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Monday, 30 January 2023

Mephisto फ़िल्म

'असगर वजाहत' की लिखी फ़िल्म और फ़िल्म के समर्थन में उनका वक्तव्य देखकर एक फ़िल्म याद आ गयी...
Mephisto: एक कलाकार जिसने अपनी आत्मा फासीवादियों को बेच दी….
'हेन्डरिक' एक स्टेज कलाकार है। वह आम तौर से वाम की ओर झुका हुआ हैै। और उसी तरह के नाटक करता है। उसके ग्रुप में ज्यादातर कलाकार वाम की ओर झुके हुए हैं। यह वह समय है जब जर्मनी में नाजीवाद तेजी से अपने पैर पसार रहा है। फिर एक दिन अचानक से खबर आती है कि हिटलर ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है।
परिस्थिति पूरी तरह बदल जाती है। हेन्डरिक के बहुत से दोस्त 'प्रतिरोध दस्तों' में शामिल हो जाते है और बहुत से देश छोड़ के चले जाते हैं। हेन्डरिक की पत्नी भी देश छोड़ कर फ्रान्स चली जाती है। जाने से पहले वह हेन्डरिक को भी देश छोड़ने के लिए मनाती है। लेकिन वह नहीं मानता और तर्क देता है कि ये नाजी लोकतान्त्रिक तरीके से ही तो सत्ता में आये है, और मेरा काम थियेटर करना है और मुझे कुछ नहीं पता। जब उसके दोस्त उसे प्रतिरोध दस्ते में शामिल होने के लिए कहते हैं तो वह कहता है कि मुझे रिजर्व में रख लो। अभी तत्काल मैं शामिल नहीं हो सकता। 
यहीं से उसका व्यक्तित्व बदलने लगता है। और वह अपने आपको नयी परिस्थिति में ढालने में लग जाता है और उसके अनुसार ही तर्क भी गढ़ने लगता है।
आगे बढ़ने से पहले यह जान लेते हैं कि फिल्म का नाम 'मेफिस्टो' का मतलब क्या है। जर्मन लोक कथा में 'फास्ट' और 'मेफिस्टो' को लेकर अनेक कहानियां हैं। फास्ट एक कलाकार-बुद्धिजीवी है। मेफिस्टों एक 'दानव' है। मेफिस्टों हमेशा लोगो की आत्मा का सौदा करने के लिए घूमता रहता है। जो उसे अपनी आत्मा बेच देता है उसे वह खूब सारा धन व शोहरत देता है। एक दिन फास्ट भी मेफिस्टो को अपनी आत्मा बेच देता है और इस ऐवज में उसे बहुत सा धन व शोहरत मिलती है।
इसी दौरान एक बार स्टेज पर 'मेफिस्टो' का रोल करते हुए वीआइपी दर्शक दीर्घा में बैठा हुआ नाजी जनरल हेन्डरिक के अभिनय से प्रभावित हो जाता है और उसे अपने पास बुलाता है। दोनो के मिलन को दर्शक सांस बांधे देख रहे हैं। यह पूरी फिल्म का बहुत ही पावरफुल दृश्य है और बेहद प्रतीकात्मक है। मानो यहीं पर फास्ट यानी हेन्डरिक अपनी आत्मा का सौदा मेफिस्टो यानी नाजी जनरल के साथ करता है। और उसके बाद शुरु होती है आत्मा विहीन खोखले हेन्डरिक की शोहरत की यात्रा और जल्द ही उसे संस्कृति का पूरा जिम्मा दे दिया जाता है।
इसी समय सांस्कृतिक मंत्रालय की तरफ से उसे फ्रांस जाना होता है वहां वह अपनी पूर्व पत्नी से मिलता है। वह आश्चर्य करती है कि वह ऐसे माहौल में बर्लिन में कैसे रह पा रहा है। वह कहता है कि मैं थियेटर में रहता हूं। तो उसकी पूर्व पत्नी बोलती है कि आखिर थियेटर बर्लिन में ही तो है। यह बहस इस सर्वकालिक बहस की ओर संकेत करती है कि कला निरपेक्ष होती है या समाज सापेक्ष। इससे पहले भी जब उसकी पत्नी उससे स्टैण्ड लेने को कहती है तो वह बोलता है कि मेरा स्टैण्ड शेक्सपियर है (उस समय वह शेक्सपियर का नाटक 'हैमलेट' करने जाने वाला था)। उसकी पत्नी गुस्से से बोलती है कि तुम शेक्सपियर के पीछे छिप नहीं सकते। नाजी लोग अपनी गन्दगी पर पर्दा डालने के लिए शेक्सपियर जैसा क्लासिक नाटक करते हैं। तुम्हे इसे समझना चाहिए।

आज भारत की परिस्थिति में भी हम इसे देख सकते हैं। जब नाटककार या कलाकार आज के तीखे सवालों से आंख चुराते हुए अपनी कायरता पर पर्दा डालने के लिए पुराने 'क्लासिक' नाटक के पीछे अपने को छुपा लेते हैं।
फ्रांस में जब हेन्डरिक की अपनी पूर्व पत्नी से बहस हो रही होती है तो वही पास में बैठा उसका एक पुराना दोस्त इसे सुन रहा होता है। कुछ समय बाद वह आता है और हेन्डरिक को एक थप्पड़ जड़ देता है। यह दृश्य बहुत ही पावरफुल है। हेन्डरिक इस थप्पड़ का जरा भी विरोध नहीं करता। 'क्लोज अप' में चेहरे का भाव यह बताता है कि उसे पता है कि वह इसी लायक है।

जब उसकी दूसरी काली पार्टनर (जिसके साथ वह कभी पब्लिक में नहीं होता क्योकि उस दौरान जर्मनी में प्रचलित नस्लीय शुद्धता के सिद्वान्त से यह मेल नहीं खाता, इसलिए वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अपनी काली पार्टनर को देश से निकल जाने के लिए बाध्य करता है और उस पर यह अहसान भी जताता है कि उसने उसे सम्भावित नाजी हमले से बचा लिया) अकेले में उसे उसके समझौते या कहे कि उसकी मक्कारी के लिए धिक्कारती है तो वह कोई प्रतिरोध नहीं करता बल्कि तुरन्त आइने में देखता है कि क्या वह सचमुच कमीना है।
नाजी जनरल की चापलूसी करते हुए वह यहां तक चला जाता है कि एक प्रोग्राम में वह कहता है-''बिना संरक्षण के कला टूटे पंखों वाली चिड़िया की तरह होती है।''
दरअसल जब जब कैमरा हेन्डरिक का क्लोज अप लेता है तो उसके व्यक्तित्व का खोखलापन बहुत पावरफुल तरीके से सामने आ जाता है। और यही लगता है कि जब वो आरम्भ में वाम की ओर झुका था तब भी उसे वाम से कुछ लेना देना नहीं था बस उस समय वाम ही उसके आगे बढ़ने के लिए एक सीढ़ी की तरह था जैसे इस समय नाजी हंै।
फिल्म में एक और दृश्य बहुत ही प्रतीकात्मक और शक्तिशाली है। एक बार जब वह अपने आफिस आता है तो देखता है कि किसी ने आफिस के अन्दर नाजी-विरोधी पर्चे फेंके हुए है। वह जल्दी से जल्दी दूसरे लोगों के आने से पहले सभी पर्चे इकट्ठा करता है, बाथरुम में जाकर उन्हें जलाता है और फिर करीने से राख को इकट्ठा करके उसे अपनी जेब में रख लेता है। दरअसल ऐसे कलाकारो का यही मुख्य काम होता है- प्रतिरोध की आंच से व्यवस्था को बचाना। भारत में भी ऐसे कितने कलाकार हैं जो इस काम में जी जान से लगे हुए हैं।
फिल्म का अन्त बहुत शक्तिशाली है। नाजी जनरल हेन्डरिक को विशाल नवनिर्मित नाटक हाल में ले जाता है और कहता है कि यहां तुम्हारे प्रदर्शन पर तुम्हें बहुत शोहरत मिलेगी। उसे जबर्दस्ती हाल के बीच में जाने को कहा जाता है और उस पर चारों तरफ से लाइट डाली जाती है। इस तेज लाइट से बचने के लिए वह अपना चेहरा छुपाने का असफल प्रयास करता है और अपने से कहता है कि ये लोग मुझसे चाहते क्या हैं, आखिर मैं एक कलाकार ही तो हूं। यहीं पर 'फ्रीज फ्रेम' के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है।

इस पूरी फिल्म को यदि हम आज के अपने देश के हालात में और उसमें कलाकारों की भूमिका के सन्दर्भ में अनुदित करें तो हमें गजब का साम्य नजर आयेगा। आपको भारत के फास्ट (हेन्डरिक जैसे कलाकार) और मेफिस्टो (फासीवादी यानी सरकारी तंत्र) के बीच की जुगलबन्दी को पहचानने में ज्यादा वर्जिश नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन यह काम मैं आप पर ही छोड़ता हूं।

वे नहीं कहेंगे कि वह समय अंधकार का था
वे पूछेंगे कि
उस समय के कवि
चुप क्यो थे?
-ब्रेख्त

[इस फिल्म को 1981 में विदेशी भाषा की कैटेगरी में बेस्ट फिल्म का आस्कर अवार्ड भी मिला। इस फिल्म को हंगरी के डायरेक्टर 'Istvan Szabo' ने निर्देशित किया।]

मनीष आज़ाद

भारत_का_इतिहास इ-त्सिंग की भारत यात्रा

#भारत_का_इतिहास 
इ-त्सिंग की भारत यात्रा का पहला संपूर्ण अंग्रेजी अनुवाद जापानी विद्वान जे. तककुसू (1866-1945) ने किया है। वे टोक्यो इंपीरियल विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे, मगर बुद्धिस्ट स्काॅलर थे तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डाॅक्टरेट थे.....

प्रोफेसर तककुसू से पहले एफ. मैक्समूलर के शिष्य कसावरा ने इस यात्रा - वृत्तांत के कुछ भागों का अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत किए, मगर संपूर्ण पुस्तक का अनुवाद करने से पहले ही गुजर गए.....

बाद में जापानी बौद्ध विद्वान आर. फूजिशीमा ने 1888 में इसके सिर्फ दो परिच्छेदों ( 32 एवं 34 ) का फ्रेंच में अनुवाद प्रस्तुत किए, मगर संपूर्ण का वे भी नहीं कर सके.....

इ-त्सिंग का हिंदी में पहला अनुवाद करने का श्रेय संतराम बी. ए. को है। यह अनुवाद उन्होंने 1925 में किए थे......

इ-त्सिंग चीनी बौद्ध यात्री थे। चीन के फन- यङ्ग में 635 में जन्म लिए थे। 671 में बरसाती हवा के बीच वे भारत के सफर पर निकल पड़े थे। उनके मन में बौद्ध स्थल मृगदाव और कुक्कुटपदगिरि देखने की बड़ी लालसा थी.....

नालंदा विश्वविद्यालय में कोई दस साल इ-त्सिंग ने गुजारे थे। विश्वविद्यालय के बारे में उन्होंने अनेक बातें लिखी हैं। उन्होंने बताया है कि नालंदा विश्वविद्यालय को कई पीढ़ियों के राजाओं ने 200 से अधिक गाँव दान में दिए थे। इन्हीं दो सौ से अधिक गाँवों की आमदनी से नालंदा विश्वविद्यालय चलता था.....

सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली से नए संपादन के साथ यह पुस्तक बाजार में आई है, स्वागत कीजिए.....
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जनकवि नागार्जुन अपनी कविता 'तर्पण

जनकवि नागार्जुन अपनी कविता 'तर्पण' में लिॆखते हैं
बापू,
जिस बर्बर ने
कल किया तुम्हारा खून ,पिता!
वह नहीं मराठा हिन्दु है,
वह नहीं मूर्ख या पागल है,
वह प्रहरी है स्थिर स्वार्थों का,
वह जागरूक,वह सावधान,
वह मानवता का महाशत्रु,
वह हरिणकशिपु,
वह अहिरावण,
वह अहिरावण,
वह दशकन्धर,
वह सहश्रबाहु,
वह मानवता के पूर्णचंद्र का सर्वग्रासी महाराहु,
हम समझ गए
चट से निकाल पिस्तौल
तुम्हारे ऊपर कल
वह दाग गया गोलियाँ कौन?
हे परम पिता,हे महामौन!
हे महाप्राण,किसने तेरी अंतिम सांसे
बरबस छीनीं भारत -मां से?
हम समझ गए!
जो कहते हैं उसको पागल,
वे झोंक रहे हैं धूल हमारी आंखों में
वे नहीं चाहते परम क्षुब्ध जनता घर से बाहर निकले।

शत शत नमन 

बेलसोनिका यूनियन को कारण बताओ नोटिस : एक राजनीतिक हमला



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गुडगांव-मानेसर-धारूहेडा औद्योगिक क्षेत्र में एक कम्पनी है बेलसोनिका, जो कि मारुति सुजुकी के लिये कल-पुर्जे बनाती है। अभी हाल ही में इस कंपनी की यूनियन- बेलसोनिका ऑटो कम्पोनेन्ट इंडिया एम्प्लायज यूनियन को रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन, हरियाणा द्वारा यूनियन का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की चेतावनी के साथ एक कारण बताओ नोटिस भेजा गया है, जो कि खासी चर्चा का विषय बना हुआ है।

दरअसल मामला यह है कि बेलसोनिका यूनियन द्वारा अगस्त, 2021 में कंपनी में कार्यरत एक ठेका मजदूर केशव राजपुर को यूनियन की सदस्यता प्रदान की गई और 2021 के आयकर रिटर्न, जो कि जुलाई, 2022 में दाखिल किया गया, में यूनियन की सदस्यता में एक मजदूर की बढ़ोत्तरी का उल्लेख भी कर दिया गया। इस पर कम्पनी प्रबंधन द्वारा यूनियन के इस कदम को गैरकानूनी बताते हुये 23 अगस्त, 2022 को रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन, हरियाणा को एक शिकायती पत्र लिखा गया। जिस पर रजिस्ट्रार महोदय द्वारा तत्काल अमल करते हुये 5 सितम्बर, 2022 को यूनियन को एक पत्र जारी किया गया और ठेका मजदूर को यूनियन की सदस्यता देने की इस कार्यवाही को यूनियन के संविधान का उल्लंघन बताते हुये यूनियन से इस पर स्पष्टीकरण मांगा गया।

तदुपरान्त यूनियन ने 27 सितम्बर, 2022 को रजिस्ट्रार महोदय को जवाब दाखिल कर अपने कदम को कानून सम्मत बताया। यूनियन ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि भारत के संविधान का आर्टिकल 19 देश के सभी नागरिकों को संगठित होने का अधिकार देता है और ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 में भी यूनियन की सदस्यता में स्थाई और ठेका मजदूर का कोई विभाजन नहीं है। इसके अलावा अपने स्पष्टीकरण में यूनियन ने यह भी कहा कि यूनियन का संविधान भी कंपनी में कार्यरत किसी भी मजदूर को निर्धारित शुल्क अदा करने पर यूनियन का सदस्य बनने का अधिकार देता है और इसी के तहत ठेका मजदूर केशव राजपुर द्वारा यूनियन की सदस्यता हेतु आवेदन करने पर उन्हें यूनियन की सदस्यता प्रदान की गई है।

लेकिन रजिस्ट्रार महोदय बेलसोनिका यूनियन द्वारा दिये गये स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं हुये और उन्होंने 26 दिसम्बर को यूनियन का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की चेतावानी के साथ यूनियन को एक कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया जिसमें वे बेलसोनिका यूनियन द्वारा ठेका मजदूर को यूनियन का सदस्य बनाने की कार्यवाही को ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 की धारा 4 (1), 6 (e) और 22 का हवाला देते हुये साथ ही यूनियन के संविधान के नियम 5 का उल्लेख करते हुये गैरकानूनी करार दे रहे हैं।

आइये सबसे पहले ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 के उक्त प्रावधानों पर ही एक नजर डालते हैं कि इनमें क्या लिखा है। इस अधिनियम की धारा 4 (1) कहती है कि ''किसी ट्रेड यूनियन के कोई भी सात अथवा अधिक सदस्य उस ट्रेड यूनियन के नियमों पर अपने नामों के हस्ताक्षर करके तथा इस अधिनियम के रजिस्ट्रेशन सम्बन्धी प्रावधानों का अनुपालन करके इस अधिनियम के तहत रेजिस्ट्रेशन हेतु आवेदन कर सकते हैं।'' इसके बाद यह धारा कहती है कि ''परन्तु किसी ट्रेड यूनियन का तब तक रजिस्ट्रेशन नहीं किया जायेगा जब तक कि ऐसे संस्थान अथवा उद्योग में जिससे वह सम्बंधित है, काम में लगे हुये अथवा नियोजित मजदूरों के कम से कम दस प्रतिशत या एक सौ, इनमें से जो भी कम हों, रजिस्ट्रेशन के लिये आवेदन किये जाने की तारीख को ट्रेड यूनियन के सदस्य न हों।''

और धारा 6(e) कहती है कि ''जिस उद्योग से ट्रेड यूनियन सम्बन्धित है, उसमें वास्तव में काम में लगे हुये अथवा नियोजित मजदूर यूनियन के साधारण सदस्य होंगे। और पदाधिकारियों के रूप में उतने मानद अथवा अस्थायी सदस्य होंगे जितने ट्रेड यूनियन की कार्यकारिणी बनाने हेतु धारा 22 के तहत अपेक्षित हैं।''

और धारा 22 कहती है कि ''रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन के पदाधिकारियों की कुल संख्या के  कम से कम आधे ऐसे होंगे जो कि उस उद्योग में वास्तव में काम में लगे हुये अथवा नियोजित हों''।

आइये अब यूनियन के संविधान के नियम 5 को देखते हैं कि वह क्या कहता है। नियम 5 में दर्ज है कि ''मै. बेलसोनिका आटो कम्पोनेन्ट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड प्लाट नंबर 1, फेज 3।, आई एम टी मानेसर, गुड़गांव-122057 में कार्यरत कोई भी मजदूर यूनियन का साधारण सदस्य बन सकता है जो कि यूनियन को 50 रु. प्रतिमाह चंदा एवं 100 रु. प्रवेश शुल्क केवल एक बार यूनियन की सदस्यता के समय अदा करता हो।''

हम देखते हैं कि ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 की धारा 4(1), 6(e), 22 एवं यूनियन के संविधान के नियम 5 में कहीं कोई ऐसी बात नहीं लिखी है कि कंपनी में कार्यरत ठेका मजदूरों को यूनियन की सदस्यता नहीं दी सकती। तब फिर रजिस्ट्रार महोदय क्यों ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 का हवाला देते हुये यूनियन के कदम को गैरकानूनी बता रहे हैं और यूनियन का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की धमकी दे रहे हैं?

दरअसल रजिस्ट्रार महोदय ट्रेड यूनियन एक्ट, 1926 की मनमानी एवं गलत व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं। बेलसोनिका यूनियन को जारी नोटिस में वे तर्क दे रहे हैं कि चूंकि ठेका मजदूर और स्थायी मजदूर अलग-अलग संस्थानों के मजदूर हैं इसलिये वे किसी एक यूनियन के सदस्य नहीं बन सकते और न ही उनकी कोई संयुक्त यूनियन अस्तित्व में आ सकती है। उनके अनुसार बेलसोनिका कंपनी में काम करने वाले ठेका मजदूर वास्तव में बेलसोनिका कंपनी में काम में लगे हुये नहीं हैं, कि वे मुख्य नियोक्ता द्वारा नियोजित नहीं हैं, इसलिये वे कंपनी के मजदूर नहीं हैं और कंपनी से सम्बंधित बेलसोनिका यूनियन के सदस्य नहीं बन सकते।

यहां सवाल उलटे रजिस्ट्रार महोदय से बनता है कि कंपनी के गेट के भीतर, कंपनी की छत के नीचे, कंपनी की मशीनों पर कंपनी के लिये उत्पादन करने वाले ठेका मजदूर यहां तक कि सालों साल से कंपनी में काम कर रहे ठेका मजदूर भला किस कानून के तहत कंपनी के मजदूर नहीं है?

दूसरे बेलसोनिका कंपनी में 693 स्थायी मजदूरों के अलावा जो करीब 700 अस्थायी मजदूर हैं, वे सभी मशीनों पर काम करते हैं। इनमें 125 ऐसे ठेका मजदूर हैं जो कि सालों-साल से ठेके के तहत काम कर रहे हैं और करीब 300 ऐसे ठेका मजदूर हैं जिन्हें कि 6 माह के लिये ही भर्ती किया जाता है, लेकिन काम मशीनों पर ही लिया जाता है। क्या स्थायी प्रकृति के कामों पर, मशीनों पर मुख्य उत्पादन में ठेका मजदूरों को नियोजित करना गैरकानूनी नहीं है? क्या यह ठेका श्रम (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम, 1970 का खुला उल्लंघन नहीं है। बेलसोनिका प्रबन्धन ठेका मजदूरों का अतिशय शोषण करता है और उन्हें स्थायी मजदूरों की तुलना में करीब एक तिहाई वेतन ही देता है। क्या यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले- समान काम का समान वेतन का सीधे सीधे उल्लंघन नहीं है? और क्या रजिस्ट्रार महोदय ने जापानी मारुति सुजुकी की जापानी वेंडर बेलसोनिका के प्रबंधन को उसके द्वारा भारत में किये जा रहे इस गैरकानूनी श्रम अभ्यास पर कभी कोई नोटिस भेजने की हिमाकत की है?

यहां बेलसोनिका यूनियन के संविधान पर भी कुछ बात करना महत्वपूर्ण रहेगा। 2014 में जब बेलसोनिका यूनियन अस्तित्व में आई थी तब उसके संविधान का नियम 5 वही था जो कि आज है। लेकिन 2016 में जब यूनियन और प्रबंधन के बीच पहला समझौता हुआ, जिसमें स्थायी मजदूरों ने अपनी वेतन बढ़ोत्तरी को छोड़कर और उसके बदले 168 ठेका मजदूरों को स्थायी कराकर स्थायी और ठेका मजदूरों की एकता का शानदार उदाहरण पेश किया था, तब यूनियन ने अपनी अपरिपक्वता के चलते प्रबंधन की शर्त को स्वीकार करते हुये अपने संविधान के नियम 5 में बदलाव कर ''कोई भी मजदूर.....'' की जगह स्थायी मजदूर कर दिया था।

लेकिन अनुभव के साथ यूनियन को अपनी गलती का अहसास हुआ और तब अक्टूबर, 2020 में यूनियन ने प्रबंधन के हमलों के विरुद्ध स्थायी एवं ठेका सभी मजदूरों के साथ लघु सचिवालय, गुड़गांव पर आठ घंटे की भूख हड़ताल कर ठेका मजदूरों को भी यूनियन का सदस्य बनाने की घोषणा की और इस हेतु यूनियन के संविधान के नियम 5 में बदलाव कर ''स्थायी मजदूर...... की जगह पुनः कोई भी मजदूर दर्ज कर अनुमोदन हेतु रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन, हरियाणा को भेजा लेकिन रजिस्ट्रार महोदय ने इसे अनुमोदित नहीं किया। लेकिन यूनियन ने हार नहीं मानी 2021 में पुनः उसी बदलाव के साथ रजिस्ट्रार महोदय को भेजा और इस बार उन्होंने इसे अनुमोदित कर दिया।

अर्थात यूनियन के संविधान के जिस नियम 5 का हवाला देकर रजिस्ट्रार महोदय यूनियन के रजिस्ट्रेशन को रद्द करने की धमकी दे रहे हैं वह खुद उन्हीं के द्वारा अनुमोदित है और उसमें दो टूक लिखा है कि कम्पनी में काम करने वाला कोई भी मजदूर यूनियन का सदस्य बन सकता है।

रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन, हरियाणा द्वारा दिसम्बर, 2020 में बेलसोनिका यूनियन को कारण बताओ नोटिस भेजने से पहले सितम्बर, 2022 में पत्र लिखकर स्पष्टीकरण मांगा गया था और जिस पर अपने जवाब में यूनियन ने ठेका मजदूर केशव राजपुर को यूनियन का सदस्य बनाने को भारत के संविधान के आर्टिकल 19 के तहत भी जायज ठहराया था। लेकिन अब बेलसोनिका यूनियन को भेजे कारण बताओ नोटिस में रजिस्ट्रार महोदय ने इस पर कोई बात नहीं की है। अब यह तो संभव नहीं है कि वे इससे वाकिफ न हों कि देश के संविधान के आर्टिकल 19(1)(c) के तहत देश के सभी नागरिकों को संगठन एवं यूनियन बनाने अर्थात संगठित होने का अधिकार है। रजिस्ट्रार महोदय इससे भली-भांति वाकिफ हैं लेकिन फिर भी चुप हैं। आज जब देश की सत्ता पर काबिज फासीवादी ताकतों के निशाने पर सभी राजकीय संस्थाओं से लेकर संविधान तक सभी कुछ आ चुका है तब इतने महत्वपूर्ण मसले पर रजिस्ट्रार महोदय की यह चुप्पी समझ में आने वाली बात है।

दरअसल बेलसोनिका यूनियन को भेजे गये कारण बताओ नोटिस के पीछे मुख्य वजह किसी नियम-कानून का उल्लंघन न होकर मोदी सरकार की नीतियां और फैसले हैं, जिनमें मोदी सरकार द्वारा संसद से पारित कराये जा चुके घोर मजदूर विरोधी 4 नये लेबर कोड्स को लागू कराना सर्वप्रमुख है।

