हिंदी में अतिसक्रियता व संपर्कशीलता भी आपको महत्वपूर्ण लेखक बना देती है। दरअसल यहाँ 'दिखना' लोगों को इतना आतंकित करता है कि जो हर जगह दिखता है, लोग उसे पूजने लगते हैं। प्रतिभा हो न हो, लेखन चाहे जितना बासी व बोदा हो पर लगातार लोगों से संपर्क बनाना, लल्लो-चप्पो करना, यहाँ-वहाँ ही-ही करते फिरना, लेखन के नाम पर 'नित्यकर्म' करते रहना, संपादकों को साधना व कुछ भी छपवाते रहना आपको केंद्र में ला देता है। दो-चार मैग्जिन में आपकी रचना (कूड़ा कहिए) दिखते लोग आपसे आतंकित होना शुरू कर देते हैं। अब हर एडिटर बगैर पढ़े आपको छापना शुरू कर देता है। बड़े-बड़े लोगों के साथ आप उठना-बैठना शुरू कर देते हैं व अपने एकांत को त्याग कर सोशलाइट बन जाते हैं। रोज़ कुछ लोगों से मिलने की चाह व निरंतर वाह-वाह की आकांक्षा, निरंतर चर्चा में बने रहने की जुगत आपकी रही-सही प्रतिभा का भी गला घोंट देती है। मगर आप निरंतर डिमांड पर जो हग कर फैलाते हैं, उसे ही तमाम सूअरें निष्ठा से सूंघती व उसे लेकर चीकरती रहती हैं। आपको लगता है, हो गए लेखक। काश कि आप अपने लिखे के प्रति आलोचनात्मक हो पाते, कुछ ठहर कर सोच पाते, अपने एकांत को तलाशते, अपनी उद्विग्नता में धँसते पर आपको क्या मतलब इनसे! भेड़ों के बीच होना व उनका भेंभियाना आपको कुछ सोचने दे तब न! ऐसे मतिभ्रम कुलेखकों की बाढ़ है हिन्दी में। हर शहर में। बजबजा रहा है माहौल।
Hareprakash Upadhyay
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