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ख़ौफ़नाक शर्मिन्दगी
कैसा अजीब ख़ौफ़नाक मौसम है कि
बेहद सादगी से अगर कोई सीधा-सादा इंसान
कोई सीधी-सच्ची बात कह दे
तो लोग उसे यूँ देखते हैं जैसे वह
सीधे मंगल ग्रह से चला आया हो।
पेड़ों की नंगी टहनियों पर अगर कहीं
नये पत्ते दिख जायें
तो अचरज से या डर से
लोगों की आँखें फटी रह जाती हैं।
जिस शहर में साल भर के भीतर
एक भी औरत के गुप्तांग में
न पत्थर भरे गये हों न सरिया घुसेड़ा गया हो,
एक भी औरत के चेहरे पर
तेजाब न फेंका गया हो,
एक भी औरत को सामूहिक बलात्कार के बाद
बोटी-बोटी न काटा गया हो,
एक भी प्रेमी जोड़े को पंखे या पेड़ या
बिजली के खंभे से न टाँगा गया हो,
एक भी दंगा, या मॉब लिंचिंग का
एक भी मामला न हुआ हो,
सौ-पचास घरों पर भी बुलडोजर न चले हों,
एक भी भव्य मंदिर या एक भी विशाल स्टैच्यू
या एक भी अद्वितीय रिवरफ्रण्ट
निर्माणाधीन न हो,
एक भी मुसलमान देशद्रोही होने
या पाकिस्तान से रिश्ते के पुख़्ता सबूतों के साथ
पकड़ा न गया हो,
एक भी कवि या लेखक ख़ुद को
वामपंथी कहते-कहते
फ़ासिस्टों की अकादमी या किसी सेठ के
प्रतिष्ठान से पुरस्कृत होने
या किसी रंगारंग साहित्यिक मेले में शामिल होने
अचानक राजधानी न चला गया हो,
उस शहर के लोग लगभग देशद्रोही जैसा ही
समझते हैं अपने आप को।
वे इतनी शर्मिन्दगी और ज़िल्लत से
भरे रहते हैं कि दूसरे किसी शहर
अपने किसी रिश्तेदार या दोस्त से
मिलने तक नहीं जाते
और अगर अपने शहर से बाहर उन्हें
जाना ही पड़े किसी वजह से
तो वे किसी अनजान को यह कतई नहीं बताते
कि वे किस शहर के रहवासी हैं!
सिर्फ़ इतना ही नहीं, अपने शहर की
सड़कों पर भी वे बहुत कम निकलते हैं
और अगर निकलते भी हैं
तो नज़रें झुकाये, एक-दूसरे से बचते हुए
बगल से निकल लेते हैं
या किसी परिचित से नज़रें मिलने से पहले ही
बाजू वाली गली में मुड़ जाते हैं।
ऐसे शहर के बच्चे तक सोचते हैं इनदिनों
कि आख़िर वे गर्व करें तो किस बात पर करें
जियें तो कैसे जियें
और कैसे करके खौलायें अपना ख़ून
और ख़ुद को और सभी देशभक्तों को
यक़ीन दिलायें कि उनकी रगों में भी जो
बह रहा है वह पानी नहीं ख़ून है
एकदम शुद्ध और पवित्र धार्मिक लहू!
कात्यायनी
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बेटी निकलती है तो
कहते हो छोटे कपडे
पहन कर मत जाओ.
पर बेटे से नहीं कहते
हो कि नज़रों मैं गंदगी
मत लाओ.
बेटी से कहते हो कि
कभी घर कि इज्जत
ख़राब मत करना.
बेटे से क्यों नहीं कहते
कि किसी के घर कि
इज्जत से खिलवाड़ नहीं करना.
हर वक़्त रखते हो नज़र
बेटी के फ़ोन पर.
पर ये भी तो देखो बेटा
क्या करता है इंटरनेट पर.
