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Friday, 17 February 2023

धर्म और मार्क्सवाद 
ईश मिश्र

  मार्क्सवाद समाज को समझने का विज्ञान और उसे बदलने का आह्वान है। समाज के हर पहलू पर इसकी सत्यापित स्पष्ट राय है, धर्म पर भी। 'हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा में एक योगदान'  में मार्क्स ने लिखा है  "………धर्म की आलोचना सभी आलोचनाओं की पूर्व शर्त है." उसी के आगे उसी ग्रंथ में वे लिखते हैं कि धर्म की आलोचना की बुनियाद यह ऐतिहासिक तथ्य है कि धर्म या ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि मनुष्य ने अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के अनुसार, भौतिक परिस्थितियों तथा तदनुरूप सामाजिक चेतना के स्वरूप और स्तर के संदर्भ में ईश्वर और धर्म का निर्माण किया। इसीलिए देश-काल के परिवर्तन के साथ धर्म और ईश्वर का चरित्र परिवर्तित होता रहता है। पहले ईश्वर गरीब और जरूरतमंद की मदद करता था अब जो अपनी मदद कर सकता है, उसकी (God helps those, who help themselves)। 

'राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान' के प्राक्कथन में भौतिक उत्पादन के  चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना के स्वरूप की बात करते हैं। फॉयरबॉक  पर तीसरी प्रमेय में कहते हैं कि चेतना भौतिक परिस्थियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थियों का परिणाम है लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलती बल्कि उन्हें बदलता है मनुष्य का चैतन्य क्रांतिकारी कर्म।

 "परिस्थियों और मनुष्य के व्यवहार या आत्म-परिवर्तन में बदलाव के संयोग को तार्किक रूप से क्रांतिकारी व्यवहार के अर्थों में ही की जा सकती है"। धार्मिक चेतना को बदले बिना धर्म को नहीं समाप्त किया जा सकता है, उसी तरह जैसे सामाजिक चेतना के जनवादीकरण यानि मजदूरों में वर्गचेतना के संचार के बिना सर्वहारा क्रांति नहीं हो सकती। द थेसेस ऑन फॉयरबाक की चौथी थेसिस है, "फॉयरबाक अपनी बात धार्मिक आत्मविरक्ति (सेल्फ-एलीनेसन),  धार्मिक दुनिया और भौतिक (धर्मनिरपेक्ष) दुनिया के दुहरेपन से शुरू करते हैं। उनका समाधान धार्मिक दुनिया का अपने भौतिक आधार में समाहित करना है। लेकिन भौतिक आधार का खुद को खुद से अलग करके आसमान में स्वतंत्र आसियाना बनाने की बात की व्याख्या, भौतिक आधार के अंदर की दरारों औऱ आत्म-विरोधाभासों के अर्थों में ही की जा सकती है। इसलिए जरूरत है भौतिक आधार के अंतरविरोधों को समझने की और व्यवहार में उनके जनवादीकरण की। जब यह पता चल गया कि उहलोक के परिवार (द होली फेमिली ) का रहस्य इहलोक के परिवार में ही छिपा है तो पहले सिद्धांत और व्यवहार में जरूरत इहलोक को नष्ट करने की है"। धार्मिक आत्मवियोग भौतिक आत्मवियोग की ही अभिव्यक्ति है।

प्रचीन यूनानी चिंतक प्लेटो के अंतिम ग्रंथ कानून (द लॉज) में वर्णित राज्य को उनका दूसरा सर्वश्रेष्ठ राज्य कहा जाता है, सर्वश्रेष्ठ राज्य रिपब्लिक का आदर्श राज्य है। द लॉज में दंड के प्रावधानों का मकसद सुधार था, उत्पीड़न नहीं। नास्तिकता जैसे विरले मामलों में ही मृत्युदंड देना चाहिए, जब 'अपराधी' का अस्तित्व उसके और समाज दोनों के लिए खतरनाक हो जाय। असमानता और गुलामी को प्रकृति प्रदत्त और परिवर्तन को खतरनाक बुराई मानने वाले उनके शिष्य अरस्तू निरंकुश शासकों को धर्मात्मा दिखना चाहिए और पूजा और बलि चढ़ाने में सदा आगे रहना चाहिए। लोग इस डर से विद्रोह से बाज आएंगे कि जब देवता गण ही उसके साथ हैं तो उससे नहीं जीता जो सकता। कौटिल्य का राज्य का सिद्धांत धर्मशास्त्रीय समझ से मुक्त है, लेकिन वह राजा को धार्मिक अंधविश्वासों और धर्मांधता को समाप्त करने की नहीं अपद्धर्म को रूप में उनका इस्तेमाल करने की। राजधर्म है रक्षण, पालन और योगक्षेम सुनिश्चित करना। रक्षण पालन में धर्म (वर्णाश्रम धर्म) का भी रक्षण, पालन शामिल है। मैक्यावली ने राजनीति को धर्मशास्त्र के चंगुल से मुक्त कर उसे एक स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में पुनर्प्रतिष्ठि किया। लेकिन वह भी राजा को सलाह देता ही कि धर्म की मान्यताएं और रीति-रिवाज कितने भी प्रतिगामी क्यों न हों, उसे उनसे न महज छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए बल्कि उनका अनुपालन भी सुनिश्चत करना चाहिए। धर्म लोगों को संगठित और वफादार बनाए रखने का सबसे प्रभावी औजार है। जॉन लॉक के राज्य में नास्तिकता की सजा मृत्यु बताई गयी है। 
उपरोक्त भूमिका का मकसद यह रेखांकित करना है कि ऐतिहासिक रूप से धर्म शासक वर्ग उनके प्रतिनिधियों का प्रभावी औजार रहा है। धर्म कोई साश्वत विचार नहीं है बल्कि देश-काल सापेक्ष विचारधारा है। विचारधारा मिथ्या चेतना होती है क्योंकि वह खास मान्यताओं कि विशिष्ट संरचना को सार्वभौमिक और अंतिम सत्य के रूप में पेश करती है। विचारधारा न केवल उत्पीड़क/शासक को प्रभावित करती है बल्कि पीड़ित/शासित को भी। जैसे मर्दवाद की विचारधारा न सिर्फ पुरुष को प्रभावित करती है बल्कि स्त्री को भी, न केवल पिताजी को लगता था कि उन्हें आज्ञा देने का अधिकार था बल्कि मां को भी लगता था कि आज्ञापालन उसका कर्तव्य था। (था इसलिए लिखा कि यह समीकरण टूट रहा है, भले ही गति मंद हो, यह अपवाद नियम बनने को अग्रसर है।) धर्म में उहलोक का छलावा है, इसलिए इसे तोड़ने का मतलब है उहलोक के छलावे का पर्दाफाश करना।

