जलसेना विद्रोह (मुम्बई)
भारत की आजदी के ठीक पहले मुम्बई में रायल इण्डियन नेवी के सैनिकों द्वारा पहले एक पूर्ण हड़ताल की गयी और उसके बाद खुला विद्रोह भी हुआ। इसे ही जलसेना विद्रोह या मुम्बई विद्रोह (बॉम्बे म्युटिनी) के नाम से जाना जाता है। यह विद्रोह १८ फ़रवरी सन् १९४६ को हुआ जो कि जलयान में और समुद्र से बाहर स्थित जलसेना के ठिकानों पर भी हुआ। यद्यपि यह मुम्बई में आरम्भ हुआ किन्तु कराची से लेकर कोलकाता तक इसे पूरे ब्रिटिश भारत में इसे भरपूर समर्थन मिला। कुल मिलाकर ७८ जलयानों, २० स्थलीय ठिकानों एवं २०,००० नाविकों ने इसमें भाग लिया। किन्तु दुर्भाग्य से इस विद्रोह को भारतीय इतिहास मे समुचित महत्व नहीं मिल पाया है।
परिचय
विद्रोह की स्वत:स्फूर्त शुरुआत नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत 'आई.एन.एस. तलवार' से हुई। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फ़रवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। हड़ताल अगले ही दिन कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बन्दरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी। 19 फ़रवरी को एक हड़ताल कमेटी का चुनाव किया गया। नाविकों की माँगों में बेहतर खाने और गोरे और भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की माँग भी शामिल हो गयी। विद्रोही बेड़े के मस्तूलों पर कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झण्डे एक साथ फहरा दिये गये। 20 फ़रवरी को विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियाँ बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाइयों के तालमेल के लिए पाँच सदस्यीय कार्यकारिणी चुनी। लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें अभी बनी हुई थी, जो काफी नुकसानदेह साबित हुई। 20 फ़रवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहाँ सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें किसी भी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद चार बजे युध्द विराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे ऑफ इण्डिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य मदद लेकर उमड़ पड़ी।
विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कलकत्ता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फ़रवरी हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्युनिस्ट पार्टी के आह्नान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब तीन सौ लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह, कराची में भारी लड़ाई के बाद ही 'हिन्दुस्तान' जहाज से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालात संगीन थे, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुध्द हड़ताल पर थे तथा कलकत्ता और दूसरे कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। कैण्टोनमेण्ट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असन्तोष खदबदाने और विद्रोह की सम्भावना की ख़ुफिया रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।
मुस्लिम लीग और कांग्रेस का रवैया
ऐसे नाजुक समय में उनके तारणहार की भूमिका में कांग्रेस और लीग के नेता आगे आये, क्योंकि सेना के सशस्त्र विद्रोह, मजदूरों द्वारा उसके समर्थन तथा कम्युनिस्टों की सक्रिय भूमिका से राष्ट्रीय आन्दोलन का बुर्जुआ नेतृत्व स्वयं आतंकित हो गया था। जिन्ना की सहायता से पटेल ने काफी कोशिशों के बाद 23 फ़रवरी को नौसैनिकों को समर्पण के लिए तैयार कर लिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि कांग्रेस और लीग उन्हें अन्याय व प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और नौसैनिकों के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात किया। मार्च '46 में आन्ध्र के एक कांग्रेसी नेता को लिखे पत्र में सेना के अनुशासन पर बल देने का कारण पटेल ने यह बताया था कि 'स्वतन्त्र भारत में भी हमें सेना की आवश्यकता होगी।' उल्लेखनीय है कि 22 फ़रवरी को कम्युनिस्ट पार्टी ने जब हड़ताल का आह्नान किया था तो कांग्रेसी समाजवादी अच्युत पटवर्धन और अरुणा आसफ अली ने तो उसका समर्थन किया था, लेकिन कांग्रेस के अन्य नेताओं ने विद्रोह की भावना को दबाने वाले वक्तव्य दिए थे। कांग्रेस और लीग के प्रान्तीय नेता एस.