किसी लड़के से बात करते देखकर
जो भाई हड़काता है.
वो ही भाई अपनी गर्लफ्रेंड के किस्से घर मैं हंस हंस कर सुनाता है .
बेटा घूमे गर्लफ्रेंड के साथ तो कहते हो अरे बेटा बड़ा हो गया .
बेटी अपने अगर दोस्त से भी
बातें करें तो कहते हो बेशर्म हो गयी.
"पहले शोषण घर से बंद करो
तब शिकायत करना समाज से".
हर बेटे से कहो कि
हर बेटी कि इज़ज़त करे
आज से।
बात निकली है तो दूर
तक जानी चाहिए ।
सोशल मीडिया से प्राप्त
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राजा का ऐलान था
हमें राष्ट्र को शक्तिशाली बनाना है.
इसलिए हर एक को, हर एक पर नज़र रखनी होगी
और सब पर राजा की नज़र होगी.
आज से सभी नागरिक संदेहास्पद माने जाएंगे.
राजा ने राष्ट्र को संबोधित किया-
'राष्ट्र को महान बनाने के लिए जागना बहुत ज़रूरी है,
इसलिए फिलहाल नींद पर पाबंदी लगाई जाती है.'
संदेह राष्ट्र को कमज़ोर बनाता है
इसलिए दर्शन और कविता पर पाबंदी लगा दी गयी
संदेह तो इतिहास से भी पैदा होता है
लेकिन राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए इतिहास ज़रूरी है.
राजा ने सर झटका!
कहीं यह संदेह उसे कमज़ोर न बना दे?
उसने आदेश दिया कि संदेह को इतिहास से बाहर निकाल दिया जाय.
और इस तरह एक शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण हो गया;
लेकिन,
नींद पर पाबंदी के कारण सपने सिकुड़़ने लगे.
दर्शन बिना मानव-गुरुत्वाकर्षण के यहां वहां भटकने लगा.
कविता मानवीय गर्माहट के लिए तरसने लगी.
संदेह बेचैन होने लगा..
शक्तिशाली राष्ट्र में इनका प्रवेश अब ज़रूरी बन गया.
इसके लिए संकरे व गुप्त रास्ते की खोज की गयी .
लेकिन सवाल यह था कि
सबसे पहले कौन प्रवेश करेगा इस शक्तिशाली राष्ट्र में?
काफी माथापच्ची के बाद तय हुआ-
पहले स्वप्न, फिर कविता, उसके बाद दर्शन और फिर संदेह.
अब इस शक्तिशाली राष्ट्र में राजा की इजाज़त के बिना
स्वप्न, कविता, दर्शन और संदेह अपना गुप्त डेरा डाल चुके थे.
स्वप्न ने लाल हो चुकी आंखों पर हमला बोला
कविता ने प्रवचनों को निशाना बनाया.
दर्शन ने धर्म सभाओं को उलट दिया.
और संदेह ने गली नुक्कड़ों पर जमकर उत्पात मचाया.
राजा बेचैन था
उसका शक्तिशाली राष्ट्र कमज़ोर हो रहा था
उसके वैज्ञानिक अभी तक उस बम का अविष्कार नहीं कर पाए थे
जिससे वह स्वप्न, कविता, दर्शन व संदेह को नेस्तनाबूद कर दे.
राजा के सैनिक जिस भी व्यक्ति को पकड़ते
स्वप्न, कविता, दर्शन और संदेह उछलकर दूसरे इंसान में प्रवेश कर जाते.
राजा घबराया और डरा हुआ था
अब उसका राष्ट्र ही नहीं, वह खुद इतना कमज़ोर हो चुका था
कि उसे अपने ही अस्तित्व पर संदेह होने लगा था
उसकी आँखों के सामने उसका शक्तिशाली राष्ट्र धराशायी हो रहा था.
और घबराया राजा
अब किसी संकरे और गुप्त रास्ते की तलाश में था....