 पुजारी, लोगों के उहलोक को ठीक करने की दक्षिणा से अपना इहलोक ठीक करता है। पुजारी जानबूझकर नहीं धोखा देता बल्कि आत्म-छलावे का शिकार होता है। उसे खुद अपनी बातों की सत्यता में पूर्णविश्वास है। मेरे बाबा (दादा जी) पंचाग के ज्ञाता और कट्टर अनुयायी थे। ग्रह-नक्षत्रों की गणना से मुहूर्त का निर्धारण वे न सिर्फ लोगों के लिए बताते थे (बिना दक्षिणा के), बल्कि उनका खुद उनमें पूर्ण विश्वास था। 1967 में हमारी जूनियर हाई स्कूल (आठवीं) की बोर्ड परीक्षा का केंद्र 20-25 किलोमीटर दूर पड़ा था और परीक्षा तिथि से पहली वाली रात 12 बजे प्रस्थान की शुभ मुहूर्त। 12 बजे रात हम दोनों ऊबड़-खाबड़ रास्ते से निकल पड़े। बाबा 6 फुट लंबे बलिष्ठ व्यक्ति थे, मैं 12 साल का दुबला-पतला, मरियल सा। कुछ दूर पैदल चलता था और कुछ दूर बाबा कंधे पर बैठा लेते थे। 7 बजे की परीक्षा के लिए हम 5 बजे पहुंच गए। परीक्षा परिणाम अच्छा आने से उन्हें अपनी गणनाओं पर विश्वास और दृढ़ हो गया होगा। जिस तरह शुभ मुहूर्त पर प्रस्थान शुभ की खुशफहमी देता है वैसे ही धर्म खुशी की खुशफहमी देता है। इसी लिए उपरोक्त ग्रंथ में मार्क्स ने लिखा है कि "लोगों की खुशी की खुशफहमी के रूप में धर्म के उन्मूलन का मतलब है उनके लिए वास्तविक खुशी की मांग करना है। लोगों से अपने हालात में खुशफहमी (भ्रम) छोड़ने को कहने का मतलब है उन हालात को छोड़ना जिनके चलते खुशफहमी की जरूरत पड़ती है। इसलिए धर्म की आलोचना भ्रूणावस्था में उस अश्रुसागर की आलोचना है, धर्म जिसका आभामंडल है"।

अपने पालन-पोषण और समाजीकरण के दौरान वे मनुष्य धर्म को जीवन के सहारे के रूप में आत्मसात कर लेते हैं जो आत्मबोध अभी तक प्राप्त नहीं कर सके हैं या खो चुके हैं, धर्म उनकी "आत्मचेतना और आत्मानुभूति" बन जाता है। "किंतु यह व्यक्ति दुनिया से दूर भ्रमण करने वाला कोई अमूर्त जीव नहीं है। यह व्यक्ति मनुष्यों की दुनिया – राज्य और समाज का व्यक्ति है। यह समाज और राज्य धर्म निर्मित करते हैं जो दुनिया की विलोमित चेतना है क्योंकि दुनिया ही उल्टी है। धर्म इस दुनिया का सामान्य सिद्धांत; इसका सर्वज्ञानसंपन्न संकलन; इसका लोकप्रिय तर्क; इसका आध्यात्मिक शिखर; इसकी उमंग; इसकी नैतिक संस्तुति; इसका एकमात्र अनुपूरक; और दिलाशा तथा औचित्य का इसका सार्वभौमिक आधार है"।

 लोग धर्म के अफीम होने का उद्धरण संदर्भ से काट कर देते हैं। उपरोक्त ग्रंथ में मार्क्स ने आगे लिखा है, "धार्मिक कष्ट वास्तविक कष्ट की अभिव्यक्ति भी है और उसके विरुद्ध प्रतिरोध भी। धर्म उत्पीड़ित की आह है; हृदयविहीन दुनिया का हृदय है;  और आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा है। धर्म लोगों की अफीम है"। मार्क्सवाद राज्य को नहीं समाप्त करना चाहता बल्कि उन कारण-कारकों (वर्गीय अंतविरोध) को खत्म करना चाहता है जिनके चलते राज्य की जरूरत पड़ी, राज्य अपने आप अनावश्यक होकर बिखर जाएगा। उसी तरह मार्क्सवाद, धर्म को नहीं उन परिस्थितियों को खत्म करना चाहता है, जिनके चलते धर्म का अस्तित्व है। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, वास्तविक खुशी मिलने से खुशफहमी की जरूरत खत्म हो जाएगी, धर्म अनावश्यक हो स्वतः समाप्त हो जाएगा।              
17.02.2018

Prof Ish Mishra




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