के. पाटिल और चुन्दरीगर ने तो कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए स्वयंसेवकों को लगाने तक का प्रस्ताव दिया था। नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया कि 'हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।' गाँधी ने 22 फ़रवरी को कहा कि 'हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एकसाथ आना एक अपवित्र बात है।' नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा कि यदि उन्हें कोई शिकायत है तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। अरुणा आसफ अली ने इसका दोटूक जवाब देते हुए कहा कि नौसैनिकों से नौकरी छोड़ने की बात कहना उन कांग्रेसियों के मुँह से शोभा नहीं देता जो ख़ुद विधायिकाओं में जा रहे हैं।
नौसेना विद्रोह ने कांग्रेस और लीग के वर्ग चरित्र को एकदम उजागर कर दिया। नौसेना विद्रोह और उसके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की भर्त्सना करने में लीग और कांग्रेस के नेता बढ़-चढ़कर लगे रहे, लेकिन सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की। जनता के विद्रोह की स्थिति में वे साम्राज्यवाद के साथ खड़े होने को तैयार थे और स्वातन्त्रयोत्तर भारत में साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए वे तैयार थे। जनान्दोलनों की जरूरत उन्हें बस साम्राज्यवाद पर दबाव बनाने के लिए और समझौते की टेबल पर बेहतर शर्तें हासिल करने के लिए थी।
विद्रोह का प्रभाव
1967 में भारतीय स्वतंत्रता की 20 वीं वर्षगांठ पर एक संगोष्ठी चर्चा के दौरान; यह उस समय के ब्रिटिश उच्चायुक्त जॉन फ्रीमैन ने कहा कि 1946 के विद्रोह ने 1857 के भारतीय विद्रोह की तर्ज पर दूसरे बड़े पैमाने के विद्रोह की आशंका को बढ़ा दिया था। ब्रिटिश को डर था कि अगर 2.5 मिलियन भारतीय सैनिक जिन्होंने विश्व युद्ध में भाग लिया था, विद्रोह करते हैं तो ब्रिटिश में से कोई नहीं बचेगा और उन्हें अंतिम व्यक्ति कतक मार दिया जाएगा"।[1][2]
विकिपीडिया से
1857 का 'गदर' याद है, 'असहयोग', 'पूर्ण स्वराज', सरदार भगत सिंह और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के संघर्ष व आंदोलन भी। खुद मुंबई की भूमि से शुरू लोकमान्य तिलक का 'स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' और महात्मा गांधी के 'रौलेट ऐक्ट' व 'भारत छोड़ो' आंदोलन भी भूले नहीं। पर, 1946 के 'नौसेना विद्रोह' या 'बम्बई विद्रोह' का नाम सुना है! तीन सौ नाविकों व नागरिकों की आहुति लेने वाला भारतव्यापी वह विद्रोह-जिसने अंग्रेजों की ब्रिटेन वापसी की राह प्रशस्त की। ऐसे में 'बम्बई विद्रोह' की याद दिलाई है शहर में चल रहे एक आर्ट प्रॉजेक्ट ने। विमल मिश्र का 'संडे स्पेशल'।
