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Thursday, 30 June 2022

लेकिन यहां ईडी ईडी क्यों नहीं? *


  1) पंकजा मुंडे 206 करोड़ चिक्की घोटाला
2) पंकजा मुंडे 7200 करोड़ THR घोटाला
3) देवेंद्र फडणवीस- ​​1700 करोड़ सिडको खारघर भूमि घोटाला
4) देवेंद्र फडणवीस- ​​मुंबई डीपी घोटाला
5) देवेंद्र फडणवीस: 2800 करोड़ यूएलसी भूमि घोटाला
6) देवेंद्र फडणवीस: महा ई-परीक्षा पोर्टल घोटाला
7) प्रकाश मेहता: एमपी मिल कंपाउंड एफएसआई घोटाला 1200 करोड़
8) सुभाष देशमुख: 2000 करोड़ का घोटाला
9) सुभाष देशमुख: लोकमंगल फर्जी दस्तावेज अनुदान धोखाधड़ी घोटाला
10) जयकुमार रावल तोरणमल हिल रिज़ॉर्ट घोटाला 49 करोड़ रु
11) जयकुमार रावल का रावल बैंक घोटाला 369 करोड़ रु
12) जयकुमार रावल गढ़ किला होटल बेचने का कांड
13) विनोद तावड़े अग्निशामक खरीद घोटाला 191 करोड़ रु
14) विनोद तावड़े 114 करोड़ रुपये राष्ट्रपुरुष चित्र और अर्ली रीडर्स पुस्तक खरीद घोटाला
15) विष्णु सावर आदिवासी छात्र साहित्य खरीद घोटाला
16) गिरीश बापट तुर्दल घोटाला
17) आंगनबाडी मोबाइल खरीद, सेनेटरी नैपकिन घोटाला
18) बीएमसी सड़क घोटाला, सफाई न करने वाला घोटाला
19) धर्म पाटिल मंत्रालय किसान आत्महत्या मामले में दोंडई भूमि अधिग्रहण घोटाला
20) चंद्रकांत पाटिल पुणे भूमि घोटाला
21) देवेंद्र फडणवीस, चंद्रकांत पाटिल, मेटे ने बिना एक ईंट रखे 80 करोड़ शिवसेना स्मारक घोटाला किया।
 22) वैद्यनाथ चीनी कारखाना पंकजताई के अध्यक्ष के साथ लगभग 900 करोड़ रुपये बकाया है। सैकड़ों करोड़ का नुकसान।

अगर उन्हें ईडी दिया गया तो बीजेपी को बड़ी इनकम कैसे मिलेगी?
 बीजेपी के करोड़ों करोड़?
*बीजेपी - मतभेद वाली पार्टी*

Wednesday, 29 June 2022

तो आप लेखक बनना चाहते हैं चार्ल्स बुकोवस्की »



मत लिखो —
अगर फूट के ना निकले
बिना किसी वजह के
मत लिखो।

अगर बिना पूछे-बताए ना बरस पड़े,
तुम्हारे दिल और दिमाग़
और जुबाँ और पेट से
मत लिखो।

अगर घण्टों बैठना पड़े
अपने कम्प्यूटर को ताकते 
या टाइपराइटर पर बोझ बने हुए
खोजते कमीने शब्दों को
मत लिखो।

अगर पैसे के लिए
या शोहरत के लिए लिख रहे हो
मत लिखो।

अगर लिख रहे हो
कि ये रास्ता है
किसी औरत को बिस्तर तक लाने का
तो मत लिखो।

अगर बैठ के तुम्हें
बार-बार करने पड़ते हैं सुधार
जाने दो।

अगर लिखने की बात सोचते ही
होने लगता है तनाव
छोड़ दो।

अगर किसी और की तरह
लिखने की फ़िराक़ में हो
तो भूल ही जाओ
अगर वक़्त लगता है
कि चिंघाड़े तुम्हारी अपनी आवाज़
तो उसे वक़्त दो
पर ना चिंघाड़े ग़र फिर भी
तो सामान बाँध लो।

अगर पहले पढ़ के सुनाना पड़ता है
अपनी बीवी या प्रेमिका या प्रेमी
या माँ-बाप या अजनबी आलोचक को
तो तुम कच्चे हो अभी।

अनगिनत लेखकों से मत बनो
उन हज़ारों की तरह
जो कहते हैं खुद को 'लेखक'
उदास और खोखले और नक्शेबाज़
स्व-मैथुन के मारे हुए।
दुनिया भर की लाइब्रेरियां
त्रस्त हो चुकी हैं
तुम्हारी क़ौम से 
मत बढ़ाओ इसे।

दुहाई है, मत बढ़ाओ।
जब तक तुम्हारी आत्मा की ज़मीन से
लम्बी-दूरी के मारक रॉकेट जैसे
नहीं निकलते लफ़्ज़,
जब तक चुप रहना
तुम्हें पूरे चाँद की रात के भेड़िए-सा
नहीं कर देता पागल या हत्यारा,
जब तक कि तुम्हारी नाभि का सूरज
तुम्हारे कमरे में आग नहीं लगा देता
मत मत मत लिखो।

क्यूंकि जब वक़्त आएगा
और तुम्हें मिला होगा वो वरदान
तुम लिखोगे और लिखते रहोगे
जब तक भस्म नहीं हो जाते
तुम या यह हवस।

कोई और तरीका नहीं है
कोई और तरीका नहीं था कभी।

मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : विवेक मिश

Saturday, 25 June 2022

जल, जमीन और जंगल की लड़ाई और द्रौपदी मुर्मू

जल, जमीन और जंगल की लड़ाई और द्रौपदी मुर्मू
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राज कुमार शाही
सदस्य, प्रगतिशील लेखक संघ, पटना।
   आज देश में आदिवासी समाज के उपर अभूतपूर्व रूप से दमन किया जा रहा है इस समाज में सबसे अधिक आक्रोश सरकार की जनविरोधी आर्थिक नीतियों को लेकर है। जंगल जो आदिवासी समाज का जीविका का सबसे बड़ा साधन रहा है उसे कारपोरेट घरानों के हाथों बेचा जा रहा है। देश में जब से नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ना शुरू किया है उसके बाद सबसे अधिक दोहन आदिवासियों का किया जाता रहा है। इसके लिए एक से बढ़कर एक कानून बनाकर जंगल एवं उनके जीविका से वंचित करने का कुत्सित प्रयास तथाकथित विकास के इस मॉडल को लेकर किया गया है। इसके चलते आदिवासी समाज लगातार आंदोलित होता रहा है इसके कारण उन्हें अपनी जान देनी पड़ी है। द्रौपदी मुर्मू झारखंड में राज्यपाल के रूप में अपनी जवाबदेही बड़े हीं गर्व के साथ निभाई है इस दौरान न जाने कितने आदिवासियों को नक्सली कहकर जेलों में बंद किया गया साथ ही साथ न जाने कितने को राजद्रोह कानून लगा आजीवन जेलों में बंद कर दिया गया लेकिन इन्होंने राजधर्म का पालन किया। कभी भी आदिवासी समाज के पक्ष में बोलते हुए या कहें उनके हक अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए उन्हें नहीं देखा गया।फादर स्टेन के उपर राजद्रोह कानून एवं पत्थलचट्टी में आदिवासियों के आंदोलन में भी आंदोलन कर रहे आदिवासियों का साथ नहीं दिया अपितु उनके उपर विभिन्न दमनकारी क़ानून को लागू करने में पूरी मजबूती के साथ खड़ी रही। उड़ीसा में भी अपने मंत्रित्व काल में आदिवासियों के उपर गोली चलाई गई और मूकदर्शक बनी रही। आज जब फिरकापरस्त ताकतें अपने विचारों को लेकर काफी उत्साहित हैं उन्हें अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर इस समुदाय के उपर व्यापक पैमाने पर दमन का रोड़ मैप तैयार कर लिया है। हसदेव अरण्य बचाओ आंदोलन छत्तीसगढ़ के दवाब  में करीब दो लाख पेड़ों को काट कर अडानी को सौंपने की कारवाई को लेकर फिलहाल भारी विरोध के चलते रोक दिया गया है लेकिन आंदोलनकारियों को आज भी शंका बनी हुई है। पर्यावरण संकट जिसके कारण जलवायु परिवर्तन आने वाले दिनों में पूरे मानव समाज को गहरे संकट में डाल देगा। इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाला तबका मजदूर, किसान और आदिवासी समाज ही होगा। वैसे भी रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति रहते हुए दलितों के उपर दमन बढ़ा है। आज पहचान की राजनीति से ऊपर उठकर मुद्दों की राजनीति करने की जरूरत है। लोगों के अंदर व्यापक पैमाने पर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं का निजीकरण किए जाने को लेकर गुस्सा है।आम आवाम अपनी मूल भूत आवश्यकताओं को पूरा करने में अमानुषिक रूप से परिश्रम करने को विवश है फिर भी वह पूरा कर पाने में अक्षम है, इसके चलते युवाओं में हताशा और निराशा की भावना इस कदर हावी हो गई है कि वह आत्महत्या करने जैसी कदम उठाने को विवश है। आज आर्थिक नीतियों में व्यापक पैमाने पर बदलाव किए बिना आखिर समाज के बड़े हिस्से को जो हाशिए पर चले गए हैं उन्हें बेहतर जीवन जीने की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है।हाल में वैश्विक स्तर पर सबसे खुशहाल देशों की सूची में भारत का स्थान अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान एवं बंगलादेश से भी नीचे है। वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2022 के मुताबिक फिनलैंड सबसे खुशहाल देश है जबकि अफगानिस्तान सबसे निचले पायदान पर है। इस रिपोर्ट में अमेरिका 16वें स्थान,  चीन 72 वें स्थान,  बांग्लादेश 94वें स्थान,  पाकिस्तान 121 वें स्थान पर जबकि भारत 136 वें स्थान पर रखा गया है। फिनलैंड जैसे देश में खुशहाली का राज़ यह है कि इस देश में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं सरकारी क्षेत्र में है और यह सार्वभौमिक रूप से निशुल्क है।

Alexander Zinoviev on Stalin and the Dissolution of the USSR

The Stalin Society of North America

The Remorse of a Dissident: Alexander Zinoviev on Stalin and the Dissolution of the USSR
Scholarship
May 27 
Written By SSNA Admin
SPECIAL TO 
IN DEFENSE OF COMMUNISM.

