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Saturday, 28 January 2023

भारतीय बाबा और गुरुओं के बाजार

60 से 70 के दशक में भारतीय बाबा और गुरुओं के बाजार में सर्वप्रथम 'महेश योगी' एक बडे़ नाम के रूप में उभरे थे। यह वही समय था, जब पश्चिम जगत में 'हिप्पी आंदोलन' उभरा था। यह पश्चिम ; विशेष रूप से अमेरिका में आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक संकट का दौर था। वियतनाम में अमेरिकी बर्बरता के खिलाफ अमेरिका तथा पूरे पश्चिमी जगत में बडे़ आंदोलन चल रहे थे। पश्चिम में इसके अलावा एक अराजक पीढ़ी पैदा हुई थी, जो कथित खुशी की तलाश में पूर्वी देशों विशेष रूप से भारत, नेपाल थाईलैंड की ओर रुख कर रही थी। काठमांडू, बैंकाक, बनारस गोवा आदि में ये पश्चिमी युवक बडे़ पैमाने पर देखे जा सकते थे। ये लोग कुछ भी खा-पी लेते थे, अजीबोगरीब वेशभूषा में ये लोग विभिन्न नशे में डूबे बनारस के घाटों समुद्र तटों पर पड़े रहते थे । महान संगीतकार ' बिटल्स' का भी इस आंदोलन को साथ मिला, वे बनारस आये और लंबे समय तक यहाँ रहे भी । इस अराजक आंदोलन का फायदा सबसे अधिक फायदा भारतीय "बाबा साधुओं और कथित गुरुओं" ने उठाया। हरिद्वार, ऋषिकेश, वाराणसी के बाबाओं के आश्रम इन लोगों से भर गए! तंत्र-मंत्र साधना और योग-आध्यात्म का भारतीय बाजार चल निकला, लेकिन इसमें सबसे बड़ा नाम महेश योगी और रजनीश का उभरा था। महेश योगी योग का एक कथित नया वर्जन "भावातीत ध्यान" लेकर आए। इसमें कुछ भी नया नहीं था, केवल पुराने माल को नये रैपर में पेश किया था। महेश योगी ने हालैण्ड, स्विट्ज़रलैंड में अपने आश्रम खोले और पश्चिमी लोगों से भारी फीस लेकर यह कथित ध्यान सिखाने लगे। कोई पूछ सकता है, कि महेश योगी ने अपना यह कथित ध्यान भारतीय लोगों को क्यों नहीं उपलब्ध कराया? इसका उत्तर बहुत आसान है, क्योंकि अभी भारतीय मध्यवर्ग की यह  हालत नहीं थी, कि वह पैसे खर्च करके योग आध्यात्म के बाजार में इसे खरीद सके। महेश योगी ने अपने इस कथित ध्यान को पश्चिमी समाज के अनुकूल बनाया:- जैसे उनके आश्रम में माँसाहार  शराब या सेक्स की कोई रोक-टोक नहीं थी। महेश योगी ने पश्चिमी देशों में अपने इस कारोबार में अकूत पैसे और नाम कमाया। बाद में महेश योगी ने भारत में 'महर्षि विद्या मन्दिर' के नाम से बच्चों के स्कूल की एक श्रृंखला शुरू की, ये अंग्रेजी मीडियम के पब्लिक स्कूल थे। इनका योग आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं था। ये महंगे स्कूल आम पब्लिक स्कूलों की तरह से थे तथा यहाँ पर अध्यापकों और कर्मचारियों का उसी तरह शोषण होता था,जैसा आम निजी संस्थानों में होता है। महेश योगी का सितारे 80-90 के दशक के बाद उनकी मृत्यु होने के बाद करीब-करीब डूब गए, हाँलाकि देश-विदेश में उनके अनेक संस्थान और स्कूल आज भी चल रहे हैं, लेकिन इसका बड़ा कारण यह था कि धर्म और आध्यात्म के इस धंधे में कुछ बडे़ खिलाड़ी और आ गए थे! इसमें बड़ा नाम 'रजनीश' का था, लेकिन रजनीश का मूल्यांकन फिर कभी विस्तार से करूँगा, क्योंकि उनके लिए एक स्वतंत्र पोस्ट की जरूरत है। 