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जहाज के पेंदे की शक्ल में स्टील व अल्यूमीनियम का विशाल ढांचा, भीतर घुप्प अंधेरे में कौंधती रोशनी की लकीरें और फिल्म, फोटो, टेलिग्राम, ब्रिटिश अफसरों के लिखे पत्रों, इंटरव्यू, ध्वनि अभिलेखों व वॉइस परफॉर्मेंस का मिला-जुला नजारा। छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय के कुमारस्वामी हॉल के बीच बेंचों पर बैठे आप दरअसल, आर्टिस्ट विवान सुंदरम और सांस्कृतिक विश्लेषक आशीष राजाध्यक्ष के आर्ट प्रॉजेक्ट Meanings Of Failed Action: Insurrection 1946 को देखते-सुनते नहीं, जीते हैं। इनमें बंद हैं ब्रिटिश साम्राज्य को हिला देने वाले छह दिनों- 18 से 23 फरवरी के लोमहर्षक क्षण। पर्यवेक्षकों के इस दावे कि स्वतंत्रता आंदोलन की किसी भी घटना से ज्यादा अंग्रेजों के भारत से पैर उखाड़ देने वाले यही हंगामी दिन थे- को इतिहास ने तवज्जो नहीं दी। तीन सौ नाविकों और आम लोगों की आहुति लेने वाली स्वतंत्रता संग्राम की इस घटना को-जिसे 'बम्बई विद्रोह' (Mumbai Mutiny) या 'नौसेना विद्रोह' के नाम से जाना गया-आम तौर पर भुला दिया गया। यहां तक कि जिस मुंबई से यह भारतव्यापी विप्लव फैला उसने भी अपने बलिदानियों की स्मृतियों को संजोने की फिक्र नहीं की।
लोहा और खून
यह सब यकायक नहीं हुआ। दूसरे विश्व युद्ध में विजय के बावजूद ब्रिटेन आर्थिक रूप से खस्ताहाल था। फासीवाद की पराजय से मजदूरों, किसानों तथा नौजवानों का हौसला बुलंद था और आजादी की धमक सुनाई देने लगी थी। गांधी, सुभाष व भगतसिंह की विरासत को साझा समझने वाले रॉयल इंडियन नेवी के नाविक और नौसैनिक जो गोरे अफसरों के नस्ली अपमान और भेदभाव (एंग्लो इंडियंस और गैर एंग्लो इंडियंस में भी भेदभाव किया जाता था। भारतीय नाविकों को 16 रुपये प्रति माह मिलता था, जबकि एंग्लो इंडियन को 60 रुपये) से पहले ही आहत थे, यह जानकर उद्वेलित हो गए कि आजाद हिंद फौज के बंदी बनाए गए सैनिकों को लाल किले में मुकदमा चलाकर फांसी देने की साजिश की जा रही है। विद्रोह की शुरुआत 17 फरवरी, 1946 को नौसैनिकों को सिग्नल ट्रेनिंग देने वाले जहाज 'तलवार' पर हुई। एक दिन 127 नाविकों ने खराब नाश्ता देखकर खाने से मना कर दिया। शिकायत करने जब वे अंग्रेज कमांडर के पास गए तो उसने उन्हें सरेआम अपमानित किया, 'भिखमंगों, तुम्हें पसंदगी का क्या हक! खाना तो मिल रहा है न! कुत्ते के बच्चों, जाओ, नहीं तो कूड़ेदान में फिकवा दूंगा।'
इस बदसलूकी ने नाविकों को हत्थे से उखाड़ दिया। 'तलवार' की दीवारों पर 'जय हिंद' और 'भारत छोड़ो' के नारे पहले से लिखे थे, अगले दिन उन्होंने हड़ताल भी शुरू कर दी। परेड ग्राउंड में बुलाने पर उन्होंने 'अंग्रेज सैनिकों से भेदभाव नहीं सहेंगे', 'आजाद हिंद फौज के वीरों को रिहा करो', 'इंकलाब जिंदाबाद!', 'ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो', 'नाविक एकता जिंदाबाद!' और 'हिंदू और मुसलमान एक हों' के नारे लगाने शुरू कर दिए। विद्रोह की आग बहुत तेजी से फैली। कैसल और फोर्ट बैरकों के साथ रॉयल नेवी के 'हिंदुस्तान', 'कावेरी, 'सतलज, 'नर्मदा', 'यमुना', 'असम', 'बंगाल, 'पंजाब', 'ट्रावनकोर', 'काठियावाड़' व 'राजपूत' सरीखे छोटे-बड़े सभी 22 लड़ाकू और 'डलहौजी, 'कलावती', 'दीपावली', 'नीलम' व 'हीरा' सरीखे नौसैनिक प्रशिक्षण जहाजों के मस्तूलों पर ब्रिटेन के झंडे उतार दिए गए। उनकी जगह तिरंगे, चांद और हंसिये-हथौड़े वाले झंडे लहराने लगे। अब आया प्रशिक्षण केंद्रों और सैनिक आवासों का नंबर। नौसैनिकों ने अपनी मांगों में बेहतर भोजन और गोरे व भारतीय नाविकों के बीच वेतन के मामले में भेदभाव खत्म करने के साथ आजाद हिंद फौज के सिपाहियों सहित सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई तथा इंडोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाए जाने की मांगें भी शामिल कर लीं। विद्रोह इतना आकस्मिक था कि गोरे शासकों के हाथ-पैर फूल गए और विद्रोह को कुचलने के लिए उन्होंने सैन्य दल मुंबई बुला लिए।
