बेहया
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उठी जो नज़रें, हया की हद से
बचा न कोई, जुल्म की ज़द से।
वो जो त्यागी बने थे कब से,
सौ बिल्ले खाकर, लौटे हैं हज से
टटोलो, खंगालो, सूक्ष्मदर्शी मंगा लो
पहचाना गया कोई कब अपने कद से?
अब न चढ़ेगा रंग कोई भी उन पर
साहब हमारे जो, भरे हैं मद से।
दिलों के छोटे, जो हैं सोच से खोटे
नापते हैं प्यार वही, लोहे के गज से।
सुन ओ पाखंडी! मनुवादी घमंडी
जन्मा हैं तू भी उसी मासिक के रज से।
आ दिखाऊँ दीवार के पीछे का भारत
संघी हुई आँखें शायद, खुलें अचरज से।
~Bachcha Lal Unmesh
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