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Thursday, 26 January 2023

26 जनवरी आर्काइव्ज

 रामकथा: उत्पत्ति और विकास’- फ़ादर क़ामिल बुल्के



यह जानकर आश्चर्य होता है कि किसी ईसाई मिशनरी की सर्वश्रेष्ठ कृति हिंदू देवता राम से संबंधित हो सकती है. लेकिन यह सच है कि ज्यादातर आलोचकों की नजर में फादर कामिल बुल्के रचित ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है. यूं तो उन्होंने इस विषय पर ही अपनी पीएचडी थीसिस जमा की थी. लेकिन इस विषय पर वे बाद में 18 साल तक काम करते रहे. इस ग्रंथ के बारे में उनके गुरु और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ धीरेंद्र वर्मा ने लिखा, ‘इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है. वास्तव में यह शोध पत्र अपने ढंग की पहली रचना है. हिंदी क्या किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है.’


 इस शोध में उन्होंने कई उदाहरणों से साबित किया कि रामकथा अंतरराष्ट्रीय कथा है जो वियतनाम से लेकर इंडोनेशिया तक फैली है. 


फादर कामिल बुल्के की नजर में हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास थे. तुलसीदास की रचनाओं को समझने के लिए उन्होंने अवधी और ब्रज तक सीखी. उन्होंने रामकथा और तुलसीदास और मानस-कौमुदी जैसी रचनाएं तुलसीदास के योगदान पर ही लिखी थीं.

उन्होंने 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए शोध प्रबंध अंग्रेजी के बजाय हिंदी में ही लिखा. उनसे पहले देश के सभी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में शोध प्रबंध लिखने का नियम नहीं था. हालांकि वे खुद अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लै​टिन और ग्रीक भाषाओं में सहज थे. लेकिन उन्होंने अपने गाइड और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान माता प्रसाद गुप्त से साफ कह दिया कि वे शोध-प्रबंध लिखेंगे तो हिंदी में ही.


हिंदी भाषा के प्रति किसी विदेशी छात्र के इस लगाव ने तमाम लोगों को अचंभित कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े. इसके बाद ही देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में शोधकर्ताओं को अपनी भाषा में थीसिस जमा करने की अनुमति मिलने लगी. 


856 पृष्ठ के इस ग्रन्थ को डाउनलोड करने के लिये क्लिक करे



नए साल का संकल्प




1.नए साल की शुभ कामनाएं


खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को

कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को

नए साल की शुभकामनाएं !


जाँते के गीतों को बैलों की चाल को

करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को

नए साल की शुभकामनाएँ !


इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को

चौके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को

नए साल की शुभकामनाएँ !


वीराने जंगल को तारों को रात को

ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को

नए साल की शुभकामनाएँ !


कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को

हर नन्ही याद को हर छोटी भूल को

नए साल की शुभकामनाएँ!


उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे

उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे

नए साल की शुभकामनाएँ!  

 

 सर्वेश्वर दयाल सक्सेना



2. तुझमें नयापन क्या है ?


ऐ नए साल बता, तुझमें नयापन क्या है

हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रक्खा है


रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही

आज हम को नज़र आती है हर इक बात वही


आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं

एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं


अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे

किस को मालूम नहीं बारह महीने तेरे


जनवरी, फ़रवरी और मार्च पड़ेगी सर्दी

और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी


तेरा मन दहर में कुछ खोएगा, कुछ पाएगा

अपनी मीआद बसर कर के चला जाएगा


तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी

वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई


बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारकबादें

ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें


तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ में सब की

'फ़ैज़' ने लिक्खी है यह नज़्म निराले ढब की 


- फ़ैज़ लुधियानवी


ख़ल्क़ = मानवता, हिंदसे = संख्या, जिद्दत = नया-पन,

अगले = पिछले/गुज़रे हुए, क़रीने = क्रम, दहर = दुनिया,

मीआद = मियाद/अवधि, बे-सबब = बे-वजह,

ग़ालिबन = शायद, आमद = आना, ढब = तरीक़ा


3. नया साल मुबारक


तारीख

पंचांग में फंसा अंक नहीं

न वक्त घड़ी की सूइयों का

ज़रखरीद गुलाम

इनके वजूद की खातिर

सूरज को जलना पड़ता है

चलना पड़ता है पृथ्वी को

अनंत अनजान पथपर

अनवरत

ऐसे में कोई साल

लेटे लेटे या बैठे बैठे

नया हो जाए

बड़ी ख़ूबसूरत ख़ुशफहमी है

जो खोए हैं

उन्हें ख़ुशफ़हमी मुबारक

जो तैयार हैं

ख़ुद को खोने

और जग को पाने के लिए

उनके साथ मिलकर

चलो बनाते हैं

मनाते नहीं

एक नया कोरा महकता 

इज़्ज़तदार साल

सिर उठाकर

मुट्ठियां तानकर

मुस्कुराते हुए

सिर्फ अपने लिए नहीं

पूरी कायनात के लिए

और निर्मल निश्छल निर्भय मन से

सबसे कहते हैं

यह नया साल मुबारक हो

हम सबको


      -हूबनाथ



4. नया वर्ष 

युवा दिलों के नाम 

ज़िन्दा कौमों के नाम

साहसिक यात्राओं के नाम,

सक्रिय ज्ञान के नाम,

सच्चे प्यार के नाम,

मानवता के भविष्य में 

उत्कट आस्था के नाम!

नया वर्ष

जो रचते हैं जीवन, 

जीवन की बुनियादी शर्तें

उन मेहनतकश

सर्जक हाथों के नाम!

सृजन की नयी

परियोजनाओं के नाम!


नया वर्ष 

सिर्फ़ सपने से होने वाली 

नयी शुरुआत के नाम,

पराजय की राख से 

जनमते संकल्पों के नाम,

अँधेरे समय में 

जीवित ह्रदय की कविता के नाम!

नया वर्ष

नयी यात्रा के लिए उठे 

पहले कदम के नाम,

बीजों और अंकुरों के नाम

कोंपलों और फुनगियों के नाम 

उड़ने को आतुर

शिशु पंखों के नाम,

नयी उड़ानों के नाम!


दिशा छात्र संगठन



5. ये साल भी यारों बीत गया


कुछ खू़न बहा कुछ घर उजड़े

कुछ कटरे जल कर ख़ाक हुए

एक मस्जिद की ईंटों के तले

हर मसला दब कर दफ्न हुआ

जो ख़ाक उड़ी वह ज़ेहनो पर

यूं छायी जैसे कुछ भी नहीं

अब कुछ भी नहीं है करने को

घर बैठो डर कर अबके बरस

या जान गवां दो सड़कों पर

घर बैठ के भी क्या हासिल है

न मीर रहा न ग़ालिब हैं

न प्रेम के ज़िंदा अफ़साने

बेदी भी नहीं मंटो भी नहीं

जो आज की वहशत लिख डाले

चिश्ती भी नहीं, नानक भी नहीं

जो प्यार की वर्षा हो जाए

मंसूर कहां जो ज़हर पिए

गलियों में बहती नफ़रत का

वो भी तो नहीं जो तकली से

अब प्यार के ताने बुन डाले

क्यूं दोष धरो हो पुरखों पर

खु़द मीर हो तुम ग़ालिब भी तुम्हीं

तुम प्रेम का जि़न्दा अफ़साना

बेदी भी तुम्हीं, मंटो भी तुम्हीं

तुम आज की वहशत लिख डालो

चिश्ती की सदा, नानक की नवा

मंसूर तुम्हीं तुम बुल्लेशाह

कह दो के अनलहक़ जि़न्दा है

कह दो के अनहद अब गरजेगा

इस नुक़्ते विच गल मुगदी है

इस नुक़्ते से फूटेगी किरण

और बात यहीं से निकलेगी….

               -गौहर रज़ा



6. सभी को नये वर्ष की शुभकामना


हमारे    वतन  की  नई  ज़िन्दगी  हो

नई जिन्दगी एक मुकम्मल खुशी हो।


न ही हथकड़ी कोई फ़सलों को डाले,

हमारे दिलों की न सौदागरी हो।


ज़ुबानों पे पाबन्दियाँ हों न कोई,

निगाहों में अपनी नई रोशनी हो।


न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन,

न ही कोई भी क़ायदा हिटलरी हो।


नए फ़ैसले हों नई कोशिशें हों,

नई मंज़िलों की कशिश भी नई हो।


(गोरख पाण्डेय की कविता का कुछ अंश)


7. नव वर्ष 


"नव वर्ष,

हर्ष नव,

जीवन उत्कर्ष नव !


नव उमंग,

नव तरंग,

जीवन का नव प्रसंग !


नवल चाह,

नवल राह,

जीवन का नव प्रवाह !


गीत नवल,

प्रीत नवल,

जीवन की रीति नवल,

जीवन की नीति नवल,

जीवन की जीत नवल !!"


... हरिवंशराय बच्चन


8. ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये व्यवहार नहीं


धरा ठिठुरती है सर्दी से

आकाश में कोहरा गहरा है

बाग़ बाज़ारों की सरहद पर

सर्द हवा का पहरा है


सूना है प्रकृति का आँगन

कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं

हर कोई है घर में दुबका हुआ

नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं



चंद मास अभी इंतज़ार करो

निज मन में तनिक विचार करो

नये साल नया कुछ हो तो सही

क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही


उल्लास मंद है जन -मन का

आयी है अभी बहार नहीं

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं


ये धुंध कुहासा छंटने दो

रातों का राज्य सिमटने दो

प्रकृति का रूप निखरने दो

फागुन का रंग बिखरने दो


प्रकृति दुल्हन का रूप धार

जब स्नेह – सुधा बरसायेगी

शस्य – श्यामला धरती माता


घर -घर खुशहाली लायेगी

तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि

नव वर्ष मनाया जायेगा

आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर


जय गान सुनाया जायेगा

युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध

नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध

आर्यों की कीर्ति सदा -सदा


नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

अनमोल विरासत के धनिकों को

चाहिये कोई उधार नहीं


ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये त्यौहार नहीं


रामधारी सिंह “दिनकर”






 सुधारवादी और क्रांतिकारी ट्रेड-यूनियन


    ब्ला. ई.  लेनिन 

के विचारों का संकलन





कामगार-ई-पुस्तकालय के लिये 

एम के आजाद द्वारा संकलित।


सेप्टेम्बर 2022






सुधारवादी और क्रांतिकारी 

ट्रेड-यूनियन


    

ब्ला. ई.  लेनिन 

के विचारों का संकलन






रूढ़िवादी आदर्श वाक्य : 'एक दिन के काम के लिए एक उचित दिन का वेतन' के बजाय उन्हें अपने बैनर पर क्रांतिकारी नारा लिखना चाहिए: 'मजदूरी प्रणाली का उन्मूलन'!" कार्ल मार्क्स



कामगार-ई-पुस्तकालय के लिये 

एम के आजाद द्वारा संकलित।


सेप्टेम्बर 2022





मजदूर मांग करते हैं कि उनका काम का दिन अधिक से अधिक आठ घण्टे का हो, पर यह मांग  "अच्छी" भी है और "बुरी" भी। "अच्छी' इस दृष्टि से कि वह मजदूर वर्ग की शक्ति को बढ़ाती है और "बुरी" इस दृष्टि से कि वह मजूरी प्रथा को मजबूत बनाती है।


स्टालिन - अराजकतावाद या समाजवाद


भूमिका 


दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत मे भी ट्रेड यूनियनें दो तरह की है- सुधारवादी पूंजीवादी ट्रेड यूनियनें एवम क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें।


 पूँजीवादी ट्रेड यूनियनें वे हैं जो कि मज़दूर वर्ग की समूची गतिविधि को पूँजीवादी दायरों के भीतर कैद रखना चाहती हैं। उनका अधिक्तम लक्ष्य है-मजदूरी बढाना न कि मजदूरी प्रथा(Wage Slavery) का खात्मा करना।


 भारत में सभी संसदीय वामपंथी चुनावबाज़ पार्टियों तथा अन्य पूँजीवादी पार्टियों की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें यही काम कर रही हैं।


 मजदूरी बढाने एवम उनसे जुड़ी अन्य मांगो के लिये संघर्ष आवश्यक है, लेकिन क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन का असली लक्ष्य मजदूरी बढ़ाना नही  बल्कि मजदूरी-प्रथा (Wage Slavery) का नाश करने के लिये मजदूरों को तैयार करना है। हमे एक ट्रेड यूनियन सेक्रेटरी की तरह नही बल्कि एक कम्युनिष्ट की तरह मजदूरों के बीच काम करना है जिसका राजनीतिक लक्ष्य सिर्फ मज़दूरी को बढ़ाना या सभी की मज़दूरी को बराबर कर देना नहीं है बल्कि मज़दूरी - व्यवस्था को ही समाप्त करना है। हमारा लक्ष्य मजदूरों को शिक्षित करना, शक्ति अर्जित करना तथा इस पूँजीवाद को आखिर उखाड़ फेंकने के लिए तैयारी करना है।

इस छोटी सी पुस्तिका में मजदूरों के बीच, ट्रेड यूनियन के बीच काम करने के सुधारवादी तथा क्रांतिकारी दृष्टिकोण के बारे में लेनिन के विचारों का संकलन प्रस्तुत किया जा रहा है। उम्मीद है कि मजदूरों के बीच काम करने वाले क्रांतिकारी संगठनों के लिये यह लाभप्रद होगा। 


साथ ही उस पोस्ट/लेख/उद्धरण के लिए आभार जो सोशल मीडिया से लिये गए है।


एम के आज़ाद 




अनुक्रमणिका 



  1. सामाजिक जनवादी(कम्युनिष्ट) का आदर्श 

  2. ट्रेड-यूनियनवादी और सामाजिक-जनवादी (कम्युनिष्ट)  राजनीति

  3. जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग

  4. मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए?

