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Wednesday, 1 February 2023

भारतीय समाज में जाति या वर्ण व्यवस्था

परम्परागत जातिवाद का राजनीतिक इस्तेमाल
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मंथन अंक: 31  आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दें ।
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लेखक : कमला प्रसाद (वाराणसी) जुलाई 2021 
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भारतीय समाज में जाति या वर्ण व्यवस्था प्राचीन काल से चली आ रही है। इसकी उत्पत्ति के बारे में एक दृष्टिकोण यह है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की उसी ने मनुष्यों और उनमें वर्णो या जातियों को बनाया, अतः यह अनादि है। जबकि हमें प्रारम्भिक शिक्षा में ही पढ़ाया जाता है कि मनुष्य के शरीर के विकास फिर उसके एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित होने में हजारों साल लग गये। फिर उसके हजारों सालों के बाद मानव समाज में जाति या वर्ण व्यवस्था का विकास हुआ। अतः यह कहना गलत है कि वर्ण या जाति व्यवस्था अनादि है।

वर्ण व्यवस्था के बारे में भारत के प्राचीन धर्म ग्रन्थ ऋग्वेद में रंगों के आधार पर वर्णों का उल्लेख है। जिसमें आर्यों को गौर वर्ण एवं अनार्यों को काले वर्ण या रंगों वाला कहा गया है। उसी ग्रन्थ में आर्यों द्वारा अनार्यों के प्रति घृणा व वैमनस्य का भी उल्लेख मिलता है। उन्हें वह दस्यु या राक्षस आदि नामों से भी सम्बोधित करते थे। तथा इन्द्र के द्वारा दस्युओं या राक्षसों को युद्धों में मार डालने उनके नाश कर देने की कामना करते थे। इस प्रकार युद्धों में पहले वह अनार्य शत्रुओं को मार डालते थे किन्तु कालान्तर में कृषि एवं पशुपालन का विकास होने पर अधिक श्रम की जरूरत महसूस होने पर आर्य लोग उन्हें दास बनाने लगे। ऋग्वेद में ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य, चर्मकार, कृषक, रथकार, बुनकर दास व दासियों का भी उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आर्यों में एक सामाजिक विभाजन उनके श्रम विभाजन पर आधारित था। यद्यपि शुरूआती दौर में यह स्पष्ट श्रम विभाजन नही था. एक पेशे का काम करने वाले दूसरे पेशे का भी काम कर सकते थे किन्तु जैसे- जैसे खेतियों का विकास तथा उससे सम्बन्धित उद्योगों का विकास शुरू हुआ तो उस पर आधारित तरह तरह के पेशे विकसित होने लगे।

भारत की विशाल समतल एवं उपजाऊ जमीन सिंचाई के लिये नदियों की अधिकता तथा प्राकृतिक वर्षा • उपलब्ध होने के कारण आर्य लोगों ने खेती एवं पशुपालन को जीवन यापन का मुख्य पेशा बना लिया। जिसके कारण उनका जीवन स्थायी हुआ और वह ग्रामों में बसने लगे। चूंकि आर्यों में पेशे के आधार पर सामाजिक जीवन पहले से मौजूद था, इसके अलावा युद्धों अथवा जुए में हारे हुये अनार्य लोगों को उन्होंने अपना दास या गुलाम बना लिया था जो कि उनके लिये सेवा का काम करते थे अतः कालान्तर में एक स्थायी जीवन प्रणाली होने के कारण एक पेशे में लगे हुए लोगों के बच्चे भी उसी पेशे में कुशल होने लगे और धीरे धीरे पेशों का बंटवारा पुश्तैनी हो गया जिसमें किसी व्यक्ति का पेशा उसके जन्म लेते ही तय हो जाता था।

