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Sunday, 15 January 2023

अमृत काल में भी दलितों के हिस्से मानव मल- नागरिक अखबार



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दिसंबर 2022 के अंतिम सप्ताह में एक इंसानियत को शर्मशार करने वाला कुकृत्य किया गया। तमिलनाडु के जिला पुदुकोट्टई के एक गांव में दलितों के पानी पीने के लिए बनी टंकी में मानव मल डाल दिया गया। 100 परिवारों वाली बस्ती में जब कई बच्चे बीमार हो गए तो डॉक्टरों ने बताया कि गंदा पानी पीने से बच्चे बीमार पड़ रहे हैं। डॉक्टरों के कहने पर गांव में बनी पानी की टंकी को चेक किया गया तो उसमें भारी मात्रा में मानव मल पड़ा हुआ था। शिकायत करने पर पुदुकोट्टई जिले के डीएम और एसपी वहां पहुंचे। वहां पहुंचने पर उन्हें एक और बात पता चली। दलित लोगों ने बताया कि गांव में छुआछूत की प्रथा अभी भी कायम है। उक्त गांव के मंदिर में दलितों को नहीं जाने दिया जाता है और गांव की चाय की दुकान पर दलितों के लिए अलग से गिलास रखे जाते हैं।

पीने के पानी में मानव मल की इतनी बड़ी शर्मसार करने वाली घटना के बावजूद जिले के डीएम व एसपी द्वारा दोषियों की पहचान नहीं की जा सकी। डीएम और एसपी द्वारा दलितों को मंदिर में प्रवेश कराया गया एवं चाय के दुकानदार के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया। डीएम और एसपी ने दलितों से ही कहा है कि वह पता करें कि पानी की टंकी में मानव मल किसने डाला है। इस पर कोई जांच बैठाई जाए और जांच एजेंसियां पानी की टंकी में मल डालने वाले दोषियों की पहचान करें, ऐसी खबर अभी तक नहीं आई है।

तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद के खिलाफ लंबा संघर्ष चला है। सब जानते हैं कि हिन्दू ब्राह्मणवादी मूल्यों के हिसाब से बड़ी जातियों के लोग दलितों से छुआछूत रखते हैं। छुआछूत के खिलाफ अपने स्वाभिमान के लिए जब दलित खड़े होते हैं, आवाज उठाते हैं तो ऊंची जाति के लोगों द्वारा उनके खिलाफ इंसानियत को शर्मसार करने वाले घृणित कृत्य किए जाते हैं।

तमिलनाडु पेरियार की भूमि रही है। यहां पर आदि द्रविड़ जातियों (दलितों) द्वारा हिन्दू ब्राह्मणवाद, छुआछूत एवं सभी तरह के दलित और महिला उत्पीड़न के खिलाफ बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई थी। लेकिन द्रविड़ आन्दोलन से निकलीं डीएमके व एआईएडीएमके जैसी पूंजीवादी पार्टियों के नेतृत्व पर गैर दलित ताकतवर पिछड़ी जातियों के नेता काबिज हैं। इन पार्टियों ने गैर बराबरी के खिलाफ दलितों पिछड़ों में जो चेतना पैदा हुई थी, उसे वोट की राजनीति तक सीमित रखा। महंगाई-बेरोजगारी, भ्रष्टाचार बढ़ाने के साथ इन पार्टियों ने जातिवादी एवं धार्मिक राजनीति को ही बढ़ावा दिया है।

तमिलनाडु हमारे देश का वह राज्य हैं जहां पर 20 प्रतिशत से अधिक दलित आबादी रहती है। यह राष्ट्रीय औसत 16.6 प्रतिशत से अधिक है। राज्य के 94 प्रतिशत दलितों के पास जमीन नहीं है। राज्य की अधिकांश जमीनों पर ऊंची जातियों एवं ताकतवर पिछड़ी जातियों का मालिकाना हक है। अधिकांश आबादी खेतिहर मजदूर के तौर पर काम करती है। ऊंची जातियां आज भी बहुत से काम यजमानी प्रथा एवं बेगार के तौर पर कराती हैं। राज्य में अभी भी मैला ढोने की प्रथा जारी है। 2018-19 में 3000 से अधिक परिवारों ने सरकार को लिखकर बताया था कि वे अपनी आजीविका के लिए मानव मल ढ़ोने का काम करते हैं। तमिलनाडु में 600 से अधिक गांव में अभी भी खुलेआम अस्पृश्यता छुआछूत जारी है।