अबतक कराची में तैनात 'दिलावर, 'चमक', 'मौज', 'हिमालय', 'बहादुर', आदि पांच जहाजों के नौसैनिकों ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। कराची के बाजारों में हड़ताल के समर्थन में निकले नाविकों के जुलूस को जनता का भारी समर्थन मिला। फिर विशाखापट्टनम, मद्रास, कोचिन, कलकत्ता, आदि जगहों का नंबर आया। 'बड़ौदा' नामक जहाज जो कोलंबो गया हुआ था उसके नौसैनिक भी विद्रोह में शामिल हो गए। नौसैनिकों के समर्थन में वायु सेना के पायलटों व हवाई अड्डों के कर्मचारियों और दिल्ली, ठाणे व पुणे स्थित कोस्ट गार्ड ने हड़ताल कर दी। जबलपुर में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। कैंटोनमेंट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असंतोष खदबदाने और विद्रोह की आशंका की गुप्तचर रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया। हड़तालियों ने नौसेना के सिग्नलों को खामोश कर दिया, यूनियन जैक को उतार फेंका और कम्युनिस्ट पार्टी, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के झंडे फहरा दिए। 22 फरवरी तक विद्रोह ने तटवर्ती अड्डों और बंदरगाहों सहित, 78 जहाजों, 4 बेड़ों, 20 तटवर्ती अड्डों और उनके 20,000 सैनिकों को गिरफ्त में ले लिया था। 'रॉयल इंडियन नेवी' अब 'इंडियन नेवी' थी-सभी भारतीय नौसैनिकों के एकनिष्ठ समर्थन के साथ।
20 फरवरी को जैसे ही नाविक वापस आने के आदेश का पालन करते हुए जहाजों पर लौटे, अंग्रेज सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में घेरा तोड़ने की कोशिश करने की स्वाभाविक परिणति थी लड़ाई। जहाजों में गोला-बारूद की कमी नहीं थी। खूब खून बहा। दोपहर बाद चार बजे युद्ध-विराम घोषित हुआ। हालात काबू से बाहर देख एडमिरल गाडफ्रे अब हवाई बमबारी की धमकी देने लगा। यही वह समय था जब गोदी मजदूरों, दुकानदारों और दूसरे नागरिकों की भीड़ गेटवे ऑफ इंडिया पर नौसैनिकों के लिए भोजन, आदि लेकर उमड़ पड़ी।
22 फरवरी, 1946 को मुंबई के सबसे रक्तरंजित दिनों में गिना जाता है। इस दिन नौसैनिकों के समर्थन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आम हड़ताल का आह्वान किया। दक्षिण मुंबई की सड़कों पर अजब समां था। बैरकों से 'तलवार' जहाज की ओर तांता बंधा था और रास्तों में लोग अपने-अपने काम छोड़कर उसमें शामिल होते जा रहे थे। अनुमानत: इस दिन तीन लाख मजदूर काम पर नहीं गए और विद्यार्थियों और दूसरे नागरिकों से मिलकर सड़कों पर बैरिकेड खड़े करके पुलिस और सेना से लोहा लेते रहे। बावर्ची, सफाई कर्मचारी और नेवी बैंड के लोग भी हथियार लूटकर लड़ रहे थे। मुंबई के केंटल ब्रांच और मराठा लाइट इंफेंट्री के विद्रोही नाविकों के बीच फायरिंग कई घंटे चलती रही। जहाजों के साथ गेटवे ऑफ इंडिया और ताजमहल होटल के निकट स्थित रॉयल नेवी की कोस्टल ब्रांच में तैनात नाविकों ने अंग्रेज अफसरों को उनके कमरों और बाथरूम में बंद कर दिया। अंग्रेज इस बात को लेकर खास डरे हुए थे कि लूटे हुए हथियारों और बारूद से कहीं विद्रोह कर रहे नाविक ताजमहल होटल पर ही हमला न कर बैठें।
विद्रोह को सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बहुत बर्बरता से कुचला। दो दिन बाद जब ये हिंसक झड़पें थमीं, तो हताहतों का आंकड़ा देखकर लोग कांप गए। सरकारी अनुमान के मुताबिक ही इन संघर्षों में करीब तीन सौ लोग मारे गए और 1700 घायल हुए। असल संख्या दरअसल, इससे कहीं ज्यादा आंकी गई है। इसी दिन सुबह 'हिन्दुस्तान' जहाज से आत्मसमर्पण कराने के लिए कराची में भी भारी लड़ाई हुई। विद्रोह की समाप्ति 23 फरवरी को समर्पण करने के रूप में हुई।
नौसेना विद्रोह उस जज्बे के लिए भी जाना जाएगा जो मुंबई को खास बनाता है। उस समय के वृत्तांत ऐसी घटनाओं से भरे हुए हैं। मसलन, जब मराठा गार्ड्स तैनात करके अंग्रेजों ने उन्हें विद्रोहियों पर गोली चलाने का आदेश दिया तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। अंग्रेज अफसर ने इसपर धमकाया तो एक हवलदार ने उसे तुर्री-ब-तुर्री जवाब दिया, 'फूट डालो और राज करो' के तुम्हारे दिन लद गए। अब हम अपने भाइयों के खून से अपने हाथ नहीं रंगेंगे।'
क्यों विफल हुआ नौसेना विद्रोह?