Alexander Zinoviev (1922-2006) was a Russian philosopher, sociologist, mathematician and writer. He is an extraordinary case of a dissident in the Soviet Union who later apologized for his anti-sovietism and anti-stalinism. In his youth, in 1939, he was arrested for allegedly involved in a plot to assassinate Joseph Stalin. As a head and professor of the Logic Department at Moscow State University, Zinoviev acquired a dissident reputation. In 1978 he left the Soviet Union - he lived in Western Europe until 1999.

Having the opportunity to live both the socialist system in the USSR and Western Europe's capitalism, Zinoviev made a u-turn in his thoughts after the counterrevolutionary events in the Soviet Union (1989-1991). He profoundly regreted for his previous anti-soviet stance and even asked from the Russian people to forgive him for that.

He wrote in one of his books:

"...communism was so organic for Russia and had so powerfully entered the way of life and psychology of Russians that the destruction of communism was equivalent to the destruction of Russia and of the Russian people as a historic people. […] In a word, they [Western cold warriors] aimed at communism but killed Russia". (Alexander Zinoviev, Russkaya tragediya (originally published in 2002), in AZ, Nesostoyavshiisya proekt, Moscow: Astrel' 2009, p.409).

In an interview, in 2005, he said that his arrest in 1939 was justifiable, as long as he was member of a plot aimed at Stalin's assassination. As for Joseph Stalin- whom he hated for most of his life- he said in 1993:

"I consider him one of the greatest persons in the history of mankind. In the history of Russia he was, in my opinion, even greater than Lenin. Until Stalin's death I was anti-Stalinist, but I always regarded him as a brilliant personality." (Знаменитости).

* * *

Regarding his anti-stalinism and his arrest for plotting Stalin's assassination Alexander Zinoviev said:

"I was already a confirmed anti-Stalinist at the age of seventeen .... The idea of killing Stalin filled my thougths and feelings .... We studied the 'technical' possibillities of an attack .... We even practiced. If they had condemned me to death in 1939, their decision would have been just. I had made up a plan to kill Stalin; wasn't that a crime? When Stalin was still alive, I saw things differently, but as I look back over this century, I can state that Stalin was the greatest individual of this century, the greatest political genius. To adopt a scientific attitude about someone is quite different from one's personal attitude."

Zinoviev was not a communist or a Marxist-Leninist. However, after the overthrow of Socialism in the USSR, he became a staunch supporter of the socialist system's achievements. He recognized that, despite its problems and inefficiences, the socialist system was much more humane than capitalism barbarity.

Here are some interesting remarks from his interview in the french Figaro Magazine (1999):

Question: So the fight with communism was a conspiracy to destroy Russia?

ZINOVIEV: Precisely. I say this because once I was an unwitting accomplice of this action that I found shameful. The West wanted and programmed the Russian catastrophe. I read documents and participated in the research, which under the guise of ideological struggle worked towards the destruction of Russia. This became so unbearable for me that I could no longer stay in the camp of those who destroy my people and my country. The West is not a stranger to me, but I consider it an enemy empire.

"After the fall of communism in Eastern Europe, a massive attack on the social rights of citizens was launched in the West. Today the socialists who are in power in most European countries are pursuing policies of dismantling the social security system, destroying everything that was socialist in the capitalist countries. There is no longer a political force in the West capable of protecting ordinary citizens. The existence of political parties is a mere formality. They will differ less and less as time goes on. The war in the Balkans was anything but democratic. Nevertheless, the war was perpetrated by the socialists who historically have been against these kinds of ventures. Environmentalists, who are in power in some countries, welcomed the environmental catastrophe caused by the NATO bombings. They even dared to claim that bombs containing depleted uranium are not dangerous for the environment, even though soldiers loading them wear special protective overalls. Thus, democracy is gradually disappearing from the social structure of the West. Totalitarianism is spreading everywhere because the supranational structure imposes its laws on individual states. This undemocratic superstructure gives orders, imposes sanctions, organizes embargos, drops bombs, causes hunger. Even Clinton obeys it. Financial totalitarianism has subjugated political power. Emotions and compassion are alien to cold financial totalitarianism. Compared with financial dictatorship, political dictatorship is humane. Resistance was possible inside the most brutal dictatorships. Rebellion against banks is impossible."

"A western citizen is being brainwashed much more than a soviet citizen ever was during the era of communist propaganda. In ideology, the main thing is not the ideas, but rather the mechanisms of their distribution. The might of the Western media, for example, is incomparably greater than that of the propaganda mechanisms of the Vatican when it was at the zenith of its power. And it is not only the cinema, literature, philosophy - all the levers of influence and mechanisms used in the promulgation of culture, in its broadest sense, work in this direction. At the slightest impulse all who work in this area respond with such consistency that it is hard not to think that all orders come from a single source of power".

"In the Soviet Union 10 to 12% of the active population worked in the country's management and administration field. In the US this number is 16 to 20%. However the USSR was criticized for its planned economy and the burden of bureaucratic apparatus. Two thousand people worked in the Central Committee of the Communist Party. The Communist Party apparatus reached 150 thousand workers. Today in the West you will find dozens, even hundreds of enterprises in industrial and banking sectors employing more people. The bureaucratic apparatus of the Soviet Communist Party was negligibly small compared with the staff of large transnational corporations of the West".



SSNA Admin
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Monday, 20 June 2022

अग्निपथ से क्रांतिपथ



चार साल बाद बेरोजगार अग्निवीरों  को क्रांतिपथ पर चलना ही होगा। आज जो सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट कर रहे है, कल रक्षा करना होगा और कॉर्पोरेट निजी संपत्ति को भी सामाजिक संपत्ति बनाने के पथ पर चलना होगा, तभी उनका भविष्य सुरक्षित हो पायेगा। देर- सवेर उन्हें सही फैसला लेना ही होगा, मजदूरों किसानों के साथ मिल कर लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को इतिहास के कूड़ेदान में फेकना ही होगा।

Sunday, 19 June 2022

काली कमाई के रास्ते

*काली कमाई के रास्ते खत्म कर दिए जाएँ , नोट बंदी की जरूरत ही क्यों होगी ?*
*मैं एक डॉक्टर हूं, और इस लिए*
*" सभी ईमानदार डॉक्टर्स से क्षमा सहित प्रार्थना ...! "*
• ........*हार्ट अटैक " हो गया ...डॉक्टर कहता है -*  *Streptokinase इंजेक्शन ले के आओ ... 9,000/= रु का* ... *इंजेक्शन की असली कीमत 700/= - 900/= रु के बीच है .., पर उसपे MRP 9,000/= का है !* *आप क्या करेंगे ?*
•..............*टाइफाइड हो गया ...*
*डॉक्टर ने लिख दिया -* *कुल 14 Monocef लगेंगे ! होल - सेल दाम 25/= रु है ... अस्पताल का केमिस्ट आपको 53/= रु में देता है ...* *आप क्या करेंगे ??*
•............,,,,*किडनी फेल हो गयी है .., *हर तीसरे दिन Dialysis होता है .., Dialysis के बाद एक इंजेक्शन लगता है - MRP शायद 1800 रु है !* 
*आप सोचते हैं की बाज़ार से होलसेल मार्किट से ले लेता हूँ ! पूरा हिन्दुस्तान आप खोज मारते हैं , कही नहीं मिलता ... क्यों ?*
*कम्पनी सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर को सप्लाई देती है !!*
*इंजेक्शन की असली कीमत 500/= है , पर डॉक्टर अपने अस्पताल में MRP पे यानि 1,800/= में देता है ...* *आप क्या करेंगे ??*
*..........इन्फेक्शन हो गया है .., डॉक्टर ने जो Antibiotic लिखी , वो 540/= रु का एक पत्ता है .., वही Salt किसी दूसरी कम्पनी का 150/= का है और जेनेरिक 45/= रु का ... पर केमिस्ट आपको मना कर देता है .., नहीं जेनेरिक हम रखते ही नहीं , दूसरी कम्पनी की देंगे नहीं .., वही देंगे , जो डॉक्टर साहब ने लिखी है ... यानी 540/= वाली ?* *आप क्या करेंगे ??*
• *बाज़ार में *Ultrasound Test 750/= रु में होता है .., चैरिटेबल डिस्पेंसरी 240/= रु में करती है ! 750/= में डॉक्टर का कमीशन 300/= रु है !*
*MRI में डॉक्टर का कमीशन Rs. 2,000/= से 3,000/= के बीच है !*
*डॉक्टर और अस्पतालों की ये लूट , ये नंगा नाच , बेधड़क , बेखौफ्फ़ देश में चल रहा है !*
*Pharmaceutical कम्पनियों की Lobby इतनी मज़बूत है , की उसने देश को सीधे - सीधे बंधक बना रखा है !*
*डॉक्टर्स और दवा कम्पनियां मिली हुई हैं ! दोनों मिल के सरकार को ब्लैकमेल करते हैं ...!!*
*सबसे बडा यक्ष प्रश्न*

*मीडिया दिन रात क्या दिखाता है ?*
*गड्ढे में गिरा प्रिंस .., बिना ड्राईवर की कार , राखी सावंत , Bigboss , सास बहू और साज़िश , सावधान , क्राइम रिपोर्ट , Cricketer की Girl Friend , ये सब दिखाता है , किंतु ... Doctor's , Hospital's और Pharmaceutical company कम्पनियों की , ये खुली लूट क्यों नहीं दिखाता ?*
*मीडिया नहीं दिखाएगा , तो कौन दिखाएगा ?*
*मेडिकल Lobby की दादागिरी कैसे रुकेगी ?*
*इस Lobby ने सरकार को लाचार कर रखा है ?*
*Media क्यों चुप है ?*
*20/= रु मांगने पर ऑटोरिक्सा वाले को , तो आप कालर पकड़ के मारेंगे , ..!*
*डॉक्टर साहब का क्या करेंगे ???*

*यदि आपको ये सत्य लगता है , तो कर दो फ़ॉरवर्ड , सब को ! जागरूकता लाइए और दूसरों को भी जागरूक बनाने में अपना सहयोग दीजिये !!!*
*The Makers of Ideal Society* 
        *एक सोच बदलाव की* . . . . . *Request From:-  Indian*

*आप पांच को भेज दो और वो पांच लोग , अगले पांच लोगो को जरूर भेज देगे ! यदि सबने इस प्रकार से पांच पांच को भेजा तो देखते ही देखते सारा देश जुड़ जायेगा।*



अग्निवीर योजना

अग्निवीर योजना के तहत क्या भाजपा सरकार भविष्य में बेरोजगारों की ऐसी फौज खड़ी करने जा रही है जिसे सेना में काम करने का अनुभव होगा?  सैन्य अनुभव वाले बेरोजगारों की ये फौज क्या मजदूर क्रांति का सहयोगी और पूंजीवाद के लिये खतरा बन सकता है? पूंजीवाद इन्हें सिर्फ चार साल के लिए ही काम की गारंटी दे पा रहा है जबकि मजदूरों के नेतृत्व में समाजवादी राज्य इन्हें जीवन भर के लिए काम की गारंटी दे सकता है। 

Tuesday, 14 June 2022

आफ़रीन का घर तोड़े जाना गैर-कानूनी

इलाहाबाद हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश गोविंद माथुर ने आफ़रीन का घर तोड़े जाने पर कहा कि "ये पूरी तरह से गैरकानूनी है.यदि यह मान भी लिया जाए कि उस घर को गैरकानूनी तरीके से बनाया गया था,जैसा कि करोड़ों भारतीय इसी तरह रहते हैं,फिर भी यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि आप उस घर को तोड़ दें,जबकि वह व्यक्ति हिरासत में है. यहां कोई तकनीकी मामला नहीं है, यह कानून का सवाल है."

