभावान लोगों को तेजी से विघटित होने वाले परिवेश से उठनेवाली सड़ांध के ज़हर से नष्ट होते देखकर दुख होता है।

-- मक्सिम गोर्की ('व्यक्तित्व का विघटन', 1909)


सोनम कपूर का 'खूबसूरती' पर लेख



टीनएज लड़कियो, अगर सुबह जगकर अपने बेडरूम के शीशे में खुद को जब देखती हो और ये सोचती हो कि आख़िर तुम उन तमाम सेलिब्रिटीज़ की तरह क्यों नहीं दिखती, तो ये जान लो कि कोई भी लड़की बिस्तर छोड़ते ही वैसी नहीं दिखती। मैं तो नहीं दिखती, न ही कोई भी और हीरोइनें जिन्हें तुम फ़िल्मों में देखती हो। (बियॉन्से भी नहीं, मैं कसम खाकर कह रही हूँ।)

अब असली बात जान लो। हर पब्लिक आयोजन में जाने से पहले मैं अपने मेकअप की कुर्सी में बैठकर 90 मिनट का समय देती हूँ। तीन से छः लोग मेरे बाल और मेकअप पर काम करते हैं, जबकि एक आदमी मेरे नाख़ून तराशता रहता है। हर सप्ताह मेरी भवें सँवारी जाती हैं, उनकी थ्रेडिंग और ट्वीज़िंग की जाती है। मेरे शरीर के कई हिस्सों पर 'कन्सीलर' लगा होता है जिसके बारे में मैं कभी सोच नहीं सकती थी कि इन्हें छुपाने की ज़रूरत होती होगी! 

मैं हर रोज सुबह 6 बजे जग जाती हूँ, और 7:30 बजे तक जिम में होती हूँ। लगभग 90 मिनट का समय हर सुबह, और कई शाम सोने से पहले भी, व्यायाम के लिए होता है। मैं क्या खाऊँ, क्या नहीं खाऊँ, ये बताने के लिए किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखा जाता है। मेरे फ़ेसपैक में मेरे भोजन से ज्यादा चीज़ें होती हैं। मेरे कपड़ों को चुनने के लिए लोगों की एक पूरी टीम है। इतने के बाद भी जब मैं 'फ़्लॉलेस' नहीं दिखती तो फोटोशॉप पर खूब काम किया जाता है। 

मैंने पहले भी कहा है, और फिर से कहूँगी कि किसी मॉडल/सेलिब्रिटी को वैसा दिखाने के लिए कई लोगों की एक पूरी फ़ौज, बहुत ज्यादा पैसा, और काफ़ी समय लगता है। ये न तो वास्तविक है, न ही कोई ऐसी चीज है जिसको पाने की कोशिश करनी चाहिए। 

खुद में विश्वास करो। ऐसा बनने की सोचो जहाँ तुम खूबसूरत, उन्मुक्त और खुश रहो, जहाँ तुम्हें एक खास तरीक़े का बनने की कोई ज़रूरत न हो। 

और हाँ, अगली बार से जब भी किसी तेरह साल की बच्ची को किसी मैगजीन कवर पर चमकती बॉलीवुड सेलिब्रिटी की तस्वीर को ललचायी निगाहों से देखती देखो तो उसी वक्त उसे ये बता कर उसका भ्रम तोड़ दो। उसको बता दो कि वो कितनी ख़ूबसूरत है। उसकी सुंदर मुस्कुराहट की बातें करो, उसकी हँसी, उसकी बुद्धि या उसके आत्मविश्वास की बात करो। 

उसके भीतर ये विचार पनपने मत दो कि उसमें कोई कमी है, या उसमें कुछ ऐसा नहीं है जो पोस्टर, बिलबोर्ड आदि पर लगी तस्वीर में दिखती सेलिब्रिटी में है। उसको अपने लिए ऐसे मानक बनाने से रोको जो उसके लिए ही नहीं, उन तारिकाओं के लिए भी बहुत ऊँचे हैं।

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अजीत भारती) 
Via : Puneet Shukla




न्गुगी वा थ्योंगो

क्या वजह है कि चर्च उत्पीड़ित लोगों को हमेशा विनम्र बने रहने, क्षमा करने और अहिंसा के मार्ग पर चलने का उपदेश देता है? आखिर क्यों उदारवादी लोग भलाई, विनम्रता, दयालुता, दब्बूपन आदि की शिक्षा समाज के दबे -कुचले वर्गों को ही देते हैं? क्यूं ऐसा नहीं होता कि चर्च उन वर्गों और नस्लों के लोगों पर ध्यान केंद्रित कर उनका ह्रदय परिवर्तन करने की कोशिश करता, जिन्होंने लोगों को अपनी बर्बरता का शिकार बनाया है, लूटा है और हर तरह से प्रताड़ित किया है?
न्गुगी वा थ्योंगो
( भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता का एक अंश)

बेहया

बेहया
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उठी जो नज़रें, हया की हद से
बचा न कोई, जुल्म की ज़द से। 

वो जो त्यागी बने थे कब से, 
सौ बिल्ले खाकर, लौटे हैं हज से

टटोलो, खंगालो, सूक्ष्मदर्शी मंगा लो
पहचाना गया कोई कब अपने कद से? 