पहले अनार्य कबीलों से आर्यों को कृषि कार्य के फैलाव हेतु युद्ध लड़ना पड़ता था इसी से शत्रुता के चलते आर्य उनसे घृणा करते थे फिर जब उन्हें गुलाम बनाकर सेवा के कार्य लेने लगे तो शत्रुतापूर्ण घृणा में कुछ कमी आई परन्तु युद्ध में विजयी होने के चलते स्वयं को उच्च और हारे अनार्यों को अपने से निम्न या नीचा मानने लग गये। साथ ही साथ आर्यों की उच्च स्थिति एवं अनार्य दस्यु या दासों की निम्न स्थिति के चलते अनार्य दासों के द्वारा किये गये उत्पादनों का संग्रह दासों के पास नही बल्कि आर्य मालिकों के पास होता था। चूंकि काले वर्ण वाले अनार्य दास या गुलामों से वह परिश्रम या सेवा के कार्य लेते थे और गौर वर्ण वाले आर्य स्वयं काम नहीं करते थे तथा दास या गुलाम होने के कारण वह काले अनार्यों से शत्रुता के चलते घृणा करते थे अतः धीरे धीरे कालान्तर में श्रम या पेशा का निर्धारण जन्मजात पुश्तैनी रूप से तय हो जाने से वर्ण शब्द जाति का द्योतक हो गया तथा विभिन्न प्रकार के पेशों में लग कर श्रम करने वाले पेशों या जातियों को श्रम न करने वाले आर्य वर्णों या जातियों के द्वारा नीच एवं घृणित माना जाने लगा। अतः धीरे-धीरे श्रम करना नीचता एवं श्रम न करना उच्चता का द्योतक हो गया तथा वर्ण शब्द वर्ग का द्योतक हो गया।