तमिलनाडु में पिछले कुछ सालों के आंकड़े देखें तो दलितों पर अत्याचार और हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।

2011 से जुलाई 2015 तक तमिलनाडु में 213 दलितों की हत्या गैर दलित जातियों ने की है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2014 से जून 2017 के बीच देश में दलितों पर हिंसा के 32,000 मामले दर्ज हुए हैं। उनमें से 5300 दलित उत्पीड़न के मामले केवल तमिलनाडु में दर्ज हुए हैं। तमिलनाडु में 2019 में 1144, 2020 में 1274 एवं 2021 में 1377 दलित हिंसा के मामले दर्ज हुए हैं। राज्य में 2021 में ही 53 दलितों की हत्या कर दी गई थी। राज्य में दलित समुदाय पर हमलों में वृद्धि देखने को मिल रही है। 2020 में कोविड के समय लॉकडाउन में दलितों पर सामूहिक हमले के मामले में तमिलनाडु देश में पांचवें स्थान पर था।

फरवरी 2020 में चेन्नई के पास विल्लुपुरम में सड़क किनारे शौच करने पर 24 वर्षीय दलित युवक की सरेआम पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। आज भी बहुत से गांवों में दलितों को आम रास्ते पर चलने की मनाही है। जनवरी 2016 में नागपट्टनम जिले के थिरुनाल कोंडाचेरी गांव में चेल्लामुथु नाम के दलित व्यक्ति के शव को ऊंची जातियों ने आम रास्तों से नहीं ले जाने दिया था। चेल्लामुथु के पुत्र ने चेन्नई हाईकोर्ट में अपील की थी और हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी जिले के पुलिस प्रशासन ने चेल्लामुथु के शव को आम रास्ते से ले जाने के लिए प्रशासनिक प्रबंध नहीं किया। पुलिस-प्रशासन ने सवर्ण जातियों से मिलीभगत कर खुद ही चेल्लामुथु के शव का अंतिम संस्कार कर दिया था। गत 5 वर्षों में दलित हत्याओं के 300 मामले दर्ज हुए हैं लेकिन केवल 13 मामलों में ही सजा हुई है।

शेष बहुत से मामलों में चार्जशीट तक दाखिल नहीं हो सकी है।

तमिलनाडु में गैर दलित जातियों की लड़कियों से प्रेम करने व शादी करने वाले दलित युवक की निर्मम तरीके से हत्या कर दी जाती है। बहुत जगहों पर दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता है।

तमिलनाडु में एससी/एसटी एक्ट 1989 का क्रियान्वयन निराशाजनक है। तमिलनाडु में अदालती कार्रवाई की बात की जाए तो दलितों पर हिंसा के केवल 6 प्रतिशत मामले में ही आरोपियों को सजा मिल सकी है। बहुत से मामलों में अभी तक चार्जशीट भी दाखिल नहीं हो सकी है ।

देश में तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जहां पर दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ी जातियों को 69 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है। किन्तु इसके बाद भी तमिलनाडु में आर्थिक-सामाजिक असमानता अपने चरम पर है। शिक्षा के निजीकरण के कारण गरीब परिवारों के बच्चे शिक्षा से खासकर उच्च शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। नौजवान बेरोजगार हैं। रोजगार के नाम पर कम्पनियों में ठेकेदारी, निर्माण क्षेत्र में मजदूरी, खेत मजदूरी आदि कर लोग अपना जीवन यापन कर रहे हैं। बड़ी आबादी अभी भी सामंती ब्राह्मणवादी ताकतवर जातियों के दमन-उत्पीड़न के नीचे पिस रही है।