Manish Azad
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काट दो उन सबों के नाम !
उन सबों को
भारत के नागरिकों की लिस्ट से
नाम काट दो
जो तुम्हारे खिलाफ हैं,
मेरा नाम सबसे ऊपर में लिखो
गिरफ्तार करो या छोड़ दो,
कोई फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि पूरा देश ही जेलखाना है
तुमने सबुत माँगा है नागरिक होने का
बाहर से आये या यहीं का हूं
साबित करने के लिए
दस्तावेज मांगा है
एक ही उदर से जन्मा मेरा भाई गोरा है
और मैं काला हूँ
जरूर आई होगी हमारी जीनें
हजारों वर्षों पहले अफ्रीका, यूरोप
या काकेशिया से
भेज दो जहाँ भेज सकते हो
नष्ट कर दो वह सब कुछ जो आया हैं
तुम्हारे देश की सीमा रेखा के बाहर से
अपना भी डीएनए जंचवा लो
किस नस्ल की पैदाइश हो
किस रिश्ते ने पैदा किया इतनी घृणा तुम में
मनुष्य के खिलाफ खड़े हो कर
देश बनाने का स्वांग रचने से पहले
देश के संस्थानों को बेचने से पहले
भूमि पुत्रों की हत्या से पहले
जांच लो हमारी मिट्टी की उर्वरा
और तिजोरी में बंद पूंजी में
विदेशी निवेश के डीएनए को
फिर लगा देना मुहर अपने बिल पर
और काट देना उन सबों के नाम
जो साहस रखते हैं
तुम्हें ललकारने का
Narendra Kumar
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बोलो , सूरज बाबा बोलो ....
( सूरज से बातचीत )
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कवि-
कल सूरज को ढ़लते देखा
चेहरा पीला पड़ते देखा ।
दिन-दिन भर की दौड़-भाग में
खूब पसीना चलते देखा ।
माथे के सिलवट पर मानो
गहरी सोच टहलते देखा ।
बोलो , सूरज बाबा बोलो
दुनिया किस ऐंगल से देखा ?
सूरज -
दो तरह का सच था ,बचवा
सच बोलूँ , सच जैसे देखा ?
सुख के ऊँचे टीले , नीचे
दुःख का ढ़ेर पिघलते देखा ।
रौशन दिखती थी जो दुनिया
अँधेरा वहीं पसरते देखा ।
शांतिवार्ताओं के संग ही
युद्ध का बादल घिरते देखा ।
ज़िंदा लोगों की आँखों में
मुर्दा शहरी पलते देखा ।
कवि -
ठहरो , ठहरो , चले न जाना
और सुनाओ कैसे देखा ...?
सूरज -
मालिक लोगों को कोठी में
छल-प्रपंच सब गढ़ते देखा ।
खुलेआम कर लूट -डकैती
निजी तिजोरी भरते देखा ।
जुल्म को फलते-फूलते देखा
लोग को भूखों मरते देखा ।
गद्दी पर ऊँचे लोगों को
लाश से होकर चढ़ते देखा ।
कवि -
ठहरो , अभी डूब मत जाना
आगे भी कुछ होगा देखा ...?
