''साथी हाथ बंटाना, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना...'' ...... बदलते दौर में सिनेमा के आईने में मजदूर वर्ग
समाजशास्त्र और नृशास्त्र के विद्वानों का मत है कि वानर से नर के विकास में श्रम की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण रही है. कालांतर में मानव के सामूहिक श्रम के परिणामस्वरूप ही सभ्यता और संस्कृति का निर्माण हुआ. बिना श्रम के मानव जीवन के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. सभ्यता के शरुआत से ही समाज के विकास में मजदूर की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण रही है. बात चाहे कृषि की हो, या उद्योग-धंधों की या किसी अन्य क्षेत्र की, मजदूरों के परिश्रम के बिना हर कार्य असंभव प्रतीत होता है. पर ये भी उतना ही कड़वा सच है कि सभ्यता के शुरुआत से ही यही वर्ग सबसे अधिक शोषण और दमन का शिकार हुआ है. कभी भी इनके श्रम को न उचित सम्मान दिया गया और न ही उन्हें अपने श्रम का उचित मूल्य मिला. ये सदा ही समाज के सबसे निचले पायदान पर रहते आये है. पूँजीवाद के आगमन से पहले, सामंती समाज में तो इन्हें दास या अर्ध दास के समान रखा जाता था और उन्हें काम के बदले में कोई मजदूरी भी नहीं दी जाती थी. पूँजीवाद के आगमन के बाद हालाँकि मजदूर दास या अर्ध दासता से तो मुक्त हो गए, पर शोषण का चक्र नहीं रूका. उन्हें फैक्ट्रियों में १९-२० घंटे तक बेहद कम मजदूरी पर काम कराया जाता था. उनके रिहायशी क्षेत्र बेहद गंदे और बदबूदार हुआ करते थे. उनके श्रम को महता नहीं दी जाती थी. उस समय के आर्थशास्त्री उत्पादित वस्तुओं के मूल्य में मजदूरी की अहमियत को कम करके आंकते थे और उस वस्तु के उत्पादन और मूल्य का पूरा श्रेय पूजीपतियों को दिया करते थे. इसी समय दुनिया के पटल पर मार्क्स का प्रादुर्भाव होता है. उन्होंने अर्थशास्त्र की परम्परागत सोच के विपरीत उत्पादित वस्तुओं के मूल्य के निर्धारण के लिए अपने क्रांतिकारी सिद्धांत '' मूल्य का श्रम सिद्धांत'' ( लेबर थ्योरी ऑफ़ वैल्यू) को प्रस्तुत किया और वस्तुओं के उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य में श्रम के योगदान को निर्विदाद रूप से प्रमाणित किया. उन्होंने अपने मित्र और सहयोगी फेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर अपनी प्रसिद्द पुस्तिका ''कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो '' में दुनिया के मजदूरों को एक होकर संघर्ष करने का नारा दिया. इससे मजदूरों की चेतना में जबरदस्त उभार आया और उन्होंने अपनी बेहतरी के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया. उन्होंने सबसे पहले काम के घंटे को ८ घंटे करने की मांग लेकर हड़ताल शुरू की.पर शासनकर्ताओं ने जो शुरुआत से उनके विद्रोह को ताकत के बल पर शुरू से ही दबाते आ रहे हैं, ने मांग को मानने से इंकार कर दिया. फिर १ मई १८८६ को अमेरिका में मजदूरों ने सामूहिक रूप से हड़ताल की.इस हड़ताल का व्यापक ससार हुआ और सरकार को उनकी बात माननी पड़ी. उसी के बाद से १ मई को मजदूर दिवस मनाये जाने की परम्परा शुरू हुई. चूँकि सिनेमा समाज का दर्पण है तो सिनेमा के शुरुआत से ही संवेदनशील फिल्मकार मजदूरों की समस्याओं को समय-समय पर फिल्माते रहे हैं. आज १ मई है यानि ''मजदूर दिवस'', तो क्यों नहीं इस बात का जायजा लिया जाए कि बदलते दौर में सिनेमा में मजदूर वर्ग को किस ढंग से दिखाया गया है
