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रामचरित मानस के प्रारंभ में तुलसीदास ने दुष्ट (खल) प्रकृति के लोगों का गहन विश्लेषण किया है। तुलसीदास चोरों, डकैतों, लुटेरों, हत्यारों आदि को खल नहीं कहते। खल कुछ अलग, अस्वाभाविक किस्म के जीव हैं। खुद पढ़िये और गुनिये।
(1)
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें।
उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
आम आदमी अपना जीवन चलाने के लिए या रूपये-पैसे बनाने के लिए झूठ, ठगी चोरी आदि का प्रायः सहारा लेता है। पर खल बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के दूसरों को लूटते पिटते देखकर खुश होते हैं। किसी का घर उजड़ जाता है तो उनका हृदय खुशी से भर जाता है; और अगर किसी का घर बस जाता है या तरक्क़ी करने लगता है, तो उनको विषाद घेर लेता है
(2)
हरि हर जस राकेस राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी।
पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
खल लोग किसी की कीर्ति और यश सहन नहीं कर पाते। जैसे राहु चंद्रमा की धवल रौशनी को सिर्फ काटना जानता है, उसी प्रकार खल दूसरे के नाम पर सिर्फ कालिख पोतना जानते हैं। किसी में अगर हजार गुण हों तो दुष्टों को दिखायी नहीं देता, पर यदि उसमें एक भी अवगुण हो तो इसके लिए इनके कपाल में हजारों आँखे पैदा हो जाती हैं। किसी का भला करने के लिए इनके पास दो हाथ भी नहीं होते, पर किसी का काम बिगाड़ना हो, तो सहस्त्रबाहु के समान इनके शरीर में हजार हाथ पैदा हो जाते हैं। दूसरों की कीर्ति रूपी घी के लिए ये आदमी के रूप में मख्खी के समान होते हैं, यानि जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि उठाकर भी बिगाड़ने में तत्पर रहते हैं।
(3)
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा।
सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
खलों की यह प्रकृति है कि किसी का काम बनाने में हिलते-डुलते तक नहीं, बिगाड़ने के लिए अपना प्राण तक दे देते हैं। ये ओलों की तरह खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं। किसी के गुण की प्रशंसा के लिए इनके पास जुबान नहीं होती,पर किसी का दोष देखते ही इनके मुख में शेषनाग की हज़ार जिह्वायें पैदा हो जाती हैं।
(4)
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना।
पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
दुष्टों के पास किसी का पुण्य-कर्म सुनने के लिए कान नहीं होते, पर पाप-कर्म सुनने के लिए राजा पृथु के कानों की तरह दस हज़ार कान पैदा हो जाते हैं।
(5)
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही।
संतत सुरा नीक हित जेही॥
मदिरा इनको नीक और हितकारी लगती है। दूसरे शब्दों में, आदमी को पशु में परिवर्तित कर देने वाला पेय इन्हें उत्तम लगता है
(6)
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।
सहस नयन पर दोष निहारा॥
दुष्टों के मुख से सदा बज्र सदृष कठोर और कटु शब्द ही निकलते हैं। ये हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं॥
(7)
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति।।
दुष्टों की यह प्रकृति है कि वे अपना पराया, शत्रु या मित्र सभी का भी हित सुनकर जलते हैं।
यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह गरीब प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है।
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मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा।
तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा।
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
अंत में तुलसीदास अपने को और सभी को सावधान करते हैं कि दुष्ट कौओं के समान हैं। कौओं को कितना हूं प्रेम से पालिये, वे कभी निरामिष नहीं हो सकते। दुष्ट भी अपनी प्रवृत्ति कभी नहीं त्यागने वाले।
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