कबीर दास

मान्यता है कि आज कबीर दास जी की जयंती है। उनके दोहों में पाखंडवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार है। 

कबीर कहते हैं, 
"पत्थर पूजे हरी मिले, 
तो मैं पूजूँ पहाड़
घर की चाकी कोई ना पूजे, 
जाको पीस खाए संसार।"
और ये उस समय जब ब्राह्मणवाद का भयंकर बोलबाला था। इसी तरह, 
"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, 
पंडित भया न कोय, 
ढाई आखर प्रेम का, 
पढ़े सो पंडित होय।"
यानि असल बात इंसान से इंसान का प्रेम है और पोथियाँ पढ़ने से अगर कोई ये नहीं सीखता तो बेकार है। 

कबीर कहते हैं, 
"जाति न पूछो साधु की, 
पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का, 
पड़ा रहन दो म्यान।"

ऐसे ही हिन्दू-मुस्लिम के झगड़े पर कबीर कहते हैं, 
"हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, 
तुर्क कहें रहमान,
आपस में दोउ लड़ी मुए, 
मरम न कोउ जान।" 
यानि हिन्दू कहता है कि मेरा ईश्वर राम है और मुस्लिम ककहता है अल्लाह है – इसी बात पर दोनों लोग लड़ कर मर जाते हैं, लेकिन फिर भी सच कोई समझ नहीं पाता।

आप सोचिए ये बात कबीर 500 साल पहले कह रहे थे! इसी तरह वे  ब्राह्मणवाद पर चोट करते हुए कहते हैं, 
"मल-मल धोए शरीर को, 
धोए न मन का मैल। 
नहाए गंगा गोमती, 
रहे बैल के बैल।" 
यानि इंसान अपने मन की गंदगी को धोए बिना सोचता है कि सिर्फ गंगा नहाने से पाप धुल जाएंगे। 

उनका एक और सीधा प्रहार है, 
"लाडू लावन लापसी, पूजा चढ़े अपार पूँजी पुजारी ले गया, मूरत के मुह छार !!" यानि मंदिर का चढ़ावा पंडितों के पेट में जाता है भगवान के पास नहीं।

अन्तर्धार्मिक शादी

"वसुधैव कुटुंबकम्" वाली भारतीय संस्कृति में तो इंसान के तौर पर सभी बराबर हैं। प्यार करना कोई ग़लत नहीं है। मगर वर्गों में बँटे समाज में ये तो एक जुमला भर रह जाता है।

  पिछले हफ्ते अम्बेडकर नगर के एक गाँव में गए थे, हमारे साथी ने बताया कि बगल वाला गाँव ब्राह्मणों का है, ज्यादातर लोग गरीब हैं। उस गाँव की चार-पाँच लड़कियां मुसलमान लड़कों के साथ प्यार करके भाग कर शादी कर ली हैं, जिससे उस गाँव के हिन्दुओं में मुसलमानों के खिलाफ नफरत बहुत ज्यादा है। और दामाद बन चुके वे लड़के अगर मिल जायें तो नफरती भीड़ उनका क्या हाल बना देगी, यह समय ही बताएगा। यह नफरत यूँ ही नहीं है। ऐसे लड़की पक्ष वाले गरीब हैं तो उनको सोशल बायकाट झेलना पड़ता है।

  अब जरा शोषक वर्ग के बड़े नेताओं की ओर देखिए, उनमें भी कई नेताओं की बहन-बेटियाँ मुसलमानों के साथ प्यार करके शादी भी कर चुकी हैं, बाकायदा उनका अरेंज मैरेज हुआ है, और दामाद की खातिरदारी में भी वे कोई कमी आज तक नहीं करते।  वे बड़े नेता लोग कभी भी अपने विधर्मी बहनोईयों व दामादों से घृणा नहीं करते, उनसे उनके अच्छे संबन्ध हैं।  इनमें से कई नेता हिन्दू धर्म के स्वयंभू ठेकेदार भी बने हुए हैं। कोई भी इन नेताओं का  सोशल बायकाट नहीं करता।

 ये फर्क क्यूँ है? अन्तर्धार्मिक शादी करके एक व्यक्ति सोशल बायकाट झेलता है, और दूसरा व्यक्ति धर्म का ठेकेदार बन जाता है। ऐसा क्यूँ? दोनों तो हिन्दू ही हैं। फिर यह  फर्क क्यूँ है।
 दरअसल यह फर्क है- अमीर और गरीब का, जिसे नजरअंदाज करके गरीब लोग जाति- धर्म के नाम पर आपस में लड़ रहे हैं, जब कि  अमीर लोग धार्मिक भेदभाव भुलाकर एक हो गए हैं। वे गरीबों को धर्म के नाम पर लड़ाने के लिए धर्म के ठेकेदार बन बैठे हैं।

दरअसल आर्थिक रूप से सभी बराबर नहीं हैं, इस लिए अमीरों को तो धर्म का भेदभाव भुला कर आपस में प्यार करने की पूरी छूट है जब कि गरीबों को जाति-धर्म का भेदभाव भुला कर आपस में प्यार करने की छूट कानून तो देता है मगर समाज नहीं देता।  पूंजीवादी साम्राज्यवादिओं का कानून तो छूट देता है मगर सामाजिक बहिष्कार की सामंती परम्परा इस कानून पर भारी पड़ रही है। दरअसल संविधान में एक तरफ विधि के समक्ष समता की लफ्फाजी है तो वहीं दूसरी तरफ जाति धर्म के नाम पर नफरत फ़ैलाने वालों को भी कानून ने ढील दे रखी है। यह कानून साव से कहता है जागो, चोर से कहता है लूटो।
           रजनीश भारती
       जनवादी किसान सभा


Monday, 13 June 2022

मेघालय की तीन प्रमुख जनजाति


मेघालय में खासी परिषद ने जनजाति से बाहर की महिलाओं से शादी करने पर एसटी का दर्जा छीनने के लिए विधेयक पारित किया |
  
खासी मेघालय की तीन प्रमुख जनजातियों में से एक हैं, अन्य गारो और जयंतिया हैं, जो एक मातृवंशीय समाज का पालन करती हैं। बच्चे अपनी मां का उपनाम लेते हैं और पैतृक संपत्ति सबसे छोटी बेटी को विरासत में मिलती है। (प्रतिनिधि फोटो)


https://www-hindustantimes-com.translate.goog/india-news/khasi-council-in-meghalaya-passes-bill-to-strip-women-of-st-status-rights-if-they-marry-outside-tribe/story-HG5fych7nfD1VD9EiwbteM.html?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc,sc 

सुरेंद्र प्रताप सिंह की रचनाओं का संकलन

अगर गैलीलियो, कोपरनिकस और ब्रूनो आदि ने कैथलिक आस्था पर चोट न मारी गई होती तो बेचारा बड़ा सा सूरज दुनिया के काफ़ी लोगों के लिए अब भी एक छोटी-सी चपटी धरती के चारों ओर गोल-गोल घूम रहा होता.

फिर दुनिया में न साइंटिफिक रिवोल्यूशन हुआ होता, न औद्योगिक क्रांति का रास्ता खुला होता.

अगर कबीर से लेकर फुले और पेरियार ने चोट न मारी होती तो भारत में आज भी इंसान मुँह और पैर से पैदा हो रहे होते. हिंदू आस्था पर चोट न पड़ती तो गणेश की मूर्तियां शायद अब तक दूध पी रही होतीं.

आस्था पर चोट से दर्द होता है. सही बात है. पर क्या किया जा सकता है? करना पड़ता है. गैलीलियो ने  किया, कोपरनिकस और ब्रुनो ने किया. वाल्टेयर ने किया. अपने देश में कबीर, फुले और पेरियार ने किया. बाबा साहब ने Riddles in Hinduism लिखी.

जब गणेश की मूर्तियां दूध पी रही थीं तो भारतीय पत्रकारिता के महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह ने दुरदर्शन पर अपने आधे घंटे के कार्यक्रम 'आज तक' (अब का आजतक कुछ और बन चुका है) में दिखाया था कि अगर गणेश की मूर्तियां दूध पीती हैं तो मोची का जूते ठोंकने वाला तिपाया भी उसी तरह गटागट दूध पीता है.

जब बाक़ी पत्रकार चमत्कार देख कर नमस्कार कर रहे थे तो सुरेंद्र प्रताप सिंह विज्ञान के सिद्धांत दिखा रहे थे.

आस्था के प्रतीक गणेश के मुकाबले मोची का तिपाया एक तीखा प्रतीक था.

दर्द हुआ होगा. लेकिन इस तरह एक अफवाह की 12 घंटे से कम समय में मौत सुनिश्चित हो गई. 

आर. अनुराधा ने सुरेंद्र प्रताप सिंह की रचनाओं का संकलन किया था, जो काफ़ी श्रमसाध्य काम था. 

बाल श्रम

भारत में 5 से 14 साल के बच्चों की कुल संख्या 25.96 करोड़ है. इनमें से 1.01 करोड़ बच्चे श्रम करते हैं, यानी कामगार की भूमिका में हैं. आंकड़ों से पता चलता है कि 5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख बच्चे काम करते हैं. 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75.95 लाख बच्चे कामगार हैं.