सवाल यह है कि आजादी के 75वें साल में भी जब मोदी सरकार इसे अमृत काल घोषित कर अमृत महोत्सव मना रही हैं, तब देश में दलित हिंसा का शिकार क्यों हो रहे हैं। दलितों के पीने के पानी की टंकी में मानव मल डालने जैसे घृणित व इंसानियत को शर्मसार करने वाले कुकृत्य क्यों हो रहे हैं।

तमिलनाडु ई वी रामासामी पेरियार की धरती है। रामासामी पेरियार ने हिंदू ब्राह्मणवादी सामंती मूल्य मान्यताओं एवं पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ लंबा संघर्ष किया है। उन्होंने हिंदू धर्म ग्रंथों को खुलेआम जलाया और एक समता मूलक जातिविहीन समाज बनाने की ओर बढ़ने का आह्वान किया था। पेरियार के द्रविड़ आंदोलन ने तमिलनाडु में ब्राह्मणवादी, सामंती एवं पितृसत्तात्मक मूल्यों के खिलाफ एक प्रगतिशील चेतना पैदा की थी। वैसे तो देश में ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले एवं फातिमा शेख से लेकर पेरियार व अंबेडकर आदि ने ब्राह्मणवादी सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यों के खिलाफ एक प्रगतिशील सामाजिक चेतना को जन्म दिया था। लेकिन क्या कारण है कि आज वह प्रगतिशील सामाजिक चेतना निजी स्वार्थों में विलीन हो गई। पुनः सामंती-जातिवादी-महिला विरोधी ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मूल्यों-मान्यताओं को बढ़ावा देकर हिंसक धार दी जा रही है। इसके पीछे क्या कारण है? आज के धार्मिक-जातीय एवं महिला हिंसा के पीछे पुरानी जातीय व्यवस्था के पैरोकार पुराने पुरोहित व सामंत नहीं खड़े हैं। आज की धार्मिक, जातीय व महिला हिंसा की जड़ें पूंजीवादी कारपोरेट वित्तीय पूंजी से अपना खाद-पानी ग्रहण कर रही हैं।

आज देश में उत्पादन और वितरण का काम पूंजीवादी तौर-तरीकों से हो रहा है और इस पर कारपोरेट और वित्तीय मल्टीनेशनल कंपनियों का नियंत्रण है। पूंजीपति वर्ग ने ना केवल उत्पादन और वितरण के काम को नियंत्रित किया है बल्कि यह भारतीय राज्य और सभी छोटी-बड़ी पूंजीवादी पार्टियों को भी नियंत्रित कर रहे हैं।

आज पूंजीवादी तौर-तरीके में सामंती-पितृसत्तात्मक मूल्यों को घोलकर आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर दलित-पिछड़ी जातियों के मजदूरों एवं महिलाओं के श्रम का निर्ममतापूर्वक शोषण किया जा रहा है। पूंजीपति वर्ग सस्ते श्रम के लिए व लूट के निजाम को बनाए रखने के लिए सामंती एवं पितृसत्तात्मक मूल्यों-मान्यताओं को खाद-पानी देकर पाल-पोस रहा है। पूंजीपति वर्ग अपने खिलाफ जन गोलबंदी को रोकने के लिए सामंती एवं पितृसत्तात्मक मूल्यों-मान्यताओं को हिंसक धार भी देता है। जातियों एवं धर्मों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ाकर दंगा करवाता है।

मौजूदा समय में निजीकरण की बढ़ती रफ्तार के साथ देश में नए-नए जाति धार्मिक संगठन खड़े हो रहे हैं। इन संगठनों के नेताओं को पूंजीवादी लूट में से एक हिस्सा मिलता आज जातीय-धार्मिक-सामंती एवं पितृसत्तात्मक मूल्य मान्यताओं के खिलाफ लड़ाई पूंजीवाद विरोधी लड़ाई का हिस्सा मात्र है। पूंजीवादी-साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ लड़ाई को खड़े किए बिना सामंती-पितृसत्तात्मक, जातीय-धार्मिक व महिला उत्पीड़न, गैर बराबरी एवं वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई को जीता नहीं जा सकता।

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