ये 4 नये लेबर कोड्स अभी घोषित तौर पर लागू नहीं हुये हैं लेकिन विभिन्न राज्य सरकारों खासकर भाजपाई राज्य सरकारों द्वारा पिछले दरवाजे से इन्हें लागू किया जा रहा है। नये लेबर कोड्स के तहत प्रबंधन द्वारा एकतरफा छंटनी-तालाबंदी की सीमा को 100 मजदूरों से कम वाली फैक्टरियों से बढाकर 300 से कम मजदूरों वाली फैक्टरियों तक किया गया है। लेकिन नये  लेबर कोड्स के लागू होने से पहले ही एकतरफा छंटनी-तालाबंदी के इस नये क़ानून को हरियाणा समेत विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा लागू कर दिया गया है। इसके तहत मालिक-प्रबंधन कंपनी में स्थायी मजदूरों की संख्या किसी तरह 300 से नीचे लाकर स्थायी मजदूरों की छंटनी कर रहे हैं और यूनियनें तोड़ रहे हैं। पिछले तीन-चार साल में गुड़गांव-मानेसर-धारूहेडा औद्योगिक क्षेत्र में कई कम्पनियों में मालिक-प्रबंधन अपने इस षड्यंत्र में कामयाब हो चुके हैं। बेलसोनिका का प्रबंधन भी मजदूरों के प्रति यही षड्यंत्र कर रहा है और बेलसोनिका की यूनियन स्थायी और ठेका मजदूरों की व्यापक एकता कायम कर इस षड्यंत्र को विफल करने की कोशिशों में जुटी है।

एकतरफा छंटनी-तालाबंदी की सीमा को बढ़ाना तो इन लेबर कोड्स का महज एक अंश है असल में तो ये लेबर कोड्स पूरी बीसवीं सदी में मजदूर वर्ग द्वारा अकूत संघर्षों और बलिदानों के बल पर हासिल श्रम कानूनों पर भारी आघात हैं। यह आजाद भारत में मजदूर वर्ग पर बोला गया सबसे बड़ा हमला है।

इन लेबर कोड्स के लागू होने के बाद फिक्सड टर्म एम्प्लायमेंट के तहत स्थायी प्रकृति के कामों पर अस्थायी मजदूर रखे जायेंगे और प्रशिक्षुओं को कानूनन मजदूर नहीं माना जायेगा। परिणामस्वरूप स्थायी मजदूरों की यूनियनें और अधिक कमजोर हो जायेंगी। स्थायी मजदूरों की कार्यस्थल पर विशेष स्थिति और नौकरी की सुरक्षा समाप्त हो जायेगी। कानूनी तौर पर वैध हड़ताल करना असंभव प्रायः हो जायेगा और गैरकानूनी घोषित हड़तालों में शामिल मजदूरों एवं उनका सहयोग करने वाले लोगों पर भारी जुर्माने लगाये जायेंगे और उन पर गैर जमानती धाराओं में मुकदमे दर्ज होंगे।

उपरोक्त के मद्देनजर एक ठेका मजदूर को यूनियन की सदस्यता देने पर रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन, हरियाणा द्वारा यूनियन का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की धमकी के साथ दिया गया कारण बताओ नोटिस असल में बेलसोनिका यूनियन पर एक राजनीतिक हमला है। यदि बेलसोनिका यूनियन पर बोला गया यह हमला सफल हो गया तो यह हरियाणा और देश की बाकी जुझारू यूनियनों के हौसलों को भी प्रभावित करेगा। अतः सभी यूनियनों एवं मजदूर संगठनों को एकजुट होकर इस हमले का विरोध करना होगा। मजदूरों को स्थायी-ठेका-ट्रेनी के विभाजन को खारिज कर एवं एक फैक्टरी की एकता से ऊपर उठकर पूरे औद्योगिक क्षेत्र के स्तर पर व्यापक वर्गीय एकता कायम करने की ओर बढ़ना होगा। ठेका एवं भांति-भांति के अस्थायी मजदूरों के संगठित होने के अधिकार को व्यापक मुद्दा बनाना होगा और कारपोरेट परस्त नये लेबर कोड्स के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन विकसित करना होगा।

Sunday, 29 January 2023

#राधिका_पंडिताइन.....!



95 साल की उम्र की राधिका पंडिताइन 2004 में गुमनाम मौत मर गयीं.... जमीन जायजाद जाने कब की रिश्तेदार हड़प चुके थे.... और मायका जवानी में मुंह मोड़ चुका था....
70 साल लम्बी जिंदगी उन्होंने अकेले काट दी अपने स्वर्गीय पति की गर्वित यादों के साथ...
क्यों कि यही उनकी इकलौती पूंजी थी....
और ये पूंजी उन्हें भारत की सबसे समृद्ध महिला बनाती थी...

क्यों कि राधिका देवी गुमनाम होकर भी भारत की वो बेटी थी जिनका पूरा देश कर्जदार था.... रहेगा

वो महज़ 14 साल की बच्ची ही थी जब विवाह आज़ के वैशाली जिले के एक समृद्ध किसान परिवार में कर दिया गया.... पति के तौर पर मिले #बैकुंठ_शुक्ल.... उनसे तीन साल बड़े...
अब गौना हो ससुराल पहुंची तब तक बैकुंठ बाबू तो अलग राह चल पड़े थे..... देश को आज़ाद कराने...
घर परिवार बैकुंठ बाबू के साथ न था सो घर छोड़ दिया पर राधिका को तो समझ ही न थी इन बातों की सीधी सरल घरेलू लड़की जिसकी दुनियाँ घर का आंगन भर थी.... पति के साथ हो ली...

राधिका को चम्पारण के गाँधी आश्रम में छोड़ बैकुंठ बाबू अपने काम में जुट गए..... तो आश्रम में रह देश और आज़ादी के मायने समझ राधिका भी उस लड़ाई का हिस्सा हो ली....

बैकुंठ शुक्ल को एक चीज खटकती थी...
जिस #फणिन्द्र_नाथ_घोष की गद्दारी ने भगत सिंह,राजगुरु, सुखदेव को फाँसी दिलवाई वो आराम से बेतिया के मीना बाजार में सेठ बन जी रहा था...
सरकारी इनाम से खोली दुकान और गोरी सरकार की दी सुरक्षा में वो बेतिया का प्रतिष्ठित व्यक्ति था..
न किसी ने उसके कारोबार का बहिष्कार किया न उसका सामाजिक बहिष्कार हुआ....
लोग आराम से इस गद्दार को सर आँखों पर रखे थे..... भले आज हम भगत सिंह के कितने भी गीत गाएं तब की सच्चाई यही थी हमारी...

9 नवंबर 1932 को फणिन्द्र नाथ अपनी दुकान पर अपने मित्र गणेश प्रसाद गुप्ता के साथ बैठा था..... तभी वहाँ बैकुंठ शुक्ल और #चन्द्रमा_सिंह पहुँचे.... उन्होंने अपनी साइकिल खड़ी की और ओढ़ रखी चादर निकाल फैकी.... कोई कुछ समझता तब तक बैकुंठ शुक्ल के गंडासे के प्रहार फणिन्द्र नाथ और गणेश गुप्ता को उनके ही खून से नहला चुके थे ... सुरक्षा में मिले सिपाही ये देख भाग खड़े हुए....

वे दौनो निकल गए..... और सोनपुर में साथी रामबिनोद सिंह के घर पहुँचे जो भगत सिंह के भी साथी थे.... वहाँ तय हुआ के कपडे और साइकिल के चलते पकडे ही जायेंगे तो बेहतर है एक ही फाँसी चढ़े और ये जिम्मा भी बैकुंठ शुक्ल ने अपने सर ले लिया....

बैकुंठ छिपे नहीं आराम से चौड़े हो बाजार घूमते और थाने का चक्कर भी लगा आते.... उधर #राधिका_देवी को भी पति के किये की खबर थी
और उन्हें पति के किये पर गर्व था....

बैकुंठ बाबू पकडे गए और अंग्रेजी कोर्ट ने मृत्युदण्ड दिया.... उन्होंने पूरा अपराध अपने सर लिया.... जेल में बैकुंठ जम के कसरत करते और
हर साथी को बिस्मिल का गीत सरफ़रोशी की तमन्ना सुनाते.... रत्ती भर भय न था मृत्यु का फाँसी के लिए लेजाते समय भी वे एकदम हँसते मज़ाक करते ही गए और सर पर काला कपड़ा पहनने से मना कर दिया... उनका वजन जेल में रह बढ़ गया था और इसके लिए उन्होंने गया जेल के गोरे जेलर को धन्यवाद दिया.... रस्सी गले में डलने के बाद भी बैकुंठ ने अपने ही अंदाज़ में जल्लाद को कहा "भाई तू क्यों परेशान है खींच न.... तेरा काम कर"

14 मई 1934 को बैकुंठ 27 साल कि उम्र में फाँसी चढ़ गए... खुद जेल के अधिकारी अपने संस्मरण में लिखे के ऐसा जियाला उन्होंने कभी न देखा.... जिसने मौत को यूँ आँखों में आंख डाल गले लगाया हो...
पर बैकुंठ शुक्ल को भी एक अफ़सोस था.... पत्नी राधिका देवी के प्रति कर्तव्य पालन न कर पाने का.. इसी लिए फाँसी से एक दिन पूर्व साथी क्रन्तिकारी #विभूति_भूषण_दास से उन्होंने कहा था
देश जब आज़ाद हो जाये आप बाल विवाह की रीत बंद करवा देना.... इसके लिए लड़ाई लड़ना

खैर बैकुंठ शुक्ल देश पर बलिदान हुए और भुला दिए गए.....  राधिका को भला कौन याद रखता.... लेकिन आश्रम में मिले नाम राधिका पंडिताइन और बैकुंठ बाबू की स्मृतियों के साथ उन्होंने एक लम्बा जीवन काटा..... अकेले.... गुमनाम.... और 2004 में उनकी मृत्यु भी कहीं कोई खबर न बनी....

बैकुंठ शुक्ल के गाँव वैशाली के जलालपुर में आज भी एक खंडहर नुमा उनका मकान जिसे गाँववाले कूड़ा डालने के स्थान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं..... गाँव के लोग तक नहीं जानते कोई बैकुंठ शुक्ल इस घर में जन्मे थे.....। हमने श्री बैकुंठ शुक्ल जी जैसे महावीर शहीद स्वतंत्रता सेनानी को भुला दिया जो चंद्रशेखर आजाद जी, भगतसिंह जी के हमराही थे।एक शहीद की मां और पत्नी पर क्या बीतती है आप क्या जानो। जो स्त्री सतर सालों तक विधवा रही हो उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति की कल्पना कीजिए। आप लोगों को इससे क्या मतलब।गुलछर्रे उड़ाओ,मौज मनाओ। देखने वाला देख रहा है जबाव तो आप सभी को देना पड़ेगा।आज नहीं तो कल।साभार नवल किशोर तिवारी आयुर्वेद ज्ञाता जबदौल बेत्तिया बिहार।
सौरभ शुक्ला

Saturday, 28 January 2023

एक_अंतर्राष्ट्रीय_क्रांतिकारी_व्यक्तित्व_जियांग_किंग

#एक_अंतर्राष्ट्रीय_क्रांतिकारी_व्यक्तित्व_जियांग_किंग
                               
The legendary revolutionary personality Jiang Qing

(19 March 1914 - 14 May 1991)

आज हम एक ऐसी अदम्य साहसी और प्रखर मार्क्सवादी-लेनिनवादी महिला क्रांतिकारी व्यक्तित्व के बारे में बात कर रहे हैं जिसने अपनी जगह इतिहास में न केवल रोजा लक्जमबर्ग व क्लारा जेटिकन के समतुल्य बनाई बल्कि बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध से लेकर उत्तरार्द्ध तक दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिला का खिताब हथियाने में भरपूर तरीके से कामयाब रही जिसके चलते उन्हें विश्व में होती रही समाजवादी क्रांतिकारियों के फलसफे में याद किया जाता रहा है और याद किया जाता रहेगा।

हम बात कर रहे हैं साम्यवादी चीन के 'प्रथम राष्ट्रपति माओ महान' की चौथी जीवनसाथी जियांग किंग के बारे में। जियांग किंग एक ऐसी क्रांतिकारी महिला जिसने जिंदगी के आखिरी क्षणों तक सर्वहारा वर्ग के पक्ष में  बतौर सर्वज्ञ क्रांतिकारी शिल्पी की भूमिका में रहकर समाजवादी तटरक्षा को मुकाम दिया। हम जिस शासन व्यवस्था में हैं यह पूंजीवाद है और पूंजीवाद किसी भी सूरतेहाल में समाजवाद के कालजयी प्रभामंडल को सही नहीं ठहरा सकता, पूंजीवाद हर हाल में अमानवीयता व हाहाकार के साथ समाजवाद के विरुद्ध खूनी शत्रुता रखता रहेगा। इसीलिए पूंजीवादी शिक्षा प्रशिक्षा से संबंधित इतिहास में जियांग किंग को एक रक्तरंजित राजनीति प्रेमी के तौर पर पढ़ाया व बताया जाता रहा है लेकिन यह आप सभी बुद्धिजीवियों के क्रांतिकारी विमर्शों के मद्देनजर बुनियादी कार्यभार हैं कि मार्क्सवाद लेनिनवाद की केन्द्रीयता की परिधि में हमेशा सर्वहारा अधिनायकवादी राजनीति की वैचारिक धार को कुंद नहीं होने देना है और एक सजग प्रहरी की मानिंद मेहनतकशों के मुक्तिकामी राजनीति के अलखता को कायम रखना है।

यूं तो इतिहासकार भी जियांग किंग के शुरुआती जीवन पर अलग-अलग तरह से बातें करते हैं। चीनी भाषा में 'जियांग किंग' का मतलब नीली नदी है। जियांग ने यह नाम 1932 में भूमिगत कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के तौर पर छद्म नाम रूप में रखा था। उसके पिता ने उसका नाम 'ली-जिंहाई' रखा था, बाद में ली-शुमेंग कर दिया। अपने स्कूली अभिलेखों में ली-यून्हे नाम से जानी गई। जियांग का बचपन बेहद दारुण व निर्धनता में बीता। सन् 1926 में जियांग के पिता का निधन हो गया और वह मां के साथ अपने नाना नानी के घर चली गई। महज 12 वर्ष की उम्र में जियांग ने कई महीनों तक सिगरेट बनाने वाली फैक्ट्रियों में काम किया। कुछ स्रोत बताते हैं कि इसी बीच जियांग के मां ने  ली-दीवेन नाम के एक लकड़ी कारीगर से जियांग की शादी करा दी थी लेकिन   जियांग ने इस शादी को कभी भी कबूल नहीं किया। इसी दौरान उसे यानान के एक ड्रामा स्कूल में काम करने का मौका मिला और जियांग की जिंदगी ने यहीं से यू-टर्न लेकर जियांग को शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचा दिया और इसी बीच जियांग ने एक बिजनेस मैन के बेटे पेई-मिंगलुन से शादी कर ली और जियांग फिल्म अभिनेत्री बनने की ओर बढ़ गई। सन् 1932 में जियांग, शेडांग यूनिवर्सिटी में फिजिक्स पढ़ने वाले एक छात्र यू-किवेई के संपर्क में आई , किवेई उन दिनों भूमिगत राजनीतिक क्रिया-कलापों को अंजाम दे रहा था। जियांग, यू-किवेई के राजनीतिक कार्यक्रमों से न केवल आश्वस्त थी बल्कि स्वयं जियांग भी बेधड़क भूमिगत राजनीति में उतर आई। राजनीति में भागीदारी करने के कारण ससुराल वालों ने जियांग को छोड़ दिया। क्रांतिकारी भूमिगत राजनीति के चलते सरकार ने पकड़वाने के लिए उन पर ईनाम भी रखा, हालांकि एक नुक्कड़ नाटक प्रदर्शनी में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल की सजा हुई।

कम्युनिस्ट आंदोलनों में बराबर सक्रियता ने जियांग को उस समय के युवा व धाकड़ कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के नजदीक ला दिया और नवंबर 1938 में यानान में जियांग और माओ की शादी हो गई और अब वह माओ की चौथी पत्नी के तौर पर भी जानी जाती थी। हालांकि माओ की पूर्व पत्नी से पूर्णतया विवाह-विच्छेद नहीं हुआ था जिसके चलते माओ को पार्टी के भीतर भारी असहज स्थितियां झेलनी पड़ी और आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। पार्टी ने जियांग पर भी कुछ राजनीतिक पाबंदियां लगा दी थी। 1949 में साम्यवादी चीन की स्थापना हुई और जियांग को 1950 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (CPC) का प्रचार विभाग के फिल्म सेक्शन का उप निदेशक नियुक्त किया गया। जियांग किंग हर हाल में सर्वहारा वर्ग के मुक्ति सवालों के हल को संजीदगी के साथ न केवल समझ रही थी बल्कि इस्पाती तौर पर संशोधनवाद को मटियामेट करने के लिए विमर्शों व वाद-संवाद की अगुवाई करने लगी। सख्त राजनीतिक प्रतिबद्धता और दक्ष रणनीतियों के लिए जानी जाने वाली जियांग किंग को 1966 में 'केन्द्रीय सांस्कृतिक क्रांति समूह' का उप-निदेशक नियुक्त कर दिया गया और 1969 के सीपीसी के राष्ट्रीय अधिवेशन में जियांग को पोलित ब्यूरो सदस्य बनाया गया।

जियांग किंग ने माओ के संघर्षों को माओवाद कहकर प्रचारित किया। बुद्धिजीवियों का एक धड़ा तो यहां तक कहता था कि माओ के माओवाद को अंतर्राष्ट्रीय पहचान जियांग किंग ने ही दिलाई थी। बुद्धिजीवियों को महसूस हुआ कि चीनी समाजवाद के समानांतर व विरुद्ध बहुत सारे विरोधी गुट पनप रहे हैं जिन्हें सीपीसी अपने क्रांतिकारी कार्यक्रमों के जरिए हल देना चाहती थी लेकिन संशोधनवाद के पक्ष में लामबंदियों को देखते हुए चीन ने सांस्कृतिक क्रांति करने का फैसला लिया। नवंबर 1966-77 की अवधि को चीन में सांस्कृतिक क्रांति का काल माना जाता है जिस सांस्कृतिक क्रांति को जियांग किंग नेतृत्व दे रही थी। सांस्कृतिक क्रांति के तहत ग्रामीण क्षेत्रों के मजदूर किसानों को समाजवादी पद्धति के बारे में प्रशिक्षण किया जाता था।  #गैंग_आफ_फोर नाम से जाना जाने वाला दल, सांस्कृतिक क्रांति के नेतृत्वकारी लोग हैं। जियांग किंग से अलावा अन्य तीन क्रांतिकारी भी इस कार्यक्रम के महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट का हिस्सा व जियांग किंग के क्रांतिकारी साथी थे। जियांग के  अन्य तीन साथियों को संक्षेप में जानते हैं -
#झांग_चुनकियाओ - (1 Feb.1917 - 21 April 2005) - झांग एक विद्वान लेखक व पत्रकार थे। 1938 में सीपीसी में शामिल हुए। पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य भी रहे। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान 1966-76 तक  नेतृत्वकारी लोगों में से एक थे। 6 अक्टूबर 1976 को गिरफ्तार किया गया। 1984 से 1998 तक जेल में रहे। 2005 में शंघाई में कैंसर का इलाज न होने के कारण मृत्यु हो गई।

#याओ_वेनयुआन - (12 Jan.1931 - 23 Dec.2005) - याओ, चाइना लिबरेशन डेली के संपादक थे। सीपीसी की 1969 की कांग्रेस में इन्हें पोलित ब्यूरो सदस्य चुना गया। सांस्कृतिक क्रांति को पुरजोर तरीके से आगे बढ़ाया। 6 अक्टूबर 1976 को इन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। 1981 में इन्हें 20 साल की सजा सुनाई गई। 5 अक्टूबर 1996 को रिहा कर दिया गया। शेष जीवन इन्होंने एकदम राजनीतिक गुमनामी में गुजारा और शंघाई में ही राजनीतिक अध्ययन करते रहे। 74 साल की उम्र मधुमेह से दिसंबर 2005 में इनकी मृत्यु हो गई।

#वांग_होंगवेन - ( सन् 1935 - 3 Aug. 1992) - गैंग आफ फोर कहे जाने वाली टीम के सबसे कम उम्र के सदस्य थे। वांग , सीपीसी के दूसरे उपाध्यक्ष भी रहे। इन्होंने कोरियाई युद्ध में भी भाग लिया था। 1953 में सीपीसी में शामिल हुए। सीपीसी की 9वीं कांग्रेस के बाद राष्ट्रपति माओ ने वांग को सीधे तौर पर कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी। पार्टी की दसवीं कांग्रेस में पोलित ब्यूरो सदस्य चुना गया। इन्हें भी गैंग आफ फोर के एक सदस्य के तौर पर 6अक्टूबर 1976 की रात को गिरफ्तार कर लिया गया इन्होंने अपनी गिरफ्तार का हिंसक विरोध किया और दो गार्डों को जान गंवानी पड़ी। 56 साल की उम्र में इनकी कैंसर मौत हो गई।

संक्षिप्त में ये #गैंग_आफ_फोर की जानकारी थी। गैंग आफ फोर कोई आधिकारिक शब्द नहीं है यह जियांग किंग और उनके चुनकियाओ, याओ वेनयुआन और वांग होंगवेन तीन साथियों की टीम को कहा गया है। "गैंग आफ फोर" शब्द माओ की मृत्यु के बाद चाइना के विरोधी मीडिया का दिया हुआ उपनाम है। बाद में जियांग किंग की छवि एक कट्टर-कठोर कम्युनिस्ट नेता के तौर पर गैंग आफ फोर के नेतृत्व नेता के तौर गढ़ी जाने लगी।

9 सितम्बर 1976 को  माओ त्से तुंग की मृत्यु हो गई। सांस्कृतिक क्रांति मिशन, माओ त्से तुंग की मृत्यु के एक महीने बाद तक निर्बाध जारी रहा। 6 अक्टूबर 1976 को सीपीसी ने एक बैठक का हवाला देकर सांस्कृतिक क्रांति को गति दे रहे लगभग सभी शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। इसी रात सदन में  साढ़े दस बजे जियांग किंग को सीढ़ियों से छत की ओर जाते समय गिरफ्तार कर लिया। सुंग-चिंग नेतृत्व समाजवादी सरकार माओ के चीनी गणराज्य को नेस्तनाबूद करने को अमादा थी। जियांग किंग के लिए 1981 में मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया। कारावास के दौरान उन्हें गले के कैंसर होने की पुष्टि हुई। सरकार ने स्वास्थ्य कारणों से जियांग को रिहा कर दिया। सरकार दावा करती है कि उसने जियांग के इलाज के लिए बात की थी जिसे जियांग ने ठुकरा दिया था। कैंसर ला-इलाज होने के चलते जियांग किंग ने 14 मई 1991 को अस्पताल के एक बाथरूम में आत्महत्या कर ली। हालांकि कुछ लोग जियांग किंग की आत्महत्या को सरकार द्वारा लगातार मानसिक उत्पीड़न का दबाव मानते हैं। इन सबके बीच चाइना समाजवादी पद्धति में अन्य बड़े नेताओं का नाम भी आता है जिन्होंने गैंग आफ फोर यानि #मार्क्सवाद_लेनिनवाद_माओवाद की राजनीतिक रीढ़ #चीन_की_सांस्कृतिक_क्रांति को तबाह करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी यानि कि माओ की मृत्यु के बाद संशोदनवादियों ने चाइना समाजवाद को बर्बाद करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। लियू शाओकी, हुआ गुओफेंग आदि जैसे  तमाम अन्य बड़े  चीनी नेताओं को माओवाद के साथ सहानुभूतिपूर्ण संशोधनवाद के रास्ते चीन को आज के विनाशकारी राजनीतिक हालात पर लाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है।

चीन के सांस्कृतिक क्रांति अभियान के दरमियान ही #रूस_चीन_विभाजन के साथ सन् 1969 में #रूस_चीन_युद्ध तक की नौबत आ गई थी। हालांकि यह अघोषित तौर पर युद्ध था। यह युद्ध लगातार 6 महीने से अधिक समय तक चला जिसमें दोनों तरफ से तीखी सैन्य झड़पें और भारी जानमाल का नुक़सान हुआ। कहने के लिए यह रूस - चीन का सीमा विवाद का मसला था। लेकिन असल में यह मार्क्सवाद - लेनिनवाद की केन्द्रीयता पर दोनों देशों का एक दूसरे पर भटकाव का दोषारोपण स्वरूप युद्ध था। दुनिया के तमाम पूंजीवादी मुल्कों ने रूस-चीन के इस मूखर्तापूर्ण रवैये पर तब चुटकी लेते हुए कहा कि "समाजवादी देश जो हर मुल्क के शोषितों के साथ सहानुभूति रखते हैं और गरीबों के खिदमतगार होने का दावा करते हैं अब कौन सी मिल्कियत के लिए लड़ रहे हैं।"  हालांकि गैंग आफ फोर के नेताओं ने इसे एक जल्दबाजी में की गई कार्रवाई के तौर पर चिन्हित तो किया लेकिन इस पर वैकल्पिक लाइन जारी नहीं की गई। रूस चीन सीमा विवाद कुछ भू-भागों के आपसी बंटवारे के बाद 2005 में शांत हुआ। दूसरी घटना #बीजिंग_की_तियानमेन_घटना भी प्रचंड संशोधनवाद को दिखाता है। वर्ष 1989 में तियानवेन चौराहे पर हजारों संख्या में छात्र व क्रांतिकारी संगठन सरकार के खिलाफ आक्रोश जारी करने के लिए इकट्ठा हुए। जिसमें छात्र संगठन व शामिल लोग, वैश्विक पूंजीवादी गठजोड़, गैंग आफ फोर के क्रांतिकारियों की रिहाई, भ्रष्टाचार सहित अन्य जनसरोकारी मुद्दों पर सरकार से स्पष्टीकरण मांग रहे थे लेकिन सरकार की तरफ से इस जन-प्रदर्शन पर सैन्य बल इस्तेमाल किया गया जिसमें लगभग 450 प्रदर्शनकारियों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई और लगभग 9 हजार से अधिक लोग घायल हो गए थे। यह समाजवादी चीन का सबसे बड़ा नरसंहार कहा जाता है। यानि कि इससे साबित होता है कि  चीन अपने साम्यवादी स्थापना से ही अस्थिरता का सामना करता रहा आ रहा था।

मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक राजनीति है। इसमें हर दौर में प्रयोग होते रहे हैं और सफलता असफलता विज्ञान का कठोर सत्य है इसे स्वीकार करते हुए दुनिया भर के मार्क्सवादी क्रांतिकारी समाजवाद के लिए संघर्षरत हैं। जहां-जहां समाजवाद का प्रभामंडल बिखरेगा वहां-वहां जियांग किंग जैसी सशक्त प्रतिबद्ध क्रांतिकारी व्यक्तित्व आकार लेंगे। समाजवाद में विजय पताकाओं को बुलंद मुकाम भविष्य में यूं ही दिये जाते रहेंगे, भले ही विध्वंसकारी शासकवर्ग कितनी ही बाधाएं बनाये लेकिन हर हाल में समाजवाद अपनी ऐतिहासिक जगह को हासिल करके रहेगा। शासकवर्ग के उत्पीड़न के डर से समाजवाद न ही अपनी गति रोकता है और न ही 'डर' जैसी किसी चीज के लिए मार्क्सवाद में कोई जगह है।

: साथी Ak Bright का लेख

जिम्बाब्वे के प्रमुख कवि चेन्जेराई होव की चार कविताएं :



● इनकार
---------------------

पुलिस जब आ ही जाये ऐन सिर पर
और उसकी लाठी नृत्य करने लगे 
तुम्हारी पीठ पर
इनकार कर देना झुकने से।

बिच्छू जब आ ही जायें
और डंक मार दें चाहे
तुम्हारी आंखों और कानों पर
इनकार कर देना उनके वश में आने से।

दुनिया जब घूमती नज़र आये गोल-गोल
यातना-कक्ष के भीतर
साफ़ इनकार कर देना चाहिये
तुम्हारे दिल को मुरझाने से।

तुम सुनना बच्चों की आवाज़ों को
देखना रंगत हमारे संगीत की
और नाच उठना मन ही मन
समर्पण की मौत पर।

जिस क्षण शक्तिसम्पन्न लोग
लूटने में लगे हों तमगे
और अशक्त चुन रहे हों
किनके शासन के,
तुम इनकार कर देना घुटने टेकने से
फुटपाथ पर छल और कपट के।

● एक तानाशाह से
------------------------------
(एक पाकिस्तानी कवि की याद में, जिसे देशनिकाला दे दिया गया था)

तुम्हारे दौर में 
तुमने दूर कर दिया हमसे
हमारी स्वतंत्रता के सार को।

तुम्हारे दौर में
कमज़ोर लोगों ने हिफ़ाज़त की
तुम्हारी दुर्बलताओं की,
और धरती रोती रही लगातार,
चन्द्रमा तक स्याह पड़ गया था
तुम्हारे दौर में।

● हम
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केवल हम ही नहीं थे
पीछे छूट जाने वालों में,
अंज़ीर का पेड़ भी खड़ा था
हमारे साथ ही।

केवल हम ही नहीं थे
पीछे छूट जाने वालों में
जब तक कि आसमान
इनकार करता रहा था
हमें वीज़ा देने में।

शुभ रात्रि, प्रिये
हम इन्तज़ार करेंगे यों ही
किसी और फूल के खिलने तक।

● सत्ता
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इस तरह पहन लेते हैं हम 
सत्ता को :
सीटियों और बन्दूकों और बारूद के साथ

सुरक्षा सैनिक
जगमगाती रोशनियां
कांच की धुंधली खिड़कियां
क़तारें मोटरगाड़ियों की
ख़िताबें, पदवियां
कम से कम हाथ मिलाना
कम से कम मुस्कुराना
कम से कम सन्ताप

हम पहन लिया करते हैं सत्ता को
बिल्कुल महामारी की तरह

                   ***
(अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र, 8 फरवरी, 2019)

अवगुन कहूँ शराब का:

अवगुन कहूँ शराब का:
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शराब ने कैसे कैसे गुल खिलाए हैं, कहने की जरूरत नहीं। न जाने कितने नामचीन हस्तियों को इसने असमय काल कवलित कर डाला। नाम गिनाऊं तो अभी याद आ रहे हैं  गायक और अभिनेता सहगल, गायिका गीता दत्त, नायिका मीनाकुमारी, संगीतकार जयकिशन और मदनमोहन, गीतकार शैलेन्द्र, शायर मजाज, अंग्रेज कवि डायलन टामस, कहानीकार ओ हेनरी, उपन्यासकार स्कॉट फिजराल्ड जिन लोगों के जीवन को शराब ने  बरबाद किया और अल्पायु में ही दुनिया से विदा कर दिया। देश में  हर साल इस शराबखोरी के चलते सैकड़ों मरते हैं।

मेरे एक परिचित बैंककर्मी थे। राम जाने कब और कैसे शराब की लत उनको लगी। रिटायरमेंट के बाद उनकी स्थिति यह थी कि शराब के चक्कर में अपने तमाम परिचितों से किसी न किसी बहाने पैसा ले चुके थे। शराबखोरी ने इस हद तक उनको बेशर्म बना दिया था कि किसी परिचित के घर अहले सुबह पहुंच जाते और पत्नी की बीमारी के नाम पर पैसा मांगते। बीमारी, वह भी पत्नी को, तो कोई इनकार कैसे करता? धीरे धीरे लोगों को इसका पता चला तो उनको बाहर पैसा मिलना बंद हो गया।  खुशकिस्मती से अब वे शराब छोड़ चुके हैं। 

शराब की प्रशंसा में गीतों की भरमार है। ऋग्वेद में जिस सोमरस का इतना गुणगान है, वह शायद शराब ही था। उर्दू शायर तो शराब के लिए खुदा और जन्नत से भी तौबा कर लें। उनकी कलम में शराब की स्याही रहती है। इधर हिन्दी के  हरिवंश राय बच्चन ने एक पूरी किताब "मधुशाला"  शराब और शराबियों का गुणगान करते लिख डाला।
  
शराब की इतनी बड़ाई और बड़े बड़े लोगों में इसके पीने की चर्चाएं सुनकर एक बार मुझे भी इच्छा हो आई कि जरा मैं भी चखकर देखूं। सो एक बोतल ले आया। कौन ब्रांड था, नाम नहीं याद आ रहा। खैर, बोतल खोला और थोड़ा सा हलक में ले गया। इतना खराब और इतना कड़वा लगा मानों सूअर या गंदे नाले में लोट पोट करने वाले ऐसे ही किसी अन्य जानवर का मूत हो। तुरत ब्रश किया, इलायची दाना खाया, सौंफ खाया। घंटों बाद मन ठीक हुआ। बोतल नाली में फेंक आया।

ऐसा नहीं है कि शराब के खिलाफ नहीं लिखा गया । बहुत कुछ लिखा गया है। कबीर ने पांच सौ साल पहले चेताया:
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे, दाय गाँठ से खात ॥ 
उधर सात समुन्दर पार शेक्सपियर ने चार सौ साल पहले लिखा:
O thou invisible spirit of wine, if thou hast no name to be known by, let us call thee devil!   O God, that men should put an enemy in their mouths to steal away their brains! that we should, with joy, pleasance revel and applause, transform ourselves into beasts! 
(अरी ओ शराब की अदृश्य आत्मा, अगर तेरा कोई ज्ञात नाम न हो, तो चलो तुझे हम शैतान के नाम से पुकारें! हे ईश्वर, कि आदमी अपने मुंह में एक बैरी रख ले जो उसकी बुद्धि का ही अपहरण कर ले! कि हम हँसते, गाते, मौज उड़ाते और तालियां बजाते खुद ही अपने आप को जानवर में परिवर्तित कर लें)
                 (Othello, Act II, Scene-3) 
टॉलस्टाय की एक कहानी है— The Imp and the Peasant's Crust. कहानी का सार  है कि शैतान ने लोमड़ी, भेंडिया और सूअर के खून से शराब बनाया। इसलिए आदमी जब शराब का पहला पेग पीता है तो लोमड़ी की तरह मीठी मीठी बातें करता है, दूसरे पेग के साथ वह भेड़िया की तरह गुर्राना शुरू करता है, तीसरा पेग उसको सूअर में बदल देता है और वह कहीं नाले में पड़ा पाया जाता है।
पर इन सब लिखी बातों से क्या अंतर पड़ता है? लोग सूअर की तरह नाले में लोटेंगे, आंखों से अंधे होंगे, अपनी जान गंवाएंगे, पर शराब पियेंगे। पैगंबर भी आकर नसीहत दें तो ये न सुनें। खुदा की भले ही जन्नत में चलती हो, धरती पर तो शैतान का ही राज है।

*सोशल मीडिया ज्ञान*

भारतीय किसान

किसी ने सही लिखा है :-
कैसा है शमशान देख ले। चल मेरा खलिहान देख ले।
अगर देखना है मुर्दा तो, चलकर एक किसान देख ले।
सर्वनाश का सर्वे कर-कर, पटवारी धनवान देख ले।
मरहम में रख नमक लगाते सरकारी अहसान देख ले।
मानसून तक मनमाना है बस बेबस मुस्कान देख ले।
कुर्की की डिक्री पर अंकित, गिरता हुआ मकान देख ले।
कल पेशी है तहसील में, कोदो कुटकी धान देख ले।
सम्मन मिला कचेहरी से है, अधिग्रहण फरमान देख ले।
तस्वीरों के पार झाँक कर. गांवों का उत्थान देख ले।
आ डिजिटल इंडिया से बाहर आ, आकर हिन्दुस्तान देख ले।


भारतीय बाबा और गुरुओं के बाजार

60 से 70 के दशक में भारतीय बाबा और गुरुओं के बाजार में सर्वप्रथम 'महेश योगी' एक बडे़ नाम के रूप में उभरे थे। यह वही समय था, जब पश्चिम जगत में 'हिप्पी आंदोलन' उभरा था। यह पश्चिम ; विशेष रूप से अमेरिका में आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक संकट का दौर था। वियतनाम में अमेरिकी बर्बरता के खिलाफ अमेरिका तथा पूरे पश्चिमी जगत में बडे़ आंदोलन चल रहे थे। पश्चिम में इसके अलावा एक अराजक पीढ़ी पैदा हुई थी, जो कथित खुशी की तलाश में पूर्वी देशों विशेष रूप से भारत, नेपाल थाईलैंड की ओर रुख कर रही थी। काठमांडू, बैंकाक, बनारस गोवा आदि में ये पश्चिमी युवक बडे़ पैमाने पर देखे जा सकते थे। ये लोग कुछ भी खा-पी लेते थे, अजीबोगरीब वेशभूषा में ये लोग विभिन्न नशे में डूबे बनारस के घाटों समुद्र तटों पर पड़े रहते थे । महान संगीतकार ' बिटल्स' का भी इस आंदोलन को साथ मिला, वे बनारस आये और लंबे समय तक यहाँ रहे भी । इस अराजक आंदोलन का फायदा सबसे अधिक फायदा भारतीय "बाबा साधुओं और कथित गुरुओं" ने उठाया। हरिद्वार, ऋषिकेश, वाराणसी के बाबाओं के आश्रम इन लोगों से भर गए! तंत्र-मंत्र साधना और योग-आध्यात्म का भारतीय बाजार चल निकला, लेकिन इसमें सबसे बड़ा नाम महेश योगी और रजनीश का उभरा था। महेश योगी योग का एक कथित नया वर्जन "भावातीत ध्यान" लेकर आए। इसमें कुछ भी नया नहीं था, केवल पुराने माल को नये रैपर में पेश किया था। महेश योगी ने हालैण्ड, स्विट्ज़रलैंड में अपने आश्रम खोले और पश्चिमी लोगों से भारी फीस लेकर यह कथित ध्यान सिखाने लगे। कोई पूछ सकता है, कि महेश योगी ने अपना यह कथित ध्यान भारतीय लोगों को क्यों नहीं उपलब्ध कराया? इसका उत्तर बहुत आसान है, क्योंकि अभी भारतीय मध्यवर्ग की यह  हालत नहीं थी, कि वह पैसे खर्च करके योग आध्यात्म के बाजार में इसे खरीद सके। महेश योगी ने अपने इस कथित ध्यान को पश्चिमी समाज के अनुकूल बनाया:- जैसे उनके आश्रम में माँसाहार  शराब या सेक्स की कोई रोक-टोक नहीं थी। महेश योगी ने पश्चिमी देशों में अपने इस कारोबार में अकूत पैसे और नाम कमाया। बाद में महेश योगी ने भारत में 'महर्षि विद्या मन्दिर' के नाम से बच्चों के स्कूल की एक श्रृंखला शुरू की, ये अंग्रेजी मीडियम के पब्लिक स्कूल थे। इनका योग आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं था। ये महंगे स्कूल आम पब्लिक स्कूलों की तरह से थे तथा यहाँ पर अध्यापकों और कर्मचारियों का उसी तरह शोषण होता था,जैसा आम निजी संस्थानों में होता है। महेश योगी का सितारे 80-90 के दशक के बाद उनकी मृत्यु होने के बाद करीब-करीब डूब गए, हाँलाकि देश-विदेश में उनके अनेक संस्थान और स्कूल आज भी चल रहे हैं, लेकिन इसका बड़ा कारण यह था कि धर्म और आध्यात्म के इस धंधे में कुछ बडे़ खिलाड़ी और आ गए थे! इसमें बड़ा नाम 'रजनीश' का था, लेकिन रजनीश का मूल्यांकन फिर कभी विस्तार से करूँगा, क्योंकि उनके लिए एक स्वतंत्र पोस्ट की जरूरत है। 90 के दशक में अपने देश तथा दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ मजदूर किसानों तथा आम जनता के लिए ; जहाँ तबाही बर्बादी लेकर आई, वही एक बड़ा भारतीय मध्यवर्ग भी पैदा हुआ। इस वर्ग की कोई विचारधारा नहीं थी, इसकी केवल पैसा ही विचारधारा थी। यह वर्ग हद दर्जे का स्वार्थी अमानवीय और मतलबी था, यह पैसे कमाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था। यह मूलतः भारतीय सवर्ण जाति का था, इसमें डॉक्टर, इंजीनियर बडे़ नौकरशाही तो थे ही, प्राइवेट कंपनियों और बैंकों आदि में काम करने वाले बडे़ अधिकारी भी थे। इन लोगों के पास जायज नाजायज तरीकों से कमाया अपार पैसे है। अब इसके पास इतने पैसे थे, कि धर्म आध्यात्म योग आदि को मुँह माँगे पैसे से भारत में ही खरीद सके । इनकी इस माँग की पूर्ति करने के लिए दो बडे़ गुरु बाजार में उतरे,इसमें  एक थे 'श्री श्री श्री रविशंकर' और दूसरे 'रामदेव'। रविशंकर मूलतः उच्च मध्यवर्ग के गुरु हैं। ये खाए-पीए अघाए इस वर्ग को कथित रूप से खुशी उपलब्ध कराते हैं ,'आर्ट आफ लिविंग' नाम से इनके लोगों की कथित योग-साधना आप बडे़ शहरों में मैदानों आदि में देख सकते हैं। रात-दिन किसी भी उपाय से पैसे कमाने की धुन ने इस वर्ग के चेहरों से मुस्कान-हँसी छीन ली है, यह वर्ग तरह-तरह के मानसिक बीमारियाँ और अनिद्रा आदि का शिकार है। रविशंकर बाबा इन लोगों को खुश रहने का उपाय पैसे लेकर बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते कि उनके दुखों  का मुख्य कारण धन की अधिकता है। इस दौर के दूसरे बडे़ बाबा 'रामदेव' है। इनकी लंबी यात्रा धर्म और आध्यात्म-योग से लेकर कॉरपोरेट बनने तक की है। इनके बारे में पहले भी बहुत कुछ लिखा पढ़ा गया है, इसलिए केवल संक्षिप्त में कुछ बातें। रामदेव का प्रारंभिक जीवन रहस्यमय और विवादास्पद है। हरिद्वार के पातंजलि योगपीठ नामक एक छोटे से आश्रम से इनकी कहानी शुरू होती है  । वहाँ इनके गुरु एक दिन रहस्यमय तरीके से गायब हो जाते हैं। वे फिर कभी वापस नहीं आते हैं। उनके गायब होने का आरोप रामदेव पर लगा, लेकिन यह आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ। इसके बाद ही वे पातंजलि योगपीठ के सर्वेसर्वा बन गए, यहीं से उनकी यात्रा की शुरुआत हुई। रामदेव ने दावा किया था, कि वे योग के कुछ नए सूत्र खोज कर लाए हैं, लेकिन उनके योग में नया कुछ भी नहीं था ; नयी थी तो उनकी मार्केटिंग। हर शहर में उनके आठ-दस दिन के योग शिविर लगने लगे, वहाँ पर टिकट लगाकर सुबह-सुबह योग-आसनों की कसरतें होने लगी। रामदेव ने योग, आध्यात्म और अंधराष्ट्रवाद की कुछ ऐसी खिचड़ी पकाई, जो मध्यवर्ग को बहुत स्वादिष्ट लगी। उन पर अपार पैसे बरसने लगे । इस सबसे उन्हें यह भ्रम  हो गया, कि वे राजनीति में भी सफल हो सकते हैं, लेकिन इस क्षेत्र में मौजूद घुटे-घुटाये राजनीतिक लोगों ने उनकी कमर तोड़ दी। उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी भी बनाई, लेकिन दिल्ली के रामलीला मैदान में धरना देते समय रात में पुलिस लाठीचार्ज के बाद सलवार पहन कर भागने के बाद उनके राजनीतिक जीवन का अवसान हो गया, इसके बाद उनके एक  योगगुरु से काॅरपोरेट बनाने की यात्रा से सभी परिचित हैं। उनके ऊपर लिखी पुस्तक " ऐ गाडमैन टू काॅरपोरेट " में उनकी यात्रा के बारे में ये चीजें बहुत विस्तार से लिखी हैं । 
 वास्तव ये कुछ प्रतिनिधि उदाहरण मात्र है, हमारे देश साधु-महात्मा योगगुरुओं की रूप में ठगों की भरमार है। ये अरबों-खरबों के मालिक  और इनकी एक अवैध काली अर्थव्यवस्था है। भारतीय मध्यमवर्ग भले ही यूरोपीय मध्यवर्ग की तरह बहुत शानदार जीवन जी रहा हो ,लेकिन यह बहुत पिछड़ा अंधविश्वासी और सामंती मूल्य-मान्यताओं से ग्रस्त हैं। एक बात और है,ये सारे 'गाडमैन' और  मध्यवर्ग  भारतीय फासीवाद के जबरदस्त समर्थक हैं, इसलिए भारतीय फासीवादी और पूंजीवाद की  लड़ाई तर्क, बुद्धि और विवेक के बिना पूरी नहीं हो सकती है।
Swadesh Sinha


रामचरित मानस में सुधार

जानकारी आ रही है कि रामचरितमानस की लगभग 50 लाख कॉपी छपी है जिसमे #विवादास्पद_लाइन- "ढोल गवाँर सूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी" में ताड़ना का अर्थ "दंड" से बदलकर नए संस्करणों में "शिक्षा" कर दिया है।

धोखे में मत रहना



*आहों से पत्थर पिघलेगा इस धोखे में मत रहना*,

*बिना लड़े इन्साफ मिलेगा, इस धोखे में मत रहना*।

*भारत के ज़र्रे ज़र्रे में, अपना अपना हिस्सा है,* 

*बुला बुला कर कोई देगा, इस धोखे में मत रहना।*

*भाग्य और भगवान तो प्यारे, केवल एक छलावा है*, 

*ईश्वर ही कल्याण करेगा, इस धोखे में मत रहना*।

*कहा किसी ने तेरे हाथों में, धन दौलत की रेखा है,*

*छप्पर फाड़कर धन बरसेगा, इस धोखे में मत रहना।*

*शिक्षित और संगठित होकर,खुद पर तुम विश्वास करो।*

*और कोई संघर्ष करेगा, इस धोखे में मत रहना।*

 *संविधान की रक्षा करना, शासकों की जिम्मेदारी है,*

 *संविधान तुम्हारी रक्षा करेगा, इस धोखे में न रहना।*

 *भगवान की रक्षा करना, पंडो, पुरोहितों की जिम्मेदारी है*,

 *भगवान तुम्हारी रक्षा करेगा, इस धोखे में न रहना।*

*कोई अवतार लेगा इस दुनिया मे, ये सिर्फ बकवास है।*

*बिना लड़े इन्साफ मिलेगा, इस धोखे में मत रहना*,

व्हाट्सएप ज्ञान

Friday, 27 January 2023

बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता – इवान वसील्येविच बाबुश्किन - आलोक रंजन

मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा - 

बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता – इवान वसील्येविच बाबुश्किन - आलोक रंजन

वर्ग-सचेत मज़दूरों के बहादुर बेटे जब एक बार अपनी मुक्ति के दर्शन को पकड़ लेते हैं, जब एक बार वे सर्वहारा क्रान्ति के मार्गदर्शक सिद्धान्‍त को पकड़ लेते हैं तो फिर उनकी अडिग निष्‍ठा, शौर्य, व्‍यावहारिक जीवन की जमीनी समझ और सर्जनात्‍मकता उन्‍हें हमारे युग के नये नायकों के रूप में ढाल देती है। ऐसे लोग उस करोड़ों-करोड़ आम मेहनतकश जनसमुदाय के उन सभी वीरोचित उदात्‍त गुणों को अपने व्‍यक्तित्‍व के जरिए प्रकट करते हैं, जो इतिहास के वास्‍तविक निर्माता और नायक होते हैं। इसलिए ऐसे लोग क्रान्तिकारी जनता के सजीव प्रतिनिधि चरित्र और इतिहास के नायक बन जाते हैं और उनकी जीवन-गाथा एक महाकाव्‍यात्‍मक आख्‍यान बन जाती है। 

'बिगुल' के इस अनियमित स्‍तम्‍भ में हम दुनिया की सर्वहारा क्रान्तियों की ऐसी ही कुछ हस्तियों के बारे में उन्‍हीं के समकालीन किसी महान क्रान्तिकारी नेता या लेखक की संस्‍मरणात्‍मक टिप्‍पणी या रेखाचित्र समय-समय पर अपनी टिप्‍पणी के साथ प्रकाशित करते रहेंगे। ये ऐसे लोगों की गाथाएं होंगी जिन्‍होंने शोषण-उत्‍पीड़न की निर्मम-अंधी दुनिया के अंधेरे से ऊपर उठकर जिन्‍दगी भर उस अंधेरे से लोहा लिया औश्र क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि चरित्र बन गये। वे क्रान्तिकथाओं के ऐसे नायक थे, जो इतिहास-प्रसिद्धा तो नहीं थे पर जिनकी जिन्‍दगी से यह शिक्षा मिलती है कि श्रम करने वाले लोग जब ज्ञान तक पहुंचते हैं और अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढ लेते हैं तो फिर किस तरह अडिग-अविचल रहकर वे क्रान्ति में हिस्‍सा लेते हैं। उनके भीतर ढुलमुलपन, कायरता, कैरियरवाद, उदारतावाद और अल्‍पज्ञान पर इतराने जैसे दुर्गुण नहीं होते जो मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवियों से आने वाले कम्‍युनिस्‍टों में क्रान्तिकारी जीवन के लम्‍बे समय तक बने रहते हैं और पार्टी में तमाम भटकावों को बल देने में अहम भूमिका निभाते हैं। 
हमारा दृढ़ विश्‍वास है कि भारतीय मज़दूरों के बीच से भी ऐसे ही वर्ग-सचेत बहादुर सपूत आगे आयेंगे। सर्वहारा वर्ग की पार्टी के क्रान्तिकारी चरित्र के बने रहने की एक बुनियादी शर्त है कि मेहनतकशों के बीच के ऐसे सम्‍भावनायुक्‍त तत्‍वों की राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा करके उन्‍हें निखारा-मांजा जायेगा और क्रान्तिकारी कतारों में भरती किया जाये।
                                                  - सम्‍पादक
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रूस में जिन थोड़े से उन्नत चेतना वाले मज़दूरों ने कम्युनिज़्म के विचारों को सबसे पहले स्वीकार किया और फिर आगे बढ़कर पेशेवर क्रान्तिकारी संगठनकर्ता की भूमिका अपनायी तथा पूरा जीवन पार्टी खड़ी करने और क्रान्ति को आगे बढ़ाने के काम में लगाया उनमें पहला नाम इवान वसील्येविच बाबुश्किन (1873-1906) का आता है। 1894 में बाबुश्किन जब कम्युनिस्ट बना तो उसकी उम्र महज़ 21 वर्ष थी।