जबकि बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) संशोधन अधिनियम, 2016  14 साल से कम उम्र के बच्चों के रोजगार पर पूरी तरह से रोक लगाता है.

बच्‍चों की घटिया शिक्षा वाली सूची में दूसरे नंबर पर भारत, वर्ल्‍ड बैंक की रिपोर्ट ने खोली पोल


विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत उन 12 देशों की सूची में दूसरे नंबर पर है जहां दूसरी कक्षा के छात्र एक छोटे से पाठ का एक शब्द भी नहीं पढ़ पाते। विश्व बैंक के अनुसार, 12 देशों की इस सूची में मलावी पहले स्थान पर है। भारत समेत निम्न और मध्यम आय वाले देशों में अपने अध्ययन के नतीजों का हवाला देते हुए विश्व बैंक ने कहा कि बिना ज्ञान के शिक्षा देना ना केवल विकास के अवसर को बर्बाद करना है बल्कि दुनियाभर में बच्चों और युवा लोगों के साथ बड़ा अन्याय भी है। विश्व बैंक ने कल अपनी ताजा रिपोर्ट में वैश्विक शिक्षा में ''ज्ञान के संकट'' की चेतावनी दी। उसने कहा कि इन देशों में लाखों युवा छात्र बाद के जीवन में कम अवसर और कम वेतन की आशंका का सामना करते हैं क्योंकि उनके प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल उन्हें जीवन में सफल बनाने के लिए शिक्षा देने में विफल हो रहे हैं।

लेनिन ' राज्य के बारे में ' . 11 जुलाई , 1919

कोई जनतंत्र चाहे किसी भी रूप में अपने को छुपाये , उसे सबसे जनवादी जनतंत्र होने दीजिए , पर अगर वह बुर्जुआ जनतंत्र है , यदि उसमें जमीन पर , मिलों और कारखानों पर निजी स्वामित्व बना रहता है तथा निजी पूंजी पूरे समाज को उजरती दासता में रखती है , याने जनतंत्र में उन बातों की पूर्ति नहीं होती , जिनकी हमारी पार्टी के कार्यक्रम तथा सोवियत संविधान में घोषणा की गई है , तो वह राज्य एक द्वारा दूसरे का उत्पीड़न कराने वाली मशीन है। और हम यह मशीन उस वर्ग के हाथों में सौंप देंगे ,जिसे पूंजी की सत्ता को उलटना होगा। हम इन सब पुराने पूर्वाग्रहों को ठुकरा देंगे कि राज्य सर्वजनीन समानता  है - यह धोखा है : जब तक शोषण है ,तब तक समानता नहीं हो सकती । जमींदार मजदूर के, भूखा व्यक्ति पेट भरे व्यक्ति के समान नहीं हो सकता। इस मशीन को , जिसे राज्य कहते हैं , जिसके आगे लोग अंधविश्वासपूर्ण आदर  भावना के साथ खड़े होते हैं तथा इन पुरानी दंतकथाओं पर विश्वास करते हैं कि राज्य सर्वजनीन सत्ता है - इस मशीन को सर्वहारा वर्ग फेंक देता है और कहता है : यह बुर्जुआ झूठ है । हमने यह मशीन पूंजीपतियों से छीन ली है ,इसे अपने पास रख लिया है । इस मशीन या डंडे से हम समस्त शोषण को नष्ट करेंगे और जब संसार में शोषण की संभावना नहीं रह जायेगी , जमीन के स्वामी , कारखानों के स्वामी नहीं रह जायेंगे , ऐसा नहीं होगा कि एक छककर भोजन किये हुए हो और दूसरा भूखा मर रहा हो - केवल तब , जब इसकी कोई संभावना नहीं रह जायेगी , हम इस मशीन को कूड़े के ढेर में फेंक देंगे । तब राज्य नहीं रहेगा , शोषण नहीं रहेगा । यह है हमारी कम्युनिस्ट पार्टी का दृष्टिकोण ।
‌ - लेनिन     ' राज्य के बारे में '                 11 जुलाई , 1919                       स्वेर्दलोव विश्वविद्यालय में व्याख्यान

Saturday, 11 June 2022

।दिलरुबा के सुर।



हमारे कन्धे इस तरह बच्चों को उठाने के लिये नहीं बने हैं
क्या यह बच्चा इसलिये पैदा हुआ था
तेरह साल की उम्र में 
गोली खाने के लिये

क्या बच्चे अस्पताल जेल और क़ब्र के लिये बने हैं
क्या वे अन्धे होने के लिये बने हैं

अपने दरिया का पानी उनके लिये बहुत था
अपने पेड़ घास पत्तियां और साथ के बच्चे उनके लिये बहुत थे

छोटा-मोटा स्कूल उनके लिये 
बहुत था
ज़रा सा सालन और चावल उनके लिये बहुत था
आस-पास के बुज़ुर्ग और मामूली लोग उनके लिये बहुत थे
वे अपनी मां के साथ फूल पत्ते लकड़ियां चुनते
अपना जीवन बिता देते  
मेमनों के साथ हंसते खेलते 

वे अपनी ज़मीन पर थे 
अपनों के दुख - सुख में थे 
तुम बीच में कौन हो

सारे क़रार तोड़ने वाले
शेख़ को जेल में डालने वाले 
गोलियां चलाने वाले
तुम बीच में कौन हो

हमारे बच्चे बाग़ी हो गए
न कोई ट्रेनिंग 
न हथियार
वे ख़ाली हाथ तुम्हारी ओर आए
तुमने उन पर छर्रे बरसाए

अन्धे होते हुए 
उन्होंने पत्थर उठाए जो
उनके ही ख़ून और आंसुओं से तर थे

सारे क़रार तोड़ने वालों
गोलियों और छर्रों की बरसात 
करने वालों
दरिया बच्चों की ओर है

चिनार और चीड़ बच्चों की ओर है
हिमाले की बर्फ़ बच्चों की ओर है

उगना और बढ़ना
हवायेंऔर पतझड़
जाड़ा और बारिश
सब बच्चों की ओर है
बच्चे अपनी कांगड़ी नहीं छोड़ेंगे
मां का दामन नहीं छोड़ेंगे
बच्चे सब इधर हैं

क़रार तोड़ने वालों
सारे क़रार बीच में रखे जाएंगे
बच्चों के नाम उनके खिलौने 
बीच में रखे जायेंगे
औरतों के फटे दामन
 बीच में रखे जायेंगे
मारे गये लोगों की बेगुनाही
बीच में रखी जायेगी
हमें वजूद में लाने वाली
धरती बीच में रक्खी जायेगी

मुक़द्मा तो चलेगा 
शिनाख़्त तो होगी
हश्र तो यहां पर उट्ठेगा.

स्कूल बंद है
शादियों के शामियाने उखड़े पड़े हैं
ईद पर मातम है
बच्चों को क़ब्रिस्तान ले जाते लोग
गर्दन झुकाए हैं
उन पर छर्रों और गोलियों की बरसात है.

Subha Subha 



Friday, 10 June 2022

श्रीमद्भगवद्गीता की रचना किसने की?


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क्या कृष्ण ने सचमुच रणभूमि में अर्जुन से यह सब कहा, जिसे व्यास ने लिखा?
इस सारे उपदेश का नतीजा क्या हुआ ? अर्जुन ज्ञानी हो गया और लडने लगा। यानी ज्ञानी वह जो हमेशा लडने को तैयार रहे । पर दुर्योधन तो पहले से ही लडने को तैयार था। यानी बुरा आदमी अच्छे आदमी से ज्यादा ज्ञानी होता है। यह बात मेरे गले नही उतरती।
गीता न कृष्ण ने कही, न व्यास ने लिखी , गीता को फेडरेशन आफ इन्डियन चेम्बर आफ कामर्स के अध्यक्ष ने लिखा है या पैसे देकर लिखवाया है । प्रमाण मुझे मिल गया है
गीता में लिखा है - 'कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' - अर्थात तुम्हारे अधिकार में सिर्फ़ काम करना है, तुम फल की इच्छा मत करो
हे मजदूरों भगवान का आदेश है कि काम करते जाओ, तनख्वाह मत मांगो यह उपदेश मजदूरों की हडताल तोडने के काम आ सकता है .

~ निठल्ले की डायरी
हरिशंकर परसाई

*गाँधी: एक पुनर्मूल्‍यांकन* कात्‍यायनी


'जनसत्‍ता' के सम्‍पादकीय पृष्‍ठ पर काफी पहले सुधांशु रंजन ने 'महात्‍मा गाँधी बनाम चर्चिल'लेख में गाँधी के ब्रह्मचर्य प्रयोगों का प्रसंग उठाया था। लेखक के अनुसार, आम लोगों की दृष्टि में विवादास्‍पदता के बावजूद, ' गाँधी का यह प्रयोग नायाब था, जिसे सामान्‍य मस्तिष्‍क नहीं समझ सकता'  और सत्‍य का ऐसा टुकड़ा उनके पास था जिसने उन्‍हें इस ऊँचाई पर पहुँचा दिया।'

बेशक इतिहास का कोई भी जिम्‍मेदार अध्‍येता गाँधी के ब्रह्मचर्य-प्रयोगों पर उस तरह की सनसनीखेज, चटखारेदार चर्चाओं में कोई दिलचस्‍पी नहीं लेगा, जैसी वेद मेहता से लेकर दयाशंकर शुक्‍ल 'सागर' आ‍‍दि लेखक अपनी पुस्‍तकों में करते रहे हैं। लेकिन किसी इतिहास-पुरुष के दृष्टिकोण में किसी भी प्रश्‍न पर य‍दि कोई अवैज्ञानिकता या कूपमण्‍डूकता होगी, तो इतिहास और समाज के गम्‍भीर अध्‍येता निश्‍चय ही उसकी आलोचना करेंगे।