इस तरह आर्यों एवं अनार्यों के बीच ऊंच नीच का एक वर्ग विभाजन स्थापित होने लगा। इसके अतिरिक्त ब्राह्मण कबीले की भलाई के लिये, देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिये मंत्रों का उच्चारण करते थे तथा क्षत्रिय (क्षेत्रपति) कबीले की रक्षा सुरक्षा का जो काम करते थे उसके बदले में पेशा करने वाले कमकर लोग उन्हें अपने उत्पादन का एक हिस्सा शुल्क (बलि) के रूप में दिया करते थे। इससे भी ब्राहमणों एवं क्षत्रियों के पास कमकर वर्णों या वर्गों की तुलना में अतिरिक्त धन इकट्ठा होने लगा। यह आर्यों में वर्ग विभाजन का द्योतक है। कालान्तर में धीरे-धीरे यही वर्ण या वर्ग व्यवस्था एक सामाजिक बंटवारे के रूप में स्थापित हो गयी जिसमें ब्राह्मण का काम शिक्षा देना, पूजा पाठ आदि करना या क्षत्रिय का काम रक्षा करना प्रबन्ध करना आदि तथा वैश्य का काम व्यापार आदि करना तथा विभिन्न प्रकार के कमकर पेशे में लगे हुये लोगों को शूद्र कहा गया। शूदों का काम ऊपर के इन्ही तीनों वर्णों की सेवा करना था। जो उच्च वर्ण के लोग थे ज्यादातर उत्पादन के साधनों जैसे खेतियां, पशुपालन आदि पर उन्हीं का मालिकाना होता था और शूद वर्ग के लोग उनके इन्हीं उत्पादन के साधनों पर मजदूरी करके, कृषि सम्बन्धी कार्यों में लग कर अथवा सेवा के अन्य पेशों में लगकर अपना जीवन यापन करते थे। चूंकि शूद्रों के पास इन्हीं तीनों उच्च वर्णों की सेवा के लिए श्रम करने के अलावा जीवन यापन का कोई अन्य साधन नहीं होता था और निर्धनता के चलते उन्हें मैला उठाना, मरे हुये जानवरों को हटाना, व उनका मांस खाना, जूठा साफ करना व खाना, जूते बनाना आदि जैसे निम्न, गंदा व घृणित काम भी करना पड़ता था। अतः ऊपर के तीनों उच्च वर्ग के लोग नीचे के शूद्र वर्ण के लोगों से, जो कालान्तर में पेशी के आधार पर विभिन्न छोटी जातियों में विभाजित हो गये थे, उन्हें नीच एवं गन्दा मानकर उनसे घृणा करते थे और उनसे छुआछूत का भेदभाव करने लगे। चूंकि ब्राहमण का पेशा शिक्षा देना, क्षत्रिय का पेशा रक्षा करना तथा वैश्य का पेशा व्यापार करना था इसलिए इन वर्णों में पेशों के आधार पर ज्यादा विभाजन या उपविभाजन नहीं हुआ और पूरे वर्ण विभाजन की व्यवस्था में उनकी उच्चता बरकरार रही जबकि शूद वर्ण में बहुत से पेशे जैसे हल चलाना, जानवरों की देखभाल करना, खेतियों में प्रयोग होने वाले लोहे के औजार बनाना, लकड़ी का काम मिट्टी के बर्तन बनाना, बाल काटना, कपड़े धोना, जूते बनाना या चमड़े़ के अन्य काम मरे हुए जानवरों को हटाना, सफाई करना, पालकी ढोना, कुटाई पिसाई आदि ऐसे तमाम पेशे थे जिनके आधार पर शूद्र वर्ण में बहुत सी जातियां उपजातियां बनती गयी और पीढ़ी दर पीढ़ी उसी काम में दक्षता होने की वजह से उनके बच्चे भी उसी काम में लगते गये। इस प्रकार से पेशों के आधार पर जातियां उपजातियां बनती गयी। जिसमें घृणित एवं गंदा काम जैसे- मैला उठाना, मरे पशुओं को हटाना, जूते व चमड़े का काम, सफाई का काम आदि ऐसे बहुत से काम करने वालों को उच्च वर्ण के लोग अपने से नीच मानने लग गये, उनसे घृणा करने लगे, उनसे छुआछूत का भेदभाव रखते हुए उन्हें अछूत जातियां मानने लग गये और उनकी गांव की बस्ती से अलग बस्तियां बन गयी। वर्षों से चले आ रहे इसी जातीय भेदभाव को परम्परागत जातिवाद कहा जाता है।