लेनिन 1893 में पीटर्सबर्ग आये। इसके पूर्व 1887 में कज़ान विश्वविद्यालय में पढ़ते समय लेनिन ने क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलनों में हिस्सा लेते हुए 17 वर्ष की आयु में फेदोसेयेव नामक व्यक्ति द्वारा चलाये जाने वाले मार्क्सवादी मण्डल में हिस्सा लेना शुरू किया। क्रान्तिकारी छात्र आदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ़्तारी और निष्कासन के बाद लेनिन ने अद्भुत गति और एकाग्रता से मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया। कज़ान से समारा पहुँचने के बाद लेनिन ने उस शहर में पहला मार्क्सवादी मण्डल क़ायम किया। 1893 के अन्त में वे पीटर्सबर्ग पहुँचे। वहाँ के मार्क्सवादी मण्डलों के सदस्य उनके सैद्धान्तिक-व्यावहारिक ज्ञान और सांगठनिक क्षमता से बहुत प्रभावित हुए और लेनिन उनके नेता बन गये। यहीं 1894 में उनकी मुलाक़ात क्रान्तिकारी क्रूप्स्काया से हुई जो बाद में उनकी जीवन-संगिनी भी बनीं।

इवान बाबुश्किन पीटर्सबर्ग के सेम्यान्निकोव कारख़ाने में काम करने वाला युवा मज़दूर था, जो आम मज़दूरों से अलग, अपनी ज़िन्दगी के हालात और पूँजीपतियों के शोषण-उत्पीड़न के बारे में हमेशा सोचता रहता था। उसे मुक्ति के रास्ते की बेचैनी से तलाश थी। उन दिनों मज़दूरों और छात्रें में ज़ारशाही विरोधी जो नयी सरगर्मियाँ थीं, उनका उत्सुकतापूर्वक अध्ययन करते हुए वह मार्क्सवादियों के सम्पर्क में आया। बाबुश्किन का लेनिन से सम्पर्क हुआ और उनसे मार्क्सवाद की शिक्षा लेते हुए वह उन्हें बेहद प्यार करने लगा। लेनिन ने एक योग्य संगठनकर्ता के रूप में बाबुश्किन की सम्भावनाओं को पहचाना और उन्हें विकसित किया।

बाबुश्किन की धीरज भरी, अनथक कोशिशों से ही सेम्यान्निकोव कारख़ाने में मज़दूरों का मार्क्सवादी मण्डल संगठित हुआ।

मण्डल के अध्ययन चक्रों में मार्क्सवाद पर लेनिन के व्याख्यानों और मज़दूरों से उनके सवाल-जवाबों को याद करते हुए बाबुश्किन ने लिखा है: "व्याख्याता बिना कोई पुस्तक या नोट्स सामने रखे, हम लोगों के सामने इस (मार्क्सवादी) विज्ञान की व्याख्या करता था और अक्सर हमें वह अपने कहे पर आपत्तियाँ उठाने के लिए, या फिर बहस शुरू करने के लिए उकसाता था। फिर वह बहस करने वालों को आपस में वाद-विवाद करने देता था। इससे पढ़ाई जीवन्त और दिलचस्प हो जाती थी… हम सभी इससे बहुत ख़ुश होते थे और अपने शिक्षक की क्षमता की तारीफ़ करते थे।"

पीटर्सबर्ग के सभी उन्नत चेतना वाले मज़दूर लेनिन को प्यार करने लगे और उन्हें अपना नेता मानने लगे। बाबुश्किन के तेज़ी से हो रहे विकास और सांगठनिक-राजनीतिक नेतृत्वकारी गुणों से लेनिन बहुत प्रभावित हुए।

1894 के अन्त में बाबुश्किन के ही सहयोग से लेनिन ने पहला आन्दोलनकारी परचा लिखा और सेम्यान्निकोव कारख़ाने के हड़ताली मज़दूरों के नाम एक अपील निकाली।

1895 में लेनिन ने पीटर्सबर्ग के सभी मार्क्सवादी मज़दूर मण्डलों को (जिनकी संख्या उस समय 20 के आसपास थी) जोड़कर मज़दूर मुक्ति संघर्ष की पीटर्सबर्ग लीग नामक संगठन बनाया, जो तत्कालीन मज़दूर आन्दोलन के साथ समाजवाद की विचारधारा और राजनीति को जोड़ने वाला पहला संगठन था। मुक्ति संघर्ष लीग (संक्षिप्त नाम) के गठन में भी बाबुश्किन की प्रमुख सहयोगी भूमिका थी। 1895-96 में पीटर्सबर्ग मज़दूर हड़तालों का केन्द्र बन गया था। इन हड़तालों के समर्थन में मुक्ति संघर्ष लीग परचे निकालकर मज़दूरों को संघर्ष का रास्ता बताता था, उन्हें अपनी माँगें पेश करने और लड़ने का तरीक़ा बताता था, कारख़ाना-मालिकों की लूट और अमानवीय उत्पीड़न का तथा उनकी पीठ पर खड़ी ज़ारशाही का भण्डाफोड़ करता था। इन सभी परचों की तैयारी में बाबुश्किन लेनिन का अनन्य सहयोगी था। इन्हें मज़दूरों तक पहुँचाने और आन्दोलनों में भागीदारी में भी उसकी भूमिका अग्रणी थी। 1895 के शरद में लेनिन ने थार्नटन मिल के स्त्री-पुरुष हड़ताली मज़दूरों के लिए जो परचा लिखा, वह उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने में विशेष मददगार सिद्ध हुआ। मज़दूर अपनी लड़ाई जीत गये। इसके बाद थोड़े से समय में ही मुक्ति संघर्ष लीग ने विभिन्न कारख़ानों के मज़दूरों के लिए दज़र्नों परचे और अपीलें निकालीं। मज़दूरों में संगठन का व्यापक आधार तैयार हुआ। बड़े पैमाने पर मज़दूर मार्क्सवाद को स्वीकार कर पार्टी में भरती होने लगे।

दिसम्बर, 1895 में ज़ारशाही ने लेनिन को गिरफ़्तार कर लिया, पर जेल से वे गुप्त सम्पर्क बनाकर मुक्ति संघर्ष लीग की मदद करते रहे तथा लगातार पुस्तिकाएँ और परचे लिखते रहे। उधर बाहर बाबुश्किन के साथ अब मजदूर संगठनकर्ताओं की एक पूरी टीम खड़ी हो गयी थी जो खुली और गुप्त कार्यवाहियों में दिन-रात लगी हुई थी। ऐसा ही एक मज़दूर संगठनकर्ता वासिली आन्द्रियेविच शेल्गुनोव भी था, जो बाद में अन्धा हो गया था।

1896 की गर्मी में मुक्ति संघर्ष लीग के नेतृत्व में पीटर्सबर्ग के तीस हज़ार सूती मज़दूरों की हड़ताल काम के घण्टों को कम करने के प्रश्न पर हुई। इसी हड़ताल के दबाव में ज़ारशाही को जून, 1897 में क़ानून बनाकर काम के घण्टों पर साढ़े ग्यारह घण्टे की सीमा लगानी पड़ी।

पीटर्सबर्ग की मुक्ति-संघर्ष लीग की स्थापना से 1898 में रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की स्थापना तक की यात्र में सबसे अधिक योगदान करने वालों में बाबुश्किन एक था।

1900 में पहले अखिल रूसी ग़ैरकानूनी अख़बार 'ईस्क्रा' का प्रकाशन शुरू हुआ। इसके पीछे लेनिन की एक ऐसे अख़बार की सोच काम कर रही थी जो मज़दूर वर्ग के शिक्षक, प्रचारक, आन्दोलनकर्ता और संगठनकर्ता की भूमिका निभाते हुए पार्टी-निर्माण और पार्टी-गठन के काम में कुंजीभूत भूमिका निभाये।

म्यूनिख़, लन्दन और जेनेवा से प्रकाशित होकर 'ईस्क्रा' गुप्त रूप से रूस पहुँचता रहा। पीटर्सबर्ग, मास्को आदि शहरों में मज़दूरों तक अख़बार पहुँचाने और पार्टी की लेनिनवादी 'ईस्क्रा' नीति का समर्थन करने वाली कमेटियों-ग्रुपों का जाल बिछा देने में बाबुश्किन, गुसेव, कालीनिन, बौमान आदि पेशेवर क्रान्तिकारियों की अग्रणी भूमिका थी।

लेनिन के शब्दों में बाबुश्किन "ईस्क्रा के सबसे कर्मठ संवाददाता और जोशीले समर्थक थे।" विशाल रूस के विभिन्न शहरों से रिपोर्ट इकट्ठा करके सम्पादकों को भिजवाना, अख़बार का वितरण सुनिश्चित करना और इसके वितरकों-एजेण्टों के तन्त्र के ज़रिये पार्टी का ताना-बाना खड़ा करना – इन सभी कामों में बाबुश्किन की अग्रणी भूमिका थी। एक बार दक्षिणी रूस के येकातेरीनोस्लाव शहर में इन्हीं कामों के दौरान उसे गिरफ़्तार भी कर लिया गया, पर खिड़की की छड़ें काटकर वह जेल से भाग निकला और कोई भी विदेशी भाषा न जानने के बावजूद सीधे लन्दन, 'ईस्क्रा' के आफिस पहुँच गया।

1903 में पार्टी की दूसरी कांग्रेस के समय बाबुश्किन सुदूर उत्तर में निर्वासित जीवन बिता रहा था। पर इस दौरान भी वह लगातार अध्ययन कर रहा था और अन्य निर्वासित मज़दूरों में बोल्शेविज़्म का प्रचार कर रहा थ्ज्ञा।

1905 में आम माफी से निर्वासन-दण्ड की समाप्ति हुई, पर इस समय तक साइबेरिया में भी क्रान्ति की आग फैलने लगी थी। बाबुश्किन पार्टी की इर्कुत्स्क कमेटी के सदस्य के रूप में वहाँ काम करने लगा।

1905-07 की क्रान्ति में उसने जमकर भागीदारी की। चिता नगर के हथियारबन्द विद्रोह का वह भी एक नेता था। उसी दौरान एक रेल डिब्बे में भरकर पाँच साथियों के साथ चिता से हथियारों की एक बड़ी खेप ले जाते समय ज़ारशाही के ताजीरी दस्ते ने उसे पकड़ लिया और गोली मार दी।

बाबुश्किन का जीवन इस बात का प्रमाण था कि उन्नत चेतना के मज़दूर राजनीति और विचारधारा से लैस होकर नेतृत्वकारी क्षमताओं वाले संगठनकर्ता बन सकते हैं। ऐसे सर्वहारा चरित्र तैयार करके कोई भी पार्टी अपनी सफलता की एक बुनियादी गारण्टी हासिल करती है।

बाबुश्किन का जीवन भारत के क्रान्तिकारी संगठनकर्ताओं और वर्ग-सचेत मज़दूरों के लिए भी अक्षय प्रेरणा का स्रोत है।
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बाबुश्किन की मृत्यु की सूचना पार्टी के साथियों को बरसों बाद मिली। यह सूचना मिलने के बाद उनकी स्मृति में पार्टी-पत्र 'राबोचाया गजेता में लेनिन ने जो प्रसिद्ध लेख (निधन सूचना) लिखा था, उसे हम यहाँ अलग से प्रकाशित कर रहे हैं।
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* निधन सूचना - लेनिन

हम अभिशप्त काल में रह रहे हैं, जब ऐसी बातें सम्भव हैं : पार्टी का विलक्षण कार्यकर्ता, जिस पर सारी पार्टी को गर्व है, वह साथी, जिसने अपना सारा जीवन मज़दूरों के ध्येय को अर्पित किया, लापता हो जाता है। और उसके निकटतम सम्बन्धी, जैसे कि पत्नी और माँ, घनिष्ठतम साथी बरसों तक यह नहीं जानते कि उसका क्या हुआ : कहीं कठोर श्रम-कारावास में वह हड्डियाँ गला रहा है या किसी जेल में उसने दम तोड़ दिया है या शत्रु के साथ टक्कर में वीरगति को प्राप्त हुआ है। यही इवान वसील्येविच बाबुश्किन के साथ हुआ, जिन्हें रेन्नेनकाम्प्फ ने गोली मार डाली। अभी हाल ही में हमें उनकी मृत्यु का पता चला है।

इवान बाबुश्किन का नाम हमारे मन के निकट है, हमारे मन को प्रिय है, केवल हम सामाजिक-जनवादियों के मन को ही नहीं। जितने भी लोगों ने उन्हें जाना, सभी के मन में उनका तेज, उनकी गहन और प्रबल क्रान्तिकारी भावना, अपने ध्येय में उनकी निष्ठा और शब्दाडम्बर से दूरी देखकर उनके प्रति प्रेम और आदर जागा। पीटर्सबर्ग के इस मज़दूर ने 1895 में दूसरे वर्ग-चेतन साथियों के साथ मिलकर नेवस्कया जस्तावा के इलाके में सेम्यान्निकोव और अलेक्सान्द्रोव कारखानों के व काँच फैक्टरी के मज़दूरों के बीच जोरदार काम किया, मण्डल गठित किये, पुस्तकालय खोले और सारा समय स्वयं भी पूरी लगन से शिक्षा पाता रहा।

उनके सारे विचार एक ही बात पर केन्द्रित थे कि काम कैसे अधिक फैलाया जाये। 1894 के पतझड़ में सेंट पीटर्सबर्ग में निकाले गये पहले प्रचार परचे को, जो सेम्यान्निकोव कारखाने के मज़दूरों को सम्बोधित था, तैयार करने में इवान वसील्येविच ने सक्रिय भाग लिया और ख़ुद अपने हाथों से उसे बाँटने का काम किया। जब सेंट-पीटर्सबर्ग में 'मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाली लीग' गठित हुई, तो इवान वसील्येविच उसके एक सबसे सक्रिय सदस्य बने और अपनी गिरफ़्तारी तक उसमें काम करते रहे। पीटर्सबर्ग में उनके साथ करते रहे पुराने साथियों – 'इस्क्रा' के संस्थापकों – ने उनके साथ इस विचार पर सलाह-मशविरा किया था कि विदेश में ऐसा राजनीतिक समाचारपत्र स्थापित किया जाये, जो सामाजिक-जनवादी पार्टी की एकता और सुदृढ़ता बढ़ाने में सहायक हो, और इस विचार पर उनका ज़ोरदार समर्थन पाया था। जब तक इवान वसील्येविच आज़ाद रहे, 'ईस्क्रा' के पहले बीस अंक देखिये, शूया, इवानोवो-वोज्जेसेन्स्क, ओरेखोवो-जूयेवो तथा केन्द्रीय रूस के दूसरे स्थानों से ये सारी रिपोर्टें – इनमें प्रायः सभी इवान वसील्येविच के हाथों से गुजरीं। 'ईस्क्रा' और मज़दूरों के बीच घनिष्ठतम सम्बन्ध बनाने के लिए वे प्रयत्नशील रहे। वे 'ईस्क्रा' के सबसे कर्मठ संवाददाता और जोशीले समर्थक थे। केन्द्रीय रूस से बाबुश्किन दक्षिण में, येकातेरीनोस्लाव नगर को चले गये (वहाँ उन्हें गिरफ़्तार करके अलेक्सान्द्रोव्स्क जेल में रखा गया। वहाँ से अपने एक साथी के साथ खिड़की के सींखचे काटकर वे भाग निकले। एक भी विदेशी भाषा उन्हें नहीं आती थीं, तो भी लन्दन पहुँच गये, जहाँ तब 'ईस्क्रा' का सम्पादकीय कार्यालय था। बहुत सी बातें हुई थीं तब, बहुत से सवालों पर मिलकर सोच-विचार किया था। लेकिन इवान वसील्येविच पार्टी की दूसरी कांग्रेस में भाग नहीं ले पाये… जेलों और निर्वासन ने उन्हें देर तक कुछ करने योग्य न छोड़ा। क्रान्ति की उठती लहर नये कार्यकर्ताओं को, पार्टी के नये नेताओं को सामने ला रही थी, और बाबुश्किन इस बीच पार्टी के जीवन से कटे सुदूर उत्तर में, वेर्खोयांस्क में, रह रहे थे। पर उन्होंने समय व्यर्थ नहीं गँवाया, अध्ययन करते रहे, संघर्ष के लिए, अपने को तैयार करते रहे, निर्वासन में अपने साथ मज़दूरों के बीच सक्रिय रहे, उन्हें सचेतन सामाजिक-जनवादी और बोल्शेविक बनाने के प्रयासों में जुटे रहे। 1905 में राज-क्षमा का आदेश आया और बाबुश्किन रूस को लौट चले। लेकिन उन दिनों साइबेरिया में भी ज़ोरों से संघर्ष चल रहा था और वहाँ भी बाबुश्किन जैसे लोगों की ज़रूरत थी। वे इर्कुत्स्क समिति के सदस्य बन गये और तन-मन से काम में जुट गये। उन्हें सभाओं में भाषण देने पड़ते थे, सामाजिक-जनवादी आन्दोलन चलाना और विद्रोह का संगठन करना पड़ता था। जब बाबुश्किन अपने पाँच अन्य साथियों के साथ – खेदवश हम उनके नाम नहीं जानते – एक अलग रेल डिब्बे में हथियारों की बड़ी खेप चिता[*] नगर को ले जा रहे थे, तो साइबेरिया में विद्रोह को कुचलने के लिए भेजे गये रेन्नेनकाम्प्फ** के अभियान दल ने रेलगाड़ी रोक ली और छहों के छहों को बिना किसी सुनवाई के वहीं पर जल्दबाजी में खोदी गयी एक साझी कब्र के किनारे खड़ा करके गोलियों से मार डाला। वे वीरों की मौत मरे। प्रत्यक्षदर्शी सैनिकों ने और इस रेलगाड़ी पर जो रेल कर्मचारी थे, उन्होंने उनकी मृत्यु के बारे में बताया। बाबुश्किन जारशाही के लठैत की पाशविक बर्बरता के शिकार हुए। लेकिन मरते समय वह यह जानते थे कि जिस ध्येय को उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया है, वह नहीं मरेगा, कि लाखों-करोड़ों लोग यह कार्य करेंगे, कि इस ध्येय के लिए दूसरे साथी मज़दूर प्राण देंगे, कि वे तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक कि विजय नहीं पा लेते।…

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कुछ लोग ये किस्से गढ़ और फैला रहे हैं कि रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी "बुद्धिजीवियों की" पार्टी है, कि मज़दूर उससे कटे हुए हैं, कि रूस में मज़दूर सामाजिक-जनवादी हैं, कि ऐसा खास तौर पर क्रान्ति से पहले और बहुत हद तक क्रान्ति के दौरान था। उदारतावादी उस क्रान्तिकारी जन संघर्ष से, जिसका नेतृत्व 1905 में रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी ने किया, अपनी घृणा के कारण यह झूठ फैला रहे हैं और समाजवादियों में से कुछ अपनी नासमझी या लापरवाही के कारण इसे दोहरा रहे हैं। इवान वसील्येविच बाबुश्किन का जीवन, इस ईस्क्रा-समर्थक मज़दूर का दस वर्ष का सामाजिक-जनवादी कार्य उदारपंथियों के इस झूठ का साफ खण्डन करता है। बाबुश्किन उन अग्रणी मज़दूरों में से एक थे, जिन्होंने क्रान्ति से दस साल पहले मज़दूरों की सामाजिक-जनवादी पार्टी बनानी शुरू की थी। सर्वहारा-समूहों में ऐसे अग्रणी लोगों के अथक, वीरतापूर्ण और सतत कार्य के बिना रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी दस साल तो क्या, दस महीनों तक भी न बनी रह पाती। ऐसे अग्रणी लोगों की गतिविधियों की बदौलत ही, उनके समर्थन की बदौलत ही 1905 तक सी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी ऐसी पार्टी बन गयी थी जो अक्टूबर और दिसम्बर के महान दिनों में सर्वहारा के साथ अभिन्न रूप से एकाकार हो गयी, जिसने न केवल दूसरी दूमा में, बल्कि तीसरी यमदूत सभाई दूमा में भी अपने मजदूर प्रतिनिधियों के रूप में यह सम्बन्ध बनाये रखा।

उदारतावादी (कैडेट) पहली दूमा के अध्यक्ष स.अ. मूरोम्त्सेव को, जिनका अभी कुछ समय पहले निधन हुआ है, जन-नायक बनाना चाहते हैं। हमें, सामाजिक-जनवादियों को, जारशाह सरकार के प्रति अपनी घृणा प्रकट करने का मौका नहीं चूकना चाहिए, उस सरकार के प्रति, जो मूरोम्त्सेव जैसे नरमपंथी और नपुंसक अधिकारियों पर भी अत्याचार करती थी। मूरोम्त्सेव सिर्फ़ नरमपंथी अधिकारी थे। जनवादी तो उन्हें किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता। वह जन साधारण के क्रान्तिकारी संघर्ष से डरते थें वह ऐसे संघर्ष से रूस के लिए मुक्ति पाने की आशा नहीं करते थे, बल्कि स्वेच्छाचारी जारशाही की सद्भावना से, रूसी जनता के इस निकटतम और निर्मम शत्रु के साथ समझौते से। ऐसे लोगों को रूसी क्रान्ति का जन-नायक कहना हास्यास्पद ही है।

लेकिन ऐसे जन-नायक हैं। ये बाबुश्किन जैसे लोग हैं। वे लोग, जिन्होंने क्रान्ति से पहले साल-दो साल नहीं, बल्कि पूरे दस साल मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष को अर्पित किये। ये वे लोग हैं, जिन्होंने इक्के-दुक्कों की आतंकवादी कार्रवाइयों में अपनी शक्ति व्यर्थ नहीं गँवायी, बल्कि दृढ़तापूर्वक, अडिगता से सर्वहारा जन-समूहों में काम करते रहे, उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियाँ विकसित करने में मदद करते रहे। ये वह लोग हैं, जिन्होंने संकट की घड़ी आने पर, क्रान्ति के शुरू होने पर, कोटि-कोटि लोगों के गतिशील होने पर स्वेच्छाचारी जारशाही के विरुद्ध सशस्त्र जन-संघर्ष की अगुवाई की। स्वेच्छाचारी जारशाही से जो कुछ जीता गया वह केवल जनसमूहों के संघर्ष से ही जीता गया, उस संघर्ष से, जिसका नेतृत्व बाबुश्किन जैसे लोगों ने किया।

ऐसे लोगों के बिना रूसी जनता सदा दासों और तलवा चाटने वालों की जनता रहती। ऐसे लोगों के साथ रूसी जनता हर तरह के शोषण से पूर्ण मुक्ति पा लेगी।

1905 के दिसम्बर विद्रोह के पाँच वर्ष पूरे हो गये हैं। आइये, हम शत्रु के साथ संघर्ष में वीरगति को प्राप्त हुए अग्रणी मज़दूरों की स्मृति में शीश नवाकर यह वर्षगाँठ मनायें। मज़दूर साथियों से हमारा अनुरोध है कि वे उन दिनों के संघर्ष के बारे में संस्मरण जमा करके हमें भेजें, बाबुश्किन के बारे में अतिरिक्त जानकारी भी भेजें और 1905 के विद्रोह में शहीद हुए दूसरे सामाजिक-जनवादी मज़दूरों के बारे में भी। हम ऐसे मज़दूरों की जीवनियों की पुस्तिका छापने का इरादा रखते हैं। ऐसी पुस्तिका उन सब लोगों को करारा जवाब होगी, जो रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी में पूरा विश्वास नहीं रखते और जो उसकी भूमिका को घटाकर दिखाना चाहते हैं। ऐसी पुस्तिका युवा मज़दूरों के लिए श्रेष्ठ पठन-सामग्री होगी। वे इससे यह सीखेंगे कि हर वर्ग-चेतन मज़दूर को कैसे जीना और काम करना चाहिए।

(राबोचाया गजेता अंक, 18, (31) दिसम्बर 1910 खण्ड 20, पृ. 79-83)

मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा - इवान वसील्येविच बाबुश्किन - बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता - https://go.shr.lc/3G5rOLg

Thursday, 26 January 2023

संविधान

*आहों से पत्थर पिघलेगा इस धोखे में मत रहना*,

*बिना लड़े इन्साफ मिलेगा, इस धोखे में मत रहना*।

*भारत के ज़र्रे ज़र्रे में, अपना अपना हिस्सा है,* 

*बुला बुला कर कोई देगा, इस धोखे में मत रहना।*

*भाग्य और भगवान तो प्यारे, केवल एक छलावा है*, 

*ईश्वर ही कल्याण करेगा, इस धोखे में मत रहना*।

*कहा किसी ने तेरे हाथों में, धन दौलत की रेखा है,*

*छप्पर फाड़कर धन बरसेगा, इस धोखे में मत रहना।*

*शिक्षित और संगठित होकर,खुद पर तुम विश्वास करो।*

*और कोई संघर्ष करेगा, इस धोखे में मत रहना।*

 *संविधान की रक्षा करना, सब की जिम्मेदारी है,*

*कोई और बेड़ा पार करेगा, इस धोखे में मत रहना।*

*बिना लड़े इन्साफ मिलेगा, इस धोखे में मत रहना*,

जय भीम                      जय संविधान       🙏🙏🙏

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26 जनवरी आर्काइव्ज

 रामकथा: उत्पत्ति और विकास’- फ़ादर क़ामिल बुल्के



यह जानकर आश्चर्य होता है कि किसी ईसाई मिशनरी की सर्वश्रेष्ठ कृति हिंदू देवता राम से संबंधित हो सकती है. लेकिन यह सच है कि ज्यादातर आलोचकों की नजर में फादर कामिल बुल्के रचित ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है. यूं तो उन्होंने इस विषय पर ही अपनी पीएचडी थीसिस जमा की थी. लेकिन इस विषय पर वे बाद में 18 साल तक काम करते रहे. इस ग्रंथ के बारे में उनके गुरु और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ धीरेंद्र वर्मा ने लिखा, ‘इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है. वास्तव में यह शोध पत्र अपने ढंग की पहली रचना है. हिंदी क्या किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है.’