यहाँ प्रश्‍न यह है ही नहीं कि गाँधी के ब्रह्मचर्य-प्रयोगों के पीछे ब्रह्मचर्य की शक्ति और न केवल व्‍यक्ति बल्कि पूरे समाज पर पड़ने वाले उसके सकारात्‍मक प्रभाव पर गाँधी की गहरी आस्‍था थी। गाँधी की आस्‍था से उनके प्रयोग के वस्‍तुगत प्रभाव पर कोई असर नहीं पड़ता। असर इस बात से पड़ता है कि उनके प्रयोग का आधार वैज्ञानिक था अथवा अवैज्ञानिक। मानव शरीर का और काम भावना के मूल उद्गम का आज तक जितना भी अध्‍ययन हुआ है, वह यही बताता है कि ब्रह्मचर्य और उसकी शक्ति एक धार्मिक मिथकीय बकवास है। स्‍त्री-पुरुष के बीच आकर्षण और यौन-सम्‍बन्‍ध नितान्‍त स्‍वस्‍थ, सहज और विज्ञान-सम्‍मत होता है। हाँ, इन सम्‍बन्‍धों के सामाजिक नियमन से उद्भूत नैतिक पहलू भी समाज के स्‍वस्‍थ-स्‍वाभाविक अस्तित्‍व और विकास के लिए उतने ही जरूरी हैं। समाज और मानव-चेतना के विकास के साथ ही इस सामाजिक नियमन और नैतिकता का भी विकास हुआ है, जिसका अध्‍ययन नृतत्‍वशास्‍त्र, सामाजिक इतिहास और नीतिशास्‍त्र के दायरों में काफी हुआ है।

यौनिक आकर्षण के वैज्ञानिक कारणों की समझ नहीं होने और धार्मिक संस्‍कारों की भयजनित कुण्‍ठा के कारण पिछले देशों के बंद समाजों के स्‍त्री-पुरुषों की भारी आबादी अपने चेतन-अवचेतन मन में तरह-तरह की मानसिक रुग्‍णताओं को पाले हुए पूरा जीवन बिता देती है तथा अपराध-बोध और ग्‍लानि उनके व्‍यक्तित्‍व की सर्जनात्‍मकता की धार को कुंद-भोथरा बनाती रहती हैं।

गाँधी का व्‍यक्तित्‍व विराट था और उसके व्‍यक्तित्‍व और चिन्‍तन के अन्‍तरविरोध भी उतने ही गहरे थे। दार्शनिक स्‍तर पर उनका चिन्‍तन रस्किन, थोरो और तोल्‍स्‍तोय की जमीन पर खड़ा था, लेकिन इन चिन्‍तकों के मानवतावादी यूटोपिया को भारतीय रूपरंग में ढालते हुए गाँधी ने हिन्‍दू धर्म की पारम्‍परिक कूपमण्‍डूकताओं, अंधविश्‍वासों, संकीर्णताओं से उसे सराबोर कर दिया था। वह अपने को सनातन धर्म का अनुयायी मानते थे और आचरण से एक उदार हिन्‍दू थे। चातुर्वर्ण्‍य को वे आदर्शीकृत करके सामाजिक श्रम-विभाजन के रूप में स्‍थापित करना चाहते थे और अस्‍पृश्‍यता को समाप्‍त करना चाहते थे। जाहिर है कि यह एक उदार हिन्‍दू का यूटोपिया था। व्‍यवहारत: धर्म के उदारीकरण की नेक से नेक कोशिश धर्म के सामाजिक आधार और स्‍वीकार्यता को ही मजबूत बनाती है और अमली तौर पर हमारे सामाजिक जीवन में धर्म के दखल (चाहे जितने भी उदार रूप में) जब बढ़ती है तो अंततोगत्‍वा धार्मिक वर्जनाओं, रूढ़ि‍यों और संस्‍कारों के दबाव कठोर और कट्टर रूप में ही सामने आते हैं, जिनके सर्वाधिक शिकार शोषित-उत्‍पीडि़त आम आबादी और स्त्रियाँ ही होती हैं। गाँधी धर्मनिरपेक्षता की जगह सर्वधर्म समभाव की बात करते थे। एक बहुधार्मिक समाज में सामाजिक-राजनीतिक दायरों से धर्म को य‍दि पूरी तरह अलग नहीं किया जाये, तो सर्वधर्म समभाव की लाख दुहाई देने के बावजूद, बहुसंख्‍या के धर्म का प्रभाव अन्‍ततोगत्‍वा वर्चस्‍वकारी रूपों में सामने आयेगा ही, और वस्‍तुगत तौर पर धार्मिक बहुसंख्‍यावाद की ज़मीन मजबूत होगी ही।

गाँधी के ग्राम स्‍वराज्‍य की अवधारणा उत्‍पादन की पिछड़ी हुई पुरानी तकनीक के आधार पर स्‍वावलम्‍बी-स्‍वायत्‍त ग्राम समुदायों की अर्थव्‍यवस्‍था का यूटोपिया पेश करती थी, लेकिन सामंती भूस्‍वामियों से बलात् भूस्‍वामित्‍व छीनने के बजाय वे उन्‍हें समझा-बुझाकर कायल करने के पक्षधर थे। इसी कारण से, एक ओर तो काश्‍तकार किसानों की पिछड़ी चेतना वाली, धर्मभीरु और ज़मीनों का मालिक बनने की आकांक्षी भारी आबादी गाँधी के पीछे लामबंद हुई, दूसरी ओर किसान विद्रोहों की संभावना से भयभीत सामंतों को भी गाँधी का यूटोपिया फिलहाली तौर पर अपने लिए मुफीद जान पड़ा और गाँधी उनके खुले विरोध को रोक पाने में काफी हद तक सफल रहे। देश के बहुतेरे सामंत कांग्रेस में शामिल भी हुए या कम से कम उसका विरोध नहीं किया, क्‍योंकि उन्‍हें भरोसा था कि स्‍वाधीनता य‍दि गाँधीवादी नेतृत्‍व में हासिल होगी तो बलात् उनकी भूसम्‍पत्ति छीनी नहीं जायेगी और य‍दि भूमि-सुधार किसी रूप में होंगे भी तो उनके हितों की हिफाज़त का पूरा खयाल रखा जायेगा।

गाँधी श्रम और पूँजी के बीच के अन्‍तरविरोध को हल करने की स्‍वाभाविक क्रान्तिकारी प्रक्रिया को अपनाने के बजाय उनके बीच सामंजस्‍य का सिद्धान्‍त प्रस्‍तुत करते थे। ट्रस्‍टीशिप का सिद्धान्‍त पूँजीपतियों को इस बात का कायल करने की बात करता था कि वे स्‍वयं को सामाजिक सम्‍पदा का ट्रस्‍टी और मज़दूरों का संरक्षक/अभिभावक समझें।  जाहिर है कि दार्शनिक स्‍तर पर बहुत भोंड़े किस्‍म के प्रत्‍ययवादी होने के साथ ही गाँधी राजनीतिक अर्थशास्‍त्र का ककहरा भी नहीं जानते-समझते थे। मार्क्‍सवाद तो उन्‍होंने एकदम पढ़ा ही नहीं था ( इसीलिए समाजवाद और कम्‍युनिज्‍़म की उन्‍होंने जहाँ कहीं भी आलोचना की है, वह बेहद चलताऊ और सतही अनुभववादी किस्‍म की थी ), एडम स्मिथ और रिकार्डो के क्‍लासिकी बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्‍त्र से भी उनका कोई परिचय नहीं था। अमूर्त वैज्ञानिक अवधारणाओं से प्रस्‍थान करने और पूँजीवाद को उत्‍पादन का एक शाश्‍वत और प्राकृतिक रूप मानने के बावजूद क्‍लासिकी बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्‍त्र की सबसे बड़ी उपलब्धि थी 'मूल्‍य के श्रम सिद्धान्‍त' (लेबर थियरी ऑफ वैल्‍यू) की खोज। गाँधी ने अगर इसका थोड़ा भी अध्‍ययन किया होता तो ट्रस्‍टीशिप के अपने सिद्धान्‍त का प्रतिपादन कत्‍तई नहीं करते।

