वो शायर, जिसकी कविता सुनकर नेहरू ने उसे सालों के लिए जेल में ठूंस दिया था।
इश्क़ में घायल हुआ वह शायर अपने ज़ख्मों में कलम डुबोकर शायरी लिखता था. ग़रीब-गुरबों का दर्द उसकी सांसों में धड़कता था,
इसलिए यह शायर हुकूमत से ख़ल्क़ का नुमाइंदा बनकर उलझने से भी नहीं कतराता था.
पेशे से हकीम, हर्फों के जादूगर और दर्द के चारागर इस अजीम शायर का नाम असरारुल हसन खान उर्फ़ मजरूह सुल्तानपुरी था.
मजरूह शुरुआती दिनों में पेशे से हकीम थे. लोगों की नब्ज़ देखकर दवाई देते थे. न सिर्फ जड़ी-बूटियों से, बल्कि हर्फों से भी हर दर्द की दवा बनाते फिरते थे.
इन्हें एक तहसीलदार की बेटी से इश्क़ हुआ. यह बात उस लड़की के रसूख़दार पिता को नागवार गुजरी. सो मोहब्बत की कहानी अधूरी रह गई, इसलिए मजरूह ने ज़िंदगी एक ग़ज़ल की शक्ल में पूरी की.
मुशायरे के मंचों से होते हुए वह फिल्मों की खिड़की से कूदकर हमारे दिलों में इस तरह दाखिल हुए कि हमारे हर अहसास के लिए गीत लिख गए. जब हम प्रेम में पड़े, तो मजरूह को गाया. जब दिल टूटा, तो मजरूह को गुनगुनाया. जब दुनिया से लड़े, तो मजरूह साथ थे. जब अकेले पड़े, तब मजरूह के हाथ हमारे हाथ में थे.
इस तरह मजरूह सुल्तानपुरी घायलों की 'घायलियत', सवालियों की 'सवालियत' और इंसानों की 'इंसानियत' का दूसरा नाम था.
मार्क्स और लेनिन का सपना उनकी सांसों में धड़कता था, इसलिए वह गैरबराबरी के अंधेरे में इंक़लाब का सुर्ख सूरज बनकर जलना चाहते थे. और शायद इसीलिए ग़ज़लों की गौरैया को सरमायादारी के बाज़ से लड़ाना चाहते थे, इस यक़ीन के साथ कि जीत आखिर में गौरैया की ही होगी.
बात आजादी से दो साल पहले की है. 44-45 का दौर था, जब मजरूह बंबई के किसी मुशायरे में बुलाए गए थे.
मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक कारदार साहब (एआर कारदार) ने उन्हें सुना और उनके मुरीद हो गए. उन्होंने मजरूह को अपनी फिल्म में गीत लिखने को कहा, पर मजरूह साहब ने मना कर दिया.
वैसे ही, जैसे गीतकार शैलेंद्र ने राजकपूर को मना किया था.
जब यह बात उनके दोस्त जिगर मुरादाबादी को पता चली, तो उन्होंने मजरूह साहब को समझाया और राजी कर लिया.
फिल्म का नाम था 'शाहजहान'. गीत गाया था मशहूर गायक कुंदनलाल सहगल (के.एल. सहगल) ने और धुन बनाई थी नौशाद ने.
ये वही गीत था, जो मज़रूह की कलम से निकलकर हमारे दिलों में दाखिल हुआ.
गाना था, 'जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे'. इस गीत के लिए कहा जाता है कि ये उस वक़्त के दिलफ़िगार आशिकों के लिए राष्ट्रीय गीत के माफिक था. आज भी ये गीत टूटे हुए दिलों की तन्हाई का साथी है.
इसके बाद एस फ़ज़ील की 'मेहंदी' (1947), महबूब खान की 'अंदाज़' (1949) और शाहिद लतीफ़ की 'आरज़ू' (1950) के लिए मजरूह साहब ने गीत लिखे. 'आरज़ू' के सभी गीत सुपरहिट हुए. 'ए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहां कोई न हो', 'जाना न दिल से दूर', 'आंखों से दूर जाकर', 'कहां तक हम उठाएं गम' और 'जाओ सिधारो हे राधे के श्याम' जैसे गीत आम जन मानस की जुबान पर चढ़ गए थे.
फिल्म इंडस्ट्री ने मजरूह की धमक महसूस कर ली थी और यह तय हो गया था कि आने वाले समय में मजरूह सुल्तानपुरी सारे हिंदुस्तान को अपनी कलम की नोक पर नचाने वाले हैं.