 इस शोध में उन्होंने कई उदाहरणों से साबित किया कि रामकथा अंतरराष्ट्रीय कथा है जो वियतनाम से लेकर इंडोनेशिया तक फैली है. 


फादर कामिल बुल्के की नजर में हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास थे. तुलसीदास की रचनाओं को समझने के लिए उन्होंने अवधी और ब्रज तक सीखी. उन्होंने रामकथा और तुलसीदास और मानस-कौमुदी जैसी रचनाएं तुलसीदास के योगदान पर ही लिखी थीं.

उन्होंने 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए शोध प्रबंध अंग्रेजी के बजाय हिंदी में ही लिखा. उनसे पहले देश के सभी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में शोध प्रबंध लिखने का नियम नहीं था. हालांकि वे खुद अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लै​टिन और ग्रीक भाषाओं में सहज थे. लेकिन उन्होंने अपने गाइड और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान माता प्रसाद गुप्त से साफ कह दिया कि वे शोध-प्रबंध लिखेंगे तो हिंदी में ही.


हिंदी भाषा के प्रति किसी विदेशी छात्र के इस लगाव ने तमाम लोगों को अचंभित कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े. इसके बाद ही देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में शोधकर्ताओं को अपनी भाषा में थीसिस जमा करने की अनुमति मिलने लगी. 


856 पृष्ठ के इस ग्रन्थ को डाउनलोड करने के लिये क्लिक करे



नए साल का संकल्प




1.नए साल की शुभ कामनाएं


खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को

कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को

नए साल की शुभकामनाएं !


जाँते के गीतों को बैलों की चाल को

करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को

नए साल की शुभकामनाएँ !


इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को

चौके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को

नए साल की शुभकामनाएँ !


वीराने जंगल को तारों को रात को

ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को

नए साल की शुभकामनाएँ !


कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को

हर नन्ही याद को हर छोटी भूल को

नए साल की शुभकामनाएँ!


उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे

उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे

नए साल की शुभकामनाएँ!  

 

 सर्वेश्वर दयाल सक्सेना



2. तुझमें नयापन क्या है ?


ऐ नए साल बता, तुझमें नयापन क्या है

हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रक्खा है


रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही

आज हम को नज़र आती है हर इक बात वही


आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं

एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं


अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे

किस को मालूम नहीं बारह महीने तेरे


जनवरी, फ़रवरी और मार्च पड़ेगी सर्दी

और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी


तेरा मन दहर में कुछ खोएगा, कुछ पाएगा

अपनी मीआद बसर कर के चला जाएगा


तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी

वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई


बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारकबादें

ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें


तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ में सब की

'फ़ैज़' ने लिक्खी है यह नज़्म निराले ढब की 


- फ़ैज़ लुधियानवी


ख़ल्क़ = मानवता, हिंदसे = संख्या, जिद्दत = नया-पन,

अगले = पिछले/गुज़रे हुए, क़रीने = क्रम, दहर = दुनिया,

मीआद = मियाद/अवधि, बे-सबब = बे-वजह,

ग़ालिबन = शायद, आमद = आना, ढब = तरीक़ा


3. नया साल मुबारक


तारीख

पंचांग में फंसा अंक नहीं

न वक्त घड़ी की सूइयों का

ज़रखरीद गुलाम

इनके वजूद की खातिर

सूरज को जलना पड़ता है

चलना पड़ता है पृथ्वी को

अनंत अनजान पथपर

अनवरत

ऐसे में कोई साल

लेटे लेटे या बैठे बैठे

नया हो जाए

बड़ी ख़ूबसूरत ख़ुशफहमी है

जो खोए हैं

उन्हें ख़ुशफ़हमी मुबारक

जो तैयार हैं

ख़ुद को खोने

और जग को पाने के लिए

उनके साथ मिलकर

चलो बनाते हैं

मनाते नहीं

एक नया कोरा महकता 

इज़्ज़तदार साल

सिर उठाकर

मुट्ठियां तानकर

मुस्कुराते हुए

सिर्फ अपने लिए नहीं

पूरी कायनात के लिए

और निर्मल निश्छल निर्भय मन से

सबसे कहते हैं

यह नया साल मुबारक हो

हम सबको


      -हूबनाथ



4. नया वर्ष 

युवा दिलों के नाम 

ज़िन्दा कौमों के नाम

साहसिक यात्राओं के नाम,

सक्रिय ज्ञान के नाम,

सच्चे प्यार के नाम,

मानवता के भविष्य में 

उत्कट आस्था के नाम!

नया वर्ष

जो रचते हैं जीवन, 

जीवन की बुनियादी शर्तें

उन मेहनतकश

सर्जक हाथों के नाम!

सृजन की नयी

परियोजनाओं के नाम!


नया वर्ष 

सिर्फ़ सपने से होने वाली 

नयी शुरुआत के नाम,

पराजय की राख से 

जनमते संकल्पों के नाम,

अँधेरे समय में 

जीवित ह्रदय की कविता के नाम!

नया वर्ष

नयी यात्रा के लिए उठे 

पहले कदम के नाम,

बीजों और अंकुरों के नाम

कोंपलों और फुनगियों के नाम 

उड़ने को आतुर

शिशु पंखों के नाम,

नयी उड़ानों के नाम!


दिशा छात्र संगठन



5. ये साल भी यारों बीत गया


कुछ खू़न बहा कुछ घर उजड़े

कुछ कटरे जल कर ख़ाक हुए

एक मस्जिद की ईंटों के तले

हर मसला दब कर दफ्न हुआ

जो ख़ाक उड़ी वह ज़ेहनो पर

यूं छायी जैसे कुछ भी नहीं

अब कुछ भी नहीं है करने को

घर बैठो डर कर अबके बरस

या जान गवां दो सड़कों पर

घर बैठ के भी क्या हासिल है

न मीर रहा न ग़ालिब हैं

न प्रेम के ज़िंदा अफ़साने

बेदी भी नहीं मंटो भी नहीं

जो आज की वहशत लिख डाले

चिश्ती भी नहीं, नानक भी नहीं

जो प्यार की वर्षा हो जाए

मंसूर कहां जो ज़हर पिए

गलियों में बहती नफ़रत का

वो भी तो नहीं जो तकली से

अब प्यार के ताने बुन डाले

क्यूं दोष धरो हो पुरखों पर

खु़द मीर हो तुम ग़ालिब भी तुम्हीं

तुम प्रेम का जि़न्दा अफ़साना

बेदी भी तुम्हीं, मंटो भी तुम्हीं

तुम आज की वहशत लिख डालो

चिश्ती की सदा, नानक की नवा

मंसूर तुम्हीं तुम बुल्लेशाह

कह दो के अनलहक़ जि़न्दा है

कह दो के अनहद अब गरजेगा

इस नुक़्ते विच गल मुगदी है

इस नुक़्ते से फूटेगी किरण

और बात यहीं से निकलेगी….

               -गौहर रज़ा



6. सभी को नये वर्ष की शुभकामना


हमारे    वतन  की  नई  ज़िन्दगी  हो

नई जिन्दगी एक मुकम्मल खुशी हो।


न ही हथकड़ी कोई फ़सलों को डाले,

हमारे दिलों की न सौदागरी हो।


ज़ुबानों पे पाबन्दियाँ हों न कोई,

निगाहों में अपनी नई रोशनी हो।


न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन,

न ही कोई भी क़ायदा हिटलरी हो।


नए फ़ैसले हों नई कोशिशें हों,

नई मंज़िलों की कशिश भी नई हो।


(गोरख पाण्डेय की कविता का कुछ अंश)


7. नव वर्ष 


"नव वर्ष,

हर्ष नव,

जीवन उत्कर्ष नव !


नव उमंग,

नव तरंग,

जीवन का नव प्रसंग !


नवल चाह,

नवल राह,

जीवन का नव प्रवाह !


गीत नवल,

प्रीत नवल,

जीवन की रीति नवल,

जीवन की नीति नवल,

जीवन की जीत नवल !!"


... हरिवंशराय बच्चन


8. ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये व्यवहार नहीं


धरा ठिठुरती है सर्दी से

आकाश में कोहरा गहरा है

बाग़ बाज़ारों की सरहद पर

सर्द हवा का पहरा है


सूना है प्रकृति का आँगन

कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं

हर कोई है घर में दुबका हुआ

नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं



चंद मास अभी इंतज़ार करो

निज मन में तनिक विचार करो

नये साल नया कुछ हो तो सही

क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही


उल्लास मंद है जन -मन का

आयी है अभी बहार नहीं

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं


ये धुंध कुहासा छंटने दो

रातों का राज्य सिमटने दो

प्रकृति का रूप निखरने दो

फागुन का रंग बिखरने दो


प्रकृति दुल्हन का रूप धार

जब स्नेह – सुधा बरसायेगी

शस्य – श्यामला धरती माता


घर -घर खुशहाली लायेगी

तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि

नव वर्ष मनाया जायेगा

आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर


जय गान सुनाया जायेगा

युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध

नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध

आर्यों की कीर्ति सदा -सदा


नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

अनमोल विरासत के धनिकों को

चाहिये कोई उधार नहीं


ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं


रामधारी सिंह “दिनकर”






 सुधारवादी और क्रांतिकारी ट्रेड-यूनियन


    ब्ला. ई.  लेनिन 

के विचारों का संकलन





कामगार-ई-पुस्तकालय के लिये 

एम के आजाद द्वारा संकलित।


सेप्टेम्बर 2022






सुधारवादी और क्रांतिकारी 

ट्रेड-यूनियन


    

ब्ला. ई.  लेनिन 

के विचारों का संकलन






रूढ़िवादी आदर्श वाक्य : 'एक दिन के काम के लिए एक उचित दिन का वेतन' के बजाय उन्हें अपने बैनर पर क्रांतिकारी नारा लिखना चाहिए: 'मजदूरी प्रणाली का उन्मूलन'!" कार्ल मार्क्स



कामगार-ई-पुस्तकालय के लिये 

एम के आजाद द्वारा संकलित।


सेप्टेम्बर 2022





मजदूर मांग करते हैं कि उनका काम का दिन अधिक से अधिक आठ घण्टे का हो, पर यह मांग  "अच्छी" भी है और "बुरी" भी। "अच्छी' इस दृष्टि से कि वह मजदूर वर्ग की शक्ति को बढ़ाती है और "बुरी" इस दृष्टि से कि वह मजूरी प्रथा को मजबूत बनाती है।


स्टालिन - अराजकतावाद या समाजवाद


भूमिका 


दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत मे भी ट्रेड यूनियनें दो तरह की है- सुधारवादी पूंजीवादी ट्रेड यूनियनें एवम क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें।


 पूँजीवादी ट्रेड यूनियनें वे हैं जो कि मज़दूर वर्ग की समूची गतिविधि को पूँजीवादी दायरों के भीतर कैद रखना चाहती हैं। उनका अधिक्तम लक्ष्य है-मजदूरी बढाना न कि मजदूरी प्रथा(Wage Slavery) का खात्मा करना।


 भारत में सभी संसदीय वामपंथी चुनावबाज़ पार्टियों तथा अन्य पूँजीवादी पार्टियों की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें यही काम कर रही हैं।


 मजदूरी बढाने एवम उनसे जुड़ी अन्य मांगो के लिये संघर्ष आवश्यक है, लेकिन क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन का असली लक्ष्य मजदूरी बढ़ाना नही  बल्कि मजदूरी-प्रथा (Wage Slavery) का नाश करने के लिये मजदूरों को तैयार करना है। हमे एक ट्रेड यूनियन सेक्रेटरी की तरह नही बल्कि एक कम्युनिष्ट की तरह मजदूरों के बीच काम करना है जिसका राजनीतिक लक्ष्य सिर्फ मज़दूरी को बढ़ाना या सभी की मज़दूरी को बराबर कर देना नहीं है बल्कि मज़दूरी - व्यवस्था को ही समाप्त करना है। हमारा लक्ष्य मजदूरों को शिक्षित करना, शक्ति अर्जित करना तथा इस पूँजीवाद को आखिर उखाड़ फेंकने के लिए तैयारी करना है।

इस छोटी सी पुस्तिका में मजदूरों के बीच, ट्रेड यूनियन के बीच काम करने के सुधारवादी तथा क्रांतिकारी दृष्टिकोण के बारे में लेनिन के विचारों का संकलन प्रस्तुत किया जा रहा है। उम्मीद है कि मजदूरों के बीच काम करने वाले क्रांतिकारी संगठनों के लिये यह लाभप्रद होगा। 


साथ ही उस पोस्ट/लेख/उद्धरण के लिए आभार जो सोशल मीडिया से लिये गए है।


एम के आज़ाद 




अनुक्रमणिका 



  1. सामाजिक जनवादी(कम्युनिष्ट) का आदर्श 

  2. ट्रेड-यूनियनवादी और सामाजिक-जनवादी (कम्युनिष्ट)  राजनीति

  3. जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग

  4. मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए?

  5. सर्वहारा के वर्गीय आन्दोलन का निर्माण करना

  6. हड़तालों के विषय में

  7. संशोधनवादी और सुधारवादी ट्रेड यूनियन नेताओं का ठोस ढंग से पर्दाफाश करो

  8. रईस मजदूरों के उच्च स्तर- सुधारवाद और अंधराष्ट्रवाद के असली वाहक

  9. मजदूरों की एकता 





सामाजिक जनवादी(कम्युनिष्ट)


सामाजिक जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन का सचिव नहीं , बल्कि एक ऐसा जननायक होना चाहिए , जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से , वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से संबंध हो , विचलित हो उठने की क्षमता हो ; उसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूंजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए ; उसमें प्रत्येक घटना का , चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो , लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी मांगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के   मुक्ति- संग्राम का विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए ।                 --  *लेनिन         " क्या करें ? "    1902*



मजदूर वर्ग की चेतना उस वक्त तक सच्ची राजनीतिक चेतना नहीं बन सकती , जब तक कि मजदूरों को अत्याचार ,उत्पीड़न, हिंसा और अनाचार के सभी मामलों का जवाब देना , चाहे उनका संबंध किसी भी वर्ग से क्यों न हो , नहीं सिखाया जाता । और उनको सामाजिक-जनवादी दृष्टिकोण से जवाब देना चाहिए , न कि किसी और दृष्टिकोण से । आम मजदूरों की चेतना उस समय तक सच्ची वर्ग चेतना नहीं बन सकती , जब तक कि मजदूर ठोस और सामयिक(फ़ौरी) राजनीतिक तथ्यों और घटनाओं से दूसरे प्रत्येक सामाजिक वर्ग का उसके बौद्धिक , नैतिक एवं राजनीतिक जीवन की सभी अभिव्यक्तियों में अवलोकन करना नहीं सीखते , जब तक कि मजदूर आबादी के सभी वर्गों , स्तरों और समूहों के जीवन तथा कार्यों के सभी पहलुओं का भौतिकवादी विश्लेषण और भौतिकवादी मूल्यांकन व्यवहार में इस्तेमाल करना नहीं सीखते। जो लोग मजदूर वर्ग को अपना ध्यान , अवलोकन और चेतना पूर्णतया या मुख्यतया भी , केवल अपने पर केंद्रित करना सिखाते हैं , वे सामाजिक जनवादी नहीं हैं , क्योंकि मजदूर वर्ग के आत्मज्ञान का अटूट संबंध आधुनिक समाज के सभी वर्गों के बीच पारस्परिक संबंधों की मात्र पूर्णतः स्पष्ट सैद्धांतिक समझदारी से ही नहीं है , ज्यादा सही कहें तो , इतना सैद्धांतिक समझदारी से नहीं है , जितना कि राजनीतिक जीवन के अनुभव से प्राप्त व्यावहारिक समझदारी से  है । यही कारण है कि हमारे अर्थवादी जिस विचार का प्रचार करते हैं , यानी यह कि आर्थिक संघर्ष जनता को राजनीतिक आंदोलन में खींचने का तरीका है , जिसका सबसे अधिक व्यापक रूप में उपयोग किया जा सकता है , वह अपने व्यावहारिक महत्व में बहुत अधिक हानिकारक और घोर प्रतिक्रियावादी विचार है । सामाजिक जनवादी बनने के लिए जरूरी है कि मजदूर के दिमाग में जमींदार और पादरी , बड़े सरकारी अफसर और किसान , विद्यार्थी और आवारा आदमी की आर्थिक प्रकृति का और उनके सामाजिक तथा राजनीतिक गुणों का एक स्पष्ट चित्र हो । उसे इन लोगों के गुणों और अवगुणों को जानना चाहिए , उसे उन नारों और बारीक सूत्रों का मतलब समझना चाहिए , जिनकी आड़ में प्रत्येक वर्ग तथा प्रत्येक स्तर अपना स्वार्थ और अपने "दिल की बात" छुपाता है , उसे समझना चाहिए कि विभिन्न संस्थाएं तथा कानून किन स्वार्थों को और किस प्रकार व्यक्त करते हैं । परंतु यह "स्पष्ट चित्र" किसी किताब से नहीं मिल सकता : वह केवल उसके सजीव दृश्य प्रस्तुत करके तथा भंडाफोड़ करके हासिल हो सकता है , जो संबद्ध घड़ी में हमारे चारों ओर घटित हो रहा है , जिसके बारे में सभी अपने ढंग से , शायद फुसफुसाते हुए , बातें करते हैं , जो अमुक-अमुक घटनाओं में , अमुक-अमुक आंकड़ों में , अमुक-अमुक अदालती सजाओं , आदि , आदि में अभिव्यक्त होता है । जनता को क्रांतिकारी क्रियाशीलता का प्रशिक्षण देने की एक जरूरी और बुनियादी शर्त यह है कि इस प्रकार के सर्वांगीण राजनीतिक भंडाफोड़ किये जायें ।

                                  

 लेनिन      "क्या करें ?"     1902






2. ट्रेड-यूनियनवादी और सामाजिक-जनवादी (कम्युनिष्ट)  राजनीति


‘हर आदमी यह मानता है’’ कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना ज़रूरी है। सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाये, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है? आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को केवल मज़दूर वर्ग के प्रति सरकार के रवैये से सम्बन्धित सवाल उठाने की ‘‘प्रेरणा देता है’’ और इसलिए हम ‘‘आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने’’ की चाहे जितनी भी कोशिश करें, इस लक्ष्य की सीमाओं के अन्दर-अन्दर रहते हुए हम मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को कभी नहीं उठा पायेंगे (सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना के स्तर तक), कारण कि ये सीमाएँ बहुत संकुचित हैं। मार्तीनोव का सूत्र हमारे लिए थोड़ा-बहुत महत्व रखता है, इसलिए नहीं कि उससे चीज़ों को उलझा देने की मार्तीनोव की योग्यता प्रकट होती है, बल्कि इसलिए कि उससे वह बुनियादी ग़लती साफ़ हो जाती है, जो सारे ‘‘अर्थवादी’’ करते हैं, अर्थात उनका यह विश्वास कि मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग-चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अन्दर से बढ़ाया जा सकता है, अर्थात इस संघर्ष को एकमात्र (या कम से कम मुख्य) प्रारम्भिक बिन्दु मानकर, उसे अपना एकमात्र (या कम से कम मुख्य) आधार बनाकर राजनीतिक वर्ग-चेतना बढ़ायी जा सकती है। यह दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर ग़लत है। ‘‘अर्थवादी’’ लोग उनके ख़िलाफ़ हमारे वाद-विवाद से नाराज़ होकर इन मतभेदों के मूल कारणों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से इन्कार करते हैं, जिसका यह परिणाम होता है कि हम एक दूसरे को कतई नहीं समझ पाते, दो अलग-अलग ज़बानों में बोलते हैं।


मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग-चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राजसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि ‘‘मज़दूर के बीच जाओ’’ – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव ‘‘अर्थवाद’’ की ओर है, यह जवाब देकर ही सन्तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने कि लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।


....हमें सिद्धान्तकारों के रूप में, प्रचारकों, आन्दोलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के रूप में ‘‘आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना’’ चाहिए। इस बात में किसी को सन्देह नहीं है कि सामाजिक-जनवादियों के सैद्धान्तिक काम का लक्ष्य विभिन्न वर्गों की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति की सभी विशेषताओं का अध्ययन होना चाहिए। परन्तु कारख़ानों के जीवन की विशेषताओं का अध्ययन करने का जितना प्रयत्न किया जाता है, उसकी तुलना में इस प्रकार के अध्ययन का काम बहुत ही कम, हद दरजे तक कम, किया जाता है। समितियों और मण्डलों में आपको कितने ही ऐसे लोग मिलेंगे, जो मसलन धातु-उद्योग की किसी विशेष शाखा के अध्ययन में ही डूबे हुए हैं, पर इन संगठनों में आपको ऐसे सदस्य शायद ही कभी ढूँढ़े मिलेंगे, जो (जैसा कि अक्सर होता है, किसी कारणवश व्यावहारिक काम नहीं कर सकते) हमारे देश के सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन के किसी ऐसे तात्कालिक प्रश्न के सम्बन्ध में विशेष रूप से सामग्री एकत्रित कर रहे हों, जो आबादी के अन्य हिस्सों में सामाजिक-जनवादी काम करने का साधन बन सके। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के वर्तमान नेताओं में से अधिकतर में प्रशिक्षा के अभाव की चर्चा करते हुए हम इस प्रसंग में भी प्रशिक्षा की बात का जिक्र किये बिना नहीं रह सकते, क्योंकि ‘‘सर्वहारा के संघर्ष के साथ घनिष्ठ और सजीव सम्पर्क’’ की ‘‘अर्थवादी’’ अवधारणा से इसका भी गहरा सम्बन्ध है। लेकिन निस्सन्देह, मुख्य बात है जनता के सभी स्तरों के बीच प्रचार और आन्दोलन। पश्चिमी यूरोप के सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ता को इस मामले  में उन सार्वजनिक सभाओं और प्रदर्शनों से, जिसमें भाग लेने की सबको स्वतन्त्रता होती है, और इस बात से बड़ी आसानी हो जाती है कि वह संसद के अन्दर सभी वर्गों के प्रतिनिधियों से बातें करता है। हमारे यहाँ न तो संसद है और न सभा करने की आज़ादी, फिर भी हम वैसे मज़दूरों की बैठकें करने में समर्थ हैं, जो सामाजिक-जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं। हमें आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएँ बुलाने में भी समर्थ होना चाहिए, जो किसी जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं, कारण कि वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि ‘‘कम्युनिस्ट हर क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करते हैं’’, कि इसलिए हमारा कर्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।

 *लेनिन -क्या करे ?*



3. जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग • कॉमरेड वी.आई. लेनिन

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हम देख चुके हैं कि अधिक से अधिक व्यापक राजनीतिक आंदोलन चलाना और इसलिए सर्वांगीण राजनीतिक भंडाफोड़ का संगठन करना गतिविधि का एक बिल्कुल ज़रूरी और सबसे ज़्यादा तात्कालिक ढंग से ज़रूरी कार्यभार है, बशर्ते कि यह गतिविधि सचमुच सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) ढंग की हो। परंतु हम इस नतीजे पर केवल इस आधार पर पहुँचे थे कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक ज्ञान की फ़ौरन ज़रूरत है। लेकिन यह सवाल को पेश करने का एक बहुत संकुचित ढंग है, कारण कि यह आम तौर पर हर सामाजिक-जनवादी आंदोलन के और ख़ास तौर पर वर्तमान काल के रूसी सामाजिक-जनवादी आंदोलन के आम जनवादी कार्यभारों को भुला देता है। अपनी बात को और ठोस ढंग से समझाने के लिए हम मामले के उस पहलू को लेंगे, जो “अर्थवादियों” के सबसे ज़्यादा “नज़दीक” है, यानी हम व्यावहारिक पहलू को लेंगे। “हर आदमी यह मानता है” कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना ज़रूरी है।


सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाए, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है? आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को केवल मज़दूर वर्ग के प्रति सरकार के रवैये से संबंधित सवाल उठाने की “प्रेरणा देता है” और इसलिए हम “आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की चाहे जितनी भी कोशिश करें, इस लक्ष्य की सीमाओं के अंदर-अंदर रहते हुए हम मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को कभी नहीं उठा पायेंगे, कारण कि ये सीमाएँ बहुत संकुचित हैं। मार्तीनोव का सूत्र हमारे लिए थोड़ा-बहुत महत्त्व रखता है, इसलिए नहीं कि उससे चीज़ों को उलझा देने की मार्तीनोव की योग्यता प्रकट होती है, बल्कि इसलिए कि उससे वह बुनियादी ग़लती साफ़ हो जाती है, जो सारे “अर्थवादी” करते हैं, अर्थात उनका यह विश्वास कि मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अंदर से बढ़ाया जा सकता है, अर्थात इस संघर्ष को एकमात्र (या कम से कम मुख्य) प्रारंभिक बिंदु मानकर, उसे अपना एकमात्र (या कम से कम मुख्य) आधार बनाकर राजनीतिक वर्ग चेतना बढ़ाई जा सकती है। यह दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर ग़लत है। “अर्थवादी” लोग उनके ख़िलाफ़ हमारे वाद-विवाद से नाराज़ होकर इन मतभेदों के मूल कारणों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से इंकार करते हैं, जिसका यह परिणाम होता है कि हम एक-दूसरे को क़तई नहीं समझ पाते, दो अलग-अलग ज़बानों में बोलते हैं।


मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग चेतना बाहर से ही लाई जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के संबंधों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के संबंधों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी संबंधों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि “मज़दूरों के बीच जाओ” – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव “अर्थवाद” की ओर है, यह जवाब देकर ही सं‍तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।


हमने इस बेडौल सूत्र को जानबूझकर चुना है, हमने जानबूझकर अपना मत अति सरल, एकदम दो-टूक ढंग से व्यक्त किया है – इसलिए नहीं कि हम विरोधाभासों का प्रयोग करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि हम “अर्थवादियों” को वे काम करने की “प्रेरणा देना” चाहते हैं, जिनको वे बड़े अक्षम्य ढंग से अनदेखा कर देते हैं, हम उन्हें ट्रेडयूनियनवादी राजनीति और सामाजिक-जनवादी राजनीति के बीच अंतर देखने की “प्रेरणा देना” चाहते हैं, जिसे समझने से वे इंकार करते हैं। अतएव हम पाठकों से यह प्रार्थना करेंगे कि वे झुँझलाएँ नहीं, बल्कि अंत तक ध्यान से हमारी बात सुनें।


पिछले चंद बरसों में जिस तरह का सामाजिक-जनवादी मंडल सबसे अधिक प्रचलित हो गया है, उसे ही ले लीजिए और उसके काम की जाँच कीजिए। “मज़दूरों के साथ उसका संपर्क” रहता है और वह इससे संतुष्ट रहता है, वह परचे निकालता है, जिनमें कारख़ानों में होनेवाले अनाचारों, पूँजीपतियों के साथ सरकार के पक्षपात और पुलिस के ज़ुल्म की निंदा की जाती है। मज़दूरों की सभाओं में जो बहस होती है, वह इन विजयों की सीमा के बाहर कभी नहीं जाती या जाती भी है, तो बहुत कम। ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के बारे में, हमारी सरकार की घरेलू तथा वैदेशिक नीति के प्रश्नों के बारे में, रूस तथा यूरोप के आर्थिक विकास की समस्याओं के बारे में और आधुनिक समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति के बारे में भाषणों या वाद-विवादों का संगठन किया जाता है। और जहाँ तक समाज के अन्य वर्गों के साथ सुनियोजित ढंग से संपर्क स्थापित करने और बढ़ाने की बात है, उसके बारे में तो कोई सपने में भी नहीं सोचता। वास्तविकता यह है कि इन मंडलों के अधिकतर सदस्यों की कल्पना के अनुसार आदर्श नेता वह है, जो एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि ट्रेडयूनियन के सचिव के रूप में अधिक काम करता है, क्योंकि हर ट्रेडयूनियन का, मिसाल के लिए, किसी ब्रिटिश ट्रेडयूनियन का सचिव आर्थिक संघर्ष चलाने में हमेशा मज़दूरों की मदद करता है, वह कारख़ानों में होनेवाले अनाचारों का भंडाफोड़ करने में मदद करता है, उन क़ानूनों तथा पगों के अनौचित्य का पर्दाफ़ाश करता है, जिनसे हड़ताल करने और धरना देने (हर किसी को यह चेतावनी देने के लिए कि अमुक कारख़ाने में हड़ताल चल रही है) की स्वतंत्रता पर आघात होता है, वह मज़दूरों को समझाता है कि पंच-अदालत का जज, जो स्वयं बुर्जुआ वर्गों से आता है, पक्षपातपूर्ण होता है, आदि, आदि। सारांश यह कि “मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष” ट्रेडयूनियन का प्रत्येक सचिव चलाता है और उसके संचालन में मदद करता है। पर इस बात को हम जितना ज़ोर देकर कहें थोड़ा है कि बस इतने ही से सामाजिक-जनवाद नहीं हो जाता, कि सामाजिक-जनवादी का आदर्श ट्रेडयूनियन का सचिव नहीं, बल्कि एक ऐसा जन-नायक होना चाहिए, जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से, वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से संबंध हो, विचलित हो उठने की क्षमता हो; इसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूँजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए; उसमें प्रत्येक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी माँगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के मुक्ति-संग्राम का विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए।…


मुख्य बात है जनता के सभी स्तरों के बीच प्रचार और आंदोलन।… हमें आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएँ बुलाने में भी समर्थ होना चाहिए, जो किसी जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं, कारण कि वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि “कम्युनिस्ट हर क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन करते हैं”, कि इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।…


हमें अपनी पार्टी के नेतृत्व में एक सर्वांगीण राजनीतिक संघर्ष इस तरह संगठित करने का काम अपने हाथ में लेना होगा कि इस संघर्ष को तथा इस पार्टी को विरोध-पक्ष के सभी हिस्सों से अधिक से अधिक समर्थन मिले। हमें अपने सामाजिक-जनवादी व्यावहारिक कार्यकर्त्ताओं में से ऐसे राजनीतिक नेता प्रशिक्षित करने होंगे, जिनमें इस सर्वांगीण संघर्ष के प्रत्येक रूप का नेतृत्व करने की क्षमता हो और जो बेचैन विद्यार्थियों, जेम्स्त्वो के असंतुष्ट सदस्यों, धार्मिक संप्रदायों के खिन्न लोगों, नाराज प्राथमिक शिक्षकों, आदि सभी लोगों के लिए सही समय पर “काम का एक सकारात्मक कार्यक्रम निर्दिष्ट” कर सकें।…


राजनीतिक भंडाफोड़ के लिए सबसे आदर्श श्रोता मज़दूर वर्ग होता है, जो सर्वांगीण तथा सजीव राजनीतिक ज्ञान की आवश्यकता के मामले में सबसे अव्वल और सबसे आगे है, और इस ज्ञान को सक्रिय संघर्ष में परिणत करने की क्षमता भी उसी में सबसे ज़्यादा होती है, भले ही उससे “कोई ठोस नतीजे” निकलने की उम्मीद न हो।


(‘क्या करें’ पुस्तक से)


मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 8 ♦ जुलाई 2021 में प्रकाशित





4. मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए?

(क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कुछ समस्याएँ)


 लेनिन

अनुवाद : आलोक रंजन


सभी देशों में मज़दूर आन्दोलन का इतिहास यह दिखाता है कि मज़दूर वर्ग के उन्नततर संस्तर ही समाजवाद के विचारों को अपेक्षतया अधिक तेज़ी के साथ और अधिक आसानी के साथ अपनाते हैं। इन्हीं के बीच से, मुख्य तौर पर, वे अग्रवर्ती मज़दूर आते हैं, जिन्हें प्रत्येक मज़दूर आन्दोलन आगे लाता है, वे मज़दूर जो मेहनतकश जन-समुदाय का विश्वास जीत सकते हैं, जो ख़ुद को पूरी तरह सर्वहारा वर्ग की शिक्षा और संगठन के कार्य के लिए समर्पित करते हैं, जो सचेतन तौर पर समाजवाद को स्वीकार करते हैं और यहाँ तक कि, स्वतन्त्र रूप से समाजवादी सिद्धान्तों को निरूपित कर लेते हैं। हर सम्भावनासम्पन्न मज़दूर आन्दोलन ऐसे मज़दूर नेताओं को सामने लाता रहा है, अपने प्रूधों और वाइयाँ, वाइटलिंग और बेबेल पैदा करता रहा है। और हमारा रूसी मज़दूर आन्दोलन भी इस मामले में यूरोपीय आन्दोलन से पीछे नहीं रहने वाला है। आज जबकि शिक्षित समाज ईमानदार, ग़ैरक़ानूनी साहित्य में दिलचस्पी खोता जा रहा है, मज़दूरों के बीच ज्ञान के लिए और समाजवाद के लिए एक उत्कट अभिलाषा पनप रही है, मज़दूरों के बीच से सच्चे वीर सामने आ रहे हैं, जो अपनी नारकीय जीवन-स्थितियों के बावजूद, जेलख़ाने की मशक्कत जैसे कारख़ाने के जड़ीभूत कर देने वाले श्रम के बावजूद, ऐसा चरित्र और इतनी इच्छाशक्ति रखते हैं कि लगातार अध्‍ययन, अध्‍ययन और अध्‍ययन के काम में जुटे रहते हैं और ख़ुद को सचेतन सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) – ”मज़दूर बौद्धिक” बना लेते हैं। रूस में ऐसे ”मज़दूर बौद्धिक” अभी भी मौजूद हैं और हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए कि इनकी कतारें लगातार बढ़ती रहें, इनकी उन्नत मानसिक ज़रूरत पूरी होती रहे और कि, इनकी पाँतों से रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी (रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का तत्कालीन नाम) के नेता तैयार हों। जो अख़बार सभी रूसी सामाजिक जनवादियों (कम्युनिस्टों) का मुखपत्र बनना चाहता है, उसे इन अग्रणी मज़दूरों के स्तर का ही होना चाहिए, उसे न केवल कृत्रिम ढंग से अपने स्तर को नीचा नहीं करना चाहिए, बल्कि उल्टे उसे लगातार ऊँचा उठाना चाहिए, उसे विश्व सामाजिक-जनवाद (यानी विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन) के सभी रणकौशलात्मक, राजनीतिक और सैद्धान्तिक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। केवल तभी मज़दूर बौद्धिकों की माँगें पूरी होंगी, और वे रूसी मज़दूरों के और परिणामत: रूसी क्रान्ति के ध्येय को अपने हाथों में ले लेंगे।


संख्या में कम अग्रणी मज़दूरों के संस्तर के बाद औसत मज़दूरों का व्यापक संस्तर आता है। ये मज़दूर भी समाजवाद की उत्कट इच्छा रखते हैं, मज़दूर अध्‍ययन-मण्डलों में भाग लेते हैं, समाजवादी अख़बार और किताबें पढ़ते हैं, आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में भाग लेते हैं और उपरोक्त संस्तर से सिर्फ़ इसी बात में अलग होते हैं कि ये सामाजिक जनवादी मज़दूर आन्दोलन के पूरी तरह स्वतन्त्र नेता नहीं बन सकते। जिस अख़बार को पार्टी का मुखपत्र होना है, उसके कुछ लेखों को औसत मज़दूर नहीं समझ पायेगा, जटिल सैद्धान्तिक या व्यावहारिक समस्या को पूरी तरह समझ पाने में वह सक्षम नहीं होगा। लेकिन इसका यह मतलब क़तई नहीं निकलता कि अख़बार को अपना स्तर अपने व्यापक आम पाठक समुदाय के स्तर तक नीचे लाना चाहिए। इसके उलट, अख़बार को उनका स्तर ऊँचा उठाना चाहिए, और मज़दूरों के बीच के संस्तर से अग्रणी मज़दूरों को आगे लाने में मदद करनी चाहिए। स्थानीय व्यावहारिक कामों में डूबे हुए और मुख्यत: मज़दूर आन्दोलन की घटनाओं में तथा आन्दोलनात्मक प्रचार की फौरी समस्याओं में दिलचस्पी लेने वाले ऐसे मज़दूरों को अपने हर क़दम के साथ पूरे रूसी मज़दूर आन्दोलन का, इसके ऐतिहासिक कार्यभार का और समाजवाद के अन्तिम लक्ष्य का विचार जोड़ना चाहिए। अत: उस अख़बार को, जिसके अधिकांश पाठक औसत मज़दूर ही हैं, हर स्थानीय और संकीर्ण प्रश्न के साथ समाजवाद और राजनीतिक संघर्ष को जोड़ना चाहिए।


और अन्त में, औसत मज़दूरों के संस्तर के बाद वह व्यापक जनसमूह आता है जो सर्वहारा वर्ग का अपेक्षतया निचला संस्तर होता है। बहुत मुमकिन है कि एक समाजवादी अख़बार पूरी तरह या तक़रीबन पूरी तरह उनकी समझ से परे हो (आख़िरकार पश्चिमी यूरोप में भी तो सामाजिक जनवादी मतदाताओं की संख्या सामाजिक जनवादी अख़बारों के पाठकों की संख्या से कहीं काफ़ी ज्‍़यादा है), लेकिन इससे यह नतीजा निकालना बेतुका होगा कि सामाजिक जनवादियों के अख़बार को, अपने को मज़दूरों के निम्नतम सम्भव स्तर के अनुरूप ढाल लेना चाहिए। इससे सिर्फ़ यह नतीजा निकलता है कि ऐसे संस्तरों पर राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनपरक प्रचार के दूसरे साधनों से प्रभाव डालना चाहिए – अधिक लोकप्रिय भाषा में लिखी गयी पुस्तिकाओं, मौखिक प्रचार तथा मुख्यत: स्थानीय घटनाओं पर तैयार किये गये परचों के द्वारा। सामाजिक जनवादियों को यहीं तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बहुत सम्भव है कि मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों की चेतना जगाने के पहले क़दम क़ानूनी शैक्षिक गतिविधियों के रूप में अंजाम दिये जायें। पार्टी के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वह इन गतिविधियों को इस्तेमाल करे इन्हें उस दिशा में लक्षित करे जहाँ इनकी सबसे अधिक ज़रूरत है; क़ानूनी कार्यकर्ताओं को उस अनछुई ज़मीन को जोतने के लिए भेजे, जिस पर बाद में सामाजिक जनवादी प्रचारक संगठनकर्ता बीज बोने का काम करने वाले हों। बेशक़ मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों के बीच प्रचार-कार्य में प्रचारकों को अपनी निजी विशिष्टताओं, स्थान, पेशा (मज़दूरों के काम की प्रकृति) आदि की विशिष्टताओं का उपयोग करने की सर्वाधिक व्यापक सम्भावनाएँ मिलनी चाहिए। बर्नस्टीन के ख़िलाफ़ अपनी पुस्तक में काउत्स्की लिखते हैं, ”रणकौशल और आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य को आपस में गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए। आन्दोलनात्मक प्रचार का तरीक़ा व्यक्तिगत और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में हर प्रचारक को वे तरीक़े अपनाने की छूट होनी चाहिए, जो वह अपने लिए ठीक समझे : कोई प्रचारक अपने जोशो-ख़रोश से सबसे अधिक प्रभावित करता है, तो कोई दूसरा अपने तीखे कटाक्षों से, जबकि तीसरा ढेरों मिसालें देकर, वग़ैरह-वग़ैरह। प्रचारक के अनुरूप होने के साथ ही, आन्दोलनात्मक प्रचार जनता के भी अनुरूप होना चाहिए। प्रचारक को ऐसे बोलना चाहिए कि सुनने वाले उसकी बातें समझें; उसे शुरुआत ऐसी किसी चीज़ से करनी चाहिए, जिससे श्रोतागण बख़ूबी वाक़िफ़ हों। यह सब कुछ स्वत:स्पष्ट है और यह सिर्फ़ किसानों के बीच आन्दोलनात्मक प्रचार पर ही लागू नहीं होता। गाड़ी चलाने वालों से उस तरह बात नहीं होती, जिस तरह जहाज़ियों से और जहाज़ियों से वैसे बात नहीं होती जैसे छापाख़ाने के मज़दूरों से। आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य व्यक्तियों के हिसाब से होना चाहिए, लेकिन हमारा रणकौशल-हमारी राजनीतिक गतिविधियाँ एक-सी ही होनी चाहिए” (पृ. 2-3)। सामाजिक जनवादी सिद्धान्त के एक अगुवा प्रतिनिधि के इन शब्दों में पार्टी की आम गतिविधि के एक अंग के तौर पर आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य का एक बेहतरीन आकलन निहित है। ये शब्द साफ़ कर देते हैं कि उन लोगों के सन्देह कितने निराधार हैं, जो यह सोचते हैं कि राजनीतिक संघर्ष चलाने वाली क्रान्तिकारी पार्टी का गठन आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में बाधक होगा, उसे पृष्ठभूमि में डाल देगा और प्रचारकों की स्वतन्त्रता को सीमित कर देगा। इसके विपरीत, केवल एक संगठित पार्टी ही व्यापक आन्दोलनात्मक प्रचार का कार्य चला सकती है, सभी आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों पर प्रचारकों को आवश्यक मार्गदर्शन (और सामग्री) दे सकती है, आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य की हर स्थानीय सफलता का उपयोग पूरे रूस के मज़दूरों की शिक्षा के लिए कर सकती है, प्रचारकों को ऐसे स्थानों पर या ऐसे लोगों के बीच भेज सकती है, जहाँ वे सबसे ज्‍़यादा कामयाब ढंग से काम कर सकते हों। केवल एक संगठित पार्टी में ही आन्दोलनात्मक प्रचार की योग्यता रखने वाले लोग अपने को पूरी तरह इस काम के लिए समर्पित करने की स्थिति में होंगे, जो आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य के लिए फ़ायदेमन्द तो होगा ही, सामाजिक जनवादी कार्य के दूसरे पहलुओं के लिए भी हितकारी होगा। इससे पता चलता है कि जो व्यक्ति आर्थिक संघर्ष के पीछे राजनीतिक प्रचार और राजनीतिक आन्दोलनात्मक प्रचार को भुला देता है, जो मज़दूर आन्दोलन को एक राजनीतिक पार्टी के संघर्ष में संगठित करने की आवश्यकता को भुला देता है, वह और सब बातों के अलावा, सर्वहारा के निम्नतर संस्तरों को मज़दूर वर्ग के लक्ष्य की ओर तेज़ी से और सफलतापूर्वक आकर्षित करने के अवसर से ख़ुद को वंचित कर लेता है।


(1899 के अन्त में लिखित लेनिन के लेख ‘रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति’ का एक अंश। संग्रहीत रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड 4, पृ. 280-283)।


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5. सर्वहारा के वर्गीय आन्दोलन का निर्माण करना


दुनिया में कहीं भी सर्वहारा आन्दोलन का जन्म " यकायक शुद्ध वर्गीय रूप में, बना-बनाया, ज्युपिटर के सर से मिनरवा की भांति नहीं हुआ। केवल सबसे अगुआ मजदूरों, सभी वर्गचेतन मजदूरों के लंबे संघर्ष तथा कठोर श्रम से ही सर्वहारा के वर्गीय आन्दोलन का निर्माण करना, उसे मजबूत बनाना, तमाम निम्न-पूंजीवादी मिलावटों, प्रतिबंधों, संकीर्णता और विकृतियों से मुक्त करना सम्भव था । मजदूर वर्ग निम्न-पूंजीपतियों के साथ जीवन व्यतीत करता है जो, जैसे-जैसे तबाह होता जाता है। सर्वहारा की पंक्ति में बढ़ती हुई संख्या में नये रंगरूट लाता है। और पूंजीवादी देशों में रूस सबसे अधिक निम्न-पूंजीवादी, सबसे अधिक फ़िलिस्टीन देश है जो अब कहीं जाकर पूंजीवादी क्रांतियों के दौर से गुजर रहा है जिससे उदाहरण के लिए, इंगलैंड सतहवीं शताब्दी में, और फ्रांस अठारहवीं तथा शुरू उन्नीसवीं शताब्दियों में गुजर चुका है।


जो वर्गचेतन मजदूर अब एक ऐसे काम से निबट रहे हैं जिससे उन्हें नजदीकी लगाव है और जो उन्हें प्रिय है, याने मजदूर वर्गीय अख़बार चलाने, उसे पक्के आधार पर खड़ा करने और मजबूत बनाने और विकसित करने का काम, वे रूस में मार्क्सवाद तथा सामाजिक-जनवादी पत्रकारिता के बीस बरस के इतिहास को नहीं भूलेंगे।


मजदूरों के आन्दोलन का एक अनुपकार बुद्धिजीवियों में उसके उन साहसहीन मित्रों द्वारा किया जा रहा है जो सामाजिक-जनवादियों के भीतरी संघर्ष से घबराते हैं, और जो शोर-गुल मचाते हैं कि इससे कोई संपर्क नहीं रखना चाहिए। ये भले मानस मगर बेकार लोग हैं, और इनकी चीख पुकार बेकार है।


केवल अवसरवाद के विरुद्ध मार्क्सवाद के संघर्ष के इतिहास का अध्ययन करके ही, केवल इस बात का सम्पूर्ण घोर तफ़सीली अध्ययन करके कि स्वतंत्र सर्वहारा जनवाद ने किस ढंग से निम्न-पूंजीवादी गड़बड़-झाले से छुटकारा पाया, अगुआ मजदूर निर्णायक ढंग से अपनी वर्गीय चेतना और अपनी मजदूरों की पत्रकारिता को प्रबल कर सकते हैं।


●राबोची', अंक १, २२ अप्रैल १९१४


लेनिन, खंड २५, पृष्ठ ६३-१०१




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6. हड़तालों के विषय में  – लेनिन

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लिखित: 1899 के अंत में लिखा गया प्रकाशित: पहली बार 1924 में प्रोलेटार्स्काया रेवोल्युत्सिया, नंबर 8-9 पत्रिका में प्रकाशित हुआ। एक अज्ञात हाथ से कॉपी की गई पांडुलिपि के अनुसार प्रकाशित। स्रोत: लेनिन कलेक्टेड वर्क्स, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1964, मॉस्को, वॉल्यूम 4, पृष्ठ 310-319।

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इधर कुछ वर्षों से रूस में मज़दूरों की हड़तालें बारम्बार हो रही हैं। एक भी ऐसी औद्योगिक गुबेर्निया नहीं है, जहाँ कई हड़तालें न हुई हों। और बड़े शहरों में तो हड़तालें कभी रुकती ही नहीं। इसलिए यह बोधगम्य बात है कि वर्ग-सचेत मज़दूर तथा समाजवादी हड़तालों के महत्व, उन्हें संचालित करने की विधियों तथा उनमें भाग लेने वाले समाजवादियों के कार्यभारों के प्रश्न में अधिकाधिक सततू रूप में दिलचस्पी लेते हैं।

हम यहाँ इन प्रश्नों के विषय में अपने विचारों की रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। अपने पहले लेख में हमारी योजना आमतौर पर मज़दूर वर्ग आन्दोलन में हड़तालों के महत्व की चर्चा करने की है; दूसरे लेख में हम रूस में हड़ताल-विरोधी क़ानूनों की चर्चा करेंगे तथा तीसरे में इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह की जाती थीं और की जाती हैं तथा उनके प्रति वर्ग-सचेत मज़दूरों को क्या रुख़ अपनाना चाहिए:-

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सबसे पहले हमें हड़तालों के शुरू होने और फैलने का कारण ढूँढ़ना चाहिए। यदि कोई आदमी हड़तालों को याद करेगा, जिनकी उसे व्यक्तिगत अनुभव से, दूसरों से सुनी रिपोर्टों या अख़बारों की ख़बरों के माध्येम से जानकारी प्राप्त हुई हो, तो वह तुरन्त देख लेगा कि जहाँ कहीं बड़ी फैक्टरियाँ हैं तथा उनकी संख्या बढ़ती जाती है, वहाँ हड़तालें होती तथा फैलती हैं। सैकड़ों (कभी-कभी हजारों तक) लोगों को काम पर रखने वाली बड़ी फैक्टरियों में एक भी ऐसी फैक्टरी ढूँढ़ना सम्भव नहीं होगा, जहाँ हड़तालें न हुई हों। जब रूस में केवल चन्द बड़ी फैक्टरियाँ थीं, तो हड़तालें भी कम होती थीं। परन्तु जब से बड़े औद्योगिक ज़िलों और नये नगरों तथा गाँवों में बड़ी फैक्टरियों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है, हड़तालें बारम्बार होने लगी हैं। 


क्या कारण है कि बड़े पैमाने का फैक्टरी उत्पादन हमेशा हड़तालों को जन्म देता है? इसका कारण यह है कि पूँजीवाद मालिकों के ख़िलाफ़ मज़दूरों के संघर्ष को लाजिमी तौर पर जन्म देता है तथा जहाँ उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, वहाँ संघर्ष अनिवार्य ढंग से हड़तालों का रूप ग्रहण करता है।