अब न चढ़ेगा रंग कोई भी उन पर
साहब हमारे जो, भरे हैं मद से। 

दिलों के छोटे, जो हैं सोच से खोटे
नापते हैं प्यार वही, लोहे के गज से। 

सुन ओ पाखंडी! मनुवादी घमंडी
जन्मा हैं तू भी उसी मासिक के रज से। 

आ दिखाऊँ दीवार के पीछे का भारत
संघी हुई आँखें शायद, खुलें अचरज से।

~Bachcha Lal Unmesh

Tuesday, 21 February 2023

1946 का नौसेना विद्रोह

यह हड़ताल बैरक के नाविकों से शुरू हुई। दोपहर तक 'तलवार' के सभी नाविक हड़ताल में शामिल हो गये। उस वक्त बंबई में नौसेना के 22 जहाज थे। 19 फरवरी को इन सब जहाजों के नाविकों ने हड़ताल का समर्थन कर दिया। जहाजों के मस्तूल से बरतानवी झंडे यूनियन जैक को उतार दिया गया। उसकी जगह नाविकों ने कांग्रेस, मुस्लिम लीग व कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे एक साथ फहरा दिये। इस तरह हड़ताल ने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतीक को हटाकर एक विद्रोह का ऐलान कर दिया। 

        इसके बाद हड़तालियों ने बंबई शहर में वर्दी पहनकर जुलूस निकाला। जुलूस प्रदर्शनों का यह सिलसिला लगातार जारी रहा। नाविकों के प्रदर्शन में तीन झंडे एक साथ चलते थे-कांग्रेस का तिरंगा, मुस्लिम लीग का हरा और उनके बीच में कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंडा। कांग्रेस और लीग के झंडे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के साथ हिन्दू-मुस्लिम एकजुटता के प्रतीक थे, तो कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंडा मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ एकजुटता का प्रतीक था। नाविकों के प्रदर्शनों मेें प्रमुख नारे थे- 'जय हिन्द', 'इंकलाब जिन्दाबाद', 'हिन्दू मुस्लिम एक हो', 'ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद', 'आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों व अन्य राजनीतिक बंदियों को रिहा करो', 'हिन्देशिया से भारतीय सेना वापिस बुलाओ', 'हमारी मांगें पूरी करो' आदि।



फ़ासीवाद और औरतें.....