सिनेमा की शुरुआत १८९५ में ल्युमेर बंधुओं द्वारा की गयी मानी जाती है और अपनी पहली ही फिल्म में उन्होंने अपने पिता की फैक्ट्री से निकल रहे मजदूरों को ही फिल्माया. इस तरह सिनेमा और मजदूर वर्ग का सम्बन्ध पहली फिल्म से हो गया. शुरूआती दौर में मजदूरों पर डी.डब्ल्यू. ग्रिफ्फिथ की ''कार्नर इन व्हिट''(१९०९) को एक महत्वपूर्ण फिल्म मानी जाती है जिसमें उन्होंने गेहूं के खेतों में काम करने वाले किसानों और मजदूरों की स्थिति और बिचौलियों की लूट को जीवन्तता के साथ दिखाया है. इसके बाद उन्होंने अपनी फिल्म ''कंट्रास्ट'' में कोयले के खदानों में काम करने वाले मजदूरों के शोषण और उत्पीडन को दर्शाया है. शुरूआती दौर में प्रसिद्ध रूसी निर्देशक सर्गेई आइजेस्तैन ने ''बैटलशिप पोटेमकिन'' और ''स्ट्राइक'' जैसी क्लासिक फिल्मों का निर्माण किया जिसमें मजदूरों के वीरतापूर्ण संघर्ष को बड़े ही खूबसूरत अंदाज में दर्शाया है. चार्ली चैपलिन ने भी '' सिटी लाइट'' और ''मॉडर्न टाइम्स'' में मजदूरों और मिल मालिकों के सम्बन्ध को दर्शाया. '' मॉडर्न टाइम्स'' के निर्माण के बाद तो वे अपने समाजवादी विचारों के कारण ऍफ़.बी.आई के वाच लिस्ट में आ गए. पर बाद में हॉलीवुड में हाईड कोड के लागू होने के बाद मजदूरों की स्थिति को लेकर फिल्म का निर्माण रूक सा गया, पर वार्नर ब्रदर ने ४० के दशक के अंत में ट्रक ड्राइवरों को पर ''दे ड्राइव बी नाईट'' और फिर '' क्लैश बी नाईट'' बनाकर इस जड़ता को तोडा.
इसी बीच ३० के दशक में यूरोप में ज्यां रेनुआ और मार्सेल कार्नी जैसे ''पोएटिक रियलिज्म'' की शुरुआत करने वाले निर्देशकों ने मजदूरों और मालिकों के संबंधों को लेकर ''द क्राइम ऑफ़ मोसे'' और ''ला जोर सा लेव'' जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्में बनायी जो आज न सिर्फ क्लासिक का दर्जा पा गयी है, बल्कि ३० के दशक में यूरोप में मजदूरों की स्थिति का प्रमाणिक दस्तावेज भी मानी जाती है. ४० के दशक में इटली में ''नियो रियलिज्म '' की शुरुआत हुई जिसके सबसे प्रमुख हस्ताक्षर थे- इतालवी निर्देशक वित्तोरियो डी सिका. इनके द्वारा निर्देशित फिल्म त्रयी ''शू शाइन'', जिसमें कि एक अनाथ लड़के की कहानी कही गयी है, '' बाइसिकल थीफ'', जो कि एक बेरोजगार युवक की कहानी है, और ''उम्बेर्तो डी '', जो कि एक बृद्ध पेन्शनयाफ्ता की कहानी है, को फिल्म इतिहास में क्लासिक मानी जाती है. हर वो फिल्मकार जो अपनी फिल्मों में समाज के इन शोषित तबकों के यथार्थ को फिल्माना चाहता है, उनके लिए ये तीन फ़िल्में बाइबिल के समान हैं. उधर जापान में अकिरा कुरासोवा ने ''ड्रंकन एंजेल'' और ''स्ट्रे डॉग'' में जापान के गरीब मजदूरों को दिखाया है तो केंजी मिज़ोगुची ने ''द विक्ट्री ऑफ़ वुमन'' और ''स्ट्रीट ऑफ़ शेम'' में महिला मजदूरों की दयनीय स्थिति और पितृसत्तात्मक समाज को निरुपित किया है.हॉलीवुड में मैकार्थी युग में एक बार फिर से मजदूरों के थीम को लेकर फ़िल्में बनाने का निर्माण रुक गया जो कि ६० मके दशक में ही फिर से प्राम्भ हुआ. ''थे मौली मगुइरेस'', '' नार्मन रे'', ''ग्रपेस ऑफ़ रैथ'', ''९ टू ५'', '' ऑफिस स्पेस'','' वर्किंग गर्ल्स'', ''क्लर्क'','' द अपार्टमेंट'', ''ब्रॉडकास्ट न्यूज़'', ''स्विमिंग विथ शार्क्स'' इत्यादि फिल्मों का निर्माण हुआ. पर नव उदारवाद के आगमन के बाद या तो मजदूरों के थीम को लेकर फ़िल्में बननी लगभग बंद हो गयी या जो भी फ़िल्में बनी उनमें मालिकों के पक्ष को ही मजबूती से रखा गया.