अंग्रेजों के आने के बाद से जैसे-जैसे पूंजीवाद का विकास होने लगा उसे अपने औपनिवेशिक शासन की जरूरतों हेतु कल कारखानों में कुशल अकुशल मजदूरों, क्लकों एवं टेक्नीशियनों आदि की जरूरतें महसूस हुई तो उसने इन परम्परागत वर्गों को शिक्षित प्रशिक्षित करने के लिये बिना किसी भेद भाव के शिक्षा की व्यवस्था की। जिसमें छोटी जातियों के लोग भी शिक्षा प्राप्त करके नौकरियों में अफसर क्लर्क, चपरासी आदि शिक्षा में अध्यापक, कल-कारखानों वाणिज्य-व्यापार में मजदूर, सुपरवाइजर, टेक्नीशियन आदि के रूप में भर्ती हुए।
जिससे उनकी आर्थिक स्थितियां पहले से मजबूत हुईं। यद्यपि अंग्रेजों ने यह कार्य भारतीय जनता की सेवा भाव या कल्याण उत्थान के लिये नहीं बल्कि अपने औपनिवेशिक शासन द्वारा भारत की जनता की लूट पाट व शोषण के लिये किया लेकिन उसके इस कार्य से भारत में वर्षों से चली आ रही सामाजिक संरचना में टूटन एवं बदलाव शुरू हुआ। निम्न जातियों का एक बड़ा हिस्सा जो अभी तक केवल जमीन मालिकों की जमीनों से बंधा हुआ दास अर्द्धदास था वह उनसे मुक्त होकर औद्योगिक एवं दिहाड़ी खेतिहर मजदूरों के रूप में उमरा उसके
पेशे बदले, जिससे जाति व्यवस्था पर चोट पहुंची। जातिवाद पर महत्वपूर्ण चोट कम्युनिस्टों द्वारा चलाये गये क्रान्तिकारी आन्दोलनों से पड़ी। उन्होंने मजदूरों किसानों को, जो कि ज्यादातर छोटी जाति के ही होते हैं, पर जमीदारों सामान्तों द्वारा जो शोषण उत्पीड़न किया जा रहा था. उसके विरूद्ध उन्हें गोलबन्द किया। उन्होंने मजदूरियों एवं जमीनों के बटवारे के लिये आन्दोलन किया। इस तरह से कम्युनिष्टों ने जमीनों के बटवारे का मुद्दा खड़ा करके जाति व्यवस्था के प्रमुख आधार जमीनों पर ऊंची जाति के लोगों के मालिकाने पर परिणाम स्वरूप उनकी जातीय उच्चता पर चोट की। आन्दोलनों से दबाव में आकर सरकार के द्वारा जमीनों को पट्टे पर देने की व्यवस्था की गयी तथा मजदूरियां सुनिश्चित की गयी। इससे छोटी जाति के मजदूरों की स्थितियों में सुधार हुआ और वह जमीदारों सामन्तों के आर्थिक सामाजिक चंगुल से काफी हद तक मुक्त हुये। इसके अलावा ज्योतिबा फुले, डा० अम्बेडकर, लोहिया एवं अन्य समाज सुधारकों और राजनीतिज्ञों ने भी सामाजिक सुधारों के आन्दोलन चलाये जिससे परम्परागत जातिवाद पर चोट पहुंची। जमींदारी उन्मूलन के बाद दलित एवं पिछड़ी जातियों में भी कुछ लोग जमीनों के मालिक हुये और उनकी आर्थिक स्थितियां मजबूत हुई। आर्थिक सम्बन्धों के इस बदलाव के चलते परम्परागत जातिवाद में टूटन आयी और छुआछूत का भेदभाव कम हुआ। इस प्रकार जैसे-जैसे पूंजीवाद का विकास हुआ वैसे-वैसे परम्परागत जातिवाद भी कमजोर हआ किन्तु आज भी समाज में जातिवाद का भेदभाव सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं अन्य रूप अभी भी मौजूद हैं।

इन सब के साथ-साथ समाज में एक बड़ा व्यापक बदलाव आया। पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने भारत में अपने व्यापार एवं उद्योगों के विकास के लिये मालों की ढुलाई एवं आवागमन हेतु देश में रेलवे लाइनें बिछाई, सड़कें बनवाई तथा नये नये उद्योगों धन्धों की स्थापना की। जिसके फलस्वरूप पैसे पूंजी का प्रचलन और बढ़ा तथा एक नया वर्ग, उद्योगपतियों एवं व्यापारियों का वर्ग उभरा जिसके पास मुनाफा कमाने से धीरे-धीरे उसके हाथों में पैसे पूंजी का संकेन्द्रण बढ़ता गया और वह पूंजीपति बनता गया। वर्ण व्यवस्था की दृष्टि से इस पूंजीपति वर्ग में अब तक उच्च माने जाने वाले ब्राह्मण एवं क्षत्रियों की संख्या कम है जबकि वर्ण व्यवस्था की श्रेष्ठता के क्रम में तीसरे नम्बर पर आने वाले वैश्यों की संख्या अधिक है। यही पूंजीपति वर्ग उस समय अंग्रेजों के साथ मिलकर उद्योगों व्यापारों के माध्यम से मुनाफा लूटता रहा और आज साम्राज्यी देशों के पूंजीपतियों के साथ मिलकर अपनी उस मुनाफा लूटने की व्यवस्था का विश्वव्यापी साम्राज्य बना लिया है। उस समय केवल देशी पूंजीपति अंग्रेजों से मिलकर देश को लूटते थे अब देशी और विदेशी पूंजीपति दोनों मिलकर मुनाफा लूटने की विश्वव्यापी साम्राज्यवादी व्यवस्था को बनाये हुये हैं जिसमें हर जाति, हर धर्म के लोग पूंजीवाद सामाज्यवाद की लूट एवं शोषण का शिकार होते हैं। लूट एवं शोषण में वह जाति धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। अपने इसी पैसे पूंजी की बदौलत यह पूंजीपति अपने प्रचार तन्त्रों के माध्यम टेलीविजन, अखबार, बिकाऊ पत्रकारों विद्वानों आदि के द्वारा राजनीतिक पार्टियों के पक्ष अथवा विपक्ष में जनमत तैयार करता रहता है तथा चुनावों में चन्दे देकर उन्हें जिताने का काम करता रहता है और इसके द्वारा कभी इस राजनीतिक दल की और कभी उस राजनीतिक दल की सरकारें बनाते बिगाड़ते रहते हैं। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार हो, वह उन्हीं का काम करती है, और उन्हीं के हित में नीतियां बनाती है। परिणाम स्वरूप आज देश की लगभग 73 प्रतिशत सम्पत्ति इन्हीं 1 प्रतिशत पूंजीपतियों-धन्नादों के हाथों में है।

