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Sunday, 15 January 2023

नाज़िम हिकमत (15 जनवरी 1902 - 3 जून 1963) के 117वें जन्मदिन के अवसर पर

तुर्की के कम्युनिस्ट महाकवि, मानव-मुक्ति के स्वप्नों और संघर्षों के अप्रतिम चितेरे नाज़िम हिकमत (15 जनवरी 1902 - 3 जून 1963) के 117वें जन्मदिन के अवसर पर 

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नाजिम हिकमत की छ: छोटी कविताएँ

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*आशावादी आदमी*

जब वह बच्‍चा था, उसने 

कभी नहीं तोड़े तितलियों के पंख

बिल्लियों की पूँछ में उसने कभी नहीं बाँधे टिन के डिब्‍बे

माचिस की डिब्‍बी में नहीं बंद किया पतंगों को

चींटियों की बाँबियों को कभी पैरों से नहीं रौंदा।

वह बड़ा हुआ

और ये सारी चीज़े उसके साथ हुईं।

जब वह मरा, मैं उसके बिस्‍तर के पास मौजूद था।

उसने कहा मुझे एक कविता सुनाओ

सूरज और सागर के बारे में

नाभिकीय रियेक्‍टरों और उपग्रहों के बारे में

इंसानियत की महानता के बारे में I


*मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ*


मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ

जैसे रोटी को नमक में डुबोना और खाना

जैसे तेज़ बुखार में रात में उठना

और टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीना

जैसे डाकिये से लेकर भारी डिब्‍बे को खोलना

बिना किसी अनुमान के कि उसमें क्‍या है

उत्‍तेजना, खुशी और सन्‍देह के साथ।

मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ

जैसे सागर के ऊपर से एक जहाज में पहली बार उड़ना

जैसे मेरे भीतर कोई हरकत होती है

जब इस्‍ताम्‍बुल में आहिस्‍ता-आहिस्‍ता अँधेरा उतरता है।

मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ

जैसे खुदा को शुक्रिया अदा करना हमें जिन्‍दगी अता करने के लिए।


*जीना*


जीना कोई हँसी-मजाक की चीज़ नहीं:

तुम्‍हें इसे संजीदगी से लेना चाहिए।

इतना अधिक और इस हद तक

कि, जैसे मिसाल के तौर पर, जब तुम्‍हारे हाथ बँधे हों

तुम्‍हारी पीठ के पीछे,

और तुम्‍हारी पीठ लगी हो दीवार से

या फिर, प्रयोगशाला में अपना सफेद कोट पहने

और सुरक्षा-चश्‍मा लगाये हुए भी,

तुम लोगों के लिए मर सकते हो --

यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिनके चेहरे

तुमने कभी देखे न हों,

हालाँकि तुम जानते हो कि जीना ही

सबसे वा‍स्‍तविक, सबसे सुन्‍दर चीज है।

मेरा मतलब है, तुम्‍हें जीने को इतनी

गम्‍भीरता से लेना चाहिए

कि जैसे, मिसाल के तौर पर, सत्‍तर की उम्र में भी

तुम जैतून के पौधे लगाओ -- 

और ऐसा भी नहीं कि अपने बच्‍चों के लिए,

लेकिन इसलिए, हालाँकि तुम मौत से डरते हो

तुम विश्‍वास नहीं करते इस बात का,

इसलिए जीना, मेरा मतलब है, ज्‍यादा कठिन होता है।

*लोहे के पिंजरे में शेर*


देखो लोहे के पिंजरे में कैद उस शेर को

उसकी आँखों की गहराई में झाँको

जैसे दो नंगे इस्‍पाती खंजर

लेकिन वह अपनी गरिमा कभी नहीं खोता

हालाँकि उसका क्रोध

आता है और जाता है

जाता है और आता है

तुम्‍हें पट्टे के लिए कोई जगह नहीं मिलेगी

उसके घने मोटे अयाल के इर्द-गिर्द

हालाँकि कोड़े के निशान मिलेंगे अभी भी

उसकी पीली पीठ पर जलते हुए

उसके लम्‍बे पैर तनते हैं और दो ताँबे के

पंजों की शक्‍ल में ढल जाते हैं

उसके अयाल के बाल एक-एक कर खड़े होते हैं

उसके गर्वीले सिर के इर्द-गिर्द

उसकी नफरत

आती है और जाती है

जाती है और आती है

काल कोठरी की दीवार पर मेरे भाई की परछाईं

हिलती है

ऊपर और नीचे

ऊपर और नीचे
 

*पाँच पंक्तियाँ*

जीतने के लिए झूठ को जो पसरा है दिल में, गलियों में, किताबों में,

माँओं की लोरियों से लेकर

उन समाचार रिपोर्टों में जो वक्‍ता पढ़ रहा है,

समझना, मेरी प्रिय, क्‍या शानदार खुशी की चीज़ है,

यह समझना कि क्‍या बीत चुका है और क्‍या होने वाला है।

*तुम*


तुम मेरी गुलामी हो और मेरी आजादी

तुम हो गर्मियों की एक आदिम रात की तरह जलती हुई मेरी देह

तुम मेरा देश हो

तुम हो हल्‍की भूरी आँखों में हरा रेशम

तुम हो विशाल, सुन्‍दर और विजेता

और तुम मेरी वेदना हो जो महसूस नहीं होती

जितना ही अधिक मैं इसे महसूस करता हूँ।

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