भारत में फिल्मों की शुरुआत दादा साहेब फाल्के की फिल्म ''राजा हरिश्चंद्र'' (१९१३) से मानी जाती है. शुरुआत में ज्यादातर फ़िल्में पौराणिक कहानियों पर ही बने. ३० के दशक में बोलती फिल्मों के शुरुआत के बाद सामाजिक फिल्मों का निर्माण बड़े पैमाने पर होने लगा और इस क्रम में फिल्मकारों ने मजदूरों की स्थिति पर भी फ़िल्में बनायी. ३० के ही दशक के मध्य में मशहूर कथाकार मुंशी प्रेमचंद फिल्मों में अपना भाग्य आजमाने मुंबई आए. उन्होंने मुंबई के मिल मजदूरों की स्थिति को देखकर एक कहानी लिखी जिस पर फिल्म बनी ''गरीब मजदूर'' जो कि १९३४ में रिलीज़ हुई और बॉक्स ऑफिस परमजदूरों की उमड़ती भीड़ के चलते काफी सफल रही. इसके बाद १९३७ में किसानों की दयनीय स्थिति को दर्शाती फिल्म '' किसान कन्या'' आई. आज़दी के जंग के दौरान चेतन आन्नद ने मजदूरों को केन्द्र में रखकर "नीचा नगर" (1946)का निर्माण किया तो ख्वाजा अहमद अब्बास ने " धरती के लाल"(1946) जैसी यथार्थवादी फिल्म बनायी. अब्बास आजादी के बाद भी "राही","धरती की पुकार" जैसी प्रगतिशील फिल्मों का निर्माण करते रहे. आजादी के कुछ ही साल के भीतर विमल राय की क्लासिक फिल्म ''दो बीघा जमीन'' (१९५३) आई जिसमें आज़ादी के तुरंत बाद किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति को दर्शाया गया है. ये फिल्म इटली के नव यथार्थवादी फिल्मों से प्रेरित है. फिल्म में एक किसान शम्भू ( बलराज साहनी) की कहानी है जो महाजन के कर्ज को चुकाने के लिए शहर जाकर रिक्शा मजदूर बन जाता है, पर कठोर श्रम करने के बावजूद पर कर्ज चुकाने में नाकाम रहता है और उसकी जमीन महाजन कर्ज के एवज में कब्ज़ा कर मिल मालिक को बीच देता है. फिल्म एक साथ किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति और किसानों का गाँव से विस्थापित होकर शहर की पलायन कर मजदूर बन जाने की गाथा है और आज के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है. बी.आर.चोपड़ा की ''नया दौर'' (१९५६) में मजदूर और मशीन के बीच के संघर्ष को दिखाया गया है और श्रम की महत्ता पर जोर दिया गया है. इसी फिल्म में फिल्माया गया गीत '' साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना..'' मजदूर एकता के लिए प्रेरणा श्रोत बन गया. १९५७ में आई फिल्म व्ही शांताराम की '' दो आँखें बारह हाथ'' हालाँकि मजदूरों और मिलमालिकों के थीम पर आधारित नहीं है, पर उसमें पूंजीवादी और सामंतवादी समाज के चलते कैसे किसान और मजदूर अपराध करने को विवश हो जाते हैं और कैसे उन्हें अगर श्रम करने के लिए एक आदर्श माहौल दिया जाय तो तो वे सुधर कर एक अच्छे इंसान बन सकते हैं, को बड़े ही कलात्मक अंदाज में दिखाया गया है. फिल्म में एक सुधारवादी और प्रगतिशील जेलर आदिनाथ ने ६ दुर्दांत अपराधियों के जेल से निकालकर एक फार्म पर ले जाते हैं और सम्मानजनक तरीके से श्रम करने अवसर मुहैय्या कराके