मशहूर लेखिका 'क्लाडिया कून्ज' अपनी  पुस्तक 'मदर्स इन फादरलैण्ड' में लिखती हैं कि जब एक वरिष्ठ नाजी अफसर से यह पूछा गया कि हिटलर ने अभी तक शादी क्यों नहीं की तो वह गर्व से कहता है कि हिटलर ने जर्मनी से शादी कर ली है. जर्मनी ही हिटलर की बहू है. 
यह कोई सामान्य मज़ाक की बात नहीं है, इसके गहरे निहितार्थ हैं, जिसे समझने की ज़रूरत है. 
समाज में परिवार नामक संस्था जिस सामंती-पितृसत्तात्मक ढांचे में चलती है उसमें औरतें पुरुषों के अधीन होती हैं. पुराने मुहावरे में कहा जाय तो पुरुषों के पैरों की जूती होती हैं. ठीक इसी तरह एक तानाशाह या फ़ासीवादी शासक पूरे देश को अपने पैरों की जूती समझता है और उसी हिसाब से जनता से व्यवहार करता है. परिवार की संस्था और औरतों की इस अधीनता को जितना ही गौरवान्वित किया जायेगा उतना ही तानाशाह को अपनी वैधता साबित करना आसान होगा. 
इसलिए फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक दौर में हमेशा परिवार और मातृत्व का महिमागान किया जाता है. हिटलर ने साफ़-साफ़ ऐलान किया था-''मेरे राज्य में माताएं सबसे महत्वपूर्ण नागरिक हैं''.
'आरएसएस' की शाखाओं में औरतें क्यों नहीं जाती है? यह सवाल समय-समय पर उठता रहा है. इसका बहुत ही दिलचस्प लेकिन अर्थपूर्ण जवाब दिया गया. आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता ने 'इकोनामिक टाइम्स' अखबार को बताया -'शाखा का समय ऐसा है कि यह औरतों को सूट नहीं करता.' इस पंक्ति को डिकोड करना मुश्किल नहीं है. सुबह के समय औरतें पूरे दिन की भारी गाड़ी को ठेलने के लिए कमर कस रही होती हैं. ऐसे में उनके पास सुबह 6 बजे शाखा जाने का समय कहां होगा. यानी अगर वे सुबह-सुबह शाखा में जाती हैं तो घरेलू काम कौन करेगा. शाखा में औरतों को न बुलाने का दूसरा जो कारण उन्होंने बताया वह यह था कि शाखा में जिस तरह कि शारीरिक मेहनत करवाई जाती है, औरतें उसके योग्य नहीं है. यानी औरतें स्वाभाविक रूप से कमज़ोर होती हैं. इससे औरतों के प्रति इन फ़ासीवादियों और साम्प्रदायिक लोगों के रुख का पता चलता है. 
हाल ही में हरिद्वार में आयोजित 'धर्म संसद' में औरतों का आहवान किया गया कि वे ज़्यादा से ज़्यादा बच्चा पैदा करें और इसमें मुस्लिमों को काफी पीछे छोड़ दें. मोहन भागवत व अन्य साम्प्रदायिक नेता अक्सर इस नारे को उछालते रहते हैं. जर्मनी में नाजीवादियों ने एक सूत्र ही गढ़ लिया था-'जमीन भोजन प्रदान करती है, औरतें जनसंख्या प्रदान करती हैं और मर्द कार्यवाही करते हैं.'
यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि बच्चा मतलब लड़का होता है। यानी फ़ासीवाद में महिलाओं पर लड़का पैदा का दबाव पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाता है। इस दवाब का असर आप इस आकड़े से समझ सकते हैं। 'संयुक्त राष्ट्र पापुलेशन फंड' के अनुसार भारत में 2013-17 के बीच 4.6 करोड़ लड़कियां 'गायब' हुई हैं। यानी इन्हें भ्रूण में मार डाला गया है या जन्म के बाद तमाम उपेक्षाओं के कारण मर गयी हैं। 
इसलिए हम देखते हैं कि प्रत्येक दंगे में इसी बच्चा पैदा करने की मशीन को ध्वस्त करने का प्रयास किया जाता है ताकी विरोधी कौम की नस्ल को समाप्त किया जा सके. 
बच्चा पैदा करने की मशीन बनने से इंकार करने वाली मुक्त और आत्मनिर्भर औरतें साम्प्रदायिक/फ़ासीवादियों की आंखों में कांटे की तरह चुभती है और वे ऐसी औरतों को सबक सिखाने के इंतज़ार में घात लगाकर बैठे रहते हैं. इसी पृष्ठभूमि में उपरोक्त लेखिका क्लाडिया कून्ज बहुत महत्वपूर्ण बात कहती हैं-'फ़ासीवाद में जैसे आर्य यहूदियों के ऊपर विजय का जश्न मनाते हैं वैसे ही मर्द मुक्त औरतों के ऊपर अपनी जीत का जश्न मनाते हैं.' भारत के सन्दर्भ में भी हूबहू यह बात सच है. 'लव जेहाद कानून' औरतों के ऊपर मर्दो की जीत का जश्न है. 
भारत में इस पर अभी अध्ययन की ज़रूरत है कि जैसे-जैसे साम्प्रदायिक विचार और उसकी राजनीति समाज में अपना पैर पसार रही है वैसे-वैसे पुरूषों में कन्डोम का इस्तेमाल घट रहा है. भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय के एक आकड़े के अनुसार 2008 से 2016 के बीच कन्डोम का इस्तेमाल 52 प्रतिशत घटा है. ऐसे में आप समझ ही सकते हैं कि परिवार नियोजन का बोझ औरतों के ऊपर और बढ़ता जा रहा है.
आरएसएस के 'परिवार प्रबोधन' कार्यक्रम में औरतों की परम्परागत भूमिका पर अत्यधिक ज़ोर दिया जाता है और उन्हें 'संस्कृति की पुनरोत्पादक' बता कर उनका गौरवगान किया जाता है. 
चूंकि बच्चे की पहली पाठशाला मां की गोद होती है, इसलिए फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक ताकतें इसके प्रति बहुत सचेत होती हैं. औरतों के अन्दर पहले से मौजूद पितृसत्ता वह पुल का काम करती है, जिसके माध्यम से तमाम ज़हर और प्रतिक्रियावादी विचार औरतों के अन्दर डाले जाते हैं जहां से वह बहुत सहज तरीके से मासूम बच्चे के अन्दर प्रवेश करती रहती है और उसके 'कामन सेन्स' का हिस्सा बनती रहती है. 
इसलिए पितृसत्ता-साम्प्रदायिकता-फ़ासीवाद में एक गहरा रिश्ता होता है. भारत में जब यह मनुवाद से जुड़ जाता है तो और भी खतरनाक काकटेल बन जाता है. आखिर दंगों में हिन्दू सवर्ण जातियां दलित जातियों को मुसलमानों के प्रति उकसा कर तमाम सवर्ण विशेषाधिकारों के प्रति दलितों के संघर्ष को कुन्द करने का प्रयास करती हैं. 