  5. सर्वहारा के वर्गीय आन्दोलन का निर्माण करना

  6. हड़तालों के विषय में

  7. संशोधनवादी और सुधारवादी ट्रेड यूनियन नेताओं का ठोस ढंग से पर्दाफाश करो

  8. रईस मजदूरों के उच्च स्तर- सुधारवाद और अंधराष्ट्रवाद के असली वाहक

  9. मजदूरों की एकता 





सामाजिक जनवादी(कम्युनिष्ट)


सामाजिक जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन का सचिव नहीं , बल्कि एक ऐसा जननायक होना चाहिए , जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से , वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से संबंध हो , विचलित हो उठने की क्षमता हो ; उसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूंजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए ; उसमें प्रत्येक घटना का , चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो , लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी मांगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के   मुक्ति- संग्राम का विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए ।                 --  *लेनिन         " क्या करें ? "    1902*



मजदूर वर्ग की चेतना उस वक्त तक सच्ची राजनीतिक चेतना नहीं बन सकती , जब तक कि मजदूरों को अत्याचार ,उत्पीड़न, हिंसा और अनाचार के सभी मामलों का जवाब देना , चाहे उनका संबंध किसी भी वर्ग से क्यों न हो , नहीं सिखाया जाता । और उनको सामाजिक-जनवादी दृष्टिकोण से जवाब देना चाहिए , न कि किसी और दृष्टिकोण से । आम मजदूरों की चेतना उस समय तक सच्ची वर्ग चेतना नहीं बन सकती , जब तक कि मजदूर ठोस और सामयिक(फ़ौरी) राजनीतिक तथ्यों और घटनाओं से दूसरे प्रत्येक सामाजिक वर्ग का उसके बौद्धिक , नैतिक एवं राजनीतिक जीवन की सभी अभिव्यक्तियों में अवलोकन करना नहीं सीखते , जब तक कि मजदूर आबादी के सभी वर्गों , स्तरों और समूहों के जीवन तथा कार्यों के सभी पहलुओं का भौतिकवादी विश्लेषण और भौतिकवादी मूल्यांकन व्यवहार में इस्तेमाल करना नहीं सीखते। जो लोग मजदूर वर्ग को अपना ध्यान , अवलोकन और चेतना पूर्णतया या मुख्यतया भी , केवल अपने पर केंद्रित करना सिखाते हैं , वे सामाजिक जनवादी नहीं हैं , क्योंकि मजदूर वर्ग के आत्मज्ञान का अटूट संबंध आधुनिक समाज के सभी वर्गों के बीच पारस्परिक संबंधों की मात्र पूर्णतः स्पष्ट सैद्धांतिक समझदारी से ही नहीं है , ज्यादा सही कहें तो , इतना सैद्धांतिक समझदारी से नहीं है , जितना कि राजनीतिक जीवन के अनुभव से प्राप्त व्यावहारिक समझदारी से  है । यही कारण है कि हमारे अर्थवादी जिस विचार का प्रचार करते हैं , यानी यह कि आर्थिक संघर्ष जनता को राजनीतिक आंदोलन में खींचने का तरीका है , जिसका सबसे अधिक व्यापक रूप में उपयोग किया जा सकता है , वह अपने व्यावहारिक महत्व में बहुत अधिक हानिकारक और घोर प्रतिक्रियावादी विचार है । सामाजिक जनवादी बनने के लिए जरूरी है कि मजदूर के दिमाग में जमींदार और पादरी , बड़े सरकारी अफसर और किसान , विद्यार्थी और आवारा आदमी की आर्थिक प्रकृति का और उनके सामाजिक तथा राजनीतिक गुणों का एक स्पष्ट चित्र हो । उसे इन लोगों के गुणों और अवगुणों को जानना चाहिए , उसे उन नारों और बारीक सूत्रों का मतलब समझना चाहिए , जिनकी आड़ में प्रत्येक वर्ग तथा प्रत्येक स्तर अपना स्वार्थ और अपने "दिल की बात" छुपाता है , उसे समझना चाहिए कि विभिन्न संस्थाएं तथा कानून किन स्वार्थों को और किस प्रकार व्यक्त करते हैं । परंतु यह "स्पष्ट चित्र" किसी किताब से नहीं मिल सकता : वह केवल उसके सजीव दृश्य प्रस्तुत करके तथा भंडाफोड़ करके हासिल हो सकता है , जो संबद्ध घड़ी में हमारे चारों ओर घटित हो रहा है , जिसके बारे में सभी अपने ढंग से , शायद फुसफुसाते हुए , बातें करते हैं , जो अमुक-अमुक घटनाओं में , अमुक-अमुक आंकड़ों में , अमुक-अमुक अदालती सजाओं , आदि , आदि में अभिव्यक्त होता है । जनता को क्रांतिकारी क्रियाशीलता का प्रशिक्षण देने की एक जरूरी और बुनियादी शर्त यह है कि इस प्रकार के सर्वांगीण राजनीतिक भंडाफोड़ किये जायें ।

                                  

 लेनिन      "क्या करें ?"     1902






2. ट्रेड-यूनियनवादी और सामाजिक-जनवादी (कम्युनिष्ट)  राजनीति


‘हर आदमी यह मानता है’’ कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना ज़रूरी है। सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाये, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है? आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को केवल मज़दूर वर्ग के प्रति सरकार के रवैये से सम्बन्धित सवाल उठाने की ‘‘प्रेरणा देता है’’ और इसलिए हम ‘‘आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने’’ की चाहे जितनी भी कोशिश करें, इस लक्ष्य की सीमाओं के अन्दर-अन्दर रहते हुए हम मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को कभी नहीं उठा पायेंगे (सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना के स्तर तक), कारण कि ये सीमाएँ बहुत संकुचित हैं। मार्तीनोव का सूत्र हमारे लिए थोड़ा-बहुत महत्व रखता है, इसलिए नहीं कि उससे चीज़ों को उलझा देने की मार्तीनोव की योग्यता प्रकट होती है, बल्कि इसलिए कि उससे वह बुनियादी ग़लती साफ़ हो जाती है, जो सारे ‘‘अर्थवादी’’ करते हैं, अर्थात उनका यह विश्वास कि मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग-चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अन्दर से बढ़ाया जा सकता है, अर्थात इस संघर्ष को एकमात्र (या कम से कम मुख्य) प्रारम्भिक बिन्दु मानकर, उसे अपना एकमात्र (या कम से कम मुख्य) आधार बनाकर राजनीतिक वर्ग-चेतना बढ़ायी जा सकती है। यह दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर ग़लत है। ‘‘अर्थवादी’’ लोग उनके ख़िलाफ़ हमारे वाद-विवाद से नाराज़ होकर इन मतभेदों के मूल कारणों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से इन्कार करते हैं, जिसका यह परिणाम होता है कि हम एक दूसरे को कतई नहीं समझ पाते, दो अलग-अलग ज़बानों में बोलते हैं।


मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग-चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राजसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि ‘‘मज़दूर के बीच जाओ’’ – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव ‘‘अर्थवाद’’ की ओर है, यह जवाब देकर ही सन्तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने कि लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।


....हमें सिद्धान्तकारों के रूप में, प्रचारकों, आन्दोलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के रूप में ‘‘आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना’’ चाहिए। इस बात में किसी को सन्देह नहीं है कि सामाजिक-जनवादियों के सैद्धान्तिक काम का लक्ष्य विभिन्न वर्गों की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति की सभी विशेषताओं का अध्ययन होना चाहिए। परन्तु कारख़ानों के जीवन की विशेषताओं का अध्ययन करने का जितना प्रयत्न किया जाता है, उसकी तुलना में इस प्रकार के अध्ययन का काम बहुत ही कम, हद दरजे तक कम, किया जाता है। समितियों और मण्डलों में आपको कितने ही ऐसे लोग मिलेंगे, जो मसलन धातु-उद्योग की किसी विशेष शाखा के अध्ययन में ही डूबे हुए हैं, पर इन संगठनों में आपको ऐसे सदस्य शायद ही कभी ढूँढ़े मिलेंगे, जो (जैसा कि अक्सर होता है, किसी कारणवश व्यावहारिक काम नहीं कर सकते) हमारे देश के सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन के किसी ऐसे तात्कालिक प्रश्न के सम्बन्ध में विशेष रूप से सामग्री एकत्रित कर रहे हों, जो आबादी के अन्य हिस्सों में सामाजिक-जनवादी काम करने का साधन बन सके। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के वर्तमान नेताओं में से अधिकतर में प्रशिक्षा के अभाव की चर्चा करते हुए हम इस प्रसंग में भी प्रशिक्षा की बात का जिक्र किये बिना नहीं रह सकते, क्योंकि ‘‘सर्वहारा के संघर्ष के साथ घनिष्ठ और सजीव सम्पर्क’’ की ‘‘अर्थवादी’’ अवधारणा से इसका भी गहरा सम्बन्ध है। लेकिन निस्सन्देह, मुख्य बात है जनता के सभी स्तरों के बीच प्रचार और आन्दोलन। पश्चिमी यूरोप के सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ता को इस मामले  में उन सार्वजनिक सभाओं और प्रदर्शनों से, जिसमें भाग लेने की सबको स्वतन्त्रता होती है, और इस बात से बड़ी आसानी हो जाती है कि वह संसद के अन्दर सभी वर्गों के प्रतिनिधियों से बातें करता है। हमारे यहाँ न तो संसद है और न सभा करने की आज़ादी, फिर भी हम वैसे मज़दूरों की बैठकें करने में समर्थ हैं, जो सामाजिक-जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं। हमें आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएँ बुलाने में भी समर्थ होना चाहिए, जो किसी जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं, कारण कि वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि ‘‘कम्युनिस्ट हर क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करते हैं’’, कि इसलिए हमारा कर्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।

 *लेनिन -क्या करे ?*



3. जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग • कॉमरेड वी.आई. लेनिन

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हम देख चुके हैं कि अधिक से अधिक व्यापक राजनीतिक आंदोलन चलाना और इसलिए सर्वांगीण राजनीतिक भंडाफोड़ का संगठन करना गतिविधि का एक बिल्कुल ज़रूरी और सबसे ज़्यादा तात्कालिक ढंग से ज़रूरी कार्यभार है, बशर्ते कि यह गतिविधि सचमुच सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) ढंग की हो। परंतु हम इस नतीजे पर केवल इस आधार पर पहुँचे थे कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक ज्ञान की फ़ौरन ज़रूरत है। लेकिन यह सवाल को पेश करने का एक बहुत संकुचित ढंग है, कारण कि यह आम तौर पर हर सामाजिक-जनवादी आंदोलन के और ख़ास तौर पर वर्तमान काल के रूसी सामाजिक-जनवादी आंदोलन के आम जनवादी कार्यभारों को भुला देता है। अपनी बात को और ठोस ढंग से समझाने के लिए हम मामले के उस पहलू को लेंगे, जो “अर्थवादियों” के सबसे ज़्यादा “नज़दीक” है, यानी हम व्यावहारिक पहलू को लेंगे। “हर आदमी यह मानता है” कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना ज़रूरी है।


सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाए, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है? आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को केवल मज़दूर वर्ग के प्रति सरकार के रवैये से संबंधित सवाल उठाने की “प्रेरणा देता है” और इसलिए हम “आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की चाहे जितनी भी कोशिश करें, इस लक्ष्य की सीमाओं के अंदर-अंदर रहते हुए हम मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को कभी नहीं उठा पायेंगे, कारण कि ये सीमाएँ बहुत संकुचित हैं। मार्तीनोव का सूत्र हमारे लिए थोड़ा-बहुत महत्त्व रखता है, इसलिए नहीं कि उससे चीज़ों को उलझा देने की मार्तीनोव की योग्यता प्रकट होती है, बल्कि इसलिए कि उससे वह बुनियादी ग़लती साफ़ हो जाती है, जो सारे “अर्थवादी” करते हैं, अर्थात उनका यह विश्वास कि मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अंदर से बढ़ाया जा सकता है, अर्थात इस संघर्ष को एकमात्र (या कम से कम मुख्य) प्रारंभिक बिंदु मानकर, उसे अपना एकमात्र (या कम से कम मुख्य) आधार बनाकर राजनीतिक वर्ग चेतना बढ़ाई जा सकती है। यह दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर ग़लत है। “अर्थवादी” लोग उनके ख़िलाफ़ हमारे वाद-विवाद से नाराज़ होकर इन मतभेदों के मूल कारणों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से इंकार करते हैं, जिसका यह परिणाम होता है कि हम एक-दूसरे को क़तई नहीं समझ पाते, दो अलग-अलग ज़बानों में बोलते हैं।


मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग चेतना बाहर से ही लाई जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के संबंधों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के संबंधों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी संबंधों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि “मज़दूरों के बीच जाओ” – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव “अर्थवाद” की ओर है, यह जवाब देकर ही सं‍तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।


हमने इस बेडौल सूत्र को जानबूझकर चुना है, हमने जानबूझकर अपना मत अति सरल, एकदम दो-टूक ढंग से व्यक्त किया है – इसलिए नहीं कि हम विरोधाभासों का प्रयोग करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि हम “अर्थवादियों” को वे काम करने की “प्रेरणा देना” चाहते हैं, जिनको वे बड़े अक्षम्य ढंग से अनदेखा कर देते हैं, हम उन्हें ट्रेडयूनियनवादी राजनीति और सामाजिक-जनवादी राजनीति के बीच अंतर देखने की “प्रेरणा देना” चाहते हैं, जिसे समझने से वे इंकार करते हैं। अतएव हम पाठकों से यह प्रार्थना करेंगे कि वे झुँझलाएँ नहीं, बल्कि अंत तक ध्यान से हमारी बात सुनें।


पिछले चंद बरसों में जिस तरह का सामाजिक-जनवादी मंडल सबसे अधिक प्रचलित हो गया है, उसे ही ले लीजिए और उसके काम की जाँच कीजिए। “मज़दूरों के साथ उसका संपर्क” रहता है और वह इससे संतुष्ट रहता है, वह परचे निकालता है, जिनमें कारख़ानों में होनेवाले अनाचारों, पूँजीपतियों के साथ सरकार के पक्षपात और पुलिस के ज़ुल्म की निंदा की जाती है। मज़दूरों की सभाओं में जो बहस होती है, वह इन विजयों की सीमा के बाहर कभी नहीं जाती या जाती भी है, तो बहुत कम। ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के बारे में, हमारी सरकार की घरेलू तथा वैदेशिक नीति के प्रश्नों के बारे में, रूस तथा यूरोप के आर्थिक विकास की समस्याओं के बारे में और आधुनिक समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति के बारे में भाषणों या वाद-विवादों का संगठन किया जाता है। और जहाँ तक समाज के अन्य वर्गों के साथ सुनियोजित ढंग से संपर्क स्थापित करने और बढ़ाने की बात है, उसके बारे में तो कोई सपने में भी नहीं सोचता। वास्तविकता यह है कि इन मंडलों के अधिकतर सदस्यों की कल्पना के अनुसार आदर्श नेता वह है, जो एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि ट्रेडयूनियन के सचिव के रूप में अधिक काम करता है, क्योंकि हर ट्रेडयूनियन का, मिसाल के लिए, किसी ब्रिटिश ट्रेडयूनियन का सचिव आर्थिक संघर्ष चलाने में हमेशा मज़दूरों की मदद करता है, वह कारख़ानों में होनेवाले अनाचारों का भंडाफोड़ करने में मदद करता है, उन क़ानूनों तथा पगों के अनौचित्य का पर्दाफ़ाश करता है, जिनसे हड़ताल करने और धरना देने (हर किसी को यह चेतावनी देने के लिए कि अमुक कारख़ाने में हड़ताल चल रही है) की स्वतंत्रता पर आघात होता है, वह मज़दूरों को समझाता है कि पंच-अदालत का जज, जो स्वयं बुर्जुआ वर्गों से आता है, पक्षपातपूर्ण होता है, आदि, आदि। सारांश यह कि “मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष” ट्रेडयूनियन का प्रत्येक सचिव चलाता है और उसके संचालन में मदद करता है। पर इस बात को हम जितना ज़ोर देकर कहें थोड़ा है कि बस इतने ही से सामाजिक-जनवाद नहीं हो जाता, कि सामाजिक-जनवादी का आदर्श ट्रेडयूनियन का सचिव नहीं, बल्कि एक ऐसा जन-नायक होना चाहिए, जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से, वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से संबंध हो, विचलित हो उठने की क्षमता हो; इसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूँजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए; उसमें प्रत्येक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी माँगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के मुक्ति-संग्राम का विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए।…


मुख्य बात है जनता के सभी स्तरों के बीच प्रचार और आंदोलन।… हमें आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएँ बुलाने में भी समर्थ होना चाहिए, जो किसी जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं, कारण कि वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि “कम्युनिस्ट हर क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन करते हैं”, कि इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।…


हमें अपनी पार्टी के नेतृत्व में एक सर्वांगीण राजनीतिक संघर्ष इस तरह संगठित करने का काम अपने हाथ में लेना होगा कि इस संघर्ष को तथा इस पार्टी को विरोध-पक्ष के सभी हिस्सों से अधिक से अधिक समर्थन मिले। हमें अपने सामाजिक-जनवादी व्यावहारिक कार्यकर्त्ताओं में से ऐसे राजनीतिक नेता प्रशिक्षित करने होंगे, जिनमें इस सर्वांगीण संघर्ष के प्रत्येक रूप का नेतृत्व करने की क्षमता हो और जो बेचैन विद्यार्थियों, जेम्स्त्वो के असंतुष्ट सदस्यों, धार्मिक संप्रदायों के खिन्न लोगों, नाराज प्राथमिक शिक्षकों, आदि सभी लोगों के लिए सही समय पर “काम का एक सकारात्मक कार्यक्रम निर्दिष्ट” कर सकें।…


राजनीतिक भंडाफोड़ के लिए सबसे आदर्श श्रोता मज़दूर वर्ग होता है, जो सर्वांगीण तथा सजीव राजनीतिक ज्ञान की आवश्यकता के मामले में सबसे अव्वल और सबसे आगे है, और इस ज्ञान को सक्रिय संघर्ष में परिणत करने की क्षमता भी उसी में सबसे ज़्यादा होती है, भले ही उससे “कोई ठोस नतीजे” निकलने की उम्मीद न हो।


(‘क्या करें’ पुस्तक से)


मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 8 ♦ जुलाई 2021 में प्रकाशित





4. मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए?

(क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कुछ समस्याएँ)


 लेनिन

अनुवाद : आलोक रंजन


सभी देशों में मज़दूर आन्दोलन का इतिहास यह दिखाता है कि मज़दूर वर्ग के उन्नततर संस्तर ही समाजवाद के विचारों को अपेक्षतया अधिक तेज़ी के साथ और अधिक आसानी के साथ अपनाते हैं। इन्हीं के बीच से, मुख्य तौर पर, वे अग्रवर्ती मज़दूर आते हैं, जिन्हें प्रत्येक मज़दूर आन्दोलन आगे लाता है, वे मज़दूर जो मेहनतकश जन-समुदाय का विश्वास जीत सकते हैं, जो ख़ुद को पूरी तरह सर्वहारा वर्ग की शिक्षा और संगठन के कार्य के लिए समर्पित करते हैं, जो सचेतन तौर पर समाजवाद को स्वीकार करते हैं और यहाँ तक कि, स्वतन्त्र रूप से समाजवादी सिद्धान्तों को निरूपित कर लेते हैं। हर सम्भावनासम्पन्न मज़दूर आन्दोलन ऐसे मज़दूर नेताओं को सामने लाता रहा है, अपने प्रूधों और वाइयाँ, वाइटलिंग और बेबेल पैदा करता रहा है। और हमारा रूसी मज़दूर आन्दोलन भी इस मामले में यूरोपीय आन्दोलन से पीछे नहीं रहने वाला है। आज जबकि शिक्षित समाज ईमानदार, ग़ैरक़ानूनी साहित्य में दिलचस्पी खोता जा रहा है, मज़दूरों के बीच ज्ञान के लिए और समाजवाद के लिए एक उत्कट अभिलाषा पनप रही है, मज़दूरों के बीच से सच्चे वीर सामने आ रहे हैं, जो अपनी नारकीय जीवन-स्थितियों के बावजूद, जेलख़ाने की मशक्कत जैसे कारख़ाने के जड़ीभूत कर देने वाले श्रम के बावजूद, ऐसा चरित्र और इतनी इच्छाशक्ति रखते हैं कि लगातार अध्‍ययन, अध्‍ययन और अध्‍ययन के काम में जुटे रहते हैं और ख़ुद को सचेतन सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) – ”मज़दूर बौद्धिक” बना लेते हैं। रूस में ऐसे ”मज़दूर बौद्धिक” अभी भी मौजूद हैं और हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए कि इनकी कतारें लगातार बढ़ती रहें, इनकी उन्नत मानसिक ज़रूरत पूरी होती रहे और कि, इनकी पाँतों से रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी (रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का तत्कालीन नाम) के नेता तैयार हों। जो अख़बार सभी रूसी सामाजिक जनवादियों (कम्युनिस्टों) का मुखपत्र बनना चाहता है, उसे इन अग्रणी मज़दूरों के स्तर का ही होना चाहिए, उसे न केवल कृत्रिम ढंग से अपने स्तर को नीचा नहीं करना चाहिए, बल्कि उल्टे उसे लगातार ऊँचा उठाना चाहिए, उसे विश्व सामाजिक-जनवाद (यानी विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन) के सभी रणकौशलात्मक, राजनीतिक और सैद्धान्तिक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। केवल तभी मज़दूर बौद्धिकों की माँगें पूरी होंगी, और वे रूसी मज़दूरों के और परिणामत: रूसी क्रान्ति के ध्येय को अपने हाथों में ले लेंगे।


संख्या में कम अग्रणी मज़दूरों के संस्तर के बाद औसत मज़दूरों का व्यापक संस्तर आता है। ये मज़दूर भी समाजवाद की उत्कट इच्छा रखते हैं, मज़दूर अध्‍ययन-मण्डलों में भाग लेते हैं, समाजवादी अख़बार और किताबें पढ़ते हैं, आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में भाग लेते हैं और उपरोक्त संस्तर से सिर्फ़ इसी बात में अलग होते हैं कि ये सामाजिक जनवादी मज़दूर आन्दोलन के पूरी तरह स्वतन्त्र नेता नहीं बन सकते। जिस अख़बार को पार्टी का मुखपत्र होना है, उसके कुछ लेखों को औसत मज़दूर नहीं समझ पायेगा, जटिल सैद्धान्तिक या व्यावहारिक समस्या को पूरी तरह समझ पाने में वह सक्षम नहीं होगा। लेकिन इसका यह मतलब क़तई नहीं निकलता कि अख़बार को अपना स्तर अपने व्यापक आम पाठक समुदाय के स्तर तक नीचे लाना चाहिए। इसके उलट, अख़बार को उनका स्तर ऊँचा उठाना चाहिए, और मज़दूरों के बीच के संस्तर से अग्रणी मज़दूरों को आगे लाने में मदद करनी चाहिए। स्थानीय व्यावहारिक कामों में डूबे हुए और मुख्यत: मज़दूर आन्दोलन की घटनाओं में तथा आन्दोलनात्मक प्रचार की फौरी समस्याओं में दिलचस्पी लेने वाले ऐसे मज़दूरों को अपने हर क़दम के साथ पूरे रूसी मज़दूर आन्दोलन का, इसके ऐतिहासिक कार्यभार का और समाजवाद के अन्तिम लक्ष्य का विचार जोड़ना चाहिए। अत: उस अख़बार को, जिसके अधिकांश पाठक औसत मज़दूर ही हैं, हर स्थानीय और संकीर्ण प्रश्न के साथ समाजवाद और राजनीतिक संघर्ष को जोड़ना चाहिए।


