सदियों से दार्शनिकों, वैज्ञानिकों और चिंतकों ने प्रकृति तथा समाज का अध्ययन कर इसके द्वंद्वात्मक संबंध, इसमें निहित अंतर्विरोध, टकराव तथा एकता को उद्घाटित करने का काम किया है जिसके कारण समय-समय पर इनके भीतर की गतिशीलता, परिवर्तन, बाह्य तथा आंतरिक परिवर्तन की व्याख्या होती रही है।
कई दार्शनिकों तथा चिंतकों ने अपनी कोशिश इसकी व्याख्या तक ही सीमित रखी, तो कई चिंतकों ने प्रकृति के नियमों को समझकर परिवर्तन के लिए सचेतन प्रयास किए। समाज वैज्ञानिकों ने प्रकृति तथा समाज की गतिशीलता के शाश्वत नियम को उद्घाटित कर सबसे महत्वपूर्ण काम किया। सामंती समाज में परिवर्तन और गतिशीलता के विचार को पेश कर कई चिंतकों व वैज्ञानिकों ने सम्राटों तथा राजाओं के विकल्प की उम्मीद को जगाया परिणामस्वरूप उस समय के चिंतकों को भयकर यातना झेलनी पड़ी। बावजूद इसके बौद्धिक समाज ने सम्राटों तथा राजाओं के विकल्प के तौर पर नई सामाजिक और शासन व्यवस्था को प्रस्तुत करने का साहस किया। ऊपर से गतिरुद्ध दिखने वाले समाज में परिवर्तन की उम्मीद का विश्वास जगाया क्योंकि सामंती समाज के शासक यह घोषणा करते रहते थे कि सम्राट तथा उनके नीचे सामंत प्रभुओं के शासन का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता है। ठीक उसी व्यवस्था के भीतर पल रहा पूंजीपति, किसान तथा मजदुर वर्ग उनके विकल्प के रूप में सामाजिक तथा राजनीतिक मंच पर आने के लिए संघर्षरत् था। सामाजिक व्यवस्था के विकल्प के इस अभियान ने 19वीं सदी में फ्रांस में तीन-तीन क्रांतियों को जन्म दिया। अंततः पूंजीपतियों के नेतृत्व में सामती सम्राटों के विकल्प के तौर पर संसदीय जनतल का प्रारम्भ हुआ। 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति ने पूंजीपतियों के हाथ में सत्ता सौंपी और लगभग एक सदी बाद 1871ई में पेरिस कम्यून के रूप में मजदूरों ने शासन अपने हाथ में लिया। मानव समाज के इतिहास में कोई भी विकल्प स्थाई जीत दर्ज नहीं करता है। अगर नई सामाजिक व्यवस्था तथा शासक वर्ग पुरानी व्यवस्था से टक्कर लेते हुए जीत हासिल कर भी ले तो भी उसे पुरानी प्रतिक्रियावादी शक्तियों का तीव्र प्रतिरोध झेलना पड़ता है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद पूंजीपति तथा किसान वर्ग कई बार पराजित हुए और पुराने सामंती शासक पहले से कमजोर होने के बावजूद सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को प्रभावी ढंग से बनाए रहे। बाद के दिनों में पूंजीपतियों द्वारा किसानों तथा मजदूरों के हितों से टकराव तथा गद्दारी के बावजूद नए विकल्प का संघर्ष जारी रहा।
पूंजीपतियों ने अपने साथ लड़ने वाले मजदूरों तथा किसानों के साथ गद्दारी कर खुद को अपने वर्ग के कुत्सित हितों तक ही सीमित रखा। मजदूरों और किसानों के संघर्षों तथा चाहतों को खून में डुबोने से भी वे पीछे नहीं रहे। वर्गों के इस टकराव ने पुनः समाज को नए विकल्प तलाशने के लिए बाध्य किया। इस विकल्प से पहले प्रयास के रूप में पेरिस कम्यून में मजदूरों की सत्ता आई लेकिन पूजीपतियों ने इस व्यवस्था को पूरी तरह खून में