आज वेलेंटाइन डे है. आज के दिन फिर हिंदुत्ववादी संगठन वेलेंटाइनी युवक-युवतियों के खिलाफ यम की भूमिका में अवतरित होकर इस प्रेम-पर्व को विघ्नित करने का सबल प्रयास करेंगे. उधर वेलेंटाइनी युगल भी अपने विरोधियों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए नए- नए तरकीबों के साथ घरों से निकलेंगे, इसकी उम्मीद हम कर सकते हैं. बहरहाल जो हिन्दू अपने दैनंदिन जीवन में पश्चिम की सभ्यता-संस्कृति के समक्ष पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिए हैं,वे वेलेंटाइनी युगलों के विरुद्ध क्यों खौफनाक तेवर अपनाते हैं,आज चुनावी माहौल के मध्य विभिन्न चैनलों पर इसका भी समाजशास्त्रीय विश्लेषण देखने को मिलेगा.
काबिले गौर है कि हिन्दुत्ववादी भी अंग्रेजी तिथियों के अनुसार ही अपने आत्मीय-स्वजनों;हेडगेवार,गोलवरकर,डीडी उपाध्याय, वाजपेयी इत्यादि का जनम व मरण दिवस मनाते हैं. इन्होंने तो जिस तरह 25 दिसंबर को पंडित अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन मनाना शुरू किया है, उससे क्षमा के अवतार जीसस क्राइस्ट के जन्मोत्सव भी फीका लग्न शुरू हो गया है. गर्व से खुद को हिन्दू कहने वाले हिंदुत्ववादी भी आम हिन्दुओं की तरह काका-काकी नहीं,बल्कि अपने बच्चों को अंकल-आंटी,पापा-मम्मी कहना सिखलाते हैं और उन्हें अंग्रेजी स्कूलों में दाखिला कराकर गर्व महसूस करते हैं.यही नहीं ये भी अपने बच्चों को अमेरिका,इंग्लैण्ड में बसाने के लिए 33 करोड़ देवताओं से मन्नत मांगते रहते हैं. इतना ही नहीं देश में हिंदुत्व का सैलाब बहाने वाले अधिकांश नेता ही इसाई संतों के नामों पर बने स्कूल- कॉलेजों में पढ़कर खुद को प्रतिशित किये हैं, बावजूद इसके ईसाईयों के प्रेम-पर्व वैलेंटाइन दे के प्रति जहर उगलने में पहली पंक्ति में नजर आते हैं. कहने का आशय यह है कि आम हिन्दुओं की भांति ही राष्ट्रवादी हिन्दू भी स्वदेशी संस्कृति को तिलांजलि देकर वेस्टर्न कल्चर के अभ्यस्त हो चुके हैं,फिर क्यों वे वेलेंटाइन युवा-युवतियों और उनके लिए गिफ्ट बेचनेवालों के खिलाफ यम की भूमिका अख्तियार करते हैं, इसका जवाब वर्ण व्यवस्था के अर्थशास्त्र में निहित है.
सभी जानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक विदेशी आर्य अर्थात विश्व के प्रचीनतम साम्राज्यवादी रहे. आप यह भी जानते हैं कि सारी दुनिया के साम्राज्यवादियों का ही प्रधान लक्ष्य ही पराधीन बनाये गए मुल्क के संपदा- संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माना तथा वहां के मूलनिवासियों के श्रम का प्रायः निःशुल्क इस्तेमाल अपने वर्ग के हित में करना रहा है. भारत पर विजय हासिल करने वाले आर्य भी सारी दुनिया के साम्राज्यवादियों की कॉमन सोच के अपवाद नहीं रहे. उन्होंने भी संपदा-संसाधनों सहित शक्ति के समस्त स्रोतों( आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक और धार्मिक) पर चिरकाल के लिए अपनी भावी पीढ़ी का आधिपत्य कायम करने तथा मूलनिवासियों को निःशुल्क दास के रूप में इस्तेमाल करने के लिए एक व्यवस्था को जन्म दिया,जिसे हम वर्ण-व्यवस्था के रूप में जानते हैं.शक्ति के स्रोतों पर चिरस्थाई कब्जे की ऐसी निराली व्यवस्था मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में कोई भी अन्य साम्राज्यवादी कौम विकसित नहीं कर पायी.इस कारण ही आज उनकी मौजदा पीढ़ी का शक्ति सभी स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है.बहरहाल वर्ण-व्यवस्था नामक अपने अर्थ शास्त्र को चिरस्थाई करने एवं इसको हर आक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए आर्यो ने एकाधिक उपाय किया.