और अन्त में, औसत मज़दूरों के संस्तर के बाद वह व्यापक जनसमूह आता है जो सर्वहारा वर्ग का अपेक्षतया निचला संस्तर होता है। बहुत मुमकिन है कि एक समाजवादी अख़बार पूरी तरह या तक़रीबन पूरी तरह उनकी समझ से परे हो (आख़िरकार पश्चिमी यूरोप में भी तो सामाजिक जनवादी मतदाताओं की संख्या सामाजिक जनवादी अख़बारों के पाठकों की संख्या से कहीं काफ़ी ज्‍़यादा है), लेकिन इससे यह नतीजा निकालना बेतुका होगा कि सामाजिक जनवादियों के अख़बार को, अपने को मज़दूरों के निम्नतम सम्भव स्तर के अनुरूप ढाल लेना चाहिए। इससे सिर्फ़ यह नतीजा निकलता है कि ऐसे संस्तरों पर राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनपरक प्रचार के दूसरे साधनों से प्रभाव डालना चाहिए – अधिक लोकप्रिय भाषा में लिखी गयी पुस्तिकाओं, मौखिक प्रचार तथा मुख्यत: स्थानीय घटनाओं पर तैयार किये गये परचों के द्वारा। सामाजिक जनवादियों को यहीं तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बहुत सम्भव है कि मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों की चेतना जगाने के पहले क़दम क़ानूनी शैक्षिक गतिविधियों के रूप में अंजाम दिये जायें। पार्टी के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वह इन गतिविधियों को इस्तेमाल करे इन्हें उस दिशा में लक्षित करे जहाँ इनकी सबसे अधिक ज़रूरत है; क़ानूनी कार्यकर्ताओं को उस अनछुई ज़मीन को जोतने के लिए भेजे, जिस पर बाद में सामाजिक जनवादी प्रचारक संगठनकर्ता बीज बोने का काम करने वाले हों। बेशक़ मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों के बीच प्रचार-कार्य में प्रचारकों को अपनी निजी विशिष्टताओं, स्थान, पेशा (मज़दूरों के काम की प्रकृति) आदि की विशिष्टताओं का उपयोग करने की सर्वाधिक व्यापक सम्भावनाएँ मिलनी चाहिए। बर्नस्टीन के ख़िलाफ़ अपनी पुस्तक में काउत्स्की लिखते हैं, ”रणकौशल और आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य को आपस में गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए। आन्दोलनात्मक प्रचार का तरीक़ा व्यक्तिगत और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में हर प्रचारक को वे तरीक़े अपनाने की छूट होनी चाहिए, जो वह अपने लिए ठीक समझे : कोई प्रचारक अपने जोशो-ख़रोश से सबसे अधिक प्रभावित करता है, तो कोई दूसरा अपने तीखे कटाक्षों से, जबकि तीसरा ढेरों मिसालें देकर, वग़ैरह-वग़ैरह। प्रचारक के अनुरूप होने के साथ ही, आन्दोलनात्मक प्रचार जनता के भी अनुरूप होना चाहिए। प्रचारक को ऐसे बोलना चाहिए कि सुनने वाले उसकी बातें समझें; उसे शुरुआत ऐसी किसी चीज़ से करनी चाहिए, जिससे श्रोतागण बख़ूबी वाक़िफ़ हों। यह सब कुछ स्वत:स्पष्ट है और यह सिर्फ़ किसानों के बीच आन्दोलनात्मक प्रचार पर ही लागू नहीं होता। गाड़ी चलाने वालों से उस तरह बात नहीं होती, जिस तरह जहाज़ियों से और जहाज़ियों से वैसे बात नहीं होती जैसे छापाख़ाने के मज़दूरों से। आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य व्यक्तियों के हिसाब से होना चाहिए, लेकिन हमारा रणकौशल-हमारी राजनीतिक गतिविधियाँ एक-सी ही होनी चाहिए” (पृ. 2-3)। सामाजिक जनवादी सिद्धान्त के एक अगुवा प्रतिनिधि के इन शब्दों में पार्टी की आम गतिविधि के एक अंग के तौर पर आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य का एक बेहतरीन आकलन निहित है। ये शब्द साफ़ कर देते हैं कि उन लोगों के सन्देह कितने निराधार हैं, जो यह सोचते हैं कि राजनीतिक संघर्ष चलाने वाली क्रान्तिकारी पार्टी का गठन आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में बाधक होगा, उसे पृष्ठभूमि में डाल देगा और प्रचारकों की स्वतन्त्रता को सीमित कर देगा। इसके विपरीत, केवल एक संगठित पार्टी ही व्यापक आन्दोलनात्मक प्रचार का कार्य चला सकती है, सभी आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों पर प्रचारकों को आवश्यक मार्गदर्शन (और सामग्री) दे सकती है, आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य की हर स्थानीय सफलता का उपयोग पूरे रूस के मज़दूरों की शिक्षा के लिए कर सकती है, प्रचारकों को ऐसे स्थानों पर या ऐसे लोगों के बीच भेज सकती है, जहाँ वे सबसे ज्‍़यादा कामयाब ढंग से काम कर सकते हों। केवल एक संगठित पार्टी में ही आन्दोलनात्मक प्रचार की योग्यता रखने वाले लोग अपने को पूरी तरह इस काम के लिए समर्पित करने की स्थिति में होंगे, जो आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य के लिए फ़ायदेमन्द तो होगा ही, सामाजिक जनवादी कार्य के दूसरे पहलुओं के लिए भी हितकारी होगा। इससे पता चलता है कि जो व्यक्ति आर्थिक संघर्ष के पीछे राजनीतिक प्रचार और राजनीतिक आन्दोलनात्मक प्रचार को भुला देता है, जो मज़दूर आन्दोलन को एक राजनीतिक पार्टी के संघर्ष में संगठित करने की आवश्यकता को भुला देता है, वह और सब बातों के अलावा, सर्वहारा के निम्नतर संस्तरों को मज़दूर वर्ग के लक्ष्य की ओर तेज़ी से और सफलतापूर्वक आकर्षित करने के अवसर से ख़ुद को वंचित कर लेता है।


(1899 के अन्त में लिखित लेनिन के लेख ‘रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति’ का एक अंश। संग्रहीत रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड 4, पृ. 280-283)।


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5. सर्वहारा के वर्गीय आन्दोलन का निर्माण करना


दुनिया में कहीं भी सर्वहारा आन्दोलन का जन्म " यकायक शुद्ध वर्गीय रूप में, बना-बनाया, ज्युपिटर के सर से मिनरवा की भांति नहीं हुआ। केवल सबसे अगुआ मजदूरों, सभी वर्गचेतन मजदूरों के लंबे संघर्ष तथा कठोर श्रम से ही सर्वहारा के वर्गीय आन्दोलन का निर्माण करना, उसे मजबूत बनाना, तमाम निम्न-पूंजीवादी मिलावटों, प्रतिबंधों, संकीर्णता और विकृतियों से मुक्त करना सम्भव था । मजदूर वर्ग निम्न-पूंजीपतियों के साथ जीवन व्यतीत करता है जो, जैसे-जैसे तबाह होता जाता है। सर्वहारा की पंक्ति में बढ़ती हुई संख्या में नये रंगरूट लाता है। और पूंजीवादी देशों में रूस सबसे अधिक निम्न-पूंजीवादी, सबसे अधिक फ़िलिस्टीन देश है जो अब कहीं जाकर पूंजीवादी क्रांतियों के दौर से गुजर रहा है जिससे उदाहरण के लिए, इंगलैंड सतहवीं शताब्दी में, और फ्रांस अठारहवीं तथा शुरू उन्नीसवीं शताब्दियों में गुजर चुका है।


जो वर्गचेतन मजदूर अब एक ऐसे काम से निबट रहे हैं जिससे उन्हें नजदीकी लगाव है और जो उन्हें प्रिय है, याने मजदूर वर्गीय अख़बार चलाने, उसे पक्के आधार पर खड़ा करने और मजबूत बनाने और विकसित करने का काम, वे रूस में मार्क्सवाद तथा सामाजिक-जनवादी पत्रकारिता के बीस बरस के इतिहास को नहीं भूलेंगे।


मजदूरों के आन्दोलन का एक अनुपकार बुद्धिजीवियों में उसके उन साहसहीन मित्रों द्वारा किया जा रहा है जो सामाजिक-जनवादियों के भीतरी संघर्ष से घबराते हैं, और जो शोर-गुल मचाते हैं कि इससे कोई संपर्क नहीं रखना चाहिए। ये भले मानस मगर बेकार लोग हैं, और इनकी चीख पुकार बेकार है।


केवल अवसरवाद के विरुद्ध मार्क्सवाद के संघर्ष के इतिहास का अध्ययन करके ही, केवल इस बात का सम्पूर्ण घोर तफ़सीली अध्ययन करके कि स्वतंत्र सर्वहारा जनवाद ने किस ढंग से निम्न-पूंजीवादी गड़बड़-झाले से छुटकारा पाया, अगुआ मजदूर निर्णायक ढंग से अपनी वर्गीय चेतना और अपनी मजदूरों की पत्रकारिता को प्रबल कर सकते हैं।


●राबोची', अंक १, २२ अप्रैल १९१४


लेनिन, खंड २५, पृष्ठ ६३-१०१




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6. हड़तालों के विषय में  – लेनिन

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लिखित: 1899 के अंत में लिखा गया प्रकाशित: पहली बार 1924 में प्रोलेटार्स्काया रेवोल्युत्सिया, नंबर 8-9 पत्रिका में प्रकाशित हुआ। एक अज्ञात हाथ से कॉपी की गई पांडुलिपि के अनुसार प्रकाशित। स्रोत: लेनिन कलेक्टेड वर्क्स, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1964, मॉस्को, वॉल्यूम 4, पृष्ठ 310-319।

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इधर कुछ वर्षों से रूस में मज़दूरों की हड़तालें बारम्बार हो रही हैं। एक भी ऐसी औद्योगिक गुबेर्निया नहीं है, जहाँ कई हड़तालें न हुई हों। और बड़े शहरों में तो हड़तालें कभी रुकती ही नहीं। इसलिए यह बोधगम्य बात है कि वर्ग-सचेत मज़दूर तथा समाजवादी हड़तालों के महत्व, उन्हें संचालित करने की विधियों तथा उनमें भाग लेने वाले समाजवादियों के कार्यभारों के प्रश्न में अधिकाधिक सततू रूप में दिलचस्पी लेते हैं।

हम यहाँ इन प्रश्नों के विषय में अपने विचारों की रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। अपने पहले लेख में हमारी योजना आमतौर पर मज़दूर वर्ग आन्दोलन में हड़तालों के महत्व की चर्चा करने की है; दूसरे लेख में हम रूस में हड़ताल-विरोधी क़ानूनों की चर्चा करेंगे तथा तीसरे में इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह की जाती थीं और की जाती हैं तथा उनके प्रति वर्ग-सचेत मज़दूरों को क्या रुख़ अपनाना चाहिए:-

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सबसे पहले हमें हड़तालों के शुरू होने और फैलने का कारण ढूँढ़ना चाहिए। यदि कोई आदमी हड़तालों को याद करेगा, जिनकी उसे व्यक्तिगत अनुभव से, दूसरों से सुनी रिपोर्टों या अख़बारों की ख़बरों के माध्येम से जानकारी प्राप्त हुई हो, तो वह तुरन्त देख लेगा कि जहाँ कहीं बड़ी फैक्टरियाँ हैं तथा उनकी संख्या बढ़ती जाती है, वहाँ हड़तालें होती तथा फैलती हैं। सैकड़ों (कभी-कभी हजारों तक) लोगों को काम पर रखने वाली बड़ी फैक्टरियों में एक भी ऐसी फैक्टरी ढूँढ़ना सम्भव नहीं होगा, जहाँ हड़तालें न हुई हों। जब रूस में केवल चन्द बड़ी फैक्टरियाँ थीं, तो हड़तालें भी कम होती थीं। परन्तु जब से बड़े औद्योगिक ज़िलों और नये नगरों तथा गाँवों में बड़ी फैक्टरियों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है, हड़तालें बारम्बार होने लगी हैं। 


क्या कारण है कि बड़े पैमाने का फैक्टरी उत्पादन हमेशा हड़तालों को जन्म देता है? इसका कारण यह है कि पूँजीवाद मालिकों के ख़िलाफ़ मज़दूरों के संघर्ष को लाजिमी तौर पर जन्म देता है तथा जहाँ उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, वहाँ संघर्ष अनिवार्य ढंग से हड़तालों का रूप ग्रहण करता है।