गाँधी उत्‍पादक शक्तियों के निरंतर विकास और तदनुरूप उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों में बदलाव के साथ युग-परिवर्तन की ऐतिहासिक गति की कोई समझ नहीं रखते थे। पूँजीवाद की तमाम विभीषिकाओं के लिए गाँधी उत्‍पादन के साधनों के निजी स्‍वामित्‍व और माल-उत्‍पादन (मुनाफे के लिए उत्‍पादन) को जिम्‍मेदार मानने की जगह कारखाना-उत्‍पादन में उन्‍नत तकनोलॉजी, मशीनों और स्‍वचालन को‍ जिम्‍मेदार मानते थे और इसके विकल्‍प के तौर पर छोटे पैमाने के उत्‍पादन (हस्‍तशिल्‍प, कुटीर उद्योग, ग्रामीण किसानी अर्थव्‍यवस्‍था) पर बल देते थे। हालाँकि उनके इस सिद्धान्‍त और व्‍यवहार का एक अहम अन्‍तरविरोध यह था कि भारत के जो बड़े पूँजीपति कांग्रेस के और गाँधी की विभिन्‍न संस्‍थाओं के वित्‍तपोषक थे, उनमें से एक को भी गाँधी छोटे पैमाने के उत्‍पादक उपक्रमों की ओर नहीं मोड़़ सके। उल्‍टे गाँधी के जीवनकाल में कांग्रेस समर्थक भारतीय पूँजीपतियों के स्‍वामित्‍व वाले बड़े उद्योगों का लगातार तेज गति से विकास हुआ। बहरहाल, सिद्धान्‍त और व्‍यवहार के इस अन्‍तरविरोध को दरकिनार करके हम गाँधी के इस आर्थिक चिन्‍तन की पड़ताल करें। विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास उत्‍पादक शक्तियों के निरंतर विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग है जो मानव सभ्‍यता के प्रारम्‍भ काल से ही निरंतर जारी है। उत्‍पादन की प्रक्रिया के दौरान मनुष्‍य सुनिश्चित उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों में बँधते हैं और यही उत्‍पादन सम्‍बन्‍ध जब उत्‍पादक शक्तियों के विकास को अवरुद्ध करने लगते हैं तो उत्‍पादक शक्तियाँ उन्‍हें नष्‍ट कर नये उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों का निर्माण करती हैं और इतिहास नये युग में प्रवेश करता है। इतिहास की इसी स्‍वाभाविक गति से सामन्‍ती उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों को तोड़कर पूँजीवादी उत्‍पादन-सम्‍बन्‍ध अस्तित्‍व में आये। पूँजीवाद के अन्‍तर्गत समस्‍या वे मशीनें नहीं हैं जो सामूहिक तौर पर लोगों को बड़े पैमाने पर उत्‍पादन में सक्षम बनाती हैं, बल्कि समस्‍या उत्‍पादन और वितरण के वे सम्‍बन्‍ध हैं जिनके अन्‍तर्गत उत्‍पादन के साधनों के स्‍वामी सामाजिक उपयोगिता को नहीं बल्कि मुनाफे को केन्‍द्र में रखकर उत्‍पादन करते हैं, नयी-नयी मशीनों का इस्‍तेमाल केवल उत्‍पादक वर्गों से ज्‍यादा से ज्‍यादा अधिशेष निचोड़ने और मुनाफे की दर को बढ़ाने के लिए करते हैं तथा लूट की आपसी होड़ में युद्धों और पर्यावरण की तबाही को जन्‍म देते हैं। पनचक्‍की, करघा, रहट आदि भी मशीनें ही हैं, फर्क बस यह है कि वे पुराने ज़माने की मशीनें हैं। गाँधी पूँजीवाद की आन्‍तरिक गतिकी को नहीं समझ पाने के कारण, तमाम पूँजीवादी विभीषिकाओं का कारण मशीनों और स्‍वचालन को मान बैठते थे और इतिहास के चक्‍के को ठेलकर पीछे ले जाने की वकालत करते थे। यह एक प्रतिक्रियावादी यूटोपिया था। गाँधी से काफी पहले, ऐसा ही यूटोपियाई नज़रिया उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध में स्विस अर्थशास्‍त्री सिसमोंदी ने और फिर फ्रांसीसी अर्थशास्‍त्री जोसेफ प्रूधों ने (गाँधी से अधिक परिष्‍कृत तर्कों के साथ) प्रस्‍तुत किया था और फिर इन्‍हीं विचारों का नया संस्‍करण उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के उत्‍तरार्द्ध में रूस में नरोदवादियों ने प्रस्‍तुत किया था। निम्‍नपूँजीवादी दृष्टिकोण से पूँजीवाद की समालोचना प्रस्‍तुत करने वाला सिसमोंदी आर्थिक विज्ञान के क्षेत्र में स्‍वच्‍छंदतावाद (रोमैण्टिसिज्‍़म) का एक 'टिपिकल' प्रतिनिधि था जो मानता था कि पूँजीवाद के अन्‍तर्गत मेहनतकश जनता की तबाही और आर्थिक संकट अपरिहार्य हैं, लेकिन पूँजीवाद के बुनियादी अन्‍तरविरोधों और आन्‍तरिक गतिकी को नहीं समझ पाने के कारण, समाधान के तौर पर वह छोटे पैमाने के उत्‍पादन की ओर लौटने की बात करता था और इसतरह इतिहास-चक्र को पीछे की ओर लौटाने का नुस्‍खा सुझाने लगता था। सिसमोंदी, प्रूधों और नरोदवादियों के विचारों की विस्‍तृत आलोचना मार्क्‍स-एंगेल्‍स, प्‍लेखानोव और लेनिन ने प्रस्‍तुत की थी। निम्‍न-पूँजीवादी राजनीतिक अ‍र्थशास्‍त्र के इन प्रतिनिधियों का पद्धतिशास्‍त्र द्वैतवादी और सारसंग्रहवादी तथा दृष्टिकोण प्रत्‍ययवादी था। सामाजिक उत्‍पादन-प्रणाली के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण ये अर्थशास्‍त्री उसकी बुनियाद "अच्‍छा" और "न्‍याय" जैसे नैतिक आदर्शों में ढूँढ़ने की कोशिश करते थे। उनके इस प्रतिक्रियावादी यूटोपिया के बरक्‍स यूटोपियाई समाजवादियों का यूटोि‍पया प्रगतिशील था जो मानता था कि मेहनतकश जनता का उसके श्रम के सम्‍पूर्ण उत्‍पाद पर अधिकार है और इसी लक्ष्‍य-प्राप्ति के लिए सामाजिक ढॉंचे का पुनर्गठन अनिवार्य है। गाँधी का यूटोपिया सिसमोंदी और प्रूधों के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया का एक भोंडा भारतीय संस्‍करण था। आगे चलकर चरणसिंह ने अपनी पुस्‍तकों'गाँधियन पाथ' और 'इकोनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इण्डिया' में इसी गाँधीवादी यूटोपिया को अधिक परिष्‍कृत ढंग से प्रस्‍तुत किया लेकिन वे भी सिसमोंदी और नरोदवादियों के तर्कों से रंचमात्र भी आगे नहीं बढ़ पाये।

अब हम गाँधी के अहिंसा के सिद्धान्‍त पर आते हैं। इतिहास के तथ्‍य इस सत्‍य की गवाही देते हैं कि नयी सामाजिक व्‍यवस्‍था के जन्‍म में बल की भूमिका हमेशा से धाय की होती रही है। हेराल्‍ड लास्‍की के शब्‍दों का इस्‍तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि हर राजनीतिक-सामाजिक ढाँचागत बदलाव में हिंसा या हिंसा का तथ्‍य (फैक्‍ट ऑफ वॉयलेंस) अन्‍तर्निहित होता है।  हर सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को शासक वर्ग के हितों की दृष्टि से राज्‍यसत्‍ता ही संचालित और नियंत्रित करती है। सामाजिक-आर्थिक ढाँचों को बदलने का काम शासित वर्ग पुरानी राज्‍यसत्‍ता का बलात् ध्‍वंस करके और नयी राज्‍यसत्‍ता का निर्माण करके ही कर सकते हैं। गाँधी के चिन्‍तन में सामाजिक संरचना और राज्‍यसत्‍ता के वर्ग चरित्र की ऐतिहासिक समझ नहीं थी। उनकी यह समझ थी कि कुछ सुनिश्चित आदर्शों को शासन करने वाले लोग य‍दि निजी जीवन की तरह सार्वजनिक जीवन में भी लागू करें तो आदर्श समाज का निर्माण किया जा सकता है। उनका प्रत्‍ययवादी चिन्‍तन समाज विकास के सुनिश्चित वस्‍तुगत नियमों की अनदेखी करके उसके अमूर्त नैतिक आदर्शों और उनका अनुपालन करने वाले व्‍यक्तियों के आचरण द्वारा संचालित और नियंत्रित होने में विश्‍वास रखता था और निजी जीवन के स्‍पेस और राजनीतिक जीवन के सार्वजनिक स्‍पेस के अन्‍तर को पूरी तरह मिटा देता था। गाँधी का इतिहास-बोध मूलत: धार्मिक विश्‍व-दृष्टिकोण पर आधारित था जो अमूर्त-निरपेक्ष नैतिक आदर्शों और उनका पालन करने वाले नायकों को इतिहास की चालक शक्ति के रूप में देखता था। यही कारण है कि अपने आन्‍तरिक तर्क और व्‍यवहार में उनका अहिंसा का सिद्धान्‍त तमाम अन्‍तरविरोधों के मकड़जाल में उलझ जाता था। स्‍वयं गाँधी ही इस बात को मानते थे कि हिंसा का मतलब केवल रक्‍तपात ही नहीं होता, किसी भी रूप में य‍दि दबाव और बलप्रयोग किया जाता है तो वह हिंसा है। अहिंसा का सिद्धान्‍त केवल नैतिक दृष्टि से कायल कर देने या हृदय-परिवर्तन को ही सही ठहराता है। सत्‍याग्रह और उपवास को गाँधी इसीका साधन मानते थे। लेकिन व्‍यवहारत: गाँधी की राजनीति आद्यंत 'समझौता-दबाव-समझौता' की राजनीति ही बनी रही। गाँधी के ही नेतृत्‍व में किसी आन्‍दोलन ने अंग्रेजों को य‍दिद रियायतें देने के लिए बाध्‍य किया तो इसका कारण अंग्रेजों का हृदय-परिवर्तन या नैतिक पराजय का अहसास नहीं था, बल्कि किसी संभावित देशव्‍यापी जनउभार और परिणतियों का भय था। अंग्रेज इस देश को हृदय-परिवर्तन या नैतिक पराजय के कारण छोड़कर नहीं गये, बल्कि उसके पीछे तत्‍कालीन विश्‍व-परिस्थितियों का और देशव्‍यापी उग्र जनसंघर्षों का बाध्‍यताकारी दबाव था। उपनिवेशवादी इस बात को समझ चुके थे कि य‍दि अब भी वे भारतीय बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस को सत्‍ता हस्‍तांतरित करके भारत को राजनीतिक आजा़दी नहीं देंगे तो उन्‍हें किसी उग्र जनक्रान्ति का सामना करना पड़ेगा।