अब अगली बात, अंग्रेजों के शासन के बाद भारत में तथाकथित लोकतन्त्र की बहुदलीय शासन प्रणाली स्थापित हुई। जिसमें चुनाव के माध्यम से बहुमत प्राप्त दल अपनी सरकार बनाता है। इस लोकतंत्र की स्थापना के साथ यह भी प्रचारित किया जाने लगा कि अब जनता का राज आ गया है, ऊंचनीच सभी बराबर हैं. देश में अब गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी नहीं रहेगी सबका जमीनों पर न्यायपूर्ण बंटवारा होगा। जिसके लिये सीलिंग एक्ट भी ले आये लेकिन वह पूर्णतः लागू नहीं हो पाया। दलितों के लिये और पिछड़ों के लिये शिक्षा में नौकरियों में संसद, विधान सभा, जिला पंचायत, ग्राम पंचायत चुनावों में आरक्षण लागू किया जो कि संसद, विधान सभा, जिला पंचायत, ग्राम पंचायत चुनावों को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में आज भी पूरा नहीं हो पाया। गरीबी दूर करने का नारा दिया लेकिन 1970 के दशक तक सरकार गरीब निर्धन जनता की गरीबी महंगाई, बेरोजगारी आदि दूर
नहीं कर पाई और इन्हें दूर करने के उसके सारे दावे वादे असफल होते गये। आम जनता में भी यह धारणा बैठती गयी कि राजनीतिक पार्टियां उनकी गरीबी महंगाई बेरोजगारी जैसी आर्थिक समस्याओं को दूर नहीं कर सकती। अतः शासन सत्ता में बने रहने के लिये, चुनाव में बहुमत प्राप्त कर अपनी सरकार बनाने के लिये राजनीति में जाति, धर्म, भाषा एवं इलाका का राजनीतिक इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। क्योंकि समाज में परम्परागत जातिवाद अपने किन्हीं न किन्हीं रूपों में पहले से ही मौजूद है इसलिये राजनीतिक पार्टियों को जातिवाद का इस्तेमाल करने का आसान आधार मिल जाता है। इसके लिये राजनीतिक पार्टियों दलितों के उत्थान कल्याण की बातें इसलिये भी करती है कि आबादी के लिहाज से उनकी संख्या ज्यादा है और वह उनके लिये बहुत बड़ा वोट बैंक है, अतः उन्होंने जातिवादी, धर्मवादी मुद्दों को आगे कर दिया।