आइये, इस पर प्रकाश डालें।


पूँजीवाद नाम उस सामाजिक व्यवस्था को दिया गया है, जिसके अन्तर्गत जमीन, फैक्टरियाँ, औजार आदि पर थोड़े-से भूस्वामियों तथा पूँजीपतियों का स्वामित्व होता है, जबकि जनसमुदाय के पास कोई सम्पत्ति नहीं होती या बहुत कम होती है तथा वह उजरती मज़दूर बनने के लिए बाध्य  होता है। भूस्वामी तथा फैक्टरी मालिक मज़दूरों को उजरत पर रखते हैं और उनसे इस या उस किस्म का माल तैयार कराते हैं, जिसे वे मण्डी में बेचते हैं। इसके अलावा फैक्टरी मालिक मज़दूरों को केवल इतनी मज़दूरी देते हैं, जो उनके तथा उनके परिवारों के मात्र निर्वाह की व्यवस्था करती है, जबकि इस परिमाण से ऊपर मज़दूर जितना भी पैदा करता है, वह फैक्टरी मालिक की जेब में उसके मुनाफ़े के रूप में चला जाता है। इस प्रकार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत जन समुदाय दूसरों का उजरती मज़दूर होता है, वह अपने लिए काम नहीं करता, अपितु मज़दूरी पाने के वास्ते मालिकों के लिए काम करता है। यह बात समझ में आने वाली है कि मालिक हमेशा मज़दूरी घटाने का प्रयत्न करते हैं : मज़दूरों को वे जितना कम देंगे, उनका मुनाफ़ा उतना ही अधिक होगा। मज़दूर अधिक से अधिक मज़दूरी हासिल करने का प्रयत्न करते हैं, ताकि अपने परिवारों को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन दे सकें, अच्छे घरों में रह सकें, दूसरे लोगों की तरह अच्छे कपड़े पहन सकें तथा भिखारियों की तरह न लगें। इस प्रकार मालिकों तथा मज़दूरों के बीच मज़दूरी की वजह से निरन्तर संघर्ष चल रहा है; मालिक जिस किसी मज़दूर को उपयुक्त समझता है, उसे उजरत पर हासिल करने के लिए स्वतन्त्र है, इसलिए वह सबसे सस्ते मज़दूर की तलाश करता है। मज़दूर अपनी मर्जी के मालिक को अपना श्रम उजरत पर देने के लिए स्वतन्त्र है, इस तरह वह सबसे महँगे मालिक की तलाश करता है, जो उसे सबसे ज्यादा देगा। मज़दूर चाहे देहात में काम करे या शहर में, वह अपना श्रम उजरत पर चाहे जमींदार को दे या धनी किसान को, ठेकेदार को अथवा फैक्टरी मालिक को, वह हमेशा मालिक के साथ मोल-भाव करता है, मज़दूरी के लिए उससे संघर्ष करता है।

परन्तु क्या एक मज़दूर के लिए अकेले संघर्ष करना सम्भव है? मेहनतकश लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है : किसान तबाह हो रहे हैं तथा वे देहात से शहर या फैक्टरी की ओर भाग रहे हैं। जमींदार तथा फैक्टरी मालिक मशीनें लगा रहे हैं, जो मज़दूरों को उनके काम से वंचित करती रही हैं। शहरों में बेरोज़गारों की संख्या बढ़ रही है तथा गाँवों में अधिकाधिक लोग भिखारी बनते जा रहे हैं; जो भूखे हैं, वे मज़दूरी के स्तर को निरन्तर नीचे पहुँचा रहे हैं। मज़दूर के लिए अकेले मालिक से टक्कर लेना असम्भव हो जाता है। यदि मज़दूर अच्छी मज़दूरी माँगता है अथवा मज़दूरी में कटौती से असहमत होने का प्रयत्न करता है, तो मालिक उसे बाहर निकल जाने के लिए कहता है, क्योंकि दरवाजे पर बहुत-से भूखे लोग खड़े होते हैं, जो कम मज़दूरी पर काम करने के लिए सहर्ष तैयार हो जायेंगे।

जब लोग इस हद तक तबाह हो जाते हैं कि शहरों और गाँवों में बेरोज़गारों की हमेशा बहुत बड़ी तादाद रहती है, जब फैक्टरी मालिक अथाह मुनाफ़े खसोटते हैं तथा छोटे मालिकों को करोड़पति बाहर धकेल देते हैं, तब व्यक्तिगत रूप से मज़दूर पूँजीपति के सामने सर्वथा असहाय हो जाता है। तब पूँजीपति के लिए मज़दूर को पूरी तरह कुचलना, दास मज़दूर के रूप में उसे और निस्सन्देह अकेले उसे ही नहीं, वरन उसके साथ उसकी पत्नी तथा बच्चों को भी मौत की ओर धकेलना सम्भव हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि हम उन व्यवसायों को लें, जिनमें मज़दूर अभी तक क़ानून का संरक्षण हासिल नहीं कर सकते हैं तथा जिनमें वे पूँजीपतियों का प्रतिरोध नहीं कर सकते, तो हम वहाँ असाधारण रूप से लम्बा कार्य-दिवस देखेंगे, जो कभी-कभी 17 से लेकर 19 घण्टे तक का होता है, हम 5 या 6 वर्ष के बच्चों को कमरतोड़ काम करते हुए देखेंगे, हम स्थायी रूप से ऐसे भूखे लोगों की एक पूरी पीढ़ी देखेंगे, जो धीरे-धीरे भूख के कारण मौत के मुँह में पहुँच रहे हैं। उदाहरण हैं वे मज़दूर, जो पूँजीपतियों के लिए अपने घरों पर काम करते हैं; इसके अलावा कोई भी मज़दूर बीसियों दूसरे उदाहरणों को याद कर सकता है! दासप्रथा या भूदास प्रथा के अन्तर्गत भी मेहनतकश जनता का कभी इतना भयंकर उत्पीड़न नहीं हुआ, जितना कि पूँजीवाद के अन्तर्गत हो रहा है, जब मज़दूर प्रतिरोध नहीं कर पाते या ऐसे क़ानूनों का संरक्षण प्राप्त नहीं कर सकते, जो मालिकों की मनमानी कार्रवाइयों पर अंकुश लगाते हों।


इस तरह अपने को इस घोर दुर्दशा में पहुँचने से रोकने के लिए मज़दूर व्यग्रतापूर्वक संघर्ष शुरू कर देते हैं। मज़दूर यह देखकर कि उनमें से हरेक व्यक्ति सर्वथा असहाय है तथा पूँजी का उत्पीड़न उसे कुचल डालने का खतरा पैदा कर रहा है, संयुक्त रूप से अपने मालिकों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर देते हैं। मज़दूरों की हड़तालें शुरू हो जाती हैं। आरम्भ में तो मज़दूर यह नहीं समझ पाते कि वे क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं, उनमें इस बात की चेतना का अभाव होता है कि वे अपनी कार्रवाई किस वास्ते कर रहे हैं : वे महज मशीनें तोड़ते हैं तथा फैक्टरियों को नष्ट करते हैं। वे फैक्टरी मालिकों को महज अपना रोष दिखाना चाहते हैं; वे अभी यह समझे बिना कि उनकी स्थिति इतनी असहाय क्यों है तथा उन्हें किस चीज के लिए प्रयास करना चाहिए, असह्य स्थिति से बाहर निकलने के लिए अपनी संयुक्त शक्ति की आजमाइश करते हैं।

तमाम देशों में मज़दूरों के रोष ने पहले छिटपुट विद्रोहों का रूप ग्रहण किया – रूस में पुलिस तथा फैक्टरी मालिक उन्हें “विद्रोही” के नाम से पुकारते हैं। तमाम देशों में इन छुटपुट विद्रोहों ने, एक ओर, कमोबेश शान्तिपूर्ण हड़तालों को और दूसरी ओर, अपनी मुक्ति हेतु मज़दूर वर्ग के चहुँमुखी संघर्ष को जन्म दिया।


मज़दूर वर्ग के संघर्ष के लिए हड़तालों (काम रोकने) का क्या महत्व है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें पहले हड़तालों की पूरी तस्वीर हासिल करनी चाहिए। जैसाकि हम देख चुके हैं, मज़दूर की मज़दूरी मालिक तथा मज़दूर के बीच करार द्वारा निर्धारित होती है और यदि इन परिस्थितियों में निजी तौर पर मज़दूर पूरी तरह असहाय है, तो जाहिर है कि मज़दूरों को अपनी माँगों के लिए संयुक्त रूप से लड़ना चाहिए, वे मालिकों को मज़दूरी घटाने से रोकने के लिए अथवा अधिक मज़दूरी हासिल करने के लिए हड़तालें संगठित करने के वास्ते बाधित होते हैं। यह एक तथ्य है कि पूँजीवादी व्यवस्था वाले हर देश में मज़दूरों की हड़तालें होती हैं। सर्वत्र, तमाम यूरोपीय देशों तथा अमरीका में मज़दूर ऐक्यबद्ध न होने पर अपने को असहाय पाते हैं; वे या तो हड़ताल करके या हड़ताल करने की धमकी देकर केवल संयुक्त रूप से ही मालिकों का प्रतिरोध कर सकते हैं। ज्यों-ज्यों पूँजीवाद का विकास होता जाता है, ज्यों-ज्यों फैक्टरियाँ अधिकाधिक तीव्र गति से खुलती जाती हैं, ज्यों-ज्यों छोटे पूँजीपतियों को बड़े पूँजीपति बाहर धकेलते जाते हैं, मज़दूरों द्वारा संयुक्त प्रतिरोध किये जाने की आवश्यकता त्यों-त्यों तात्कालिक होती जाती है, क्योंकि बेरोज़गारी बढ़ती जाती है, पूँजीपतियों के बीच, जो सस्ती से सस्ती लागत पर अपना माल तैयार करने का प्रयास करते हैं (ऐसा करने के वास्ते उन्हें मज़दूरों को कम से कम देना होगा), प्रतियोगिता तीव्र होती जाती है तथा उद्योग में उतार-चढ़ाव अधिक तीक्ष्ण तथा संकट  अधिक उग्र होते जाते हैं। जब उद्योग फलता-फूलता है, फैक्टरी मालिक बहुत मुनाफ़ा कमाते हैं, परन्तु वे उसमें मज़दूरों को भागीदार बनाने की बात नहीं सोचते। परन्तु जब संकट पैदा हो जाता है, तो फैक्टरी मालिक नुकसान मज़दूरों के मत्थे मढ़ने का प्रयत्न करते हैं। पूँजीवादी समाज में हड़तालों की आवश्यकता को यूरोपीय देशों में हरेक इस हद तक स्वीकार कर चुका है कि उन देशों में क़ानून हड़तालें संगठित किये जाने की मनाही नहीं करता; केवल रूस में ही हड़तालों के विरुद्ध भयावह क़ानून अब भी लागू है (इन क़ानूनों और उनके लागू किये जाने के बारे में हम किसी और मौके पर बात करेंगे)।

कुछ भी हो, हड़तालें जो ठीक पूँजीवादी समाज के स्वरूप के कारण जन्म लेती हैं, समाज की उस व्यवस्था के विरुद्ध मज़दूर वर्ग के संघर्ष की शुरुआत की द्योतक होती हैं। अमीर पूँजीपतियों का अलग-अलग, सम्पत्तिहीन मज़दूरों द्वारा सामना किया जाना मज़दूरों के पूर्ण दास बनने का द्योतक होता है। परन्तु जब ये ही सम्पत्तिहीन मज़दूर ऐक्यबद्ध हो जाते हैं, तो स्थिति बदल जाती है। यदि पूँजीपति ऐसे मज़दूर नहीं ढूँढ़ पायें, जो अपनी श्रम-शक्ति को पूँजीपतियों के औजारों और सामग्री पर लगाने और नयी दौलत पैदा करने के लिए तैयार हों, तो फिर कोई भी दौलत पूँजीपतियों के लिए लाभकर नहीं हो सकती। जब तक मज़दूरों को पूँजीपतियों के साथ निजी आधार पर सम्बन्ध रखना पड़ता है, वे ऐसे वास्तविक दास बने रहते हैं, जिन्हें रोटी का एक टुकड़ा हासिल कर सकने के लिए दूसरे को लाभ पहुँचाने के वास्ते निरन्तर काम करना होगा, जिन्हें हमेशा आज्ञाकारी तथा मूक उजरती नौकर बना रहना होगा। परन्तु जब मज़दूर संयुक्त रूप में अपनी माँग पेश करते हैं और थैलीशाहों के आगे झुकने से इंकार करते हैं, तो वे दास नहीं रहते, वे इन्सान बन जाते हैं, वे यह माँग करने लगते हैं कि उनके श्रम से मुट्ठीभर परजीवियों का ही हितसाधन नहीं होना चाहिए, अपितु उसे इन लोगों को भी, जो काम करते हैं, इन्सानों की तरह जीवनयापन करने में सक्षम बनाना चाहिए। दास स्वामी बनने की माँग पेश करने लगते हैं – वे उस तरह काम करना और रहना नहीं चाहते, जिस तरह जमींदार और पूँजीपति चाहते हैं, बल्कि वे उस तरह काम करना और रहना चाहते हैं, जिस तरह स्वयं मेहनतकश जन चाहते हैं। हड़तालें इसलिए पूँजीपतियों में सदा भय पैदा करती हैं कि वे उनकी प्रभुता पर कुठाराघात करती हैं।


जर्मन मज़दूरों का एक गीत मज़दूर वर्ग के बारे में कहता है : “यदि चाहे तुम्हारी बलशाली भुजाएँ, हो जायेंगे सारे चक्के जाम"। और यह एक वास्तविकता है : फैक्टरियाँ, जमींदार की जमीन, मशीनें, रेलें, आदि से एक विराट यन्त्र के चक्के की तरह हैं, उस यन्त्र की तरह, जो विभिन्न उत्पाद हासिल करता है, उन्हें परिष्कृत करता है तथा निर्दिष्ट स्थान को भेजता है। इस पूरे यन्त्र को गतिमान करता है मज़दूर, जो खेत जोतता है, खानों से खनिज पदार्थ निकालता है, फैक्टरियों में माल तैयार करता है, मकानों, वर्कशापों और रेलों का निर्माण करता है। जब मज़दूर काम करने से इन्कार कर देते हैं, इस पूरे यन्त्र के ठप होने का खतरा पैदा हो जाता है। हरेक हड़ताल पूँजीपतियों को याद दिलाती है कि वे नहीं, वरन मज़दूर, वे मज़दूर वास्तविक स्वामी हैं, जो अधिकाधिक ऊँचे स्वर में अपने अधिकारों की घोषणा कर रहे हैं। हरेक हड़ताल मज़दूरों को याद दिलाती है कि उनकी स्थिति असहाय नहीं है, कि वे अकेले नहीं हैं। जरा देखें कि हड़तालों का स्वयं हड़तालियों पर तथा किसी पड़ोस की या नजदीक की फैक्टरियों में या एक ही उद्योग की फैक्टरियों में काम करने वाले मज़दूरों, दोनों पर कितना जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। सामान्य, शान्तिपूर्ण समय में मज़दूर बड़बड़ाहट किये बिना अपना काम करता है, मालिक की बात का प्रतिवाद नहीं करता, अपनी हालत पर बहस नहीं करता। हड़तालों के समय वह अपनी माँगें ऊँची आवाज में पेश करता है, वह मालिकों को उनके सारे दुर्व्यवहारों की याद दिलाता है, वह अपने अधिकारों का दावा करता है, वह केवल अपने और अपनी मज़दूरी के बारे में नहीं सोचता, वरन अपने सारे साथियों के बारे में सोचता है, जिन्होंने उसके साथ-साथ औजार नीचे रख दिये हैं और जो तकलीफों की परवाह किये बिना मज़दूरों के ध्येोय के लिए उठ खड़े हुए हैं। मेहनतकश जनों के लिए प्रत्येक हड़ताल का अर्थ है बहुत सारी तकलीफें, भयंकर तकलीफें, जिनकी तुलना केवल युद्ध द्वारा प्रस्तुत विपदाओं से की जा सकती है – भूखे परिवार, मज़दूरी से हाथ धो बैठना, अक्सर गिरफ्तारियाँ, शहरों से भगा दिया जाना, जहाँ उनके घरबार होते हैं तथा वे रोज़गार पर लगे होते हैं। इन तमाम तकलीफों के बावजूद मज़दूर उनसे घृणा करते हैं, जो अपने साथियों को छोड़कर भाग जाते हैं तथा मालिकों के साथ सौदेबाजी करते हैं। हड़तालों द्वारा प्रस्तुत इन सारी तकलीफों के बावजूद पड़ोस की फैक्टरियों के मज़दूर उस समय नया साहस प्राप्त करते हैं, जब वे देखते हैं कि उनके साथी संघर्ष में जुट गये हैं। अंग्रेज मज़दूरों की हड़तालों के बारे में समाजवाद के महान शिक्षक एंगेल्स ने कहा था : “जो लोग एक बुर्ज़ुआ को झुकाने के लिए इतना कुछ सहते हैं, वे पूरे बुर्ज़ुआ वर्ग की शक्ति को चकनाचूर करने में समर्थ होंगे।”  बहुधा एक फैक्टरी में हड़ताल अनेकानेक फैक्टरियों में हड़तालों की तुरन्त शुरुआत के लिए पर्याप्त होती है। हड़तालों का कितना बड़ा नैतिक प्रभाव पड़ता है, कैसे वे मज़दूरों को प्रभावित करती हैं, जो देखते हैं कि उनके साथी दास नहीं रह गये हैं और, भले ही कुछ समय के लिए, उनका और अमीर का दर्जा बराबर हो गया है! प्रत्येक हड़ताल समाजवाद के विचार को, पूँजी के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष के विचार को बहुत सशक्त ढंग से मज़दूर के दिमाग़ में लाती है। प्राय: होता यह है कि किसी फैक्टरी या किसी उद्योग की शाखा या शहर के मज़दूरों को हड़ताल के शुरू होने से पहले समाजवाद के बारे में पता ही नहीं होता और उन्होंने उसकी बात कभी सोची ही नहीं होती। परन्तु हड़ताल के बाद अध्यीयन मण्डलियाँ तथा संस्थाएँ उनके बीच अधिक व्यापक होती जाती हैं तथा अधिकाधिक मज़दूर समाजवादी बनते जाते हैं।


हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हजारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फैक्टरी का मालिक मज़दूरों की ऑंखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मज़दूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मज़दूरों को यह दिखाकर कि उनका “उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधाड़ी को एक ही वार में खत्म कर देती है।


इसके अलावा हड़ताल पूँजीपतियों के ही नहीं, वरन सरकार तथा क़ानूनों के भी स्वरूप को मज़दूरों की ऑंखों के सामने स्पष्ट कर देती है। जिस तरह फैक्टरियों के मालिक अपने को मज़दूरों के उपकारी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं, ठीक उसी तरह सरकारी अफसर और उनके चाटुकार मज़दूरों को यह यकीन दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि जार तथा जारशाही सरकार न्याय की अपेक्षानुसार फैक्टरियों के मालिकों तथा मज़दूरों, दोनों का समान रूप से ध्यान रखते हैं। मज़दूर क़ानून नहीं जानता, उसका सरकारी अफसरों, खास तौर पर ऊँचे पदाधिकारियों के साथ सम्पर्क नहीं होता, फलस्वरूप वह अक्सर इन सब बातों पर विश्वास कर लेता है। इतने में हड़ताल होती है। सरकारी अभियोजक, फैक्टरी इंस्पेक्टर, पुलिस और कभी-कभी सैनिक कारख़ाने में पहुँच जाते हैं। मज़दूरों को पता चलता है कि उन्होंने क़ानून तोड़ा है : मालिकों को क़ानून इकट्ठा होने और मज़दूरों की मज़दूरी घटाने और खुलेआम विचार-विमर्श करने की अनुमति देता है। परन्तु मज़दूर अगर कोई संयुक्त करार करते हैं, तो उन्हें अपराधी घोषित किया जाता है। मज़दूरों को उनके घरों से बेदखल किया जाता है, पुलिस उन दुकानों को बन्द कर देती है, जहाँ से मज़दूर खाने-पीने की चीजें उधार ले सकते हैं, उस समय भी जब मज़दूर का आचरण शान्तिपूर्ण होता है, सैनिकों को उनके ख़िलाफ़ भड़काने का प्रयत्न किया जाता है। सैनिकों को मज़दूरों पर गोली चलाने का आदेश दिया जाता है और जब वे भागती भीड़ पर गोली चलाकर निरस्त्र मज़दूरों को मार डालते हैं, तो जार स्वयं सैनिकों के प्रति आभार-प्रदर्शन करता है (इस तरह जार ने 1895 में यारोस्लाव्ल में हड़ताली मज़दूरों की हत्या करने वाले सैनिकों को धन्यवाद दिया था)। हर मज़दूर के सामने यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जारशाही सरकार उसकी सबसे बड़ी शत्रु है, क्योंकि वह पूँजीपतियों की रक्षा करती है तथा मज़दूरों के हाथ-पाँव बाँध देती है। मज़दूर यह समझने लगते हैं कि क़ानून केवल अमीरों के हितार्थ बनाये जाते हैं, कि सरकारी अधिकारी उनके हितों की रक्षा करते हैं, कि मेहनतकश जनता की जुबान बन्द कर दी जाती है, उसे इस बात की अनुमति नहीं दी जाती कि वह अपनी माँगें पेश करे, कि मज़दूर वर्ग को हड़ताल करने का अधिकार, मज़दूर समाचारपत्र प्रकाशित करने का अधिकार, क़ानून बनानेवाली और क़ानूनों को लागू करने के कार्य की देखरेख करने वाली राष्ट्रीय सभा में भाग लेने का अधिकार अवश्य हासिल करना होगा। सरकार ख़ुद अच्छी तरह जानती है कि हड़तालें मज़दूरों की ऑंखें खोलती हैं और इस कारण वह हड़तालों से डरती है तथा उन्हें यथाशीघ्र रोकने का प्रयत्न करती है। एक जर्मन गृहमन्त्री ने, जो समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मज़दूरों को निरन्तर सताने के लिए बदनाम था, जन प्रतिनिधियों के सामने यह अकारण ही नहीं कहा था : “हर हड़ताल के पीछे क्रान्ति का कई फनोंवाला साँप (दैत्य) होता है”। प्रत्येक हड़ताल मज़दूरों में इस अवबोध को दृढ़ बनाती तथा विकसित करती है कि सरकार उनकी दुश्मन है तथा मज़दूर वर्ग को जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के वास्ते अपने को तैयार करना चाहिए।


अत: हड़तालें मज़दूरों को ऐक्यबद्ध होना सिखाती हैं; उन्हें बताती हैं कि वे केवल ऐक्यबद्ध होने पर ही पूँजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष कर सकते हैं; हड़तालें मज़दूरों को कारख़ानों के मालिकों के पूरे वर्ग के विरुद्ध, स्वेच्छाचारी, पुलिस सरकार के विरुद्ध पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष की बात सोचना सिखाती है। यही कारण है कि समाजवादी लोग हड़तालों को युद्ध की पाठशाला, ऐसा विद्यालय कहते हैं, जिसमें मज़दूर पूरी जनता को, श्रम करने वाले तमाम लोगों को सरकारी अधिाकारियों के जुए से, पूँजी के जुए से मुक्त करने के लिए अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ युद्ध करना सीखते हैं।