सूरज -
हाँ , हाँ , अभी कहानी बाक़ी
कहता हूँ सब , जैसे देखा ।
मज़दूरों को भिड़ते देखा
मज़लूमों को अड़ते देखा ।
कई तरह के झंडे - नारे
भइया यहाँ फहरते देखा ।
लेकिन सबसे , सबके ऊपर
लाल पताका उड़ते देखा ।
दौलत के ज़ालिम महलों को
इतिहासों में ढ़हते देखा ।
प्यारा सूरज फिर आएगा
बच्चों को यह पढ़ते देखा ।
आदित्य कमल
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सच में कितने महान हैं ये लोग
वे भूखे हैं,,,
पर आदमी का मांस नहीं खाते।
वे प्यासे हैं,,,,
मगर दूसरों का लहू नहीं पीते।
वे नंगे हैं,,,,,
पर दूसरों के लिए कपड़े बुनते हैं।
उनके छत नहीं है,,,,
मगर दूसरों के मकान बनाते हैं।
वे भूखे हैं
पर औरों के लिए अन्न उगाते हैं।
वे धनहीन है ,,,,,,
मगर दूसरों के धन में इजाफा करते हैं।
वे संपत्ति विहीन है ,,,,,,
पर वे दूसरों की संपत्तियों में बढ़ोतरी करते हैं।
वे वस्त्र विहीन हैं,,,,,
मगर दूसरों के लिए कपड़े बनाते हैं।
वे अनपढ़ हैं,,,,,,,
मगर दूसरों के लिए किताबी छापते हैं।
वे अशिक्षित हैं,,,,
मगर दूसरों के लिए स्कूल बनाते हैं।
वे मंदिर नहीं जा सकते
मगर दूसरों के लिए मंदिर बनाते हैं।
उनके पास घर नहीं हैं
मगर वे दूसरों के लिए शानदार मकान बनाते हैं।
वे धन दौलत पैदा करते हैं
नगर वे धन धान्य से पूरी तरह वंचित है
वे अन्याय के शिकार हैं
मगर दूसरों के लिए न्यायालय बनाते हैं।
ये सब कुछ करते हैं
फिर भी अभावग्रस्त ही रहते हैं,
इसीलिए मार्क्स ने कहा था
दुनिया भर के मेहनतकशों एक हो।
,,,,सच में ये लोग कितने महान हैं।
मुनेश त्यागी
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विचारहीनता बहुत शोर करती है।
हृदयहीनता बहुत अधिक करुणा का नाट्य रचती है।
अकर्मक बौद्धिकता बहुत अधिक विमर्श करती है।
पाखण्ड के चेहरे पर बहुत अधिक भड़कीला मेकअप होता है।
सारहीन जीवन में बहुत अधिक ड्रामा होता है।
विदूषक के हृदय में बहुत अधिक दु:ख और संताप होता है।
जिससे मिलकर आप को बहुत अधिक ख़ुशी मिलती है, कई बार वह अपने भीतर बहुत अधिक उदासी लिए रहता है।
जिसमें बहुत अधिक सहृदयता होती है, उसके अपने दु:ख बहुत अधिक अलक्षित होते हैं।
अँधेरे में हँसते हुए लोग बहुत अधिक भयावह लगते हैं।
फ़ासिस्ट समय में बस मनुष्यता, करुणा, शांति और प्रेम की बात करने वाली कविता बहुत अधिक कुरूप और अमानवीय होती है।
आलोचना के शस्त्र से मठाधीश बहुत अधिक डरते हैं।
अधकचरा ज्ञानी बहुत अधिक आत्मधर्माभिमानी होता है।
प्यार का बहुत अधिक प्रदर्शन करने वाले ख़ुद से बहुत अधिक प्यार करते हैं।
Katyayani Lko
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मैं कितना हिंदू हूँ?