आज तक पूछा जा रहा है कि नौसेना विद्रोह क्यों विफल हुआ- नेतृत्वहीनता? शायद नहीं। हड़ताल को संगठित रूप से चलाने के लिए एम.एस. खान की अध्यक्षता में गठित 'नौसेना केंद्रीय हड़ताल समिति' को पूर्ण समर्थन हासिल था। दरअसल, विफलता की सबसे बड़ी वजह थी हड़ताल को शांतिपूर्ण रखने और पूर्ण विद्रोह करने के बीच दुविधा। कांग्रेस, मुस्लिम लीग और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित राष्ट्रीय दलों और नेताओं का विरोधाभासी रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं था। कहा जाता है कि मोहम्मद अली जिन्ना और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नौसैनिकों को समर्पण के लिए तैयार करने के बाद अपने इस वादे पर ध्यान नहीं दिया कि वे नाविकों को अन्याय व प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए पटेल ने यहां तक कहा कि 'आजाद हिंदुस्तान में भी हमें सेना की आवश्यकता होगी।' वहीं जवाहरलाल नेहरू ने इस विद्रोह का यह कहकर विरोध किया कि 'हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।' महात्मा गांधी को तो यहां तक कहा बताते हैं कि 'यदि उन्हें शिकायत है नौकरी क्यों नहीं छोड़ देते!' बहरहाल, ये आरोप ही हैं जिनका सभी संबद्ध दल खंडन करते हैं।
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उन्हें मिला कोर्ट मार्शल
'भारतीय नौसेना ने हमारे योगदान को याद करने में 50 साल लगा दिए', बताते हुए लेफ्टिनेंट कमांडर बीबी मुथप्पा गमगीन हो जाते हैं', 'आजाद भारत के इतिहास में हमारा कोई स्थान नहीं है।' मुथप्पा अपने नाविक साथियों के साथ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने वालों में शामिल थे। भारतीय नौसेना से 1972 में सेवानिवृत्त होने के बाद वे पुरानी यादों और नौसेना द्वारा भेंट किए छोटे से स्मृतिचिह्न के सहारे ही जीते हैं। इस मलाल के साथ कि देशवासियों ने आजाद हिंद फौज की तरह उनके बलिदान को भी भुला दिया। वे खुद को इस मामले में खुशनसीब मानते हैं कि कम से कम उन्हें वापस नौसेना में स्थान तो मिला। 476 विद्रोही नौसैनिकों को कोर्ट मार्शल का सामना करना पड़ा और वे स्वतंत्र भारत की नौसेना का हिस्सा नहीं बन पाए। विख्यात इतिहासकार सुमित सरकार बताते हैं, 'आजाद हिंद फौज के सैनिकों को तो देर-सबेर राष्ट्रीय नायकों जैसा सम्मान मिला, पर रॉयल नेवी के इन नाविकों की ख्वाहिश, ख्वाहिश ही रह गई। कोलाबा में विद्रोही नौसैनिक की प्रतिमा को छोड़ दें तो आज इन घटनाओं की याद भी नहीं बची।
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