डुबो दिया। अगले कई दशकों तक पूरे यूरोप में प्रतिक्रियावादियों का शासन चलता रहा। सामंती शासकों के खिलाफ संघर्ष करते पूंजीपतियों ने समानता, भाईचारे और जनतंत्र का नारा तो दिया लेकिन उन्हीं पूंजीपतियों ने जनमानस की इन तीनों आकांक्षाओं को कुचल कर सामंती शक्तियों के साथ समझौता भी किया। उन्होंने सामंती शक्तियों की क्रूर और दमनकारी नीतियों के साथ साथ फौज तथा नौकरशाही को अपने शासन तेल में शामिल किया। 19वीं सदी के अंतिम दशक में निराशापूर्ण माहौल के बावजूद जनमानस के अंदर विकल्प की इस छटपटाहट ने रूस के अंदर दो-दो क्रांतियों को जन्म दिया। अंततः 1917 ई. में रूस में समाजवादी क्रांति को अंजाम देकर मजदूरों-किसानों ने एक मजबूत विकल्प के साथ इतिहास के रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज की। रूस की समाजवादी क्रांति ने कई दशकों तक यूरोप तथा एशिया में क्रांति और परिवर्तन को गति दिया। इस परिवर्तन ने पूरी दुनिया में मानव समाज के सामने वैज्ञानिक समाजवाद को मजबूत विकल्प के रूप में पेश किया। बीसवीं सदी पूंजीवाद के विकल्प के रूप में मजदूरों और किसानों के समाजवाद के
स्वप्न तथा निर्माण के बीच से होकर गुजरी है। इतिहास एक बार फिर दुहराया गया। रूस और चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद वित्तीय पूंजी के मालिकों द्वारा संचालित प्रचार युद्ध ने दावा किया कि तमाम कमजोरियों के बावजूद पूंजीवाद का कोई विकल्प हीं नहीं इस दौर में मेहनतकश वर्ग, जो असीम कष्ट झेलते हुए भी परिवर्तन और विकल्प से ऊर्जा ग्रहण कर रहा था; पराजयबोध में जीते हुए भी पूंजी के हमले को झेलता रहा। पूंजीपतियों के भाड़े के बुद्धिजीवियों और प्रचार तल ने छोटे-छोटे सैकड़ों विकल्पों को इस तरह पेश किया कि मेहनतकशों को दुश्मन ही दोस्त नज़र आने लगे।
इतिहास का यह कितना क्रूर मजाक था कि पूंजीवाद का बचाव करने वाली सेना को ही जनमानस के सामने इसके विकल्प के रूप में पेश किया। और इस तरह पूंजीवाद को विकल्पहीन बताने के दावे किए गए। लेकिन इतिहास की अपनी गति होती है। हर व्यवस्था को अपने समय की उत्पादक शक्तियों को गति देना होता है अन्यथा विकासमान उत्पादक शक्तियां नये विकल्प की तरफ उद्वेलित होती हैं। 21 वीं सदी की शुरुआत में पूंजीवाद के गढ़ अमेरिका में वित्तीय पूंजी का विस्फोट सुनामी की तरह सामने आया। बैंकों तथा हजारों की परिसंपत्तियों, जो अर्थव्यवस्था को बैलून की तरह फुलाकर छोटी-छोटी पूंजी के मालिकों को अपनी गिरफ्त में लिए हुए थीं. पिचक गईं। परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर टुटपुँजिया वर्ग अपनी संपत्ति गवा कर तबाह हो गए। जिन लोगों ने पूजीवाद से अपने सुनहरे भविष्य की उम्मीद की थी, उनके भविष्य को पूंजीवाद ने अंधेरे के गर्त में धकेल दिया। फिर एक बार पश्चिम के इन्ही देशों में पूंजीवाद के विकल्प की तलाश शुरू हो गई है। पूरी दुनिया में यह तलाश जारी है। क्योंकि मुक्तिबोध के शब्दों में 'पूजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता!"
*सम्पादकीय से*
No comments:
Post a Comment