आइये, इस पर प्रकाश डालें।


पूँजीवाद नाम उस सामाजिक व्यवस्था को दिया गया है, जिसके अन्तर्गत जमीन, फैक्टरियाँ, औजार आदि पर थोड़े-से भूस्वामियों तथा पूँजीपतियों का स्वामित्व होता है, जबकि जनसमुदाय के पास कोई सम्पत्ति नहीं होती या बहुत कम होती है तथा वह उजरती मज़दूर बनने के लिए बाध्य  होता है। भूस्वामी तथा फैक्टरी मालिक मज़दूरों को उजरत पर रखते हैं और उनसे इस या उस किस्म का माल तैयार कराते हैं, जिसे वे मण्डी में बेचते हैं। इसके अलावा फैक्टरी मालिक मज़दूरों को केवल इतनी मज़दूरी देते हैं, जो उनके तथा उनके परिवारों के मात्र निर्वाह की व्यवस्था करती है, जबकि इस परिमाण से ऊपर मज़दूर जितना भी पैदा करता है, वह फैक्टरी मालिक की जेब में उसके मुनाफ़े के रूप में चला जाता है। इस प्रकार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत जन समुदाय दूसरों का उजरती मज़दूर होता है, वह अपने लिए काम नहीं करता, अपितु मज़दूरी पाने के वास्ते मालिकों के लिए काम करता है। यह बात समझ में आने वाली है कि मालिक हमेशा मज़दूरी घटाने का प्रयत्न करते हैं : मज़दूरों को वे जितना कम देंगे, उनका मुनाफ़ा उतना ही अधिक होगा। मज़दूर अधिक से अधिक मज़दूरी हासिल करने का प्रयत्न करते हैं, ताकि अपने परिवारों को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन दे सकें, अच्छे घरों में रह सकें, दूसरे लोगों की तरह अच्छे कपड़े पहन सकें तथा भिखारियों की तरह न लगें। इस प्रकार मालिकों तथा मज़दूरों के बीच मज़दूरी की वजह से निरन्तर संघर्ष चल रहा है; मालिक जिस किसी मज़दूर को उपयुक्त समझता है, उसे उजरत पर हासिल करने के लिए स्वतन्त्र है, इसलिए वह सबसे सस्ते मज़दूर की तलाश करता है। मज़दूर अपनी मर्जी के मालिक को अपना श्रम उजरत पर देने के लिए स्वतन्त्र है, इस तरह वह सबसे महँगे मालिक की तलाश करता है, जो उसे सबसे ज्यादा देगा। मज़दूर चाहे देहात में काम करे या शहर में, वह अपना श्रम उजरत पर चाहे जमींदार को दे या धनी किसान को, ठेकेदार को अथवा फैक्टरी मालिक को, वह हमेशा मालिक के साथ मोल-भाव करता है, मज़दूरी के लिए उससे संघर्ष करता है।

परन्तु क्या एक मज़दूर के लिए अकेले संघर्ष करना सम्भव है? मेहनतकश लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है : किसान तबाह हो रहे हैं तथा वे देहात से शहर या फैक्टरी की ओर भाग रहे हैं। जमींदार तथा फैक्टरी मालिक मशीनें लगा रहे हैं, जो मज़दूरों को उनके काम से वंचित करती रही हैं। शहरों में बेरोज़गारों की संख्या बढ़ रही है तथा गाँवों में अधिकाधिक लोग भिखारी बनते जा रहे हैं; जो भूखे हैं, वे मज़दूरी के स्तर को निरन्तर नीचे पहुँचा रहे हैं। मज़दूर के लिए अकेले मालिक से टक्कर लेना असम्भव हो जाता है। यदि मज़दूर अच्छी मज़दूरी माँगता है अथवा मज़दूरी में कटौती से असहमत होने का प्रयत्न करता है, तो मालिक उसे बाहर निकल जाने के लिए कहता है, क्योंकि दरवाजे पर बहुत-से भूखे लोग खड़े होते हैं, जो कम मज़दूरी पर काम करने के लिए सहर्ष तैयार हो जायेंगे।

जब लोग इस हद तक तबाह हो जाते हैं कि शहरों और गाँवों में बेरोज़गारों की हमेशा बहुत बड़ी तादाद रहती है, जब फैक्टरी मालिक अथाह मुनाफ़े खसोटते हैं तथा छोटे मालिकों को करोड़पति बाहर धकेल देते हैं, तब व्यक्तिगत रूप से मज़दूर पूँजीपति के सामने सर्वथा असहाय हो जाता है। तब पूँजीपति के लिए मज़दूर को पूरी तरह कुचलना, दास मज़दूर के रूप में उसे और निस्सन्देह अकेले उसे ही नहीं, वरन उसके साथ उसकी पत्नी तथा बच्चों को भी मौत की ओर धकेलना सम्भव हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि हम उन व्यवसायों को लें, जिनमें मज़दूर अभी तक क़ानून का संरक्षण हासिल नहीं कर सकते हैं तथा जिनमें वे पूँजीपतियों का प्रतिरोध नहीं कर सकते, तो हम वहाँ असाधारण रूप से लम्बा कार्य-दिवस देखेंगे, जो कभी-कभी 17 से लेकर 19 घण्टे तक का होता है, हम 5 या 6 वर्ष के बच्चों को कमरतोड़ काम करते हुए देखेंगे, हम स्थायी रूप से ऐसे भूखे लोगों की एक पूरी पीढ़ी देखेंगे, जो धीरे-धीरे भूख के कारण मौत के मुँह में पहुँच रहे हैं। उदाहरण हैं वे मज़दूर, जो पूँजीपतियों के लिए अपने घरों पर काम करते हैं; इसके अलावा कोई भी मज़दूर बीसियों दूसरे उदाहरणों को याद कर सकता है! दासप्रथा या भूदास प्रथा के अन्तर्गत भी मेहनतकश जनता का कभी इतना भयंकर उत्पीड़न नहीं हुआ, जितना कि पूँजीवाद के अन्तर्गत हो रहा है, जब मज़दूर प्रतिरोध नहीं कर पाते या ऐसे क़ानूनों का संरक्षण प्राप्त नहीं कर सकते, जो मालिकों की मनमानी कार्रवाइयों पर अंकुश लगाते हों।


इस तरह अपने को इस घोर दुर्दशा में पहुँचने से रोकने के लिए मज़दूर व्यग्रतापूर्वक संघर्ष शुरू कर देते हैं। मज़दूर यह देखकर कि उनमें से हरेक व्यक्ति सर्वथा असहाय है तथा पूँजी का उत्पीड़न उसे कुचल डालने का खतरा पैदा कर रहा है, संयुक्त रूप से अपने मालिकों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर देते हैं। मज़दूरों की हड़तालें शुरू हो जाती हैं। आरम्भ में तो मज़दूर यह नहीं समझ पाते कि वे क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं, उनमें इस बात की चेतना का अभाव होता है कि वे अपनी कार्रवाई किस वास्ते कर रहे हैं : वे महज मशीनें तोड़ते हैं तथा फैक्टरियों को नष्ट करते हैं। वे फैक्टरी मालिकों को महज अपना रोष दिखाना चाहते हैं; वे अभी यह समझे बिना कि उनकी स्थिति इतनी असहाय क्यों है तथा उन्हें किस चीज के लिए प्रयास करना चाहिए, असह्य स्थिति से बाहर निकलने के लिए अपनी संयुक्त शक्ति की आजमाइश करते हैं।

तमाम देशों में मज़दूरों के रोष ने पहले छिटपुट विद्रोहों का रूप ग्रहण किया – रूस में पुलिस तथा फैक्टरी मालिक उन्हें “विद्रोही” के नाम से पुकारते हैं। तमाम देशों में इन छुटपुट विद्रोहों ने, एक ओर, कमोबेश शान्तिपूर्ण हड़तालों को और दूसरी ओर, अपनी मुक्ति हेतु मज़दूर वर्ग के चहुँमुखी संघर्ष को जन्म दिया।


मज़दूर वर्ग के संघर्ष के लिए हड़तालों (काम रोकने) का क्या महत्व है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें पहले हड़तालों की पूरी तस्वीर हासिल करनी चाहिए। जैसाकि हम देख चुके हैं, मज़दूर की मज़दूरी मालिक तथा मज़दूर के बीच करार द्वारा निर्धारित होती है और यदि इन परिस्थितियों में निजी तौर पर मज़दूर पूरी तरह असहाय है, तो जाहिर है कि मज़दूरों को अपनी माँगों के लिए संयुक्त रूप से लड़ना चाहिए, वे मालिकों को मज़दूरी घटाने से रोकने के लिए अथवा अधिक मज़दूरी हासिल करने के लिए हड़तालें संगठित करने के वास्ते बाधित होते हैं। यह एक तथ्य है कि पूँजीवादी व्यवस्था वाले हर देश में मज़दूरों की हड़तालें होती हैं। सर्वत्र, तमाम यूरोपीय देशों तथा अमरीका में मज़दूर ऐक्यबद्ध न होने पर अपने को असहाय पाते हैं; वे या तो हड़ताल करके या हड़ताल करने की धमकी देकर केवल संयुक्त रूप से ही मालिकों का प्रतिरोध कर सकते हैं। ज्यों-ज्यों पूँजीवाद का विकास होता जाता है, ज्यों-ज्यों फैक्टरियाँ अधिकाधिक तीव्र गति से खुलती जाती हैं, ज्यों-ज्यों छोटे पूँजीपतियों को बड़े पूँजीपति बाहर धकेलते जाते हैं, मज़दूरों द्वारा संयुक्त प्रतिरोध किये जाने की आवश्यकता त्यों-त्यों तात्कालिक होती जाती है, क्योंकि बेरोज़गारी बढ़ती जाती है, पूँजीपतियों के बीच, जो सस्ती से सस्ती लागत पर अपना माल तैयार करने का प्रयास करते हैं (ऐसा करने के वास्ते उन्हें मज़दूरों को कम से कम देना होगा), प्रतियोगिता तीव्र होती जाती है तथा उद्योग में उतार-चढ़ाव अधिक तीक्ष्ण तथा संकट  अधिक उग्र होते जाते हैं। जब उद्योग फलता-फूलता है, फैक्टरी मालिक बहुत मुनाफ़ा कमाते हैं, परन्तु वे उसमें मज़दूरों को भागीदार बनाने की बात नहीं सोचते। परन्तु जब संकट पैदा हो जाता है, तो फैक्टरी मालिक नुकसान मज़दूरों के मत्थे मढ़ने का प्रयत्न करते हैं। पूँजीवादी समाज में हड़तालों की आवश्यकता को यूरोपीय देशों में हरेक इस हद तक स्वीकार कर चुका है कि उन देशों में क़ानून हड़तालें संगठित किये जाने की मनाही नहीं करता; केवल रूस में ही हड़तालों के विरुद्ध भयावह क़ानून अब भी लागू है (इन क़ानूनों और उनके लागू किये जाने के बारे में हम किसी और मौके पर बात करेंगे)।

कुछ भी हो, हड़तालें जो ठीक पूँजीवादी समाज के स्वरूप के कारण जन्म लेती हैं, समाज की उस व्यवस्था के विरुद्ध मज़दूर वर्ग के संघर्ष की शुरुआत की द्योतक होती हैं। अमीर पूँजीपतियों का अलग-अलग, सम्पत्तिहीन मज़दूरों द्वारा सामना किया जाना मज़दूरों के पूर्ण दास बनने का द्योतक होता है। परन्तु जब ये ही सम्पत्तिहीन मज़दूर ऐक्यबद्ध हो जाते हैं, तो स्थिति बदल जाती है। यदि पूँजीपति ऐसे मज़दूर नहीं ढूँढ़ पायें, जो अपनी श्रम-शक्ति को पूँजीपतियों के औजारों और सामग्री पर लगाने और नयी दौलत पैदा करने के लिए तैयार हों, तो फिर कोई भी दौलत पूँजीपतियों के लिए लाभकर नहीं हो सकती। जब तक मज़दूरों को पूँजीपतियों के साथ निजी आधार पर सम्बन्ध रखना पड़ता है, वे ऐसे वास्तविक दास बने रहते हैं, जिन्हें रोटी का एक टुकड़ा हासिल कर सकने के लिए दूसरे को लाभ पहुँचाने के वास्ते निरन्तर काम करना होगा, जिन्हें हमेशा आज्ञाकारी तथा मूक उजरती नौकर बना रहना होगा। परन्तु जब मज़दूर संयुक्त रूप में अपनी माँग पेश करते हैं और थैलीशाहों के आगे झुकने से इंकार करते हैं, तो वे दास नहीं रहते, वे इन्सान बन जाते हैं, वे यह माँग करने लगते हैं कि उनके श्रम से मुट्ठीभर परजीवियों का ही हितसाधन नहीं होना चाहिए, अपितु उसे इन लोगों को भी, जो काम करते हैं, इन्सानों की तरह जीवनयापन करने में सक्षम बनाना चाहिए। दास स्वामी बनने की माँग पेश करने लगते हैं – वे उस तरह काम करना और रहना नहीं चाहते, जिस तरह जमींदार और पूँजीपति चाहते हैं, बल्कि वे उस तरह काम करना और रहना चाहते हैं, जिस तरह स्वयं मेहनतकश जन चाहते हैं। हड़तालें इसलिए पूँजीपतियों में सदा भय पैदा करती हैं कि वे उनकी प्रभुता पर कुठाराघात करती हैं।


