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बात 1935 की है. बनारसी दास चतुर्वेदी ने प्रेमचंद को कलकत्ता के तुलसी जयंती के आयोजन में अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया. प्रेमचंद ने उन्हें जवाब दिया, "मैं इस काम के लिए सबसे कम योग्य व्यक्ति हूँ. एक ऐसे उत्सव की अध्यक्षता करना जिसमें मैंने कभी कोई रुचि नहीं ली, हास्यास्पद बात है. मुझे अपने भीतर आत्मविश्वास की कमी जान पड़ती है, डर लगता है. सच बात तो यह है कि मैंने रामायण भी आदि से अंत तक नहीं पढ़ी है. यह लज्जाजनक स्वीकारोक्ति है, मगर बात ठीक है."
इसी के पन्द्रह दिन बाद प्रेमचंद ने बनारसी दास चतुर्वेदी को एक दूसरे पत्र में यह भी लिखा कि "अगर आपने तुलसी उत्सव मेरे ऊपर न लगा दिया होता तो मैं आता. लेकिन एक ऐसे व्यक्ति का तुलसी जयंती में सभापतित्व करना, जिसने कभी उन्हें पढ़ा नहीं और जो उनके संबंध में कही जाने वाली अतिमानवी बातों में विश्वास नहीं करता, हास्यास्पद है. उन्होंने राम और हनुमान को देखा और वह बंदरवाली घटना सब खुराफात. मगर क्या तुलसी-भक्त लोग मेरी काफिरों जैसी बात पसंद करेंगें? इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह विक्रम संवत् दस में पैदा हुए या बीस में या चालीस में? क्यों अपनी बुद्धि खामखाह इसके पीछे बर्बाद करो जबकि और भी न जाने कितनी चीजें करने को पड़ी हैं. वह एक महान कवि थे,, उनकी व्याख्या करो, दार्शनिक व्याख्या, मनोवैज्ञानिक व्याख्या, प्राणिशास्त्रीय व्याख्या, शरीरशास्त्रीय व्याख्या जो चाहे करो, मगर उन्हें ईश्वर काहे बनाते हो." ..(प्रेमचंद, चिठ्ठी- पत्री खंड दो पुस्तक से.)
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