सवाल पूछा है किसी ने आप कितने हिंदू हो
मैंने कहा मंदिर में रखी
मूर्ति जितनी हिंदू होती है, उतना हिंदू हूँँ
मंदिर में चढ़ने वाला नारियल
जितना हिंदू होता है, उतना हिंदू हूँँ
भोग में चढ़ने वाली खीर, बर्फी, पेड़ा
बल्कि चने और गुड़ जितना भी हिंदू हूँ
और हाँँ गाय जितना हिंदू तो हूँँ ही
पीपल और वटवृक्ष जितना हिंदू भी हूँ
और भी बताऊँ लक्ष्मी के वाहन, जितना हिंदू हूँँ
और चार खाने के कपड़े से बनी कमीज जितना भी
मैंं सवाल पूछने वाला ऐसा हिंदू हूँँ
जो मुसलमान भी है
मैं उतना हिंदू हूँ,जितना हर मुसलमान, हिंदू होता है
मैं चींटी जितना हिंदू तो हूँँ ही
मच्छर जितना हिंदू भी हूँ
मैं ऐसा हिंदू हूँँ जो
किसी की जात -धर्म चुपके से
भी जानने की कोशिश नहीं करता
मैं इतना ज्यादा हिंदू हूँ
कि भूल ही जाता हूँ कि क्या हूँ
भैंस पानी में जाकर जितनी हिंदू हो जाती है
उतना हिंदू हूँँ
बाकी जो हूँ,सो तो हूँ ही।
सोशल मीडिया से प्राप्त
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मज़दूरों का गीत/ मज़ाज़ लखनवी
हम क्या हैं कभी दिखला देंगे
हम नज़्म-ए-कुहन को ढा देंगे
हम अर्ज़-ए-समा को हिला देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम जिस्म में ताक़त रखते हैं
सीनों में हरारत रखते हैं
हम अज्म-ए-बगावत रखते हैं
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
जिस रोज़ बगावत कर देंगे
दुनिया में क़यामत कर देंगे
ख्वाबों को हकीक़त कर देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम क़ब्ज़ा करेंगे दफ्तर पर
हम वार करेंगे क़ैसर पर
हम टूट पड़ेंगे लश्कर पर
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
(साभार कविता कोष)
क्रांतिकारी कवी असरार-उल-हक़ उर्फ़ मजाज़ लखनवी
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दोस्तो आज बिल्कुल अलग तरह की रचना आपकी अदालत में
घुप्प अँधेरा छा जाता या बत्ती जल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
गोरे-गोरे मुखड़े पर भी कालिख मल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
आफ़त आ जाती है या फिर आई टल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
बात लगे फूलों सी वो काँटों सी खल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
मन हो जाता साफ़ कहीं पर कुंठा पल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
लोहे की भी नाल तुरत सोने में ढल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
बेल हरी मुरझाती या सूखी ही फल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
तेल में कच्ची रह जाती पानी में तल जाती
जाति पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
जाति सुधारक का भी सारा ज्ञान निगल जाती
वर्ग पता चलते ही फ़ौरन दृष्टि बदल जाती
Kavi Mahendra Mihonvi
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वक्त और साजिश की आंधी में
बुझ जांऊ,
मैं वह लौ नहीं,
सीजती है रह -रह कर मुझको
पूर्वजों का त्याग,
और अपनो का प्रेम
कमजोर नहीं जिसकी नींव
कि इन आंधियों से घबरा जाऊं
लडूंगी, संघर्ष करूंगी साथी..
आखिरी दम और सांस तक।
एक और जीवन
होगा समर्पित संघर्ष के नाम ...l
प्रवीण बसंती खेस्स