जर्मन मज़दूरों का एक गीत मज़दूर वर्ग के बारे में कहता है : “यदि चाहे तुम्हारी बलशाली भुजाएँ, हो जायेंगे सारे चक्के जाम"। और यह एक वास्तविकता है : फैक्टरियाँ, जमींदार की जमीन, मशीनें, रेलें, आदि से एक विराट यन्त्र के चक्के की तरह हैं, उस यन्त्र की तरह, जो विभिन्न उत्पाद हासिल करता है, उन्हें परिष्कृत करता है तथा निर्दिष्ट स्थान को भेजता है। इस पूरे यन्त्र को गतिमान करता है मज़दूर, जो खेत जोतता है, खानों से खनिज पदार्थ निकालता है, फैक्टरियों में माल तैयार करता है, मकानों, वर्कशापों और रेलों का निर्माण करता है। जब मज़दूर काम करने से इन्कार कर देते हैं, इस पूरे यन्त्र के ठप होने का खतरा पैदा हो जाता है। हरेक हड़ताल पूँजीपतियों को याद दिलाती है कि वे नहीं, वरन मज़दूर, वे मज़दूर वास्तविक स्वामी हैं, जो अधिकाधिक ऊँचे स्वर में अपने अधिकारों की घोषणा कर रहे हैं। हरेक हड़ताल मज़दूरों को याद दिलाती है कि उनकी स्थिति असहाय नहीं है, कि वे अकेले नहीं हैं। जरा देखें कि हड़तालों का स्वयं हड़तालियों पर तथा किसी पड़ोस की या नजदीक की फैक्टरियों में या एक ही उद्योग की फैक्टरियों में काम करने वाले मज़दूरों, दोनों पर कितना जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। सामान्य, शान्तिपूर्ण समय में मज़दूर बड़बड़ाहट किये बिना अपना काम करता है, मालिक की बात का प्रतिवाद नहीं करता, अपनी हालत पर बहस नहीं करता। हड़तालों के समय वह अपनी माँगें ऊँची आवाज में पेश करता है, वह मालिकों को उनके सारे दुर्व्यवहारों की याद दिलाता है, वह अपने अधिकारों का दावा करता है, वह केवल अपने और अपनी मज़दूरी के बारे में नहीं सोचता, वरन अपने सारे साथियों के बारे में सोचता है, जिन्होंने उसके साथ-साथ औजार नीचे रख दिये हैं और जो तकलीफों की परवाह किये बिना मज़दूरों के ध्येोय के लिए उठ खड़े हुए हैं। मेहनतकश जनों के लिए प्रत्येक हड़ताल का अर्थ है बहुत सारी तकलीफें, भयंकर तकलीफें, जिनकी तुलना केवल युद्ध द्वारा प्रस्तुत विपदाओं से की जा सकती है – भूखे परिवार, मज़दूरी से हाथ धो बैठना, अक्सर गिरफ्तारियाँ, शहरों से भगा दिया जाना, जहाँ उनके घरबार होते हैं तथा वे रोज़गार पर लगे होते हैं। इन तमाम तकलीफों के बावजूद मज़दूर उनसे घृणा करते हैं, जो अपने साथियों को छोड़कर भाग जाते हैं तथा मालिकों के साथ सौदेबाजी करते हैं। हड़तालों द्वारा प्रस्तुत इन सारी तकलीफों के बावजूद पड़ोस की फैक्टरियों के मज़दूर उस समय नया साहस प्राप्त करते हैं, जब वे देखते हैं कि उनके साथी संघर्ष में जुट गये हैं। अंग्रेज मज़दूरों की हड़तालों के बारे में समाजवाद के महान शिक्षक एंगेल्स ने कहा था : “जो लोग एक बुर्ज़ुआ को झुकाने के लिए इतना कुछ सहते हैं, वे पूरे बुर्ज़ुआ वर्ग की शक्ति को चकनाचूर करने में समर्थ होंगे।”  बहुधा एक फैक्टरी में हड़ताल अनेकानेक फैक्टरियों में हड़तालों की तुरन्त शुरुआत के लिए पर्याप्त होती है। हड़तालों का कितना बड़ा नैतिक प्रभाव पड़ता है, कैसे वे मज़दूरों को प्रभावित करती हैं, जो देखते हैं कि उनके साथी दास नहीं रह गये हैं और, भले ही कुछ समय के लिए, उनका और अमीर का दर्जा बराबर हो गया है! प्रत्येक हड़ताल समाजवाद के विचार को, पूँजी के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष के विचार को बहुत सशक्त ढंग से मज़दूर के दिमाग़ में लाती है। प्राय: होता यह है कि किसी फैक्टरी या किसी उद्योग की शाखा या शहर के मज़दूरों को हड़ताल के शुरू होने से पहले समाजवाद के बारे में पता ही नहीं होता और उन्होंने उसकी बात कभी सोची ही नहीं होती। परन्तु हड़ताल के बाद अध्यीयन मण्डलियाँ तथा संस्थाएँ उनके बीच अधिक व्यापक होती जाती हैं तथा अधिकाधिक मज़दूर समाजवादी बनते जाते हैं।


हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हजारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फैक्टरी का मालिक मज़दूरों की ऑंखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मज़दूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मज़दूरों को यह दिखाकर कि उनका “उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधाड़ी को एक ही वार में खत्म कर देती है।


इसके अलावा हड़ताल पूँजीपतियों के ही नहीं, वरन सरकार तथा क़ानूनों के भी स्वरूप को मज़दूरों की ऑंखों के सामने स्पष्ट कर देती है। जिस तरह फैक्टरियों के मालिक अपने को मज़दूरों के उपकारी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं, ठीक उसी तरह सरकारी अफसर और उनके चाटुकार मज़दूरों को यह यकीन दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि जार तथा जारशाही सरकार न्याय की अपेक्षानुसार फैक्टरियों के मालिकों तथा मज़दूरों, दोनों का समान रूप से ध्यान रखते हैं। मज़दूर क़ानून नहीं जानता, उसका सरकारी अफसरों, खास तौर पर ऊँचे पदाधिकारियों के साथ सम्पर्क नहीं होता, फलस्वरूप वह अक्सर इन सब बातों पर विश्वास कर लेता है। इतने में हड़ताल होती है। सरकारी अभियोजक, फैक्टरी इंस्पेक्टर, पुलिस और कभी-कभी सैनिक कारख़ाने में पहुँच जाते हैं। मज़दूरों को पता चलता है कि उन्होंने क़ानून तोड़ा है : मालिकों को क़ानून इकट्ठा होने और मज़दूरों की मज़दूरी घटाने और खुलेआम विचार-विमर्श करने की अनुमति देता है। परन्तु मज़दूर अगर कोई संयुक्त करार करते हैं, तो उन्हें अपराधी घोषित किया जाता है। मज़दूरों को उनके घरों से बेदखल किया जाता है, पुलिस उन दुकानों को बन्द कर देती है, जहाँ से मज़दूर खाने-पीने की चीजें उधार ले सकते हैं, उस समय भी जब मज़दूर का आचरण शान्तिपूर्ण होता है, सैनिकों को उनके ख़िलाफ़ भड़काने का प्रयत्न किया जाता है। सैनिकों को मज़दूरों पर गोली चलाने का आदेश दिया जाता है और जब वे भागती भीड़ पर गोली चलाकर निरस्त्र मज़दूरों को मार डालते हैं, तो जार स्वयं सैनिकों के प्रति आभार-प्रदर्शन करता है (इस तरह जार ने 1895 में यारोस्लाव्ल में हड़ताली मज़दूरों की हत्या करने वाले सैनिकों को धन्यवाद दिया था)। हर मज़दूर के सामने यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जारशाही सरकार उसकी सबसे बड़ी शत्रु है, क्योंकि वह पूँजीपतियों की रक्षा करती है तथा मज़दूरों के हाथ-पाँव बाँध देती है। मज़दूर यह समझने लगते हैं कि क़ानून केवल अमीरों के हितार्थ बनाये जाते हैं, कि सरकारी अधिकारी उनके हितों की रक्षा करते हैं, कि मेहनतकश जनता की जुबान बन्द कर दी जाती है, उसे इस बात की अनुमति नहीं दी जाती कि वह अपनी माँगें पेश करे, कि मज़दूर वर्ग को हड़ताल करने का अधिकार, मज़दूर समाचारपत्र प्रकाशित करने का अधिकार, क़ानून बनानेवाली और क़ानूनों को लागू करने के कार्य की देखरेख करने वाली राष्ट्रीय सभा में भाग लेने का अधिकार अवश्य हासिल करना होगा। सरकार ख़ुद अच्छी तरह जानती है कि हड़तालें मज़दूरों की ऑंखें खोलती हैं और इस कारण वह हड़तालों से डरती है तथा उन्हें यथाशीघ्र रोकने का प्रयत्न करती है। एक जर्मन गृहमन्त्री ने, जो समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मज़दूरों को निरन्तर सताने के लिए बदनाम था, जन प्रतिनिधियों के सामने यह अकारण ही नहीं कहा था : “हर हड़ताल के पीछे क्रान्ति का कई फनोंवाला साँप (दैत्य) होता है”। प्रत्येक हड़ताल मज़दूरों में इस अवबोध को दृढ़ बनाती तथा विकसित करती है कि सरकार उनकी दुश्मन है तथा मज़दूर वर्ग को जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के वास्ते अपने को तैयार करना चाहिए।


अत: हड़तालें मज़दूरों को ऐक्यबद्ध होना सिखाती हैं; उन्हें बताती हैं कि वे केवल ऐक्यबद्ध होने पर ही पूँजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष कर सकते हैं; हड़तालें मज़दूरों को कारख़ानों के मालिकों के पूरे वर्ग के विरुद्ध, स्वेच्छाचारी, पुलिस सरकार के विरुद्ध पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष की बात सोचना सिखाती है। यही कारण है कि समाजवादी लोग हड़तालों को युद्ध की पाठशाला, ऐसा विद्यालय कहते हैं, जिसमें मज़दूर पूरी जनता को, श्रम करने वाले तमाम लोगों को सरकारी अधिाकारियों के जुए से, पूँजी के जुए से मुक्त करने के लिए अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ युद्ध करना सीखते हैं।


