यदि हम जाति प्रथा पर गौर करें तो पाएंगे कि यह प्राचीन काल से ही रही है। "निचली जाति" के लोगो ने कुछ समय तक इसको सहन किया। बाद में जाति के खात्मे को लेकर और समूची "जातियों के उन्मूलन" के लक्ष्य के तहत आंदोलन संगठित किये। परंतु अब अस्मिता संबंधित विचित्र विचार पनप रहे हैं जिसके अनुसार निचली जातियों के लोग अपनी जाति पर गर्व करते हैं। ये विचार इसकी मांग नही करते कि "अस्मिताएं होनी ही नही चाहिए; बल्कि इसकी मांग यह है कि "ये अस्मिताएं वैसी बनी रहनी चाहिए जैसी वे हैं! मसलन "मदिगा" जाति के लोग अपनी जाति के नाम को अपने नाम मे जोड़कर मानो यह घोषणा करते हैं कि "मैं मदिगा हूँ"।अन्य निचली जातियों के लोग भी ऐसा ही कर रहे हैं। महिलाएं एक ओर तो पुरूष वर्चस्ववाद की बात करती है वहीं दूसरी ओर अपने नामों में पिताओं और पतियों के नाम जोड़ती है। अतः कोई भी अपनी अस्मिता छोड़ने का इच्छुक नही हैं। अपनी अस्मिताएं बचाकर रखने से वे कुछ अधिकारों को पाना चाहती है। सभी लोगो के अधिकार समान होने चाहिए। उन्हें अपने अधिकारों की मांग करनी चाहिए। परंतु असमानता की परिस्थितियों के आधार पर अधिकार प्राप्त करने में एक बड़ा अंतर्विरोध है। उनका मत है कि अधिकार प्राप्त करने के लिए असमानता का होना जरूरी है। वे इस संभावना के बारे में सोच ही नही पातें हैं कि "समानता और अधिकार" साथ-साथ मिल सकते हैं।वर्तमान दौर के सभी अस्मिता आधारित आंदोलनों के लक्ष्य अपनी अस्मिता बचाये रखना है। इसके लिए अच्छी खासी शब्दावलियाँ उभर कर आई हैं जैसे " अस्मिता", "अस्मिता के प्रति सचेत", "अस्मिता आंदोलन", "अस्मिता की राजनीति"। इस प्रकार के शब्दाडम्बर के द्वारा अस्मिता की राजनीति के पैरोकार इस भ्रम के दलदल में गोते लगा रहे हैं कि वे किसी आंदोलन को संगठित कर रहे हैं।
निम्न जातियों के लोग इस दिशा में नही सोच रहे हैं कि " निम्न जाति" क्या है? आखिर कब इस निम्न स्थान का विलोप होगा? इसका समाधान क्या है? कब वो दिन आएगा जब सभी इंसान बराबर होंगे? वे महज यह मांग कर रहे हैं कि "यह हमारी अस्मिता है, हमारी अस्मिता को पहचानों और हमें हमारा अधिकार सौंपो"। उनका सोचना यह है कि उनका दायित्व उनकी अस्मिता को बचाये रखना और इसके जरिये कुछ अधिकार प्राप्त करना ही है।
-रंगनायकम्मा
जाति और वर्ग: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण
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