दरअसल फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक प्रोजेक्ट सभी प्रगतिशील/क्रान्तिकारी प्रोजेक्ट को रोकने और उसे ध्वस्त करने का प्रोजेक्ट है. इसलिए हमें इसे बहुत गंभीरता से लेना चाहिए.
'निशा पाहूजा' की मशहूर डाकूमेन्ट्री 'द वर्ल्ड बिफोर हर' (The World Before Her) में आरएसएस का एक अनुषांगिक संगठन 'दुर्गा वाहिनी' की एक कार्यशाला पूरी कर चुकी महज 11 साल की लड़की कैमरे के सामने बहुत आत्मविश्वास से कहती है-'मुझे गर्व है कि मेरा कोई मुसलमान दोस्त नहीं है.' आप सोच सकते हैं कि यही लड़की जब मातृत्व की भूमिका में आयेगी तो उसकी गोद में बच्चा क्या-क्या सीखेगा. अब आप उस बच्चे की कल्पना कीजिए जो ऐसी मां की गोद से उतर कर स्कूल जाता है और वहां भी यही सब सीखता है फिर वह टीवी खोलता है और वहां भी यहीे सब और भी अश्लील और उत्तेजक अंदाज में देखता है फिर वह बड़ों की सोहबत में जाता है और वहां भी उसे वही ज़हर मिलता है. बार-बार होने वाले इस 'रिपीटीशन' से उसके अन्दर प्रतिक्रियावादी जहरीले साम्प्रदायिक फ़ासीवादी विचार अच्छी तरह जड़ जमा लेते हैं. और फिर उसी की आशंका हमेशा बनी रहती है जो 13 दिसम्बर को हरियाणा के पलवल में हुआ जहां एक मुस्लिम युवक के हिन्दू दोस्तों ने ही उसे यह कह कर 'लिंच' कर दिया कि वैसे तो तुम हमारे दोस्त हो, लेकिन हो तो मुल्ला. 
लव-जेहाद जैसे कानून को आप इसी अक्स में देख सकते हैं, जहां औरतों की एजेन्सी को यानी उनकी स्वतंत्र भूमिका को पूरी तरह खत्म कर दिया गया है. औरतों की तथाकथित शुचिता के ताले की चाभी अब परिवार के पुरुष मुखिया से होते हुए राज्य के पास आ गयी है. पुराने जमाने में कुछ समुदायों में वास्तव में औरतों को ऐसी कमर पेटिका पहनाई जाती थी जिसकी चाभी सच में घर के मुखिया के पास या पितृसत्ता का बोझ लिये घर की बुजुर्ग औरतों के पास होती थी, ताकि औरतों की तथाकथित शुचिता बनी रहे. 
लेकिन इसके साथ ही फ़ासीवाद में औरतों में से ही कुछ ऐसी औरतों को भी तैयार किया जाता है जो अपनी परंपरागत पारिवारिक भूमिका से आजाद होकर राज्य या फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक संगठन के प्रोजेक्ट में सक्रिय तरीके से शामिल होती हैं और दूसरे कौम के बारे में सार्वजनिक मंचों से ज़हर उगलती रहती है. अभी हाल ही में हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में मुसलमानों के जनसंहार का खुलेआम आहवान करने वाली पूजा शकुन पाण्डेय उर्फ साध्वी अन्नपूर्णा एक औरत ही हैं जो संविधान को नज़रअंदाज़ करके गोडसे से सीखने का आहवान कर रही हैं. दरअसल इन औरतों का इस्तेमाल फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक विचारधारा को समाज में ज्यादा ग्राहय और 'नैतिक' बनाने के लिए किया जाता है. यानी अन्नपूर्णा या प्रज्ञा ठाकुर जैसी औरतें परंपरागत पारिवारिक जिंदगी से आज़ाद होते हुए भी अपने समय के फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक प्रोजेक्ट का महज एक पार्ट भर होती हैं. इसलिए आमतौर पर उनका राजनीतिक जीवन भी अपने पुरूष साथियों से काफी कम होता है. पुर्जा जैसे ही थोड़ा घिसता है उन्हें 'रिप्लेस' कर दिया जाता है. ठीक उसी तरह जैसे बम्बइया फिल्मों में हिरोइनों के यौवन का 'तेज' जैसे ही फीका पड़ता है उन्हें रिटायर कर दिया जाता है.   
यहां अभी हम उन कौमों की औरतों की चर्चा नहीं कर रहे है जो राज्य प्रायोजित फ़ासीवाद के निशाने पर होते हैं, जैसे जर्मनी में यहूदी या भारत में मुस्लिम. इसके लिए अलग अध्ययन की ज़रूरत है. हालांकि वर्तमान फ़ासीवाद/साम्प्रदायिकता के अक्स में हम देख सकते हैं कि वहां स्थिति कितनी जटिल और भयावह होगी. 
दरअसल आज का पूंजीवाद यानी साम्राज्यवाद अपने को बचाये रखने और अपना पुनरोत्पादन करने के लिए दुनिया भर की पिछड़ी प्रतिक्रियावादी मूल्यों का इस्तेमाल करता है, और उन्हें पालता पोसता है. पितृसत्ता उनके से एक है. इसलिए फ़ासीवाद साम्राज्यवाद की ही राजनीतिक अभिव्यक्ति है. 
लेकिन तस्वीर का एक दूसरा शानदार पहलू भी है. हिटलर के फ़ासीवादी राज्य में सभी तथाकथित आर्यन औरतें फ़ासीवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं थी. अच्छी खासी सख्या में औरतें 'प्रतिरोध आन्दोलन' का हिस्सा थी और निरंतर हिटलर के फ़ासीवादी प्रोजेक्ट की कब्र खोद रही थी. यहां यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि प्रायः ये वही औरतें थीं जो पितृसत्ता से भी लगातार लड़ रही थी यानी उन्होंने उस पुल को पहले ही काफी हद तक क्षतिग्रस्त कर दिया था जिनसे होकर जहरीली फ़ासीवादी विचारधारा औरतों तक पहुंचती थी. उनकी इस शानदार भूमिका पर आज अनेकों फिल्में और साहित्य मौजूद है. जर्मनी में ऐसी साहसी औरतें भी अच्छी खासी संख्या में थी जो अपने नाजी पतियों, बेटों से छिपाकर यहूदियों को अपने घरों में शरण देती थी और पकड़े जाने पर अपनी जान भी न्योछावर कर देती थीं. अपने देश में भी हम दंगों के दौरान ऐसी अनेक कहानियां पाते है जहां औरतें जान पर खेल कर लोगों की मदद करती हैं और इस विराट फ़ासीवादी मशीन का पुर्जा बनने से इंकार कर देती हैं. अपने देश में नताशा नरवाल, देवांगना और सुधा भारद्वाज जैसी औरतें ऐसी ही बहादुर औरतें हैं.
औरत और फ़ासीवाद पर इतनी चर्चा के बाद अन्त में हमें स्टालिन की यह निर्णायक बात हमेशा याद रखनी होगी कि फ़ासीवाद के साथ बहस नहीं की जा सकती उसे तो बस नष्ट किया जाना है.  