उनको सुधारने का कार्य शुरू करते हैं. कई कठिनाइयों के बाद उनका तरीका सफल होता है जब वे दुर्दांत अपराधी सुधर कर उस फार्म में लहलहाती फसल को उपजाते हैं. हालाँकि फिल्म के अंत में उन्हें बचाते हुए आदिनाथ की मौत हो जाती है. फिल्म का एक गीत '' ए मालिक तेरे बन्दे हम..'' आज भी बेहद लोकप्रिय है. १९५९ में आई फिल्म ''पैगाम'' में मजदूरों और मिल मालिकों के बीच के संघर्ष को लेकर बनी है जिसमें मुख्य भूमिका दिलीप कुमार और राजकुमार ने निभाई है. फिल्म का एक गीत ''इंसान को इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा..'' बेहद लोकप्रिय हुआ.
१९७३ में आई ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म ''नमकहराम'' जिसमें मजदूरों और मिल मालिक के बीच अपने-अपने हितों को लेकर चल रहे संघर्ष को काफी विस्तार से दिखाया गया है. विक्रम (अमिताभ बच्चन), जो कि एक मिल मालिक का बेटा है, और सोमनाथ ( राजेश खन्ना) दोस्त हैं. इसी बीच विक्रम का मिल मालिक पिता ( ओम शिवपुरी) बीमार पड़ते हैं तो विक्रम को मिल चलाना पड़ जाता है. मिल में हड़ताल हो जाती है और उसे समाप्त करने के लिए अपने पिता के कहने पर विक्रम को मजदूर नेता ( ए.के.हंगल) से माफ़ी मांगनी पड़ जाती है. विक्रम अपमान की अग्नि में जलता हुआ अपने दोस्त सोमनाथ को सारा हाल कह डालता है. फिर सोमनाथ उस मजदूर नेता को सबका सिखाने के इरादे से विक्रम के मिल में मजदूर बन कर आ जाता है और देखते-देखते उसे हटाकर खुद मजदूर नेता बन जाता है. पर एक बार मजदूरों की दयनीय स्थिति से रूबरू होने के बाद सोमनाथ के विचारों में परिवर्तन होने लगता है. दोनों दोस्तों के बीच अब दुश्मनी हो जाती है. सोमनाथ अपने दोस्त विक्रम को समझाना चाहता है कि ये दो दोस्तों की लड़ाई न होकर दो वर्गों के बीच का संघर्ष है, पर विक्रम नहीं समझता. पर जब उसे पता चलता है कि उसका मिल मालिक पिता सोमनाथ को मरवाने के लिए गुंडे को भेज चूका है तो विक्रम ने उसे बचने के लिए पूरा जोर लगा दिया, पर सोमनाथ बच नहीं पाता है. विक्रम अपने पिता को सबक सिखाने के इरादे से उसकी हत्या को आरोप खुद पर लेकर जेल चला जाता है. फिल्म में समाजवादी विचारों को बेहद कलात्मकता और यथार्थवादी ढंग से दिखाया गया है. फिल्म के गीत जैसे '' दिए जलते हैं..'', '' मैं शायर बदनाम..'', '' नदिया से दरिया...'' इत्यादि काफी हिट हुए थे और आज भी संगीत प्रेमियों द्वारा बेहद चाव से सुने जाते हैं. १९७५ में यश चोपड़ा की फिल्म ''दीवार'' में भी कई दृश्य मजदूरों पर फिल्माए गए हैं. आनद वर्मा ( सत्येन कप्पू) एक मजदूर नेता है जिसे मिल में हड़ताल के बाद मिल मालिक के गुंडों के द्वारा उसके परिवार का अपहरण कर ब्लैक मेल किया जाता है. वह अपने परिवार को बचाने के लिए मजदूरों के हितों कि बलि चढ़ा देता है. गुस्से में मजदूरों की भीड़ उसे गद्दार कह कर अपमानित करती है. वह शहर छोड़कर चला