अतीत में भी गाँधी का व्‍यवहार हमेशा उनके अहिंसा सिद्धान्‍त के अनुरूप नहीं दीखता। दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समय गाँधी ने बोअर युद्ध में जब ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का सक्रिय समर्थन किया था, उस समय रस्किन और तोल्‍स्‍तोय के प्रभाव में वे अहिंसा के सिद्धान्‍त को अपना चुके थे। 1906 में जुलू विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचल रहे उपनिवेशवादियों का साथ देने और "उपनिवेश की रक्षा में अपनी भूमिका निभाने के लिए" उन्‍होंने सभी भारतीयों का आह्वान किया था और उनकी इस सक्रिय भूमिका के लिए औपनिवेशिक शासकों ने उन्‍हें 'सार्जेण्‍ट मेजर' भी नियुक्‍त किया था। इन दोनों प्रसंगों में तब गाँधी का तर्क यह था कि ऐसा करना शासन के प्रति प्रजा के कर्तव्‍य का नैतिक तकाजा था। बाद में 1920 में अपनी आत्‍मकथा में जुलू विद्रोह के दमन में अपनी भूमिका पर लीपापोती करते हुए गाँधी ने लिखा था : "जुलू लोगों से मुझे कोई शिकायत नहीं थी। उन्‍होंने किसी भारतीय को नुकसान नहीं पहुँचाया था। स्‍वयं 'विद्रोह' के बारे में भी मेरे सन्‍देह थे।" उन्‍होंने यह दावा भी किया कि, "मेरा हृदय जुलू लोगों के साथ था।" सत्‍ता के प्रति निष्‍ठा को जनता का कर्तव्‍य मानने वाला गाँधी का सिद्धान्‍त उस स्थिति में भी इस कर्तव्‍यपालन पर बल देता था, जबकि सरकार जनता द्वारा चुनी गयी न हो। इस मायने में जनवाद की गाँधी की समझ नितान्‍त बोदी थी और वॉल्‍तेयर, दिदेरो, रूसो, टॉमस पेन, बेंजामिन फ्रेंकलिन,वाशिंगटन, जैफर्सन आदि‍ के राजनीतिक दर्शन से उनका कोई लेना-देना नहीं था।‍  यही नहीं, बाद की कई घटनाएँ भी बताती हैं कि राज्‍यसत्‍ता के प्रति नागरिेक की निष्‍ठा के अपने इस सिद्धान्‍त को गाँधी अपने अहिंसा सिद्धान्‍त के ऊपर रखते थे। पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्‍होंने अंग्रेज सरकार के सभी युद्धकालीन प्रयासों का एक वफादार प्रजा के रूप में पूरा समर्थन दिया, यहाँ तक कि 1918 में अंग्रेजों की सहायता के लिए धन तथा सेना भरती हेतु आदमी जुटाने के लिए गाँव-गाँव का दौरा भी किया। फिर द्वितीय विश्‍वयुद्ध शुरू होने के बाद, जुलाई, 1940 में अपने पूना अधिवेशन में कांग्रेस ने इस शर्त पर ब्रिटिश युद्धप्रयास का समर्थन करते हुए प्रस्‍ताव पारित किया कि युद्ध के बाद भारत को स्‍वतंत्रता प्रदान कर दी जायेगी। यानी स्‍वतंत्रता की शर्त पर गाँधी साम्राज्‍यवादी युद्ध की भीषण हिंसा में एक साम्राज्‍यवादी शक्ति के पक्ष से भागीदारी के लिए तैयार थे। फिर सोवियत संघ पर जर्मनी के हमले के बाद युद्ध का चरित्र बदल गया और विश्‍व स्‍तर के अन्‍तरविरोधों से गलत ढंग से अपने कार्यभार निगमित करते हुए कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्ष को युद्धकाल के दौरान स्‍थगित करने का निर्णय लिया।  भारतीय बुर्जुआ वर्ग को सत्‍ता-प्राप्ति के लिए उपनिवेशवादियों पर निर्णायक दबाव बनाने का यह उचित अवसर लगा और जुलाई, 1942 की वर्धा बैठक में कांग्रेस कार्यसमिति ने 'भारत छोड़ो आन्‍दोलन' का प्रस्‍ताव पारित किया। तब गाँधी ने यह घोषणा की थी कि यह आन्‍दोलन, जो व्‍यापक नागरिक अवज्ञा आन्‍दोलन का रूप लेगा, अहिंसा की सीमाओं के बाहर भी जा सकता है। 1942 के 'भारत छोड़ो' आन्‍दोलन के दौरान छिटपुट हिंसा की बहुतेरी घटनाएँ घटी, लेकिन चौरीचौरा काण्‍ड के बाद सत्‍याग्रह वापस लेने वाले गाँधी ने इस बार आन्‍दोलन वापस नहीं लिया। इससे स्‍पष्‍ट हो जाता है कि अहिंसा गाँधी के लिए सिद्धान्‍त से अधिक रणनीति का प्रश्‍न था। जनान्‍दोलनों के दौरान य‍दि हिंसा नियंत्रित हो और राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के नेतृत्‍व पर कांग्रेसी वर्चस्‍व को कोई खतरा न हो (कम्‍युनिस्‍टों की चुनौती उससमय सामने नहीं थी), तो गाँधी को हिंसा से विशेष परहेज नहीं था।

एक बात और गौरतलब है। गाँधी प्रजानिष्‍ठा के सिद्धान्‍त के तहत शासक वर्ग की हिंसा के पक्ष में तो कई बार खड़े हुए, लेकिन क्रान्तिकारी हिंसा उन्‍हें किसी भी रूप में स्‍वीकार्य नहीं थी। गाँधी-इरविन समझौते के दौरानभगतसिंह और उनके साथियों की फाँसी रुकवाने के लिए अनुकूल स्थिति होने पर भी दबाव न बनाना ए‍क ऐसा ऐतिहासिक तथ्‍य है, जो गाँधी के राजनीतिक व्‍यवहार पर गम्‍भीर प्रश्‍न खड़े करता है। जो गाँधी क्रान्तिकारियों की हिंसात्‍मक कार्रवाइयों के कटु आलोचक थे, उन्‍होंने क्रान्तिकारियों को फाँसी देने वाली शासक वर्ग की हिंसा के विरुद्ध आन्‍दोलन करना तो दूर, कोई आलोचनात्‍मक वक्‍तव्‍य तक नहीं दिया। चन्‍द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्‍व में गढ़वाल रेजिमेण्‍ट के विद्रोह की और 1946 के नौसेना विद्रोह की भी उन्‍होंने कड़े शब्‍दों में भर्त्‍सना की थी। मज़दूर हड़तालों को वे हिंसात्‍मक कार्रवाई मानते थे और शुरू से ही उनका विरोध करते आये थे। फिर भी हम यह नहीं मानते कि गाँधी एक पाखण्‍डी व्‍यक्ति थे। अहिंसा-सिद्धान्‍त में उनकी गहरी आस्‍था थी, लेकिन राजनीतिक व्‍यवहार के दौरान इसी को लेकर वे सर्वाधिक अन्‍तरविरोधों के शिकार होते थे और जब चुनने का सवाल आता था तो एक कुशल व्‍यवहारवादी (प्रैग्‍मेटिस्‍ट) बुर्जुआ राजनीतिज्ञ की तरह वे सिद्धान्‍त की जगह उस व्‍यवहारिकता को प्राथमिकता देते थे जो बुर्जुआ वर्गहित की दृष्टि से हालात का तका़जा़ होता था। राजनीति की दुनिया ठोस व्‍यवहार की दुनिया होती है। सिद्धान्‍तों के अमूर्त अन्‍तरविरोध वहाँ दिन के उजाले की तरह साफ हो जाते हैं और विशेष वर्गहित का दबाव किसी इतिहास-पुरुष को भी अमूर्त आदर्शों को तिलांजलि देकर ठोस व्‍यवहार की ज़मीन पर उतरने के लिए बाध्‍य कर देता है। गाँधी य‍दि साहित्‍यकार होते, तो शायद भारत के तोल्‍स्‍तोय होते। तोल्‍स्‍तोय य‍दि भारत में पैदा होकर (और हिन्‍दू के रूप में पैदा होकर) राजनीति की दुनिया में होते, तो शायद, काफी हद तक, गाँधी सरीखे ही होते। बीसवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध के भारत में, क्‍लासिकी बुर्जुआ मानवतावाद राजनीति और समाज-नीति में गाँधी के मानवतावाद के रूप में ही मूर्त हो सकता था।

स्‍त्री के बारे में भी गाँधी की जो सोच थी, वह हिन्‍दू धर्म की रूढियों और पूर्वाग्रहों में लिथड़ी हुई एक ऐसी मानवतावादी सोच थी, जो शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान, नृतत्‍वशास्‍त्र और इतिहास की तमाम आधुनिक वैज्ञानिक स्‍थापनाओं से एकदम अपरिचित थी। घरेलू कामों और पति की सेवा को गाँधी स्त्रियों की विशिष्‍ट जिम्‍मेदारी मानते थे और निजी जीवन में भी उनका आचरण ऐसा ही था। वे प्रकृति से ही स्त्रियों को पुरुषों से सर्वथा भिन्‍न मानते थे। सामाजिक-राजनीतिक कार्यों में स्त्रियों की भागीदारी और स्‍त्री-शिक्षा का पक्षधर होते हुए भी वे स्त्रियों को प्राकृतिक रूप से पुरुषों की बराबरी के काबिल नहीं मानते थे और उन्‍हें संरक्षण देना पुरुषों का कर्तव्‍य मानते थे। स्‍त्री उनके लिए एक ऐसा जीव थी जो स्‍वाभाविक तौर पर पुरुषों की दया, करुणा और संरक्षण की हक़दार थी। नैतिकता और यौन-सम्‍बन्‍धों के बारे में गाँधी की सोच हिन्‍दू धर्म की रूढि़यों के साथ ही विक्‍टोरियन मूल्‍य-व्‍यवस्‍था से भी प्रभावित थी। वे यह मानते ही नहीं थे कि स्‍त्री के भीतर भी यौनिक कामना या काम भावना होती है। स्‍त्री का सारा सुख पुरुष को सुख या आनन्‍द देने में ही निहित होता है, वह मात्र संतानोत्‍पत्ति और पुरुष की कामक्षुधापूर्ति का साधन होती है। इसलिए ज्‍यादा से ज्‍यादा छूट देकर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि वे स्‍त्री को ब्रह्मचर्य-प्रयोग का मात्र एक 'पैस्सिव' उपादान समझते थे और यह अहसास ही नहीं कर पाते थे कि यह उसका इस हद तक मानसिक उत्‍पीड़न कर सकता है कि उसके पूरे जीवन और मनोजगत को ही अस्‍तव्‍यस्‍त और विश्रृंखलित कर सकता है। निस्‍संदेह, गाँधी की इस सोच और आचरण के पीछे उनके अवचेतन में मौजूद कुछ जटिल यौन-ग्रंथियों की भी शिनाख्‍त की जा सकती है और उसकी जड़ें उनके व्‍यक्तिगत जीवन में ढूँढ़ी जा सकती है, लेकिन यह मनोविज्ञान का विषय है और किन्‍हीं स्थितियों में यह अटकलबाजी भी हो सकती है जो गाँधी के दार्शनिक-राजनीतिक-सामाजिक-नैतिक विचारों और व्‍यवहार के ऐतिहासिक मूल्‍यांकन में असंतुलन या मनोगतता ला सकता है, इसलिए इसकी चर्चा यहाँ करना हम उचित नहीं समझते।