परन्तु “युद्ध की पाठशाला” स्वयं युद्ध नहीं है। जब हड़तालें मज़दूरों के बीच व्यापक रूप से फैली होती हैं, कुछ मज़दूर (कुछ समाजवादियों समेत) यह सोचने लगते हैं कि मज़दूर वर्ग अपने को महज हड़तालों, हड़ताल कोषों या हड़ताल संस्थाओं तक सीमित रख सकता है, कि अकेले हड़तालों के जरिये मज़दूर वर्ग अपने हालात में पर्याप्त सुधार ला सकता है, यही नहीं, अपनी मुक्ति भी हासिल कर सकता है। यह देखकर कि संयुक्त मज़दूर वर्ग में, यही नहीं, छोटी हड़तालों तक में कितनी शक्ति होती है, कुछ सोचते हैं कि मज़दूर पूँजीपतियों तथा सरकार से जो कुछ भी हासिल करना चाहते हैं, उसके लिए बस इतना काफी है कि मज़दूर वर्ग पूरे देश में आम हड़ताल संगठित करे। इसी तरह का विचार अन्य देशों के मज़दूरों द्वारा भी व्यक्त किया गया था, जब मज़दूर वर्ग आन्दोलन अपने आरम्भिक चरणों में था तथा मज़दूर अभी बहुत अनुभवहीन थे। पर यह ग़लत विचार है। हड़तालें तो उन उपायों में से एक हैं, जिनके जरिये मज़दूर वर्ग अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करता है, परन्तु वे एकमात्र उपाय नहीं हैं। यदि मज़दूर संघर्ष करने के अन्य उपायों की ओर धयान नहीं देते, तो वे मज़दूर वर्ग की संवृद्धि तथा सफलताओं की गति धीमी कर देंगे। यह सच है कि यदि हड़तालों को कामयाब बनाना है, तो हड़तालों के दौरान मज़दूरों के निर्वाह के लिए कोषों का होना जरूरी है। ऐसे मज़दूर कोष (आम तौर पर उद्योग की पृथक शाखाओं, पृथक पेशें तथा वर्कशापों में मज़दूर कोष) तमाम देशों में रखे जाते हैं। परन्तु यहाँ रूस में यह बहुत कठिन है, क्योंकि पुलिस उनका पता लगाती है, धन जब्त कर लेती है तथा मज़दूरों को गिरफ़्तार करती है। निस्सन्देह, मज़दूर उन्हें पुलिस से छुपाने में सफल रहते हैं; स्वभावतया ऐसे कोषों को संगठित करना महत्तवपूर्ण है और हम मज़दूरों को उन्हें संगठित करने के विरुद्ध परामर्श नहीं देना चाहते। परन्तु यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि मज़दूर कोष क़ानून द्वारा निषिद्ध होने पर वे चन्दा देनेवालों को बड़ी संख्या में आकृष्ट करेंगे; और जब तक ऐसे संगठनों की सदस्य संख्या कम होगी, ये कोष बहुत उपयोगी सिद्ध नहीं होंगे। इसके अलावा उन देशों तक में, जहाँ मज़दूर यूनियनें खुलेआम विद्यमान हैं तथा उनके पास बहुत बड़े कोष हैं, मज़दूर वर्ग संघर्ष के साधन के रूप में अपने को हड़तालों तक सीमित नहीं कर सकता। जो कुछ आवश्यक है, वह उद्योग के मामलों में एक विघ्न (उदाहरण के लिए संकट, जो रूस में आज समीप आता जा रहा है) है, और कारख़ानों के मालिक तो जानबूझकर हड़तालें तक करायेंगे, क्योंकि कुछ समय के लिए काम का बन्द होना तथा मज़दूर कोषों का घटना उनके लिए लाभप्रद होता है। इसलिए मज़दूर किसी भी सूरत में अपने को हड़ताल सम्बन्धी कार्रवाइयों तथा हड़ताल सम्बन्धी संस्थाओं तक सीमित नहीं कर सकते। दूसरे, हड़तालें वहीं सफल हो सकती हैं, जहाँ मज़दूर पर्याप्त रूप में वर्ग-सचेत होते हैं, जहाँ वे हड़तालें करने के लिए सही अवसर चुनने में सक्षम होते हैं, जहाँ वे यह जानते हैं कि अपनी माँगें किस तरह पेश की जाती हैं, और जहाँ उनके समाजवादियों के साथ सम्बन्ध होते हैं और उनके जरिये पर्चे और पैम्फलेट हासिल कर सकते हैं। रूस में ऐसे मज़दूर अभी बहुत कम हैं, उनकी तादाद बढ़ाने के लिए हर चेष्टा की जानी चाहिए, ताकि मज़दूर वर्ग का धयेय जन साधारण को बताया जा सके, उन्हें समाजवाद तथा मज़दूर वर्ग के संघर्ष से अवगत कराया जा सके। समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मज़दूरों को इस उद्देश्य के लिए समाजवादी मज़दूर वर्ग पार्टी संगठित कर यह कार्यभार संयुक्त रूप से सँभालना चाहिए। तीसरे, जैसाकि हम देख चुके हैं, हड़तालें मज़दूरों को बताती हैं कि सरकार उनकी शत्रु है, कि सरकार के विरुद्ध संघर्ष चलाते रहना चाहिए। वस्तुत: हड़तालों ने ही धीरे-धीरे तमाम देशों के मज़दूर वर्ग को मज़दूरों के अधिाकारों तथा समग्र रूप में जनता के अधिाकारों के लिए सरकारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना सिखाया है। जैसाकि हम कह चुके हैं, केवल समाजवादी मज़दूर पार्टी ही मज़दूरों के बीच सरकार तथा मज़दूर वर्ग के धयेय की सच्ची अवधारणा का प्रचार करके यह संघर्ष चला सकती है। किसी और अवसर पर हम खास तौर पर इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह संचालित होती हैं और वर्ग सचेत मज़दूरों को कैसे उनका उपयोग करना चाहिए। यहाँ हम यह इंगित कर दें कि हड़तालें जैसाकि हम ऊपर कह चुके हैं, स्वयं युद्ध नहीं, वरन युद्ध की पाठशाला हैं, कि हड़तालें संघर्ष का केवल एक साधन हैं, मज़दूर वर्ग आन्दोलन का केवल एक रूप हैं। अलग-अलग हड़तालों से मज़दूर श्रम करने वाले तमाम लोगों की मुक्ति के लिए पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष की ओर बढ़ सकते हैं और उन्हें बढ़ना चाहिए, और वे वस्तुत: तमाम देशों में उस ओर बढ़ रहे हैं। जब तमाम वर्ग-सचेत मज़दूर समाजवादी हो जायेंगे, अर्थात जब वे इस मुक्ति के लिए प्रयास करेंगे, जब वे मज़दूरों के बीच समाजवाद का प्रसार कर सकने, मज़दूरों को अपने दुश्मनों के विरुद्ध संघर्ष के तमाम तरीके सिखा सकने के लिए पूरे देश में ऐक्यबद्ध हो जायेंगे, जब वे एक ऐसी समाजवादी पार्टी का निर्माण करेंगे, जो सरकारी उत्पीड़न से समग्र जनता की मुक्ति के लिए, पूँजी के जुए से समस्त मेहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष करती है, केवल तभी मज़दूर वर्ग तमाम देशों के मज़दूरों के उस महान आन्दोलन का अभिन्न अंग बन सकेगा, जो समस्त मज़दूरों को ऐक्यबद्ध करता है तथा जो लाल झण्डा ऊपर उठाता है, जिस पर ये शब्द लिखे हुए हैं : “दुनिया के मज़दूरों, एक हो!”



7. संशोधनवादी और सुधारवादी ट्रेड यूनियन नेताओं का ठोस ढंग से पर्दाफाश करो (कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा” से)


26. सामाजिक जनवादियों और निम्न पूँजीवादी ट्रेड  यूनियन नेताओं तथा विभिन्न लेबर पार्टियों के नेताओं के खि़लाफ संघर्ष में समझाने-बुझाने से अधिक कामयाबी की उम्मीद नहीं की जा सकती। उनके खि़लाफ संघर्ष अधिकतम ज़ोर-शोर के साथ चलाया जाना चाहिए और इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन्हें उनके अनुयाइयों से अलग कर दिया जाये और मज़दूरो को इन ग़द्दार समाजवादी नेताओं के, जो पूँजीवाद के हाथों में खेल रहे हैं, असली चरित्र से परिचित करा दिया जाये। कम्युनिस्टों को इन तथाकथित नेताओं को बेनकाब करने की पुरज़ोर कोशिश करनी चाहिए और इन पर सर्वाधिक प्रचण्ड तरीके से हमले करने चाहिए। 


इन आम्स्टर्डमपन्थी नेताओं को सिर्फ पीला कह भर देना किसी भी हालत में काफी नहीं है। लगातार तथा व्यावहारिक उदाहरणों के द्वारा इनके पीलेपन, को प्रमाणित करना होगा। टेंड यूनियनो में, लीग आफ नेशन्स के अन्तरराष्टीय श्रमिक ब्यूरो में, पूँजीवादी मन्त्रिपरिषदों में तथा प्रशासनों में उनकी गतिविधियों में, सम्मेलनों और संसदों में उनके ग़द्दारी भरे भाषणों में, उनके ढेरों प्रेस वक्तव्यों और लिखित सन्देशों में झाड़े गये उपदेशों में और सबसे अधिक, (वेतन में बेहद मामूली बढ़ोत्तरी तक के संघर्ष सहित) सभी संघर्षों में उनके ढुलमुलपन और हिचकिचाहट भरे रवैये में हमें लगातार ऐसे अवसर मिल जायेंगे कि सीधे-सादे भाषणों और प्रस्तावों के द्वारा उनके ग़द्दाराना बर्ताव का पदार्पफाश किया जा सके। 


फ्रैक्शनों को अपनी व्यावहारिक हिरावल गतिविधियाँ सुव्यवस्थित ढंग से संचालित करनी चाहिए। कम्युनिस्टों को टेंड यूनियनों के उन छोटे पदाधिकारियों द्वारा किये जाने वाले बहानों को अपने प्रगति अभियान में बाधा नहीं बनने देना चाहिए, जो अपने नेक इरादों के बावजूद सिर्फ अपनी कमज़ोरी के कारण नियम-कानूनों, यूनियन के फैसलों और अपने वरिष्ठ पदाधिकारियों के निर्देशों की आड़ लिया करते हैं। इसके विपरीत, उन्हें नौकरशाही मशीनरी द्वारा मज़दूरों के रास्ते में खड़ी की गयी सभी वास्तविक और काल्पनिक बाधाओं को हटाने के मामले में निचले अधिकारियों द्वारा सन्तोषप्रद कार्य पर ज़ोर देना चाहिए। 


फ्रैक्शनों  को किस प्रकार काम करना चाहिए


27. टेंड यूनियन संगठनों के सम्मेलनों या मीटिंगांे में कम्युनिस्टों की भागीदारी के लिए फ्रैक्शनों को सावधानी से तैयारी करनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर, उन्हें प्रस्तावों का सविस्तार प्रतिपादन करना चाहिए, वक्ताओं और वकीलों का ठीक-ठीक चुनाव करना चाहिए तथा चुनावों में सक्षम, अनुभवी और ऊर्जावान;चुस्त-दुरुस्त व मेहनती कामरेडों को खड़ा करना चाहिए। 


कम्युनिस्ट संगठन को, अपने फ्रैक्शनों के माध्यम से मज़दूरों की सभी मीटिंगो, चुनाव सभाओं, प्रदर्शनों, राजनीतिक उत्सवों और विरोधी संगठनों के ऐसे ही सभी आयोजनों के सम्बन्ध में सावधानी के साथ तैयारी करनी चाहिए। जहाँ भी कम्युनिस्ट, मज़दूरों की अपनी मीटिंगें आयोजित करें, उन्हें श्रोताओं के बीच पर्याप्त संख्या मे  ग्रुपों में कम्युनिस्टों को फैला देना चाहिए तथा प्रचार के सन्तोष जनक परिणाम को सुनिश्चित बनाने के लिए सभी तैयारियाँ करनी चाहिए। 


मज़दूरों के सभी संगठ्नो में काम करो   


28. कम्युनिस्टों को यह भी सीखना चाहिए कि असंगठित और पिछड़े हुए मज़दूरों को पार्टी कतारों मे  स्थायी तौर पर कैसे शामिल किया जाये। अपने फ्रैक्शनों की सहायता से हमें मज़दूरों को टेंड यूनियनों में शामिल होने और अपनी पार्टी के मुखपत्रों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। अन्य संगठ्नो   को, जैसे कि शिक्षा समितियों, स्टडी सर्किलों, खेलकूद क्लबों, नाटय समितियों, सहकारी समितियों, उपभोक्ता संघों या युद्ध-पीड़ितों के संघों आदि का अपने “यानी कम्युनिस्ट पार्टी” और मज़दूरों के बीच मध्यवर्ती के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी ग़ैरकानूनी ढंग से काम कर रही हो, वहाँ इस तरह की मज़दूर यूनियनें पार्टी के बाहर पार्टी के सदस्यों की पहलव़फदमी से और नेतृत्वकारी पार्टी कमेटियों की सहमति से और उन्हीं के नियन्त्राण में “हमदर्दों की यूनियनें”  गठित की जा सकती हैं। 


राजनीति के प्रति असम्पृक्त, सर्वहारा वर्ग के बहुतेरे लोगो मे  दिलचस्पी जगाने और फिर कालान्तर मे  उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में लाने में कम्युनिस्ट युवा संगठन और नारी संगठन भी लाभदायक हो सकते हैं। यह काम ये संगठन अपने शैक्षिक पाठयक्रमों, अध्ययन चक्रों, सैर-सपाटे के कार्यक्रमों, समारोहों और रविवारीय भ्रमणों आदि के माध्यम से, पर्चों के वितरण के ज़रिये और पार्टी मुखपत्र की खपत बढ़ाने आदि के द्वारा कर सकते हैं। आम आन्दोलनों मे  भागीदारी करके ही मज़दूर अपने निम्न पूँजीवादी “यानी मध्यमवर्गीय” रुझानो से मुक्त हो सकेगे। 


निम्न-पूँजीवादी हिस्सों को अपने पक्ष में लाओ 


29. क्रान्तिकारी सर्वहारा के हमदर्दों के रूप में मज़दूरों के अर्ध-सर्वहारा हिस्सों को अपने पक्ष में लाने के लिए तथा मध्यवर्ती समूहों का सर्वहारा वर्ग के प्रति अविश्वास दूर करने के लिए कम्युनिस्टों को भूस्वामियों, पूँजीपतियों और पूँजीवादी  राज्य के साथ उनके विशेष शत्राुतापूर्ण अन्तरविरोधों का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए उनके साथ लम्बी बातचीत की, उनकी आवश्यकताओं के प्रति सूझबूझ भरी हमदर्दी की तथा परेशानियों के समय उन्हें मुफ्ऱत सहायता और परामर्श देने की ज़रूरत पड़ सकती है। इन सबसे कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रति उनमें विश्वास पैदा होगा। कम्युनिस्टों को उन विरोधी संगठनों के हानिकारक प्रभावों को समाप्त करने के लिए काम करना चाहिए जो उनके ज़िलों में वर्चस्वकारी स्थिति मे  हों या जिनका मेहनतकश किसान आबादी पर, घरेलू उद्योगों मे े काम करने वाले लोगों पर या अन्य अ1⁄र्4सर्वहारा वर्गों पर प्रभाव हो। शोषितगण अपने स्वयं के कड़वे अनुभवांे से जिन लोगांे को सम्पूर्ण अपराधी पूँजीवादी व्यवस्था का प्रतिनिधि या साक्षात मूर्तरूप समझते हैं, उन लोगों को बेनकाब करना ज़रूरी है। कम्युनिस्ट आन्दोलन ;या आन्दोलनपरक प्रचारद्ध के दौरान रोज़मर्रा की उन सभी घटनाओं का होशियारी के साथ और ज़ोरदार ढंग से इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो राज्य नौकरशाही और निम्न पूँजीवादी जनवाद और न्याय के आदर्शों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न करती हैं। 


प्रत्येक स्थानीय ग्रामीण संगठन को अपने ज़िले के सभी गांवों, वासस्थानांे और बिखरी हुई बस्तियों में कम्युनिस्ट प्रचार-प्रसार के लिए घर-घर घूमकर प्रचार करने का काम सावधानीपूर्वक अपने सदस्यों में बाँट देना चाहिए। 



8.रईस मजदूरों के उच्च स्तर- सुधारवाद और अंधराष्ट्रवाद के असली वाहक


यह स्पष्ट है कि ऐसे विराट अतिरिक्त मुनाफ़े में से ( इसलिए कि यह मुनाफ़ा उस सब मुनाफ़े के ऊपर और उसके अलावा है जो पूंजीपति 'अपने " देश के मज़दूरों का शोषण करके इकट्ठा करते हैं ) मजदूर नेताओं " को और रईस मजदूरों के उच्च स्तर को घूस देकर अपनी ओर कर लेना बिल्कुल संभव है । और "आगे बढ़े हुए " देशों के पूंजीवादी उन्हें घूस दे भी रहे हैं; वे उन्हें हज़ारों तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खुल्लमखुल्ला और छुपे-ढके तरीक़ों से घूस देते हैं ।


पूंजीवादी रंग में रंगे हुए मजदूरों का यह स्तर, "मज़दूर अमीरों " का यह दल ही, जो अपने रहन-सहन की दृष्टि से अपनी कमाई की मात्रा की दृष्टि से और अपने दृष्टिकोण में बिल्कुल कूपमंडूक होता है, दूसरी इंटरनेशनल का मुख्य आधार और आज हमारे समय में पूंजीपति वर्ग का सामाजिक (सैनिक नहीं ) आधार बना हुआ है। मजदूर वर्ग के आन्दोलन के भीतर ये लोग ही पूंजीपति वर्ग के असली दलाल मजदूरों में पूंजीपति वर्ग के गुर्गे और सुधारवाद और अंधराष्ट्रवाद के असली वाहक हैं। सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच गृहयुद्ध होने पर ये लोग अनिवार्य रूप से, और बड़ी तादाद में, पूंजीपति वर्ग का साथ देते हैं, “कम्यूनारों" के विरुद्ध वे "वार्साइ वालों" के साथ खड़े होते हैं।


जब तक इस प्रक्रिया की आर्थिक जड़ें नहीं समझ ली जातीं और जब तक उसका राजनीतिक और सामाजिक महत्व नहीं पहचान लिया जाता, तब तक कम्युनिस्ट आन्दोलन और आनेवाली सामाजिक क्रांति की अमली समस्याओं को हल करने के काम में जरा भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।


लेनिन- साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था से।




9. मजदूरों की एकता -लेनिन


"मज़दूरों को एकता की ज़रूरत अवश्य है और इस बात को समझना महत्त्वपूर्ण है कि उन्हें छोड़कर और कोई भी उन्हें यह एकता 'प्रदान' नहीं कर सकता, कोई भी एकता प्राप्त करने में उनकी सहायता नहीं कर सकता। एकता स्थापित करने का 'वचन' नहीं दिया जा सकता – यह झूठा दम्भ होगा, आत्मप्रवंचना होगी (एकता बुद्धिजीवी ग्रुपों के बीच 'समझौतों' द्वारा 'पैदा' नहीं की जा सकती। ऐसा सोचना गहन रूप से दुखद, भोलापन भरा और अज्ञानता भरा भ्रम है।" "एकता को लड़कर जीतना होगा, और उसे स्वयं मज़दूर ही, वर्गचेतन मज़दूर ही अपने दृढ़, अथक परिश्रम द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। इससे ज्यादा आसान दूसरी चीज़ नहीं हो सकती है कि 'एकता' शब्द को गज-गज भर लम्बे अक्षरों में लिखा जाये, उसका वचन दिया जाये और अपने को 'एकता' का पक्षधर घोषित किया जाये।"


"एकता बहुत अच्छी चीज़ है और एक बेहतरीन नारा है। लेकिन मज़दूरों के संघर्ष को जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है मार्क्सवादियों के बीच की एकता, ना की मार्क्सवादियों और मार्क्सवाद के विरोधियों व संशोधनवादियों के बीच की एकता।"


- लेनिन


क्रमशः





नरेंद्र अच्युत दाभोलकर (1 नवंबर 1945 - 20 अगस्त 2013) एक भारतीय चिकित्सक , सामाजिक कार्यकर्ता, तर्कवादी और महाराष्ट्र, भारत के लेखक थे । 



1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (एमएएनएस, महाराष्ट्र में अंधविश्वास के उन्मूलन के लिए समिति ) की स्थापना की और अध्यक्ष बने । 20 अगस्त 2013 को प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथियों द्वारा उनकी हत्या कर दी गयी।  उनकी हत्या के चार दिन बाद महाराष्ट्र राज्य में लंबित अंधविश्वास और काला जादू अध्यादेश लागू किया गया । 2014 में,  सामाजिक कार्य के लिए उन्हें मरणोपरांत  पद्मश्री से सम्मानित किया गया।उन्होंने अंधविश्वास उन्मूलन के लिये जीवन भर संघर्ष किया। 

 अन्धविश्वास उन्मूलन : आचार पुस्तक उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में धर्म के नाम पर कर्मकांड और पाखंडों के खिलाफ आन्दोलन, जन-जाग्रति कार्यक्रम और भंडाफोड़ जैसे प्रयासों का ब्योरा है ! पुस्तक में भूत से साक्षात्कार कराने का पर्दाफाश, ओझाओं की पोल खोलती घटनाएँ, मंदिर में जाग्रत देवता और गणेश देवता के दूध पीने के चमत्कार के विवरण पठनीय तो हैं ही, उनसे देखने, सोचने और समझने की पुख्ता जमीन भी उजागर होती है ! निस्संदेह अपने विषयों के नवीन विश्लेषण से यह पुस्तक पाठकों में अहम् भूमिका निभाने जैसी है ! अन्धविश्वास के तिमिर से विवेक और विज्ञान के तेज की और ले जानेवाली यह पुस्तक परंपरा का तिमिर-भेद तो है ही, विज्ञान का लक्ष्य भी है !

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👆डाक्टर बी. एन. पान्डे  का एक बहुत ही अच्छा लेख "हिन्दू मन्दिर और औरंगजेब के फरामीन" के शीर्षक से विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था.  इस एतिहासिक लेख का महत्व देखते हुए इसे आपसी भाईचारा को बढ़ावा देने के आधार पर मौलाना आजाद अकाडमी नयी दिल्ली की और से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया है।


*कम्युनिष्ट सरकार ने 1918 में अनाज की कीमतों को तिगुना कर दिया था*

'लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं है कि मजदूर वर्ग मध्यम किसान से झगड़ा करे। श्रमिक कुलक के साथ समझौता नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे मध्यम किसान के साथ एक समझौते की तलाश कर सकते हैं और मांग रहे हैं। मजदूरों की सरकार, बोल्शेविक सरकार ने इस काम को साबित कर दिया है।'

'हमने इसे (उस दिन) अनाज की कीमतों को तिगुना करके साबित कर दिया"; क्योंकि हम पूरी तरह से महसूस करते हैं कि मध्यम किसान की कमाई अक्सर निर्मित वस्तुओं के लिए वर्तमान कीमतों से अधिक होती है और इसे बढ़ाया जाना चाहिए।'

'प्रत्येक वर्ग-सचेत कार्यकर्ता मध्यम किसान को यह समझाएगा और धैर्यपूर्वक, दृढ़ता से, और बार-बार उसे बताएगा कि उसके लिए ज़ारों, जमींदारों और पूंजीपतियों की सरकार की तुलना में समाजवाद असीम रूप से अधिक फायदेमंद है।'

Vladimir Lenin
Comrade Workers, Forward To The Last, Decisive Fight!
Written: August 1918
CW Volume 28

https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1918/aug/x01.htm







🔴 ऐसे थे #आर बी मोरे 
(रामचन्द्र बाबाजी मोरे ; 1 मार्च 1903 – 11 मई  1972 )
कामरेड दत्ता केलकर की आत्मकथा "आत्मशोध" नामक किताब  में लिखा वर्णन अनुवाद ; Sandhya Shaily  #संध्या_शैली )

🔵 ‘‘........एक दिन मैं और डी एस वैद्य वी.टी. जाने के लिये दलवी बिल्डिंग से स्टेशन की ओर जा रहे थे। रास्ता एल्फिंस्टन पुल के बाजू से स्टेशन की ओर जाता है। स्टेशन के पास का रास्ता पुल के नीचे से सी एम ई
के आँफिस की ओर और आगे रेलवे क्वार्टर्स से होते हुये रेलवे वर्कशॉप को जाता है। वह रास्ता जैसे ही हमें दिखा तो कामरेड वेैद्य ने मुझे पूछा ;
"वो जो सामने पुल के नीचे बैंठीं हैं वे कामरेड आर बी मोरे की पत्नी तो नही हैं ?'‘ 
मै आर बी मोरे को अच्छी तरह से जानता था लेकिन उनकी पत्नी को कभी देखा नहीं था। फिर यह भी था कि उस पुल के नीचे कई भिखारी रहते थे वहां पर आर बी मोरे की पत्नी क्यों बैठेंगी ? ऐसा मै सोच रहा था तभी कामरेड वैद्य चिंतातुर
स्वर में बोले ;
‘‘अरे, हां वही हैं।‘‘
🔵 हम लोग उनके पास गये। वे एक बक्से पर बैठी थीं। पास में और भी दो तीन टीन के बक्से रखे थे,साथ में बर्तनों का एक बोरा था और बगल मे एक छोटा बच्चा बैठा था। वे हमसे बोलीं ; 
" हम किराया नहीं पटा पाये थे ना इसलिये कोर्ट के कारिंदे ने हमें घर के बाहर निकाल दिया। ये (कामरेड मोरे) दूसरा घर ढूंढने गये हैं। तब तक मैं यहीं पर बैठूंगी। ‘‘
🔵 कामरेड वैद्य की आंखों से निकलने वाले आंसू रूक नहीं रहे थे। वे भरे गले से मुझे बोले ; 
"केलकर, जाओ एक ठेला लेकर आओ इन्हे हम अपने कमरे पर ले जायेंगे।" 
मुझे ठेला तुरंत मिल गया। हमने सारा सामान उस ठेले पर रखा और कृष्ण नगर यानि हमारे कमरे की ओर चल पड़े। दलवी बिल्डिंग (मुंबई कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय) से पांच एक मिनिट के अंतर पर कृष्णनगर था। दलवी बिल्डिंग के पास हमें आर बी मोरे भी मिल गये। कामरेड वैद्य ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हे भी साथ में ले लिया। उनकी आंखों मे भी आंसू आ गये थे।
🔴 दो मिनिट के बाद वैद्य बोले ; 
"मोरे परिस्थिति इतनी विकट थी और तुमने हम लोगों को बताया तक नहीं ?: 
मोरे ने जवाब दिया, ‘‘ कामरेड, हर कार्यकर्ता यदि अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को पार्टी के पास लाने लगा तो पार्टी एक पार्टी की तरह से काम ही नहीं कर पायेगी !‘‘ 
पल भर के लिये वैद्य निरूत्तर हो गये लेकिन फिर उन्होने कहा ; 
‘‘ पार्टी के हिसाब से नहीं लेकिन दोस्त के नाते से तो मुझे यह बताते।" 
तब फिर से मोरे बोले ; 
"कामरेड, बी सी (यानि बाम्बे कमेटी) के सचिव के नाते आपके ऊपर काम का पहले से ही कितना बोझ है यह मुझे मालूम है। हमे उस बोझ को कम करना चाहिये ना कि अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का बोझ भी आपके  ऊपर डाल देना चाहिये ?‘‘
🔵 हम लोग तब तक कृष्ण नगर में प्रवेश कर चुके थे इसलिये हमारी बातचीत वहीं पर रूक गयी। मोरे परिवार मुश्किल से सप्ताह भर भी हमारे कमरे पर नहीं रहा। नयी खोली ढूंढकर उसमें जाकर बस गए।  कामरेड मोरे को अपने जीवन में अनगिनत घर बदलने पड़े थे।"