जाता है. फिर एक दिन लोगों ने उसके बड़े बेटे विजय(अमिताभ बच्चन) के हाथों पर ''मेरा बाप चोर है'' लिख डालते हैं. विजय के मन में पोरे समाज के लिए नफरत फ़ैल जाती है. बाद में जब वह डॉक में कुली बन जाता है तो उसने गुंडों की रंगदारी के खिलाफ विद्रोह कर दिया और कुलियों का नेता बन गया. इसके बाद से उसका कुली से डॉन बनने की सफ़र की शुरुआत होती है. वहीँ दूसरी ओर उसका भाई रवि (शशि कपूर) पुलिस इंस्पेक्टर बन जाता है और फिर शुरू होता है भाइयों के बीच संघर्ष जिसमें अपने बड़े बेटे से बेहद प्रेम करने के बावजूद माँ (निरूपा राय) अपने छोटे बेटे का साथ देती है.फिल्म में अमिताभ का एक प्रसिद्ध संवाद है-'' मैं फेंके गए पैसे आज भी नहीं उठाता'' जो समाज में श्रम को लेकर तिरस्कार के प्रति उसके क्रोध को बखूबी दिखाता है.
यश चोपड़ा ने ही १९७९ में खान मजदूरों की दयनीय स्थिति और १९७५ में चासनाला में हुए भयंकर दुर्घटना जिसमें खदान मालिकों की लापरवाही से ४०० से भी अधिक मजदूरों की मौत हो गयी थी, को लेकर फिल्म ''काला पत्थर'' बनायीं. फिल्म में खदान मालिकों के मुनाफा कमाने की लालच और मजदूरों की दयनीय हालत को काफी यथार्थवादी ढंग से दिखाया गया है. विजय (अमिताभ बच्चन), एक नेवल ऑफिसर है, जो कि ये सोचकर कि उसका जहाज डूब चूका है, जहाज छोड़कर चला आता है, पर जहाज डूबता नहीं है और ड्यूटी छोड़कर भाग आने के शर्म से वह शहर छोड़कर एक खदान में मजदूर बनकर काम करने लगता है. यहीं रवि (शशि कपूर) इंजिनियर बनकर आता है और खदान के मालिक (प्रेम चोपड़ा) को बताता है कि खदान में सुरक्षा के उपाय नहीं के बराबर हैं और कभी भी दुर्घटना घात सकती है. पर लालची खदान मालिक मजदूरों की सुरक्षा पर कोई पैसा खर्च करना नहीं चाहता है. विजय इसका विरोध करता है, पर तभी खान में दुर्घटना घात जाती है जिसमें विजय विजय रवि और मंगल (शत्रुघ्न सिन्हा) की सहायता से अधिकांस मजदूरों की जान बचाने में कामयाब हो जाता है. १९८३ में बी.आर.चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा ने दिलीप कुमार को लेकर फिल्म ''मजदूर'' बनायीं. दीनानाथ (दिलीप कुमार) एक मजदूर नेता हैं जिन्होंने बोनस को लेकर मिल के मालिक के खिलाफ हड़ताल कर दिया. मिल का मालिक हीरालाल मांग को तो मान लेता है पर शर्त ये रखता है कि वो माफ़ी मांग लें. दीनानाथ बजाए माफ़ी मांगने के अपना इस्तीफ़ा दे देते हैं और अपने दोस्त अभियंता के साथ मिलकर एक टूटी-फूटी मिल खरीदकर खुद एक मिल खोलते हैं जहाँ उन्होंने मिल मालिक और मजदूरों के बीच एक आदर्श सम्बन्ध स्थापित करते हैं. फिल्म यथार्थवादी न होकर आदर्शवादी है जहाँ वर्गों के बीच सहयोग पर बल दिया गया है. यही सन्देश फिल्म ''पैगाम'' में भी दिया गया था. ९० के दशक में एक बार फिर कोयला खदानों में मजदूरों की स्थिति को लेकर निर्देशक राकेश रोशन ने शाहरुख़ खान को लेकर फिल्म ''कोयला'' बनाई .
