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Wednesday, 18 January 2023

रामचरितमानस की विवादास्पद चौपाइयां

रामचरितमानस की दो चौपाइयां अत्यंत विवादास्पद रही हैं।  ये  चौपाइयां निम्नांकित हैं।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥ (अरण्य कांड-33:)
तथा
ढोल, गंवार, सूद्र, पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।। (सुन्दर काण्ड-58)
इन दोनो चौपाइयों में शुद्र का जिक्र है। दूसरी में शुद्र के साथ आधी आबादी (नारी) को भी रखा गया है।

हिंदुस्तान के घटिया से घटिया कवि ने भी ऐसी मानव विरोधी और ओछी बातें कभी नहीं किया होगा। तो फिर सवाल है कि सारे जड़ चेतन में सीता और राम को देखनेवाले और सभी जीवों से अपार प्रेम करने वाले हमारे संत महाकवि ने ऐसी बातें कैसे लिख दी?
थोड़ा विस्तार से देखें,
प्रथम चौपाई:
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दुर्वासा के श्राप से राक्षस योनि में जन्म पाये तथा राम के हाथों मृत और तत्पश्चात पापमुक्त गंधर्व, कबंध, से श्रीराम कहते हैं:
सापत ताड़त परुष कहंता। 
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। 
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥
(शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी बिप्र पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुण से हीन भी बिप्र पूजनीय है। और गुणों से भरा और ज्ञान में निपुण होने के बावजूद भी शूद्र पूजनीय नहीं है।)

पर पूरे मानस में एक भी प्रसंग नहीं है जिसमें तुलसीदास गुण-विहीन व्यक्ति, बिप्र या अन्य, के पक्ष में खड़े दिखें। रावण और कुम्भकर्ण भी बिप्र हैं। पर वे सदाचारी नहीं हैं अतः राक्षस हैं। मानस में जिन खलों का बारम्बार जिक्र है, वे प्रायः सभी ‛ऊंच निवास नीच करतूती' वाले ब्राह्मण वर्ण के हैं। 
इसके विपरीत समाज के जो भी तिरस्कृत और प्रताड़ित हैं –कोल, भील, किरात, बानर, भालू, गिद्ध, निषाद, शबरी, जटायु आदि सभी– अपने सदाचार के चलते श्रीराम को अपने भ्राताओं सदृश प्रिय हैं।
मानस में जिस एक शुद्र का स्पष्ट जिक्र है ,वह है निषाद  जिसके बारे में शब्द हैं
लोक बेद सब भाँतिहि नीचा। 
जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।
(जो लोक और वेद दोनों में सब तरह से नीचा माना जाता है,जिसकी छाया छू जाने से भी स्नान करना होता है।)
पर इस निषाद से तो राम तथा बाद में भरत अँकवार भर कर गले मिलते हैं। उसकी छाया तो क्या, शरीर से भी अशुद्ध नहीं होते।
राम के अयोध्या लौटने पर जब निषाद  विदा लेता है, तब राम कहते हैं,
तुम मम सखा भरत सम भ्राता
सदा रहेऊ पुर आवत जाता
जो लोग कहते हैं कि तुलसी वर्णाश्रम धर्म के प्रतिपालक थे उन्हें यह जानना चाहिए कि तुलसी के राम ने उच्च वर्ण के किसी को भी न तो सखा कहा और न भरत सम भ्राता कहा।
शबरी भी शुद्र वर्ण की है, पर राम उसके झूठे फल खाने में भी कोई संकोच नहीं करते।

द्वितीय चौपाई:
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समुद्र श्रीराम की सेना को लंका जाने की राह नहीं दे रहा। राम क्रोध में धनुष उठा लेते हैं।  श्रीराम के क्रोध से भयभीत समुद्र हाथ जोड़े प्रकट होता है, और क्षमा की प्रार्थना करते हुए कहता है;
गगन समीर अनल जल धरनी। 
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
(हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है।
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी– ये सभी डाँट के ही योग्य हैं)

रामचरितमानस के इन  प्रसंगों में ये दोनों चौपाइयां अपने स्थान पर पूरे तौर से बेतुकी और अप्रासंगिक लगती हैं, और उतना ही अप्रासंगिक शुद्र या नारी की बातें जबरदस्ती घुसेड़ना। ऐसी गलती तुलसी जैसे श्रेष्ठ कवि से असंभव थी। 

निष्कर्ष यह है कि  ये चौपाइयां तुलसी की नहीं बल्कि ब्राह्मण पुरोहितों की चमत्कारी लेखनी से मानस में घुसी है जिसके द्वारा शातिर पंडितों- पुजारियों ने लोकप्रिय हो चुकी रामचरितमानस को अपने मनोनुकूल बना लिया। इस काम में वे सदियों से दक्ष थे। वाल्मीकि रामायण के साथ यह कांड वे बहुत पहले कर चुके थे। 

मध्यकालीन भक्त कवियों को पढ़ते वक्त हमें यह मूल बात दिमाग में रखनी होगी कि कबीर, तुलसी, सूर, रैदास, नानक सहित उस काल के सारे भक्त कवि उदार एवम मानववादी थे और ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था के  विरोधी थे।
तुलसी ने तो खुद लिखा:
"मेरे जाति-पाँति न, चहौं काहू की जाति-पाँति,
मेरे कोऊ कामको, न हौं काहू के कामको।"
(कवितावली, उत्तरकांड)
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