90 के दशक में अपने देश तथा दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ मजदूर किसानों तथा आम जनता के लिए ; जहाँ तबाही बर्बादी लेकर आई, वही एक बड़ा भारतीय मध्यवर्ग भी पैदा हुआ। इस वर्ग की कोई विचारधारा नहीं थी, इसकी केवल पैसा ही विचारधारा थी। यह वर्ग हद दर्जे का स्वार्थी अमानवीय और मतलबी था, यह पैसे कमाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था। यह मूलतः भारतीय सवर्ण जाति का था, इसमें डॉक्टर, इंजीनियर बडे़ नौकरशाही तो थे ही, प्राइवेट कंपनियों और बैंकों आदि में काम करने वाले बडे़ अधिकारी भी थे। इन लोगों के पास जायज नाजायज तरीकों से कमाया अपार पैसे है। अब इसके पास इतने पैसे थे, कि धर्म आध्यात्म योग आदि को मुँह माँगे पैसे से भारत में ही खरीद सके । इनकी इस माँग की पूर्ति करने के लिए दो बडे़ गुरु बाजार में उतरे,इसमें  एक थे 'श्री श्री श्री रविशंकर' और दूसरे 'रामदेव'। रविशंकर मूलतः उच्च मध्यवर्ग के गुरु हैं। ये खाए-पीए अघाए इस वर्ग को कथित रूप से खुशी उपलब्ध कराते हैं ,'आर्ट आफ लिविंग' नाम से इनके लोगों की कथित योग-साधना आप बडे़ शहरों में मैदानों आदि में देख सकते हैं। रात-दिन किसी भी उपाय से पैसे कमाने की धुन ने इस वर्ग के चेहरों से मुस्कान-हँसी छीन ली है, यह वर्ग तरह-तरह के मानसिक बीमारियाँ और अनिद्रा आदि का शिकार है। रविशंकर बाबा इन लोगों को खुश रहने का उपाय पैसे लेकर बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते कि उनके दुखों  का मुख्य कारण धन की अधिकता है। इस दौर के दूसरे बडे़ बाबा 'रामदेव' है। इनकी लंबी यात्रा धर्म और आध्यात्म-योग से लेकर कॉरपोरेट बनने तक की है। इनके बारे में पहले भी बहुत कुछ लिखा पढ़ा गया है, इसलिए केवल संक्षिप्त में कुछ बातें। रामदेव का प्रारंभिक जीवन रहस्यमय और विवादास्पद है। हरिद्वार के पातंजलि योगपीठ नामक एक छोटे से आश्रम से इनकी कहानी शुरू होती है  । वहाँ इनके गुरु एक दिन रहस्यमय तरीके से गायब हो जाते हैं। वे फिर कभी वापस नहीं आते हैं। उनके गायब होने का आरोप रामदेव पर लगा, लेकिन यह आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ। इसके बाद ही वे पातंजलि योगपीठ के सर्वेसर्वा बन गए, यहीं से उनकी यात्रा की शुरुआत हुई। रामदेव ने दावा किया था, कि वे योग के कुछ नए सूत्र खोज कर लाए हैं, लेकिन उनके योग में नया कुछ भी नहीं था ; नयी थी तो उनकी मार्केटिंग। हर शहर में उनके आठ-दस दिन के योग शिविर लगने लगे, वहाँ पर टिकट लगाकर सुबह-सुबह योग-आसनों की कसरतें होने लगी। रामदेव ने योग, आध्यात्म और अंधराष्ट्रवाद की कुछ ऐसी खिचड़ी पकाई, जो मध्यवर्ग को बहुत स्वादिष्ट लगी। उन पर अपार पैसे बरसने लगे । इस सबसे उन्हें यह भ्रम  हो गया, कि वे राजनीति में भी सफल हो सकते हैं, लेकिन इस क्षेत्र में मौजूद घुटे-घुटाये राजनीतिक लोगों ने उनकी कमर तोड़ दी। उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी भी बनाई, लेकिन दिल्ली के रामलीला मैदान में धरना देते समय रात में पुलिस लाठीचार्ज के बाद सलवार पहन कर भागने के बाद उनके राजनीतिक जीवन का अवसान हो गया, इसके बाद उनके एक  योगगुरु से काॅरपोरेट बनाने की यात्रा से सभी परिचित हैं। उनके ऊपर लिखी पुस्तक " ऐ गाडमैन टू काॅरपोरेट " में उनकी यात्रा के बारे में ये चीजें बहुत विस्तार से लिखी हैं । 
 वास्तव ये कुछ प्रतिनिधि उदाहरण मात्र है, हमारे देश साधु-महात्मा योगगुरुओं की रूप में ठगों की भरमार है। ये अरबों-खरबों के मालिक  और इनकी एक अवैध काली अर्थव्यवस्था है। भारतीय मध्यमवर्ग भले ही यूरोपीय मध्यवर्ग की तरह बहुत शानदार जीवन जी रहा हो ,लेकिन यह बहुत पिछड़ा अंधविश्वासी और सामंती मूल्य-मान्यताओं से ग्रस्त हैं। एक बात और है,ये सारे 'गाडमैन' और  मध्यवर्ग  भारतीय फासीवाद के जबरदस्त समर्थक हैं, इसलिए भारतीय फासीवादी और पूंजीवाद की  लड़ाई तर्क, बुद्धि और विवेक के बिना पूरी नहीं हो सकती है।
Swadesh Sinha


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