जातिवाद का राजनीतिक इस्तेमाल करने का समाज पर प्रभाव यह पड़ा कि लोग जातीय गुटों में गोलबन्द होने लगे। विभिन्न जातियों के आधार पर राजनीतिक दल बनने लग गये और सरकार के द्वारा जातीय आधार पर दलित एवं पिछड़ी जातियों को आरक्षण दे दिया गया तथा यह भी प्रचारित होने लगा कि 15 प्रतिशत ऊंची जाति के लोगों द्वारा 85 प्रतिशत दलित एवं पिछड़ी जाति के लोगों के हकों पर कब्जा है और इस असमानता को दूर करने के लिये उनको आरक्षण दिया गया है, जिससे कि वे भी समाज की मुख्य धारा में आ सकें। दलितों पिछड़ों में भी यह उम्मीदें पैदा होने लगी कि आरक्षण के द्वारा ही उनकी गरीबी बेरोजगारी दूर हो जायेगी। यद्यपि सरकारी नौकरी के क्षेत्र में अभी तक आरक्षण का पूरा लाभ लोगों को नहीं मिल पाया है जबकि राजनीतिक क्षेत्र, जैसे संसद, विधान सभा व पंचायत चुनावों में लगभग पूरी तरह लागू है।

इसका परिणाम यह हुआ कि दलित एवं पिछड़ी जातियों के लोग आरक्षण को ही विकास का मुख्य मुद्दा मानकर उसके लिये संघर्ष करने लगे और यह मानने लगे कि 15 प्रतिशत उच्च जाति के लोगों द्वारा उनका शोषण किया जा रहा है। जैसा कि चर्चा की जा चुकी है वे पूंजीवाद साम्राज्यवाद को मुख्य दुश्मन न मानकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ही अपनी गरीबी बेरोजगारी का कारण मानने लग गये तथा उनमें ऊंची जाति, छोटी जाति का बैर, वैमनस्य बढ़ता गया। यद्यपि शासन प्रशासन में ऊंची जाति के लोगों की संख्या ज्यादा होती है लेकिन वह शासन प्रशासन में पूंजीवाद की ही सेवा करते हैं।

जातिवाद के राजनीतिक इस्तेमाल का प्रभाव दलित एवं पिछड़ी जातियों में आपस में भी पड़ा। यह प्रचारित किया जाने लगा कि दलित जातियों में चमार जाटव आदि ही आरक्षण का ज्यादा फायदा ले रहे है तथा पिछड़ी जातियों में यादव, कुर्मी आरक्षण का ज्यादा फायदा ले रहे हैं जिससे उनमें फिर दलित, महादलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा का विभाजन हो गया और उनके अलग-अलग जातीय, संगठन तथा राजनैतिक संगठन बनने लग गये। उच्च जातियों के भी अपने जातीय संगठन बनने लग गये। परिणामत: ऊंची जाति-छोटी जाति के आपसी विरोध के साथ उनमें आपस में ही पिछड़ी, अति पिछड़ी एवं दलित, अति दलित के जातीय झगड़े व विद्वेष बिखराव बढ़ने लगे।

इस प्रकार से परम्परागत जातिवाद के साथ साथ एक अलग प्रकार का जातिवाद, राजनीतिक जातिवाद शुरू हो गया। पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों ने इस परम्परागत जातिवाद का इस्तेमाल अपने सत्ता स्वार्थ की पूर्ति के लिये करना शुरू किया। वे पिछड़ी व निम्न जातियों की भलाई. कल्याण, उत्थान व सामाजिक न्याय के वास्ते शिक्षा व सरकारी नौकरियों में आरक्षण को ही एक प्रमुख मुद्दा मानकर उसे ही चुनावों में जीत के लिये प्रचारित करने लगीं। जैसे- 1969-71 के दौरान खास कर 1967 में विभिन्न प्रान्तों में अपनी पराजय के बाद कांग्रेस ने खुद को पिछड़ी जातियों, दलितों व अल्पसंख्यकों का हिमायती घोषित करना शुरू किया। 