मनीष आजाद


Monday, 20 February 2023

जाति व्यवस्था में

1847 में मार्क्स ने प्रूधों की किताब की एक आलोचना "दर्शन की दरिद्रता" लिखी। उसमे वह कहते हैं:

"पितृसत्तात्मक व्यवस्था में, जाति व्यवस्था में, सामंती और कॉर्पोरेट व्यवस्था में पूरे समाज मे निश्चित नियमों के अनुसार श्रम विभाजन था। क्या ये नियम किसी विधायिका द्वारा बनाये गए थे? नहीं। मूल रूप से भौतिक उत्पादन की स्तिथियों से उनका जन्म हुआ था और उन्हें काफी बाद में कानून का दर्जा दिया गया। इस तरह ये अलग-अलग प्रकार के श्रम विभाजन सामाजिक संगठन के तरह-तरह के आधार बने।" (पृ 118)

रंगनायकम्मा जाति और वर्ग: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण

यदि हम जाति प्रथा पर गौर करें तो पाएंगे कि यह प्राचीन काल से ही रही है। "निचली जाति" के लोगो ने कुछ समय तक इसको सहन किया। बाद में जाति के खात्मे को लेकर और समूची "जातियों के उन्मूलन" के लक्ष्य के तहत आंदोलन संगठित किये। परंतु अब अस्मिता संबंधित विचित्र विचार पनप रहे हैं जिसके अनुसार निचली जातियों के लोग अपनी जाति पर गर्व करते हैं। ये विचार इसकी मांग नही करते कि "अस्मिताएं होनी ही नही चाहिए; बल्कि इसकी मांग यह है कि "ये अस्मिताएं वैसी बनी रहनी चाहिए जैसी वे हैं! मसलन "मदिगा"  जाति के लोग अपनी जाति के नाम को अपने नाम मे जोड़कर मानो यह घोषणा करते हैं कि "मैं मदिगा हूँ"।अन्य निचली जातियों के लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं। महिलाएं एक ओर तो पुरूष वर्चस्ववाद की बात करती है वहीं दूसरी ओर अपने नामों में पिताओं और पतियों के नाम जोड़ती है। अतः कोई भी अपनी अस्मिता छोड़ने का इच्छुक नही हैं। अपनी अस्मिताएं बचाकर रखने से वे कुछ अधिकारों को पाना चाहती है। सभी लोगो के अधिकार समान होने चाहिए। उन्हें अपने अधिकारों की मांग करनी चाहिए। परंतु असमानता की परिस्थितियों के आधार पर अधिकार प्राप्त करने में एक बड़ा अंतर्विरोध है। उनका मत है कि अधिकार प्राप्त करने के लिए असमानता का होना जरूरी है। वे इस संभावना के बारे में सोच ही नही पातें हैं कि "समानता और अधिकार" साथ-साथ मिल सकते हैं।वर्तमान दौर के सभी अस्मिता आधारित आंदोलनों के लक्ष्य अपनी अस्मिता बचाये रखना है। इसके लिए अच्छी खासी शब्दावलियाँ उभर कर आई हैं जैसे " अस्मिता", "अस्मिता के प्रति सचेत", "अस्मिता आंदोलन", "अस्मिता की राजनीति"। इस प्रकार के शब्दाडम्बर के द्वारा अस्मिता की राजनीति के पैरोकार इस भ्रम के दलदल में गोते लगा रहे हैं कि वे किसी आंदोलन को संगठित कर रहे हैं।

निम्न जातियों के लोग इस दिशा में नही सोच रहे हैं कि " निम्न जाति" क्या है? आखिर कब इस निम्न स्थान का विलोप होगा? इसका समाधान क्या है? कब वो दिन आएगा जब सभी इंसान बराबर होंगे? वे महज यह मांग कर रहे हैं कि "यह हमारी अस्मिता है, हमारी अस्मिता को पहचानों और हमें हमारा अधिकार सौंपो"। उनका सोचना यह है कि उनका दायित्व उनकी अस्मिता को बचाये रखना और इसके जरिये कुछ अधिकार प्राप्त करना ही है।

-रंगनायकम्मा
जाति और वर्ग: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण

जलसेना विद्रोह (मुम्बई)

जलसेना विद्रोह (मुम्बई)

ब्रिटिश राज के खिलाफ फरवरी १९४६ विद्रोह

भारत की आजदी के ठीक पहले मुम्बई में रायल इण्डियन नेवी के सैनिकों द्वारा पहले एक पूर्ण हड़ताल की गयी और उसके बाद खुला विद्रोह भी हुआ। इसे ही जलसेना विद्रोह या मुम्बई विद्रोह (बॉम्बे म्युटिनी) के नाम से जाना जाता है। यह विद्रोह १८ फ़रवरी सन् १९४६ को हुआ जो कि जलयान में और समुद्र से बाहर स्थित जलसेना के ठिकानों पर भी हुआ। यद्यपि यह मुम्बई में आरम्भ हुआ किन्तु कराची से लेकर कोलकाता तक इसे पूरे ब्रिटिश भारत में इसे भरपूर समर्थन मिला। कुल मिलाकर ७८ जलयानों, २० स्थलीय ठिकानों एवं २०,००० नाविकों ने इसमें भाग लिया। किन्तु दुर्भाग्य से इस विद्रोह को भारतीय इतिहास मे समुचित महत्व नहीं मिल पाया है।


परिचय

विद्रोह की स्वत:स्फूर्त शुरुआत नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत 'आई.एन.एस. तलवार' से हुई। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फ़रवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। हड़ताल अगले ही दिन कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बन्दरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी। 19 फ़रवरी को एक हड़ताल कमेटी का चुनाव किया गया। नाविकों की माँगों में बेहतर खाने और गोरे और भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की माँग भी शामिल हो गयी। विद्रोही बेड़े के मस्तूलों पर कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झण्डे एक साथ फहरा दिये गये। 20 फ़रवरी को विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियाँ बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाइयों के तालमेल के लिए पाँच सदस्यीय कार्यकारिणी चुनी। लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें अभी बनी हुई थी, जो काफी नुकसानदेह साबित हुई। 20 फ़रवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहाँ सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें किसी भी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद चार बजे युध्द विराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे ऑफ इण्डिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य मदद लेकर उमड़ पड़ी।

विद्रोह की खबर फैलते ही कराचीकलकत्तामद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फ़रवरी हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्युनिस्ट पार्टी के आह्नान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब तीन सौ लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह, कराची में भारी लड़ाई के बाद ही 'हिन्दुस्तान' जहाज से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालात संगीन थे, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुध्द हड़ताल पर थे तथा कलकत्ता और दूसरे कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। कैण्टोनमेण्ट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असन्तोष खदबदाने और विद्रोह की सम्भावना की ख़ुफिया रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।