परन्तु “युद्ध की पाठशाला” स्वयं युद्ध नहीं है। जब हड़तालें मज़दूरों के बीच व्यापक रूप से फैली होती हैं, कुछ मज़दूर (कुछ समाजवादियों समेत) यह सोचने लगते हैं कि मज़दूर वर्ग अपने को महज हड़तालों, हड़ताल कोषों या हड़ताल संस्थाओं तक सीमित रख सकता है, कि अकेले हड़तालों के जरिये मज़दूर वर्ग अपने हालात में पर्याप्त सुधार ला सकता है, यही नहीं, अपनी मुक्ति भी हासिल कर सकता है। यह देखकर कि संयुक्त मज़दूर वर्ग में, यही नहीं, छोटी हड़तालों तक में कितनी शक्ति होती है, कुछ सोचते हैं कि मज़दूर पूँजीपतियों तथा सरकार से जो कुछ भी हासिल करना चाहते हैं, उसके लिए बस इतना काफी है कि मज़दूर वर्ग पूरे देश में आम हड़ताल संगठित करे। इसी तरह का विचार अन्य देशों के मज़दूरों द्वारा भी व्यक्त किया गया था, जब मज़दूर वर्ग आन्दोलन अपने आरम्भिक चरणों में था तथा मज़दूर अभी बहुत अनुभवहीन थे। पर यह ग़लत विचार है। हड़तालें तो उन उपायों में से एक हैं, जिनके जरिये मज़दूर वर्ग अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करता है, परन्तु वे एकमात्र उपाय नहीं हैं। यदि मज़दूर संघर्ष करने के अन्य उपायों की ओर धयान नहीं देते, तो वे मज़दूर वर्ग की संवृद्धि तथा सफलताओं की गति धीमी कर देंगे। यह सच है कि यदि हड़तालों को कामयाब बनाना है, तो हड़तालों के दौरान मज़दूरों के निर्वाह के लिए कोषों का होना जरूरी है। ऐसे मज़दूर कोष (आम तौर पर उद्योग की पृथक शाखाओं, पृथक पेशें तथा वर्कशापों में मज़दूर कोष) तमाम देशों में रखे जाते हैं। परन्तु यहाँ रूस में यह बहुत कठिन है, क्योंकि पुलिस उनका पता लगाती है, धन जब्त कर लेती है तथा मज़दूरों को गिरफ़्तार करती है। निस्सन्देह, मज़दूर उन्हें पुलिस से छुपाने में सफल रहते हैं; स्वभावतया ऐसे कोषों को संगठित करना महत्तवपूर्ण है और हम मज़दूरों को उन्हें संगठित करने के विरुद्ध परामर्श नहीं देना चाहते। परन्तु यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि मज़दूर कोष क़ानून द्वारा निषिद्ध होने पर वे चन्दा देनेवालों को बड़ी संख्या में आकृष्ट करेंगे; और जब तक ऐसे संगठनों की सदस्य संख्या कम होगी, ये कोष बहुत उपयोगी सिद्ध नहीं होंगे। इसके अलावा उन देशों तक में, जहाँ मज़दूर यूनियनें खुलेआम विद्यमान हैं तथा उनके पास बहुत बड़े कोष हैं, मज़दूर वर्ग संघर्ष के साधन के रूप में अपने को हड़तालों तक सीमित नहीं कर सकता। जो कुछ आवश्यक है, वह उद्योग के मामलों में एक विघ्न (उदाहरण के लिए संकट, जो रूस में आज समीप आता जा रहा है) है, और कारख़ानों के मालिक तो जानबूझकर हड़तालें तक करायेंगे, क्योंकि कुछ समय के लिए काम का बन्द होना तथा मज़दूर कोषों का घटना उनके लिए लाभप्रद होता है। इसलिए मज़दूर किसी भी सूरत में अपने को हड़ताल सम्बन्धी कार्रवाइयों तथा हड़ताल सम्बन्धी संस्थाओं तक सीमित नहीं कर सकते। दूसरे, हड़तालें वहीं सफल हो सकती हैं, जहाँ मज़दूर पर्याप्त रूप में वर्ग-सचेत होते हैं, जहाँ वे हड़तालें करने के लिए सही अवसर चुनने में सक्षम होते हैं, जहाँ वे यह जानते हैं कि अपनी माँगें किस तरह पेश की जाती हैं, और जहाँ उनके समाजवादियों के साथ सम्बन्ध होते हैं और उनके जरिये पर्चे और पैम्फलेट हासिल कर सकते हैं। रूस में ऐसे मज़दूर अभी बहुत कम हैं, उनकी तादाद बढ़ाने के लिए हर चेष्टा की जानी चाहिए, ताकि मज़दूर वर्ग का धयेय जन साधारण को बताया जा सके, उन्हें समाजवाद तथा मज़दूर वर्ग के संघर्ष से अवगत कराया जा सके। समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मज़दूरों को इस उद्देश्य के लिए समाजवादी मज़दूर वर्ग पार्टी संगठित कर यह कार्यभार संयुक्त रूप से सँभालना चाहिए। तीसरे, जैसाकि हम देख चुके हैं, हड़तालें मज़दूरों को बताती हैं कि सरकार उनकी शत्रु है, कि सरकार के विरुद्ध संघर्ष चलाते रहना चाहिए। वस्तुत: हड़तालों ने ही धीरे-धीरे तमाम देशों के मज़दूर वर्ग को मज़दूरों के अधिाकारों तथा समग्र रूप में जनता के अधिाकारों के लिए सरकारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना सिखाया है। जैसाकि हम कह चुके हैं, केवल समाजवादी मज़दूर पार्टी ही मज़दूरों के बीच सरकार तथा मज़दूर वर्ग के धयेय की सच्ची अवधारणा का प्रचार करके यह संघर्ष चला सकती है। किसी और अवसर पर हम खास तौर पर इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह संचालित होती हैं और वर्ग सचेत मज़दूरों को कैसे उनका उपयोग करना चाहिए। यहाँ हम यह इंगित कर दें कि हड़तालें जैसाकि हम ऊपर कह चुके हैं, स्वयं युद्ध नहीं, वरन युद्ध की पाठशाला हैं, कि हड़तालें संघर्ष का केवल एक साधन हैं, मज़दूर वर्ग आन्दोलन का केवल एक रूप हैं। अलग-अलग हड़तालों से मज़दूर श्रम करने वाले तमाम लोगों की मुक्ति के लिए पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष की ओर बढ़ सकते हैं और उन्हें बढ़ना चाहिए, और वे वस्तुत: तमाम देशों में उस ओर बढ़ रहे हैं। जब तमाम वर्ग-सचेत मज़दूर समाजवादी हो जायेंगे, अर्थात जब वे इस मुक्ति के लिए प्रयास करेंगे, जब वे मज़दूरों के बीच समाजवाद का प्रसार कर सकने, मज़दूरों को अपने दुश्मनों के विरुद्ध संघर्ष के तमाम तरीके सिखा सकने के लिए पूरे देश में ऐक्यबद्ध हो जायेंगे, जब वे एक ऐसी समाजवादी पार्टी का निर्माण करेंगे, जो सरकारी उत्पीड़न से समग्र जनता की मुक्ति के लिए, पूँजी के जुए से समस्त मेहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष करती है, केवल तभी मज़दूर वर्ग तमाम देशों के मज़दूरों के उस महान आन्दोलन का अभिन्न अंग बन सकेगा, जो समस्त मज़दूरों को ऐक्यबद्ध करता है तथा जो लाल झण्डा ऊपर उठाता है, जिस पर ये शब्द लिखे हुए हैं : “दुनिया के मज़दूरों, एक हो!”



7. संशोधनवादी और सुधारवादी ट्रेड यूनियन नेताओं का ठोस ढंग से पर्दाफाश करो (कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा” से)


26. सामाजिक जनवादियों और निम्न पूँजीवादी ट्रेड  यूनियन नेताओं तथा विभिन्न लेबर पार्टियों के नेताओं के खि़लाफ संघर्ष में समझाने-बुझाने से अधिक कामयाबी की उम्मीद नहीं की जा सकती। उनके खि़लाफ संघर्ष अधिकतम ज़ोर-शोर के साथ चलाया जाना चाहिए और इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन्हें उनके अनुयाइयों से अलग कर दिया जाये और मज़दूरो को इन ग़द्दार समाजवादी नेताओं के, जो पूँजीवाद के हाथों में खेल रहे हैं, असली चरित्र से परिचित करा दिया जाये। कम्युनिस्टों को इन तथाकथित नेताओं को बेनकाब करने की पुरज़ोर कोशिश करनी चाहिए और इन पर सर्वाधिक प्रचण्ड तरीके से हमले करने चाहिए। 


इन आम्स्टर्डमपन्थी नेताओं को सिर्फ पीला कह भर देना किसी भी हालत में काफी नहीं है। लगातार तथा व्यावहारिक उदाहरणों के द्वारा इनके पीलेपन, को प्रमाणित करना होगा। टेंड यूनियनो में, लीग आफ नेशन्स के अन्तरराष्टीय श्रमिक ब्यूरो में, पूँजीवादी मन्त्रिपरिषदों में तथा प्रशासनों में उनकी गतिविधियों में, सम्मेलनों और संसदों में उनके ग़द्दारी भरे भाषणों में, उनके ढेरों प्रेस वक्तव्यों और लिखित सन्देशों में झाड़े गये उपदेशों में और सबसे अधिक, (वेतन में बेहद मामूली बढ़ोत्तरी तक के संघर्ष सहित) सभी संघर्षों में उनके ढुलमुलपन और हिचकिचाहट भरे रवैये में हमें लगातार ऐसे अवसर मिल जायेंगे कि सीधे-सादे भाषणों और प्रस्तावों के द्वारा उनके ग़द्दाराना बर्ताव का पदार्पफाश किया जा सके। 


फ्रैक्शनों को अपनी व्यावहारिक हिरावल गतिविधियाँ सुव्यवस्थित ढंग से संचालित करनी चाहिए। कम्युनिस्टों को टेंड यूनियनों के उन छोटे पदाधिकारियों द्वारा किये जाने वाले बहानों को अपने प्रगति अभियान में बाधा नहीं बनने देना चाहिए, जो अपने नेक इरादों के बावजूद सिर्फ अपनी कमज़ोरी के कारण नियम-कानूनों, यूनियन के फैसलों और अपने वरिष्ठ पदाधिकारियों के निर्देशों की आड़ लिया करते हैं। इसके विपरीत, उन्हें नौकरशाही मशीनरी द्वारा मज़दूरों के रास्ते में खड़ी की गयी सभी वास्तविक और काल्पनिक बाधाओं को हटाने के मामले में निचले अधिकारियों द्वारा सन्तोषप्रद कार्य पर ज़ोर देना चाहिए। 


फ्रैक्शनों  को किस प्रकार काम करना चाहिए


27. टेंड यूनियन संगठनों के सम्मेलनों या मीटिंगांे में कम्युनिस्टों की भागीदारी के लिए फ्रैक्शनों को सावधानी से तैयारी करनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर, उन्हें प्रस्तावों का सविस्तार प्रतिपादन करना चाहिए, वक्ताओं और वकीलों का ठीक-ठीक चुनाव करना चाहिए तथा चुनावों में सक्षम, अनुभवी और ऊर्जावान;चुस्त-दुरुस्त व मेहनती कामरेडों को खड़ा करना चाहिए। 


कम्युनिस्ट संगठन को, अपने फ्रैक्शनों के माध्यम से मज़दूरों की सभी मीटिंगो, चुनाव सभाओं, प्रदर्शनों, राजनीतिक उत्सवों और विरोधी संगठनों के ऐसे ही सभी आयोजनों के सम्बन्ध में सावधानी के साथ तैयारी करनी चाहिए। जहाँ भी कम्युनिस्ट, मज़दूरों की अपनी मीटिंगें आयोजित करें, उन्हें श्रोताओं के बीच पर्याप्त संख्या मे  ग्रुपों में कम्युनिस्टों को फैला देना चाहिए तथा प्रचार के सन्तोष जनक परिणाम को सुनिश्चित बनाने के लिए सभी तैयारियाँ करनी चाहिए। 


मज़दूरों के सभी संगठ्नो में काम करो   


28. कम्युनिस्टों को यह भी सीखना चाहिए कि असंगठित और पिछड़े हुए मज़दूरों को पार्टी कतारों मे  स्थायी तौर पर कैसे शामिल किया जाये। अपने फ्रैक्शनों की सहायता से हमें मज़दूरों को टेंड यूनियनों में शामिल होने और अपनी पार्टी के मुखपत्रों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। अन्य संगठ्नो   को, जैसे कि शिक्षा समितियों, स्टडी सर्किलों, खेलकूद क्लबों, नाटय समितियों, सहकारी समितियों, उपभोक्ता संघों या युद्ध-पीड़ितों के संघों आदि का अपने “यानी कम्युनिस्ट पार्टी” और मज़दूरों के बीच मध्यवर्ती के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी ग़ैरकानूनी ढंग से काम कर रही हो, वहाँ इस तरह की मज़दूर यूनियनें पार्टी के बाहर पार्टी के सदस्यों की पहलव़फदमी से और नेतृत्वकारी पार्टी कमेटियों की सहमति से और उन्हीं के नियन्त्राण में “हमदर्दों की यूनियनें”  गठित की जा सकती हैं। 


राजनीति के प्रति असम्पृक्त, सर्वहारा वर्ग के बहुतेरे लोगो मे  दिलचस्पी जगाने और फिर कालान्तर मे  उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में लाने में कम्युनिस्ट युवा संगठन और नारी संगठन भी लाभदायक हो सकते हैं। यह काम ये संगठन अपने शैक्षिक पाठयक्रमों, अध्ययन चक्रों, सैर-सपाटे के कार्यक्रमों, समारोहों और रविवारीय भ्रमणों आदि के माध्यम से, पर्चों के वितरण के ज़रिये और पार्टी मुखपत्र की खपत बढ़ाने आदि के द्वारा कर सकते हैं। आम आन्दोलनों मे  भागीदारी करके ही मज़दूर अपने निम्न पूँजीवादी “यानी मध्यमवर्गीय” रुझानो से मुक्त हो सकेगे। 


निम्न-पूँजीवादी हिस्सों को अपने पक्ष में लाओ 


29. क्रान्तिकारी सर्वहारा के हमदर्दों के रूप में मज़दूरों के अर्ध-सर्वहारा हिस्सों को अपने पक्ष में लाने के लिए तथा मध्यवर्ती समूहों का सर्वहारा वर्ग के प्रति अविश्वास दूर करने के लिए कम्युनिस्टों को भूस्वामियों, पूँजीपतियों और पूँजीवादी  राज्य के साथ उनके विशेष शत्राुतापूर्ण अन्तरविरोधों का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए उनके साथ लम्बी बातचीत की, उनकी आवश्यकताओं के प्रति सूझबूझ भरी हमदर्दी की तथा परेशानियों के समय उन्हें मुफ्ऱत सहायता और परामर्श देने की ज़रूरत पड़ सकती है। इन सबसे कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रति उनमें विश्वास पैदा होगा। कम्युनिस्टों को उन विरोधी संगठनों के हानिकारक प्रभावों को समाप्त करने के लिए काम करना चाहिए जो उनके ज़िलों में वर्चस्वकारी स्थिति मे  हों या जिनका मेहनतकश किसान आबादी पर, घरेलू उद्योगों मे े काम करने वाले लोगों पर या अन्य अ1⁄र्4सर्वहारा वर्गों पर प्रभाव हो। शोषितगण अपने स्वयं के कड़वे अनुभवांे से जिन लोगांे को सम्पूर्ण अपराधी पूँजीवादी व्यवस्था का प्रतिनिधि या साक्षात मूर्तरूप समझते हैं, उन लोगों को बेनकाब करना ज़रूरी है। कम्युनिस्ट आन्दोलन ;या आन्दोलनपरक प्रचारद्ध के दौरान रोज़मर्रा की उन सभी घटनाओं का होशियारी के साथ और ज़ोरदार ढंग से इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो राज्य नौकरशाही और निम्न पूँजीवादी जनवाद और न्याय के आदर्शों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न करती हैं। 


