आश्चर्य है कि सजातीय होने / सवर्ण होने के नाते जो लोग मध्यकालीन कवि तुलसीदास के बारे में आलोचना तक बर्दाश्त नहीं कर सकते वही लोग हज़ारों सालों से एक बड़ी आबादी को "नीच" समझने , उनके श्रम और कौशल को हेय / बेगार का अधिकार समझने और अनवरत मानमर्दन को व्यक्त करने के सांस्कृतिक साहित्यिक धार्मिक उद्धरणों पर उनके परिवाद पर बिफर पड़े हैं!
सब सिद्ध करने के कौशल उन्हें दिखा रहे हैं जो हज़ारों साल से अपमानित किये जाने को अभिशप्त किये गये हैं कि तुम समझ नहीं रहे हो, मूर्ख हो ……….. दरअसल ये अर्थ नहीं है वो अर्थ है आदि आदि आदि !
अरे विद्वानों किसी चौपाई दोहे गद्य वाक्य संज्ञा विशेषण का चाहे जो अर्थ हो वह एक जीवित मनुष्य के स्वाभिमान को रौंदकर उस पर नाज़िल नहीं किया जा सकता! यदि किसी दलित किसी आदिवासी किसी पिछड़ी जाति से आए मनुष्य को हमारे किसी भी धर्मग्रंथ शास्त्र साहित्य मुहावरे संस्कार कर्मकांड से अपमानित होने का भाव आता है तो हमें उस मनुष्य के साथ सहृदय होने , उसमें पनपे विषाद को बाहर लाने में मददगार होना चाहिए कि उसे ख़ारिज करने में जुट जाना चाहिए (जो हम कर रहे हैं), भले ही उसकी धारणा की बुनियाद में त्रुटि हो !
और याद रखिए कि ऐसा हम सर्वस्वीकृत उत्पीड़ितों के बाबत कर रहे हैं जिनके उत्पीड़न के तमाम कारक आज भी यत्र तत्र सर्वत्र मौजूद हैं अभी नष्ट नहीं हुए हैं ।
No comments:
Post a Comment