मुस्लिम लीग और कांग्रेस का रवैया

ऐसे नाजुक समय में उनके तारणहार की भूमिका में कांग्रेस और लीग के नेता आगे आये, क्योंकि सेना के सशस्त्र विद्रोह, मजदूरों द्वारा उसके समर्थन तथा कम्युनिस्टों की सक्रिय भूमिका से राष्ट्रीय आन्दोलन का बुर्जुआ नेतृत्व स्वयं आतंकित हो गया था। जिन्ना की सहायता से पटेल ने काफी कोशिशों के बाद 23 फ़रवरी को नौसैनिकों को समर्पण के लिए तैयार कर लिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि कांग्रेस और लीग उन्हें अन्याय व प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और नौसैनिकों के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात किया। मार्च '46 में आन्‍ध्र के एक कांग्रेसी नेता को लिखे पत्र में सेना के अनुशासन पर बल देने का कारण पटेल ने यह बताया था कि 'स्वतन्त्र भारत में भी हमें सेना की आवश्यकता होगी।' उल्लेखनीय है कि 22 फ़रवरी को कम्युनिस्ट पार्टी ने जब हड़ताल का आह्नान किया था तो कांग्रेसी समाजवादी अच्युत पटवर्धन और अरुणा आसफ अली ने तो उसका समर्थन किया था, लेकिन कांग्रेस के अन्य नेताओं ने विद्रोह की भावना को दबाने वाले वक्तव्य दिए थे। कांग्रेस और लीग के प्रान्तीय नेता एस.के. पाटिल और चुन्दरीगर ने तो कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए स्वयंसेवकों को लगाने तक का प्रस्ताव दिया था। नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया कि 'हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।' गाँधी ने 22 फ़रवरी को कहा कि 'हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एकसाथ आना एक अपवित्र बात है।' नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा कि यदि उन्हें कोई शिकायत है तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। अरुणा आसफ अली ने इसका दोटूक जवाब देते हुए कहा कि नौसैनिकों से नौकरी छोड़ने की बात कहना उन कांग्रेसियों के मुँह से शोभा नहीं देता जो ख़ुद विधायिकाओं में जा रहे हैं।

नौसेना विद्रोह ने कांग्रेस और लीग के वर्ग चरित्र को एकदम उजागर कर दिया। नौसेना विद्रोह और उसके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की भर्त्सना करने में लीग और कांग्रेस के नेता बढ़-चढ़कर लगे रहे, लेकिन सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की। जनता के विद्रोह की स्थिति में वे साम्राज्यवाद के साथ खड़े होने को तैयार थे और स्वातन्त्रयोत्तर भारत में साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए वे तैयार थे। जनान्दोलनों की जरूरत उन्हें बस साम्राज्यवाद पर दबाव बनाने के लिए और समझौते की टेबल पर बेहतर शर्तें हासिल करने के लिए थी।


विद्रोह का प्रभाव

1967 में भारतीय स्वतंत्रता की 20 वीं वर्षगांठ पर एक संगोष्ठी चर्चा के दौरान; यह उस समय के ब्रिटिश उच्चायुक्त जॉन फ्रीमैन ने कहा कि 1946 के विद्रोह ने 1857 के भारतीय विद्रोह की तर्ज पर दूसरे बड़े पैमाने के विद्रोह की आशंका को बढ़ा दिया था। ब्रिटिश को डर था कि अगर 2.5 मिलियन भारतीय सैनिक जिन्होंने विश्व युद्ध में भाग लिया था, विद्रोह करते हैं तो ब्रिटिश में से कोई नहीं बचेगा और उन्हें अंतिम व्यक्ति कतक मार दिया जाएगा"।[1][2]

विकिपीडिया से 



https://web.archive.org/web/20170818220323/http://navbharattimes.indiatimes.com/metro/mumbai/other-news/bombay-vidroh-they-counter-six-days/articleshow/57828709.cms


1857 का 'गदर' याद है, 'असहयोग', 'पूर्ण स्वराज', सरदार भगत सिंह और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के संघर्ष व आंदोलन भी। खुद मुंबई की भूमि से शुरू लोकमान्य तिलक का 'स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' और महात्मा गांधी के 'रौलेट ऐक्ट' व 'भारत छोड़ो' आंदोलन भी भूले नहीं। पर, 1946 के 'नौसेना विद्रोह' या 'बम्बई विद्रोह' का नाम सुना है! तीन सौ नाविकों व नागरिकों की आहुति लेने वाला भारतव्यापी वह विद्रोह-जिसने अंग्रेजों की ब्रिटेन वापसी की राह प्रशस्त की। ऐसे में 'बम्बई विद्रोह' की याद दिलाई है शहर में चल रहे एक आर्ट प्रॉजेक्ट ने। विमल मिश्र का 'संडे स्पेशल'।

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जहाज के पेंदे की शक्ल में स्टील व अल्यूमीनियम का विशाल ढांचा, भीतर घुप्प अंधेरे में कौंधती रोशनी की लकीरें और फिल्म, फोटो, टेलिग्राम, ब्रिटिश अफसरों के लिखे पत्रों, इंटरव्यू, ध्वनि अभिलेखों व वॉइस परफॉर्मेंस का मिला-जुला नजारा। छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय के कुमारस्वामी हॉल के बीच बेंचों पर बैठे आप दरअसल, आर्टिस्ट विवान सुंदरम और सांस्कृतिक विश्लेषक आशीष राजाध्यक्ष के आर्ट प्रॉजेक्ट Meanings Of Failed Action: Insurrection 1946 को देखते-सुनते नहीं, जीते हैं। इनमें बंद हैं ब्रिटिश साम्राज्य को हिला देने वाले छह दिनों- 18 से 23 फरवरी के लोमहर्षक क्षण। पर्यवेक्षकों के इस दावे कि स्वतंत्रता आंदोलन की किसी भी घटना से ज्यादा अंग्रेजों के भारत से पैर उखाड़ देने वाले यही हंगामी दिन थे- को इतिहास ने तवज्जो नहीं दी। तीन सौ नाविकों और आम लोगों की आहुति लेने वाली स्वतंत्रता संग्राम की इस घटना को-जिसे 'बम्बई विद्रोह' (Mumbai Mutiny) या 'नौसेना विद्रोह' के नाम से जाना गया-आम तौर पर भुला दिया गया। यहां तक कि जिस मुंबई से यह भारतव्यापी विप्लव फैला उसने भी अपने बलिदानियों की स्मृतियों को संजोने की फिक्र नहीं की।