मगर इसी बीच बंबई में मजदूरों की एक हड़ताल में मजरूह सुल्तानपुरी ने एक ऐसी कविता पढ़ी कि खुद को भारत के जवान समाजवादी सपनों का कस्टोडियन कहने वाली नेहरू सरकार आग-बबूला हो गई.
तत्कालीन गवर्नर मोरार जी देसाई ने महान अभिनेता बलराज साहनी और अन्य लोगों के साथ मजरूह सुल्तानपुरी को भी ऑर्थर रोड जेल में डाल दिया.
मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी कविता के लिए माफ़ी मांगने को कहा गया और उसके एवज में जेल से आजादी का प्रस्ताव दिया गया.
पर मजरूह के लिए किसी नेहरू का क़द उनकी कलम से बड़ा नहीं था. सो उन्होंने साफ़ शब्दों में इनकार कर दिया.
मजरूह सुल्तानपुरी को दो साल की जेल हुई और आज़ाद भारत में एक शायर आज़ाद लबों के बोल के लिए दो साल तक सलाखों के पीछे कैद रहा.
आप भी पढ़िए, मजरूह साहब ने पंडित नेहरू के लिए क्या कहा था-
मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा.
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए.
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए.
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए.
सत्ता की छाती पर चढ़कर एक शायर ने वह कह दिया था, जो इससे पहले इतनी साफ़ और सपाट आवाज़ में नहीं कहा गया था.
यह मज़रूह का वह इंक़लाबी अंदाज़ था, जिससे उन्हें इश्क़ था. वह फिल्मों के लिए लिखे गए गानों को एक शायर की अदाकारी कहते थे और चाहते थे कि उन्हें उनकी ग़ज़लों और ऐसी ही इंक़लाबी शायरी के लिए जाना जाए.
पर जैसा कहा जाता है कि पेट से उठने वाला दर्द जिगर से उठने वाली आह से ज्यादा फरेबी होता है,
वैसा ही हुआ. जेल के दौरान ही मज़रूह साहब को पहली बेटी हुई और परिवार आर्थिक तंगी गुज़रने लगा.
मजरूह साहब ने जेल में रहते हुए ही कुछ फिल्मों के गीत लिखने की हामी भरी और पैसे परिवार तक पहुंचा दिए गए.
फिर मजरूह साहब 1951-52 के दौर में बाहर आए और तब से 24 मई, 2000 तक मुसलसल गीत लिखते रहे.
उन्होंने बेहतरीन हिंदी फिल्मों के लिए सैकड़ों बेशकीमती गीत लिखे. संगीतकार नौशाद और फिल्म निर्देशक नासिर हुसैन के साथ उनकी जोड़ी कमाल बरपाती रही और हमें बेहतरीन फ़िल्में और दिलनशीन गीत मिलते रहे.
उन्होंने नासिर हुसैन के साथ 'तुम सा नहीं देखा', 'अकेले हम अकेले तुम', 'ज़माने को दिखाना है', 'हम किसी से कम नहीं', 'जो जीता वही सिकंदर' और 'क़यामत से क़यामत तक' जैसी कभी न भुलाई जाने वाली फिल्में कीं.
उन्होंने एके सहगल से लेकर सलमान तक के लिए गीत लिखे और अपने पचास साल के ऊपर के करियर में सैकड़ों ऐसे गीत दिए, जो हमारे वज़ूद का हिस्सा हैं.
उन्हें 'दोस्ती' फिल्म के 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे' गीत के लिए 1965 में पहला और आखिरी फिल्मफेयर अवार्ड मिला.
1993 में मजरूह साहब को फिल्मों में उनके योगदान के लिए फिल्मों का सबसे बड़ा पुरस्कार 'दादा साहेब फाल्के अवार्ड' दिया गया. पर यकीनी तौर पर मजरूह साहब किसी भी पुरस्कार और खिताब से ऊपर थे.
मजरूह हर्फों के वह मसीहा थे, जो उनमें जान फूंककर उन्हें कालजयी कर दिया करते थे.
वह अहसासों को आवाज़ देने के इस सफर में अकेले ही चले थे, पर लोग उनके साथ आते गए और कारवां बनता गया.
मजरूह साहब किसी मजदूर के हथेलियों में पड़ी लाल ठेठों की लाली हैं. किसी की इंक़लाबी सुर्ख आवाज़ हैं, तो किसी चाक़-जिगर आशिक के दिल का लहू हैं.
मजरूह साहब ने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा. वह हमारे साथ थे और हम उनके साथ होते चले गए. वह शायद इस बात को जानते थे, इसीलिए उन्होंने कहा था-
'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर / लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया'
- अनुराग अनंत
लल्लनटॉप के लिये
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