पर ९० के दशक में ही भारत में नव उदारवाद का आगमन होता है और एक आक्रमक उपभोक्तावादी मध्यम वर्ग का उदय होता है जिसके लिए किसान-मजदूर मायने नहीं रखते हैं और जो परदे पर रंग-बिरंगे फैशनेबुल कपडे पहने नव धनाढ्य वर्ग के वर्ग के प्रतिनिधि नायक-नायिकाओं को एक्सोटिक लोकेशन में नाचते-गाते, प्यार करते देखना चाहता है. फिर तो ऐसी ही फिल्मों की भरमार हो गयी. ऐसी फिल्मों में यदा-कदा अगर मजदूर वर्ग को दिखाया भी गया तो नकारात्मक भूमिकाओं में. अक्सर इन फिल्मों में मजदूर नेताओं को विलेन के रूप दिखाया गया. या अगर सकारत्मक रूप में दिखाया भी गया तो फिल्मों का सन्दर्भ कुछ दूसरा था जैसे कि ''मसान'' और ''पीपली लाइव''. इसी बीच बाल मजदूरों कि समस्याओं को लेकर ''स्टान्ली का डिब्बा'', '' चिल्लर पार्टी'', ''पाठशाला'' इत्यादि कुछ अच्छी फ़िल्में भी बनी है. पर फिल्मों में मजदूरों के हाशिये पर चले जाने का एक दूसरा कारण है ९० के दशक में फिल्म नगरी मुंबई के आतंरिक संरचना में आया जबरदस्त बदलाव. शहर के बेटरी भागों में स्थित मिल बंद हो गए और उनकी जगह पर बड़े-बड़े माल और होटलों का निर्माण हो गया. तो जाहिर है मजदूरों का पलायन शहर के बाहर हो गया. इस तरह वे फिल्म निर्मातों और निर्देशकों की नज़रों से ओझल हो गए. पर नज़रों से ओझल होने का मतलब ये नहीं है कि समाज में उनकी भूमिका समाप्त हो गयी या उनका शोषण होना बंद हो गया है. बल्कि अब फैक्ट्री के परंपरागत मजदूरों के अलावा बड़े पैमाने पर कॉल सेन्टर में काम करने वाले या ऑफिस में काम करने वाइट कॉलर मजदूर भी शोषण का शिकार हो रहे हैं. ऐसे समय में जब श्रम कानून में सुधारों के नाम पर बड़े संघर्ष के बाद अर्जित मजदूरों के अधिकारों को छिना जा रहा है,उम्मीद यही करनी चाहिए कि निर्माता-निर्देशक इनकी समस्याओं पर ध्यान देते हुए एक बार फिर से मजदूर और मजदूरी के थीम पर अच्छी फिल्मों का निर्माण करना प्राम्भ कर देंगे और ये हर हर संवेदनशील निर्मात-निर्देशकों का कर्तव्य भी है. इसी के ''मजदूर दिवस'' की शुभकामनाएँ अपने सभी साथियों को देने के साथ में इस आलेख को समाप्त करता हूँ.
Aditya Das
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