उर्मिलेश जी जिन रचनाकारों का नाम ले रहे हैं, वे सब के सब वामपंथी हैं। यह एकतरफा विमर्श होगा। आप ऐसा चाहेंगे? मैं नहीं चाहता। मुझे लगता है कि विमर्श का एकतरफा नजरिया घातक है। साहित्य के लिए भी और समाज के लिए भी। शुक्ल, विश्वनाथ त्रिपाठी, उदयभान सिंह, बच्चन सिंह, नंदकिशोर नवल, रामजी तिवारी, गोपेश्वर सिंह, फादर कामिल बुल्के, रामकुमार वर्मा आदि को भी पढ़ना चाहिए।
जहाँ तक रांगेय राघव का प्रश्न है तो, 'तुलसी: आधुनिक वातायन से' में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि मुगलों का संरक्षण पाकर निर्गुनियों ने अपनी बात कही है। इसलिए मैंने भी कहा है कि निर्गुनियों का भक्ति आंदोलन 'सामंतों के संरक्षण में सामंत विरोधी आंदोलन है।' मैं इसे बुरा नहीं कह रहा हूँ। ताकत मिलने से ही आदमी बोलने की हिम्मत जुटा पाता है। जैसा कि हम आजकल देख रहे हैं। यह ठीक ही है। क्योंकि ताकत का केन्द्रीयकरण तानाशाही को जन्म देता है। परंतु विमर्श का इकतरफा नजरिया किसी भी तरह से उचित नहीं है। वामपंथी घृणा के पात्र इसीलिए बने हैं। वह अपने दायरे से बाहर न देखते हैं और न ही देखना पसंद करते हैं। उनमें वैचारिक आतंक और पूर्वाग्रह बहुत ज्यादा है।
तुलसीदास से मेरी घोर असहमति है। पर उनकी कला का घनघोर मुरीद भी हूँ। उनका एक-एक दोहा, उनकी एक-एक चौपाई जीवन को बदलने का सामर्थ्य रखता है। मेरा आग्रह हमेशा से यही रहा है कि विरोधी तत्त्वों में भी जो अच्छाई है, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। समझदारी तो इसी में है कि हम दूसरों की शक्ति का अंदाजा लगाए। कमजोरियां ढूंढना कायरों का काम है। इसलिए मेरे भीतर नकार का भाव नहीं है। गांधी और जीसस ने मुझे शत्रुओं से भी प्रेम करना सिखाया है। जो मुझसे घृणा करते हैं, मैं उनसे भी प्रेम करता हूँ और करता रहूँगा।
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