सबसे पहला उपाय उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को खुद के बजाय ईश्वरकृत प्रचारित करने का उद्योग लिया जिसके तहत भूरि-भूरि शास्त्रों का सृजन किया.इन शास्त्रों द्वारा आर्य मनीषा ने जगत मिथ्या,ब्रह्म सत्य का प्रचार चलाते हुए जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया: मोक्ष! .मोक्ष के लिए उन्होंने अनिवार्य किया कर्म–शुद्धता, साथ ही निषेध किया कर्म-संकरता. कर्म शुद्धता का मतलब यह था कि हिन्दू ईश्वर के विभिन्न अंगों से जन्मे चार किस्म के लोग(ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शुद्रातिशूद्र) शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट कर्म पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहें. विपरीत इसके कर्म-संकरता का पालन करने अर्थात दूसरे वर्ण का निर्दिष्ट पेशा अपनाने पर नरक में जाना अवधारित बताया. कर्म-शुद्धता का अनुपालन और कर्म-संकरता से विरत रखने के लिए उन्होंने 'राज्य की उत्पत्ति'का सिद्धांत विकसित किया. कर्म-शुद्धता के अनुपालन के नाम पर आर्य पुत्रों- ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों- का शक्ति के समस्त स्रोतों पर चिरकाल के लिए कब्ज़ा जमाये रखने का मार्ग प्रशस्त हुआ.विपरीत उसके आर्य मनीषियों ने अपने धर्मशास्त्रों द्वारा मूलनिवासी शुद्रातिशूद्रों को तीन उच्चतर वर्णों की सेवा का निष्काम कर्म करने तथा कर्म-संकरता से विरत रखते हुए शक्ति के स्रोतों से चिरस्थाई तौर पर बेदखल कर दिया. इसी रास्ते भारत में रचित हुआ सामाजिक अन्याय का बेनजीर इतिहास . यह तो अंग्रेज भारत में जन्मे फुले,शाहूजी,पेरियार और सर्वोपरि बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर इत्यादि जैसे महापुरुष थे, जिन्होंने सामाजिक अन्याय की खाई से मूलनिवासियों को निकालने के लिए जो अक्लांत संघर्ष चलाया उसके फलस्वरूप वर्ण व्यवस्था के जन्मजात वंचितों को आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों में कुछ-कुछ हिस्सेदारी मिलनी शुरू हुई. और जब 7 अगस्त,1990 को मंडल आयोग की संस्तुतियों के जरिये यही आरक्षण पिछड़ों के लिए घोषित हुआ , यूरेशिया से आये लोगों ने उसको रोकने के लिए रामजन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया, जिसमे खुद मूलनिवासी समुदाय के ढेरों लोग भी हिन्दू धर्म का अर्थशास्त्र न समझन पाने के कारण उनके साथ हो लिए.भारी आश्चर्य का विषय है कि मंदिर आन्दोलन में शामिल होकर अपने मूलनिवासी भाइयों का सर्वनाश करवाने के बावजूद वे आज भी धर्म के नशे में मतवाला होकर विदेशी मूल के लोगों का साथ दिए जा रहे है.