केरल में मुस्लिम धर्मवादी संगठन मुस्लिम लीग तथा इसाई धर्मवादी संगठन केरल कांग्रेस के साथ, एझवा व नैयर जाति के लोगों के संगठनों से चुनावी गठजोड़ बनाया। इसी प्रकार यू०पी० में बसपा व सपा तथा बिहार में जनता दल पिछड़ी व निम्न जातियों, दलितों, अल्पसंख्यकों की मुक्ति एवं कल्याण करने के नाम पर राजनीतिक दल के रूप में खड़े हो गये। दोनों प्रमुख बामपंथी पार्टियां सी.पी.आई. और सी.पी.एम. भी संशोधनवादी सुधारवादी राजनीति के चलते सत्ता स्वार्थ के कारण जातिवादी राजनीति से दूर नहीं हो सकी। केरल में दोनों 1970 से 1982 तक लगातार मुस्लिम लीग व केरल कांग्रेस जैसी धर्मवादी तथा एझवा व नैयर जाति की जातिवादी पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ते रहे व बाममोर्चे की सरकार बनाते रहे। पं० बंगाल की बामपंथी सरकार ने भी पिछड़ी जातियों को फुसलाने के लिये उन्हें 14 प्रतिशत आरक्षण दिया।

इस प्रकार से सभी जातियों को आपस में झगड़ों में फंसा कर पूंजीवाद साम्राज्यवाद निर्वाध रूप से अपनी शोषण एवं लूट की व्यवस्था को बनाये रखता है। जातिवाद, दलितवाद, धर्मवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, नारीवाद एवं पर्यावरण वाद आदि विभिन्न प्रकार के मुद्दों से फंसा उलझाकर उनकी एकता को तोड़ता रहता है जिससे कि मजदूरों किसानों की वर्गीय एकता न खड़ी होने पाये। पूंजीवाद से उत्पन्न समस्याओं जैसे-महंगाई, बेकारी भ्रष्टाचार आदि पर चर्चा न हो इसलिये वह समय-समय पर इस प्रकार के मुद्दे जनता में खड़ा करता रहता है। मौजूदा समाज में हर जाति का नव-मध्यम व उच्च-मध्यम वर्ग इस प्रकार की राजनीति, विचार व्यवहार व पूंजीवादी कला संस्कृति का बहुत बड़ा वाहक है। कृपया ध्यान दें कि जाति, धर्म, भाषा, इलाका की राजनीति किसी राजनीतिक पार्टी की राजनीति नहीं है, बल्कि यह पूंजीवाद साम्राज्यवाद की राजनीति है और जब भी नई आर्थिक नीतियों, डंकल प्रस्ताव की नीतियों के अगले चरण को लागू करने की बात आती है उसी समय जाति, धर्म, भाषा, इलाका कीराजनीति को और तेज कर दिया जाता है और यही मुद्दे चर्चा के केन्द्र बिन्दु बन जाते हैं। चूंकि सभी बड़े प्रचार प्रसार के माध्यम भी बड़े बड़े पूंजीपतियों के होते हैं अतः वह भी दिन-रात इन्हीं मुद्दों को प्रचारित प्रसारित करते रहते हैं। अतः आज के समय में पूंजीवाद साम्राज्यवाद के द्वारा आम जनता को जाति धर्म, भाषा, इलाका के आधार पर जो बंटवारा करने की राजनीति की जा रही है हमें उसका सचेतन रूप से विरोध करते हुये वर्गीय आधार पर संगठित होने की जरूरत है। 

नोट- जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के लेखन में श्री जी. डी. सिंह (गुर दर्शन सिंह) की पुस्तक जाति (वर्ण) व्यवस्था का सहारा लिया गया है।

लेखक : कमला प्रसाद  (वाराणसी)

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