लोहा और खून

यह सब यकायक नहीं हुआ। दूसरे विश्व युद्ध में विजय के बावजूद ब्रिटेन आर्थिक रूप से खस्ताहाल था। फासीवाद की पराजय से मजदूरों, किसानों तथा नौजवानों का हौसला बुलंद था और आजादी की धमक सुनाई देने लगी थी। गांधी, सुभाष व भगतसिंह की विरासत को साझा समझने वाले रॉयल इंडियन नेवी के नाविक और नौसैनिक जो गोरे अफसरों के नस्ली अपमान और भेदभाव (एंग्लो इंडियंस और गैर एंग्लो इंडियंस में भी भेदभाव किया जाता था। भारतीय नाविकों को 16 रुपये प्रति माह मिलता था, जबकि एंग्लो इंडियन को 60 रुपये) से पहले ही आहत थे, यह जानकर उद्वेलित हो गए कि आजाद हिंद फौज के बंदी बनाए गए सैनिकों को लाल किले में मुकदमा चलाकर फांसी देने की साजिश की जा रही है। विद्रोह की शुरुआत 17 फरवरी, 1946 को नौसैनिकों को सिग्नल ट्रेनिंग देने वाले जहाज 'तलवार' पर हुई। एक दिन 127 नाविकों ने खराब नाश्ता देखकर खाने से मना कर दिया। शिकायत करने जब वे अंग्रेज कमांडर के पास गए तो उसने उन्हें सरेआम अपमानित किया, 'भिखमंगों, तुम्हें पसंदगी का क्या हक! खाना तो मिल रहा है न! कुत्ते के बच्चों, जाओ, नहीं तो कूड़ेदान में फिकवा दूंगा।'

इस बदसलूकी ने नाविकों को हत्थे से उखाड़ दिया। 'तलवार' की दीवारों पर 'जय हिंद' और 'भारत छोड़ो' के नारे पहले से लिखे थे, अगले दिन उन्होंने हड़ताल भी शुरू कर दी। परेड ग्राउंड में बुलाने पर उन्होंने 'अंग्रेज सैनिकों से भेदभाव नहीं सहेंगे', 'आजाद हिंद फौज के वीरों को रिहा करो', 'इंकलाब जिंदाबाद!', 'ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो', 'नाविक एकता जिंदाबाद!' और 'हिंदू और मुसलमान एक हों' के नारे लगाने शुरू कर दिए। विद्रोह की आग बहुत तेजी से फैली। कैसल और फोर्ट बैरकों के साथ रॉयल नेवी के 'हिंदुस्तान', 'कावेरी, 'सतलज, 'नर्मदा', 'यमुना', 'असम', 'बंगाल, 'पंजाब', 'ट्रावनकोर', 'काठियावाड़' व 'राजपूत' सरीखे छोटे-बड़े सभी 22 लड़ाकू और 'डलहौजी, 'कलावती', 'दीपावली', 'नीलम' व 'हीरा' सरीखे नौसैनिक प्रशिक्षण जहाजों के मस्तूलों पर ब्रिटेन के झंडे उतार दिए गए। उनकी जगह तिरंगे, चांद और हंसिये-हथौड़े वाले झंडे लहराने लगे। अब आया प्रशिक्षण केंद्रों और सैनिक आवासों का नंबर। नौसैनिकों ने अपनी मांगों में बेहतर भोजन और गोरे व भारतीय नाविकों के बीच वेतन के मामले में भेदभाव खत्म करने के साथ आजाद हिंद फौज के सिपाहियों सहित सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाए जाने की मांगें भी शामिल कर लीं। विद्रोह इतना आकस्मिक था कि गोरे शासकों के हाथ-पैर फूल गए और विद्रोह को कुचलने के लिए उन्होंने सैन्य दल मुंबई बुला लिए।

अबतक कराची में तैनात 'दिलावर, 'चमक', 'मौज', 'हिमालय', 'बहादुर', आदि पांच जहाजों के नौसैनिकों ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। कराची के बाजारों में हड़ताल के समर्थन में निकले नाविकों के जुलूस को जनता का भारी समर्थन मिला। फिर विशाखापट्टनम, मद्रास, कोचिन, कलकत्ता, आदि जगहों का नंबर आया। 'बड़ौदा' नामक जहाज जो कोलंबो गया हुआ था उसके नौसैनिक भी विद्रोह में शामिल हो गए। नौसैनिकों के समर्थन में वायु सेना के पायलटों व हवाई अड्डों के कर्मचारियों और दिल्ली, ठाणे व पुणे स्थित कोस्ट गार्ड ने हड़ताल कर दी। जबलपुर में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। कैंटोनमेंट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असंतोष खदबदाने और विद्रोह की आशंका की गुप्तचर रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया। हड़तालियों ने नौसेना के सिग्नलों को खामोश कर दिया, यूनियन जैक को उतार फेंका और कम्युनिस्ट पार्टी, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के झंडे फहरा दिए। 22 फरवरी तक विद्रोह ने तटवर्ती अड्डों और बंदरगाहों सहित, 78 जहाजों, 4 बेड़ों, 20 तटवर्ती अड्डों और उनके 20,000 सैनिकों को गिरफ्त में ले लिया था। 'रॉयल इंडियन नेवी' अब 'इंडियन नेवी' थी-सभी भारतीय नौसैनिकों के एकनिष्ठ समर्थन के साथ।

20 फरवरी को जैसे ही नाविक वापस आने के आदेश का पालन करते हुए जहाजों पर लौटे, अंग्रेज सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में घेरा तोड़ने की कोशिश करने की स्वाभाविक परिणति थी लड़ाई। जहाजों में गोला-बारूद की कमी नहीं थी। खूब खून बहा। दोपहर बाद चार बजे युद्ध-विराम घोषित हुआ। हालात काबू से बाहर देख एडमिरल गाडफ्रे अब हवाई बमबारी की धमकी देने लगा। यही वह समय था जब गोदी मजदूरों, दुकानदारों और दूसरे नागरिकों की भीड़ गेटवे ऑफ इंडिया पर नौसैनिकों के लिए भोजन, आदि लेकर उमड़ पड़ी।