प्रत्येक स्थानीय ग्रामीण संगठन को अपने ज़िले के सभी गांवों, वासस्थानांे और बिखरी हुई बस्तियों में कम्युनिस्ट प्रचार-प्रसार के लिए घर-घर घूमकर प्रचार करने का काम सावधानीपूर्वक अपने सदस्यों में बाँट देना चाहिए। 



8.रईस मजदूरों के उच्च स्तर- सुधारवाद और अंधराष्ट्रवाद के असली वाहक


यह स्पष्ट है कि ऐसे विराट अतिरिक्त मुनाफ़े में से ( इसलिए कि यह मुनाफ़ा उस सब मुनाफ़े के ऊपर और उसके अलावा है जो पूंजीपति 'अपने " देश के मज़दूरों का शोषण करके इकट्ठा करते हैं ) मजदूर नेताओं " को और रईस मजदूरों के उच्च स्तर को घूस देकर अपनी ओर कर लेना बिल्कुल संभव है । और "आगे बढ़े हुए " देशों के पूंजीवादी उन्हें घूस दे भी रहे हैं; वे उन्हें हज़ारों तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खुल्लमखुल्ला और छुपे-ढके तरीक़ों से घूस देते हैं ।


पूंजीवादी रंग में रंगे हुए मजदूरों का यह स्तर, "मज़दूर अमीरों " का यह दल ही, जो अपने रहन-सहन की दृष्टि से अपनी कमाई की मात्रा की दृष्टि से और अपने दृष्टिकोण में बिल्कुल कूपमंडूक होता है, दूसरी इंटरनेशनल का मुख्य आधार और आज हमारे समय में पूंजीपति वर्ग का सामाजिक (सैनिक नहीं ) आधार बना हुआ है। मजदूर वर्ग के आन्दोलन के भीतर ये लोग ही पूंजीपति वर्ग के असली दलाल मजदूरों में पूंजीपति वर्ग के गुर्गे और सुधारवाद और अंधराष्ट्रवाद के असली वाहक हैं। सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच गृहयुद्ध होने पर ये लोग अनिवार्य रूप से, और बड़ी तादाद में, पूंजीपति वर्ग का साथ देते हैं, “कम्यूनारों" के विरुद्ध वे "वार्साइ वालों" के साथ खड़े होते हैं।


जब तक इस प्रक्रिया की आर्थिक जड़ें नहीं समझ ली जातीं और जब तक उसका राजनीतिक और सामाजिक महत्व नहीं पहचान लिया जाता, तब तक कम्युनिस्ट आन्दोलन और आनेवाली सामाजिक क्रांति की अमली समस्याओं को हल करने के काम में जरा भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।


लेनिन- साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था से।




9. मजदूरों की एकता -लेनिन


"मज़दूरों को एकता की ज़रूरत अवश्य है और इस बात को समझना महत्त्वपूर्ण है कि उन्हें छोड़कर और कोई भी उन्हें यह एकता 'प्रदान' नहीं कर सकता, कोई भी एकता प्राप्त करने में उनकी सहायता नहीं कर सकता। एकता स्थापित करने का 'वचन' नहीं दिया जा सकता – यह झूठा दम्भ होगा, आत्मप्रवंचना होगी (एकता बुद्धिजीवी ग्रुपों के बीच 'समझौतों' द्वारा 'पैदा' नहीं की जा सकती। ऐसा सोचना गहन रूप से दुखद, भोलापन भरा और अज्ञानता भरा भ्रम है।" "एकता को लड़कर जीतना होगा, और उसे स्वयं मज़दूर ही, वर्गचेतन मज़दूर ही अपने दृढ़, अथक परिश्रम द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। इससे ज्यादा आसान दूसरी चीज़ नहीं हो सकती है कि 'एकता' शब्द को गज-गज भर लम्बे अक्षरों में लिखा जाये, उसका वचन दिया जाये और अपने को 'एकता' का पक्षधर घोषित किया जाये।"


"एकता बहुत अच्छी चीज़ है और एक बेहतरीन नारा है। लेकिन मज़दूरों के संघर्ष को जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है मार्क्सवादियों के बीच की एकता, ना की मार्क्सवादियों और मार्क्सवाद के विरोधियों व संशोधनवादियों के बीच की एकता।"


- लेनिन


क्रमशः





नरेंद्र अच्युत दाभोलकर (1 नवंबर 1945 - 20 अगस्त 2013) एक भारतीय चिकित्सक , सामाजिक कार्यकर्ता, तर्कवादी और महाराष्ट्र, भारत के लेखक थे । 



1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (एमएएनएस, महाराष्ट्र में अंधविश्वास के उन्मूलन के लिए समिति ) की स्थापना की और अध्यक्ष बने । 20 अगस्त 2013 को प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथियों द्वारा उनकी हत्या कर दी गयी।  उनकी हत्या के चार दिन बाद महाराष्ट्र राज्य में लंबित अंधविश्वास और काला जादू अध्यादेश लागू किया गया । 2014 में,  सामाजिक कार्य के लिए उन्हें मरणोपरांत  पद्मश्री से सम्मानित किया गया।उन्होंने अंधविश्वास उन्मूलन के लिये जीवन भर संघर्ष किया। 

 अन्धविश्वास उन्मूलन : आचार पुस्तक उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में धर्म के नाम पर कर्मकांड और पाखंडों के खिलाफ आन्दोलन, जन-जाग्रति कार्यक्रम और भंडाफोड़ जैसे प्रयासों का ब्योरा है ! पुस्तक में भूत से साक्षात्कार कराने का पर्दाफाश, ओझाओं की पोल खोलती घटनाएँ, मंदिर में जाग्रत देवता और गणेश देवता के दूध पीने के चमत्कार के विवरण पठनीय तो हैं ही, उनसे देखने, सोचने और समझने की पुख्ता जमीन भी उजागर होती है ! निस्संदेह अपने विषयों के नवीन विश्लेषण से यह पुस्तक पाठकों में अहम् भूमिका निभाने जैसी है ! अन्धविश्वास के तिमिर से विवेक और विज्ञान के तेज की और ले जानेवाली यह पुस्तक परंपरा का तिमिर-भेद तो है ही, विज्ञान का लक्ष्य भी है !

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👆डाक्टर बी. एन. पान्डे  का एक बहुत ही अच्छा लेख "हिन्दू मन्दिर और औरंगजेब के फरामीन" के शीर्षक से विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था.  इस एतिहासिक लेख का महत्व देखते हुए इसे आपसी भाईचारा को बढ़ावा देने के आधार पर मौलाना आजाद अकाडमी नयी दिल्ली की और से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया है।


*कम्युनिष्ट सरकार ने 1918 में अनाज की कीमतों को तिगुना कर दिया था*

'लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं है कि मजदूर वर्ग मध्यम किसान से झगड़ा करे। श्रमिक कुलक के साथ समझौता नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे मध्यम किसान के साथ एक समझौते की तलाश कर सकते हैं और मांग रहे हैं। मजदूरों की सरकार, बोल्शेविक सरकार ने इस काम को साबित कर दिया है।'

'हमने इसे (उस दिन) अनाज की कीमतों को तिगुना करके साबित कर दिया"; क्योंकि हम पूरी तरह से महसूस करते हैं कि मध्यम किसान की कमाई अक्सर निर्मित वस्तुओं के लिए वर्तमान कीमतों से अधिक होती है और इसे बढ़ाया जाना चाहिए।'

'प्रत्येक वर्ग-सचेत कार्यकर्ता मध्यम किसान को यह समझाएगा और धैर्यपूर्वक, दृढ़ता से, और बार-बार उसे बताएगा कि उसके लिए ज़ारों, जमींदारों और पूंजीपतियों की सरकार की तुलना में समाजवाद असीम रूप से अधिक फायदेमंद है।'

Vladimir Lenin
Comrade Workers, Forward To The Last, Decisive Fight!
Written: August 1918
CW Volume 28

https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1918/aug/x01.htm







🔴 ऐसे थे #आर बी मोरे 
(रामचन्द्र बाबाजी मोरे ; 1 मार्च 1903 – 11 मई  1972 )
कामरेड दत्ता केलकर की आत्मकथा "आत्मशोध" नामक किताब  में लिखा वर्णन अनुवाद ; Sandhya Shaily  #संध्या_शैली )

🔵 ‘‘........एक दिन मैं और डी एस वैद्य वी.टी. जाने के लिये दलवी बिल्डिंग से स्टेशन की ओर जा रहे थे। रास्ता एल्फिंस्टन पुल के बाजू से स्टेशन की ओर जाता है। स्टेशन के पास का रास्ता पुल के नीचे से सी एम ई
के आँफिस की ओर और आगे रेलवे क्वार्टर्स से होते हुये रेलवे वर्कशॉप को जाता है। वह रास्ता जैसे ही हमें दिखा तो कामरेड वेैद्य ने मुझे पूछा ;
"वो जो सामने पुल के नीचे बैंठीं हैं वे कामरेड आर बी मोरे की पत्नी तो नही हैं ?'‘ 
मै आर बी मोरे को अच्छी तरह से जानता था लेकिन उनकी पत्नी को कभी देखा नहीं था। फिर यह भी था कि उस पुल के नीचे कई भिखारी रहते थे वहां पर आर बी मोरे की पत्नी क्यों बैठेंगी ? ऐसा मै सोच रहा था तभी कामरेड वैद्य चिंतातुर
स्वर में बोले ;
‘‘अरे, हां वही हैं।‘‘
🔵 हम लोग उनके पास गये। वे एक बक्से पर बैठी थीं। पास में और भी दो तीन टीन के बक्से रखे थे,साथ में बर्तनों का एक बोरा था और बगल मे एक छोटा बच्चा बैठा था। वे हमसे बोलीं ; 
" हम किराया नहीं पटा पाये थे ना इसलिये कोर्ट के कारिंदे ने हमें घर के बाहर निकाल दिया। ये (कामरेड मोरे) दूसरा घर ढूंढने गये हैं। तब तक मैं यहीं पर बैठूंगी। ‘‘
🔵 कामरेड वैद्य की आंखों से निकलने वाले आंसू रूक नहीं रहे थे। वे भरे गले से मुझे बोले ; 
"केलकर, जाओ एक ठेला लेकर आओ इन्हे हम अपने कमरे पर ले जायेंगे।" 
मुझे ठेला तुरंत मिल गया। हमने सारा सामान उस ठेले पर रखा और कृष्ण नगर यानि हमारे कमरे की ओर चल पड़े। दलवी बिल्डिंग (मुंबई कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय) से पांच एक मिनिट के अंतर पर कृष्णनगर था। दलवी बिल्डिंग के पास हमें आर बी मोरे भी मिल गये। कामरेड वैद्य ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हे भी साथ में ले लिया। उनकी आंखों मे भी आंसू आ गये थे।
🔴 दो मिनिट के बाद वैद्य बोले ; 
"मोरे परिस्थिति इतनी विकट थी और तुमने हम लोगों को बताया तक नहीं ?: 
मोरे ने जवाब दिया, ‘‘ कामरेड, हर कार्यकर्ता यदि अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को पार्टी के पास लाने लगा तो पार्टी एक पार्टी की तरह से काम ही नहीं कर पायेगी !‘‘ 
पल भर के लिये वैद्य निरूत्तर हो गये लेकिन फिर उन्होने कहा ; 
‘‘ पार्टी के हिसाब से नहीं लेकिन दोस्त के नाते से तो मुझे यह बताते।" 
तब फिर से मोरे बोले ; 
"कामरेड, बी सी (यानि बाम्बे कमेटी) के सचिव के नाते आपके ऊपर काम का पहले से ही कितना बोझ है यह मुझे मालूम है। हमे उस बोझ को कम करना चाहिये ना कि अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का बोझ भी आपके  ऊपर डाल देना चाहिये ?‘‘
🔵 हम लोग तब तक कृष्ण नगर में प्रवेश कर चुके थे इसलिये हमारी बातचीत वहीं पर रूक गयी। मोरे परिवार मुश्किल से सप्ताह भर भी हमारे कमरे पर नहीं रहा। नयी खोली ढूंढकर उसमें जाकर बस गए।  कामरेड मोरे को अपने जीवन में अनगिनत घर बदलने पड़े थे।"

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