बहरहाल आर्य मनीषी शक्ति के स्रोतों को कब्जाने के लिए कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता और कर्म-संकरता के निषेध का ही सिद्धांत रचकर संतुष्ट नहीं हुए. उन्हें डर था कि दैविक-गुलाम मूलनिवासी हमेशा के लिए वीभत्स-संतोषबोध के शिकार नहीं रहेंगे. वे भी भारत भूमि की मुक्ति तथा शक्ति के स्रोतों में अपना वाजिब हिस्सा लेने के लिए संगठित प्रयास कर सकते हैं.उनके भावी संगठित प्रयास के निर्मूलन के लिए ही वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों ने भारत समाज को विच्छिन्नता, द्वेष और परस्पर-शत्रुता की बुनियाद पर विकसित करने की परिकल्पना की. इसके लिए उन्होंने कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता तथा कर्म-संकरता के निषेध के साथ ही वर्ण-शुद्धता की अनिवार्यता तथा वर्ण-संकरता के निषेध का सूत्र भी रचा.चूँकि वर्णान्तर विवाह के फलस्वरूप विभिन्न जातियों में भ्रातृत्व विकसित हो सकता था इसलिए सजाति-विवाह के कठोरता पूर्वक अनुपालन करने का उपाय रचा. सजाति विवाह के फलस्वरूप न सिर्फ हिन्दुओं की नस्ल दूषित हुई बल्कि यह समाज चूहे की एक-एक बिल के समान असंख्य भागों में बंटने के लिए अभिशप्त हुआ.
विजातीय विवाह की सम्भावना को ही निर्मूल करने के लिए ही आर्यों ने सती-विधवा और बालिका विवाह-प्रथा को जन्म दिया. दूसरे शब्दों में आर्यों ने हिंदुत्व के अर्थशास्त्र को अटूट रखने के लिए ही सती जैसी अमानवीय प्रथा के तहत भारत के समग्र इतिहास में सवा करोड़ नारियों को भून कर मार डाला तो विधवा प्रथा के तहत कोटि-कोटि नारियों की यौन कामना को बर्फ की सिल्ली में तब्दील कर दिया.शक्ति के स्रोतों पर अपना कब्ज़ा अटूट रखने के लिए उन्होंने अरबों बच्चियों को बाल्यावस्था से सीधे युवावस्था में उछाल दिया.शक्ति के स्रोतों पर कब्ज़ा जमाये रखने के लिया आर्यों ने अन्य कई उपायों के साथ सजाति-विवाह की जो व्यवस्था दी उसे तोड़ने में वेलेंटाइन पर्व सक्षम है. क्योंकि इसमें अंतरजातीय-विवाह के बीज हैं.अतः जो आर्य शक्ति के स्रोतों पर अपना कब्ज़ा बनाये रखने के लिए सदियों से सती-विधवा और बालिका विवाह-प्रथा के तहत अपनी ही मां- बहन- बेटियों के साथ घोरतर अमानवीय व्यवहार का दृष्टांत स्थापित किये , उनकी वर्तमान पीढ़ी वेलेंटाइन डे जैसे प्रेमोत्सव को सहजता से कैसे संपन्न होने देगी, जिसमें अंतरजातीय विवाह के बीजारोपड़ का थोडा नहीं, बहुत ज्यादा तत्व है! चूंकि वेलेंटाइन के विरोध के पीछे विदेशीमूल के आर्य पुत्रों का चरम लक्ष्य शक्ति के स्रोतों पर अपना प्रभुत्व अटूट रखने के लिए समाज को विच्छिन्न रखना है, इसलिए जो मूलनिवासी लेखक-एक्टिविस्ट बहुजनों के खोये अधिकार को पाने के लिए परस्पर शत्रुता से लबरेज अपने भाइयों को भ्रातृत्व के बंधन में बाँध कर आर्यों के खिलाफ संगठित संग्राम चलाना चाहते हैं, उन्हें इस प्रेमोत्सव को बढ़ावा देने में कोई कमी नहीं रखना चाहिए.
No comments:
Post a Comment