22 फरवरी, 1946 को मुंबई के सबसे रक्तरंजित दिनों में गिना जाता है। इस दिन नौसैनिकों के समर्थन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आम हड़ताल का आह्वान किया। दक्षिण मुंबई की सड़कों पर अजब समां था। बैरकों से 'तलवार' जहाज की ओर तांता बंधा था और रास्तों में लोग अपने-अपने काम छोड़कर उसमें शामिल होते जा रहे थे। अनुमानत: इस दिन तीन लाख मजदूर काम पर नहीं गए और विद्यार्थियों और दूसरे नागरिकों से मिलकर सड़कों पर बैरिकेड खड़े करके पुलिस और सेना से लोहा लेते रहे। बावर्ची, सफाई कर्मचारी और नेवी बैंड के लोग भी हथियार लूटकर लड़ रहे थे। मुंबई के केंटल ब्रांच और मराठा लाइट इंफेंट्री के विद्रोही नाविकों के बीच फायरिंग कई घंटे चलती रही। जहाजों के साथ गेटवे ऑफ इंडिया और ताजमहल होटल के निकट स्थित रॉयल नेवी की कोस्टल ब्रांच में तैनात नाविकों ने अंग्रेज अफसरों को उनके कमरों और बाथरूम में बंद कर दिया। अंग्रेज इस बात को लेकर खास डरे हुए थे कि लूटे हुए हथियारों और बारूद से कहीं विद्रोह कर रहे नाविक ताजमहल होटल पर ही हमला न कर बैठें।

विद्रोह को सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बहुत बर्बरता से कुचला। दो दिन बाद जब ये हिंसक झड़पें थमीं, तो हताहतों का आंकड़ा देखकर लोग कांप गए। सरकारी अनुमान के मुताबिक ही इन संघर्षों में करीब तीन सौ लोग मारे गए और 1700 घायल हुए। असल संख्या दरअसल, इससे कहीं ज्यादा आंकी गई है। इसी दिन सुबह 'हिन्दुस्तान' जहाज से आत्मसमर्पण कराने के लिए कराची में भी भारी लड़ाई हुई। विद्रोह की समाप्ति 23 फरवरी को समर्पण करने के रूप में हुई।

नौसेना विद्रोह उस जज्बे के लिए भी जाना जाएगा जो मुंबई को खास बनाता है। उस समय के वृत्तांत ऐसी घटनाओं से भरे हुए हैं। मसलन, जब मराठा गार्ड्स तैनात करके अंग्रेजों ने उन्हें विद्रोहियों पर गोली चलाने का आदेश दिया तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। अंग्रेज अफसर ने इसपर धमकाया तो एक हवलदार ने उसे तुर्री-ब-तुर्री जवाब दिया, 'फूट डालो और राज करो' के तुम्हारे दिन लद गए। अब हम अपने भाइयों के खून से अपने हाथ नहीं रंगेंगे।'

क्यों विफल हुआ नौसेना विद्रोह?

आज तक पूछा जा रहा है कि नौसेना विद्रोह क्यों विफल हुआ- नेतृत्वहीनता? शायद नहीं। हड़ताल को संगठित रूप से चलाने के लिए एम.एस. खान की अध्यक्षता में गठित 'नौसेना केंद्रीय हड़ताल समिति' को पूर्ण समर्थन हासिल था। दरअसल, विफलता की सबसे बड़ी वजह थी हड़ताल को शांतिपूर्ण रखने और पूर्ण विद्रोह करने के बीच दुविधा। कांग्रेस, मुस्लिम लीग और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित राष्ट्रीय दलों और नेताओं का विरोधाभासी रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं था। कहा जाता है कि मोहम्मद अली जिन्ना और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नौसैनिकों को समर्पण के लिए तैयार करने के बाद अपने इस वादे पर ध्यान नहीं दिया कि वे नाविकों को अन्याय व प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए पटेल ने यहां तक कहा कि 'आजाद हिंदुस्तान में भी हमें सेना की आवश्यकता होगी।' वहीं जवाहरलाल नेहरू ने इस विद्रोह का यह कहकर विरोध किया कि 'हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।' महात्मा गांधी को तो यहां तक कहा बताते हैं कि 'यदि उन्हें शिकायत है नौकरी क्यों नहीं छोड़ देते!' बहरहाल, ये आरोप ही हैं जिनका सभी संबद्ध दल खंडन करते हैं।

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उन्हें मिला कोर्ट मार्शल

'भारतीय नौसेना ने हमारे योगदान को याद करने में 50 साल लगा दिए', बताते हुए लेफ्टिनेंट कमांडर बीबी मुथप्पा गमगीन हो जाते हैं', 'आजाद भारत के इतिहास में हमारा कोई स्थान नहीं है।' मुथप्पा अपने नाविक साथियों के साथ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने वालों में शामिल थे। भारतीय नौसेना से 1972 में सेवानिवृत्त होने के बाद वे पुरानी यादों और नौसेना द्वारा भेंट किए छोटे से स्मृतिचिह्न के सहारे ही जीते हैं। इस मलाल के साथ कि देशवासियों ने आजाद हिंद फौज की तरह उनके बलिदान को भी भुला दिया। वे खुद को इस मामले में खुशनसीब मानते हैं कि कम से कम उन्हें वापस नौसेना में स्थान तो मिला। 476 विद्रोही नौसैनिकों को कोर्ट मार्शल का सामना करना पड़ा और वे स्वतंत्र भारत की नौसेना का हिस्सा नहीं बन पाए। विख्यात इतिहासकार सुमित सरकार बताते हैं, 'आजाद हिंद फौज के सैनिकों को तो देर-सबेर राष्ट्रीय नायकों जैसा सम्मान मिला, पर रॉयल नेवी के इन नाविकों की ख्वाहिश, ख्वाहिश ही रह गई। कोलाबा में विद्रोही नौसैनिक की प्रतिमा को छोड़ दें तो आज इन घटनाओं की याद भी नहीं बची।

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