मानस की सर्वाधिक लोकप्रिय उक्तियाँ
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जैसे अंग्रेजी में शेक्सपियर, वैसे ही हिंदी में तुलसीदास सर्वाधिक उद्धृत किये जाने वाले कवि हैं। 16वीं सदी की सांस्कृतिक चेतना को समझने के लिए उनके मानस से बेहतर कृति कोई नहीं है। इसके अलावे, अपनी काव्यगत खूबियों के चलते मानस को हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृति होने का सौभाग्य प्राप्त है।
प्रस्तुत है तुलसी की 100 सर्वाधिक उद्धृत की जाने वाली पंक्तियां या प्रसंग। रामचरित मानस का सार (सकारात्मक या नकारात्मक) भी इन्हीं पक्तियों में है।
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बाल काण्ड
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1.
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई ॥
2.
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥
3..
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥
4.
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
5.
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥
6.
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥
7.
को बड़ छोट कहत अपराधू।
8.
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥
9.
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
10.
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥
11.
जस दूलहु तसि बनी बराता।
12.
बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा ॥
13.
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं।पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥
14.
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥
15.
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥
16.
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥
17.
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
18.
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥
19.
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
20.
जेहि पर जेहि कर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥
21.
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुके पुनि का पछताने।।
22.
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं ॥
23.
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं ॥
24.
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू ॥
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अयोध्या कांड
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25.
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती ॥
26.
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी ॥
27.
निज हित अनहित पसु पहिचाना ॥
28.
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई ॥
29.
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई ॥
30.
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना ॥
31.
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया ॥
32.
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला ॥
33.
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी ॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें ॥
34.
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ॥
35.
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी ॥
36.
औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु ॥
37.
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना ॥
38.
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ॥
39.
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी ॥
40.
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा ॥
41.
नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं ॥
42.
दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें ॥
43.
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
44.
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥
45.
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ॥
46.
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना ॥
47..
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ॥ ३१५ ॥
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अरण्य काण्ड
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48.
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी ॥
49..
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥
50...
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥
51.
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
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किष्किंधा काण्ड
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52.
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥
53.
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ॥
54.
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी ॥
55.
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई ॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ॥
56.
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥
इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई ॥
57.
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना ॥
58.
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
59.
उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई ॥
60.
सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
61.
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥
62.
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥
63.
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥
राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ॥
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सुन्दर काण्ड
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64.
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
65.
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा ॥
66.
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥
67.
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
68.
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥
69.
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥
70.
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
71.
जहाँ सुमति तहँसंपति नाना। जहाँकुमति तहँ बिपति निदाना ॥
72.
जानि न जाइ निसाचर माया।
73.
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ ४३ ॥
74.
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
75.
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
76..
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा ॥
77.
भय बिनु होइ न प्रीति ॥
78.
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी ॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥
79.
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।
80.
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी ॥
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लंका काण्ड
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81.
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥
82.
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया ॥
83.
फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँन चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम
84.
हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना ॥
85.
सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना ॥
86.
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ॥
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥
अस बिचारि जियँजागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ॥
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं ॥
87.
पर उपदेस कुसल बहुतेरे।
88.
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ॥
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे ॥
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा ॥
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँन कतहुँ रिपु ताकें ॥
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥
89.
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा ॥
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उत्तर काण्ड
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90.
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी ॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी ॥
91.
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी ॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई ॥
92.
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी ॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों ॥
झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना ॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा ॥
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न ॥
93.
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा ॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥
94.
नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥
95.
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा ॥
96.
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥
97.
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही ॥
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं ॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें ॥
98.
जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ॥
99.
कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ॥
100.
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥
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