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स्त्रियों की प्रेम कविताओं के बारे में एक अप्रिय, कटु यथार्थवादी कविता
आम तौर पर स्त्रियाँ जब प्रेम कविताएँ लिखती हैं
तो ज़्यादातर, वे भावुकता से लबरेज
और बनावटी होती हैं क्योंकि
उनमें वे सारी बातें नहीं होती हैं
जो वे लिख देना चाहती हैं और
लिखकर हल्का हो लेना चाहती हैं |
इसलिए प्रेम कविताएँ लिखने के बाद
उनका मन और भारी, और उदास हो जाता है |
स्त्रियाँ जब अपने किसी सच्चे प्रेमी के लिए भी
प्रेम कविताएँ लिखती हैं
तो उसमें सारी बातें सच्ची-सच्ची नहीं लिखतीं
चाहते हुए भी |
शायद वे जिससे प्रेम करती हैं
उसे दुखी नहीं करना चाहतीं
या शायद वे उसपर भी पूरा भरोसा नहीं करतीं,
या शायद वे अपनी ज़िंदगी की कुरूपताओं को
किसी से बाँटकर
और अधिक असुरक्षित नहीं होना चाहतीं,
या फिर शायद, वे स्वयं कपट करके किसी अदृश्य
अत्याचारी से बदला लेना चाहती हैं |
स्त्रियाँ कई बार इस डर से सच्ची प्रेम कविताएँ नहीं लिखतीं
कि वे एक लंबा शोकगीत बनने लगती हैं,
और उन्हें लगता है कि दिग-दिगन्त तक गूँजने लगेगा
एक दीर्घ विलाप |
स्त्रियाँ चाहती हैं कि एक ऐसी
सच्ची प्रेम कविता लिखें
जिसमें न सिर्फ़ मन की सारी आवारगियों, फंतासियों,
उड़ानों का, अपनी सारी बेवफ़ाइयों और पश्चातापों का
बेबाक़ बयान हो, बल्कि यह भी कि
बचपन से लेकर जवान होने तक
कब, कहाँ-कहाँ, अँधेरे में, भीड़ में , अकेले में,
सन्नाटे में, शोर में, सफ़र में, घर में, रात में, दिन में,
किस-किस ने उन्हें दबाया, दबोचा, रगड़ा, कुचला,
घसीटा, छीला, पीसा, कूटा और पछींटा
और कितनों ने कितनी-कितनी बार उन्हें ठगा, धोखा दिया,
उल्लू बनाया, चरका पढ़ाया, सबक सिखाया और
ब्लैकमेल किया |
स्त्रियाँ प्रेम कविताएँ लिखकर शरीर से भी ज़्यादा
अपनी आत्मा के सारे दाग़-धब्बों को दिखलाना चाहती हैं
लेकिन इसके विनाशकारी नतीज़ों को सोचकर
सम्हल जाती हैं |
स्त्रियाँ अक्सर प्रेम कविताएँ भावनाओं के
बेइख्तियार इजहार के तौर पर नहीं
बल्कि जीने के एक सबब, या औज़ार के तौर पर लिखती हैं |
और जो गज़ब की प्रेम कविताएँ लिखने का
दावा करती कलम-धुरंधर हैं
वे दरअसल किसी और चीज़ को प्रेम समझती हैं
और ताउम्र इसी मुगालते में जीती चली जाती हैं |
कभी अपवादस्वरूप, कुछ समृद्ध-कुलीन स्त्रियाँ
शक्तिशाली हो जाती हैं,
वे प्रेम करने के लिए एक या एकाधिक
पुरुष पाल लेती हैं या फिर खुद ही ढेरों पुरुष
उन्हें प्रेम करने को लालायित हो जाते हैं |
वे स्त्रियाँ भी उम्र का एक खासा हिस्सा
वहम में तमाम करने के बाद
प्रेम की वंचना में बची सारी उम्र तड़पती रहती हैं
और उसकी भरपाई प्रसिद्धि, सत्ता और
सम्भोग से करती रहती हैं |
स्त्रियाँ सच्ची प्रेम कविताएँ लिखने के लिए
यथार्थवादी होना चाहती हैं,
लेकिन जीने की शर्तें उन्हें या तो छायावादी बना देती हैं
या फिर उत्तर-आधुनिक |
जो न मिले उसे उत्तर-सत्य कहकर
थोड़ी राहत तो मिलती ही है !
सोचती हूँ, एस.एम.एस. और व्हाट्सअप ने
जैसे अंत कर दिया प्रेम-पत्रों का,
अब आवे कोई ऐसी नयी लहर
कि नक़ली प्रेम कविताओं का पाखण्ड भी मिटे
और दुनिया की वे कुरूपताएँ थोड़ी और
नंगी हो जाएँ जिन्हें मिटा दिया जाना है
प्रेम कविताओं में सच्चाई और प्रेम को
प्रवेश दिलाने के लिए |
सोशल मीडिया से प्राप्त
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