जिस देशकाल में किसी वर्ग की जैसी बनावट-बुनावट तथा ताकत और कमजोरी होती है, इतिहास उसे वैसा ही वैचारिक-राजनीतिक प्रतिनिधि देता है। भारतीय बुर्जुआ वर्ग के जन्‍म और विकास की प्रक्रिया कृषि से दस्‍तकारी में मैन्‍यूफैक्‍चरिंग वाली यात्रा नहीं थी, 'पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति' वाली यात्रा नहीं थी। भारत में पूँजीवाद के नैसर्गिक विकास के भ्रूणों को तो उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया 1740 से 1857 के दौरान ही नष्‍ट कर चुकी थी। वर्तमान भारतीय पूँजीवाद औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना की कोख से जन्‍मा और साम्राज्‍यवादी विश्‍व-परिवेश में पल-बढ़कर वयस्‍क हुआ। इस रुग्‍ण, जन्‍मना विकलांग पूँजीवाद ने एक चतुर बौने जैसा आचरण करते हुए पुराने मूल्‍यों से समझौता किया तथा जनसंघर्षों के दबाव और साम्राज्‍यवाद के संकट एवं अन्‍तरविरोधों का इस्‍तेमाल करते हुए, 'समझौता-दबाव-समझौता' की रणनीति का इस्‍तेमाल करते हुए राजनीतिक सत्‍ता-प्राप्ति तक की यात्रा तय की। ऐसे वर्ग के सिद्धान्‍तकार दिदेरो, रूसो, वाल्‍तेयर, टॉमस पेन आ‍दि जैसे लोग और राजनीतिक प्रतिनिधि वांशिगटन, जैफर्सन, लिंकन आ‍दि जैसे लोग हो ही नहीं सकते थे। गाँधी जैसा व्‍यक्तित्‍व ही इसका सिद्धान्‍तकार और राजनीतिक प्रतिनिधि हो सकता था। गाँधी के धार्मिक यूटोपियाई आदर्श भारतीय जनमानस को सहज स्‍वीकार्य हो सकते थे। व्‍यापक जन समुदाय को विदेशी सत्‍ता के विरुद्ध जागृत और संगठित करने की अपील, नारे और नीतियाँ गाँधी के पास थीं और उनके पास वह व्‍यावहारिक कौशल और 'अथॉरिटी' भी थी कि जनसंघर्षों की ऊर्जा को वे बुर्जुआ वर्गहितों की चौहद्दी में बाँधे रह सके।

गाँधी एक विचारक के रूप में पंगु "भारतीय" बुर्जुआ मानवतावाद के मूर्त रूप थे। वे बुर्जुआ वर्ग के सिद्धान्‍तकार और नीति-निर्माता थे। और इससे भी आगे, बुर्जुआ वर्ग के 'मास्‍टर स्‍ट्रैटेजिस्‍ट' और 'मास्‍टर टैक्टीशियन' के रूप में वे एक निहायत बेरहम व्‍यावहारवादी (प्रैग्‍मेटिस्‍ट) व्‍यक्ति थे, जो समय-समय पर अपनी उद्देश्‍य-पूर्ति के लिए अपनी सैद्धान्तिक निष्‍ठाओं-प्रतिबद्धताओं के विपरीत भी जा खड़े होता था।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015 अंक में प्रकाशित 


राम राज्य कभी नही आना चाहिए* ----- ओशो----



  राम के समय को तुम रामराज्य कहते हो। हालात आज से भी बुरे थे। कभी भूल कर रामराज्य फिर मत ले आना! एक बार जो भूल हो गई, हो गई। अब दुबारा मत करना।
   राम के राज्य में आदमी बाजारों में गुलाम की तरह बिकते थे। कम से कम आज आदमी बाजार में गुलामों की तरह तो नहीं बिकता! और जब आदमी गुलामों की तरह बिकते रहे होंगे, तो दरिद्रता निश्चित रही होगी, नहीं तो कोई बिकेगा कैसे ? किसलिए बिकेगा ? दीन और दरिद्र ही बिकते होंगे, कोई अमीर तो बाजारों में बिकने न जाएंगे। कोई टाटा, बिड़ला, डालमिया तो बाजारों में बिकेंगे नहीं।
  स्त्रियां बाजारों में बिकती थीं! वे स्त्रियां गरीबों की स्त्रियां ही होंगी। उनकी ही बेटियां होंगी। कोई सीता तो बाजार में नहीं बिकती थी। उसका तो स्वयंवर होता था। तो किनकी बच्चियां बिकती थीं बाजारों में ? और हालात निश्चित ही भयंकर रहे होंगे। क्योंकि बाजारों में ये बिकती स्त्रियां और लोग--आदमी और औरतें दोनों, विशेषकर स्त्रियां--राजा तो खरीदते ही खरीदते थे, धनपति तो खरीदते ही खरीदते थे, जिनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो, वे भी खरीदते थे! गजब की दुनिया थी! ऋषि-मुनि भी बाजारों में बिकती हुई स्त्रियों को खरीदते थे! 
  अब तो हम भूल ही गए वधु शब्द का असली अर्थ। अब तो हम शादी होती है नई-नई, तो वर-वधु को आशीर्वाद देने जाते हैं। हमको पता ही नहीं कि हम किसको आशीर्वाद दे रहे हैं! राम के समय में, और राम के पहले भी--वधु का अर्थ होता था, खरीदी गई स्त्री! जिसके साथ तुम्हें पत्नी जैसा व्यवहार करने का हक है, लेकिन उसके बच्चों को तुम्हारी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा! पत्नी और वधु में यही फर्क था। सभी पत्नियां वधु नहीं थीं, और सभी वधुएं पत्नियां नहीं थीं। *वधु नंबर दो की पत्नी थी।* जैसे नंबर दो की बही होती है न, जिसमें चोरी-चपाटी का सब लिखते रहते हैं! ऐसी नंबर दो की पत्नी थी वधु।
  *ऋषि-मुनि भी वधुएं रखते थे!* और तुमको यही भ्रांति है कि ऋषि-मुनि गजब के लोग थे। कुछ खास गजब के लोग नहीं थे। वैसे ऋषि-मुनि अभी भी तुम्हें मिल जाएंगे।
  एक मां अपने छोटे से बच्चे को कह रही थी कि बेटा, तू नौ-नौ बजे उठता है! अरे, ऋषि-मुनि की संतान हो; ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए! ऋषि-मुनि हमेशा ब्रह्ममुहूर्त में उठते थे!
उस बेटे ने कहा कि नहीं मां; ऋषि तो कभी आठ बजे के पहले नहीं उठते। मुझे पता है। और मुनि भी कभी नौ बजे के पहले नहीं उठते।
मां ने कहा, तू यह कहां की बातें कर रहा है ? उसने कहा, मुझे मालूम है। ऋषि कपूर आठ बजे उठता है और दादा मुनि अशोक कुमार नौ बजे उठते हैं!
   इन ऋषि-मुनियों में और तुम्हारे पुराने ऋषि-मुनियों में बहुत फर्क मत पाना तुम। कम से कम इनकी वधुएं तो नहीं हैं! कम से कम ये बाजार से स्त्रियां तो नहीं खरीद ले आते! इतना बुरा आदमी तो आज पाना मुश्किल है जो बाजार से स्त्री खरीद कर लाए। आज यह बात ही अमानवीय मालूम होगी! मगर यह जारी थी!
  *रामराज्य में शूद्र को हक नहीं था वेद पढ़ने का! यह तो कल्पना के बाहर की बात थी, कि डाक्टर अंबेदकर जैसा अतिशूद्र और राम के समय में भारत के विधान का रचयिता हो सकता था!* असंभव !! खुद राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था--गरम सीसा, उबलता हुआ सीसा! क्योंकि उसने चोरी से, कहीं वेद के मंत्र पढ़े जा रहे थे, वे छिप कर सुन लिए थे। यह उसका पाप था; यह उसका अपराध था। और *राम तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! राम को तुम अवतार कहते हो! और महात्मा गांधी रामराज्य को फिर से लाना चाहते थे।* क्या करना है? शूद्रों के कानों में फिर से सीसा पिघलवा कर भरवाना है ? उसके कान तो फूट ही गए होंगे। शायद मस्तिष्क भी विकृत हो गया होगा। उस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना! शायद आंखें भी खराब हो गई होंगी। क्योंकि ये सब जुड़े हैं; कान, आंख, नाक, मस्तिष्क, सब जुड़े हैं। और दोनों कानों में अगर सीसा उबलता हुआ...! 
   तुम्हारा खून क्या खाक उबल रहा है निर्मल घोष! उबलते हुए शीशे की जरा सोचो! उबलता हुआ सीसा जब कानों में भर दिया गया होगा, तो चला गया होगा पर्दों को तोड़ कर, भीतर मांस-मज्जा तक को प्रवेश कर गया होगा; मस्तिष्क के स्नायुओं तक को जला गया होगा। फिर इस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना है! धर्म का कार्य पूर्ण हो गया। *ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया कि राम ने धर्म की रक्षा की। यह धर्म की रक्षा थी! और तुम कहते हो, "मौजूदा हालात खराब हैं!'*
   युधिष्ठिर जुआ खेलते हैं, फिर भी धर्मराज थे! और तुम कहते हो, मौजूदा हालात खराब हैं! आज किसी जुआरी को धर्मराज कहने की हिम्मत कर सकोगे ? और जुआरी भी कुछ छोटे-मोटे नहीं, सब जुए पर लगा दिया। पत्नी तक को दांव पर लगा दिया! एक तो यह बात ही अशोभन है, क्योंकि पत्नी कोई संपत्ति नहीं है। मगर उन दिनों यही धारणा थी, स्त्री-संपत्ति!     
   उसी धारणा के अनुसार आज भी जब बाप अपनी बेटी का विवाह करता है, तो उसको कहते हैं कन्यादान! क्या गजब कर रहे हो! गाय-भैंस दान करो तो भी समझ में आता है। कन्यादान कर रहे हो! यह दान है? स्त्री कोई वस्तु है? ये असभ्य शब्द, ये असंस्कृत हमारे प्रयोग शब्दों के बंद होने चाहिए। अमानवीय हैं, अशिष्ट हैं, असंस्कृत हैं। 
   मगर युधिष्ठिर धर्मराज थे। और दांव पर लगा दिया अपनी पत्नी को भी! हद्द का दीवानापन रहा होगा। पहुंचे हुए जुआरी रहे होंगे। इतना भी होश न रहा। और फिर भी धर्मराज धर्मराज ही बने रहे; इससे कुछ अंतर न आया। इससे उनकी प्रतिष्ठा में कोई भेद न पड़ा। इससे उनका आदर जारी रहा।
   भीष्म पितामह को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था। मगर ब्रह्मज्ञानी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे! गुरु द्रोण को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था। मगर गुरु द्रोण भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे! अगर कौरव अधार्मिक थे, दुष्ट थे, तो कम से कम भीष्म में इतनी हिम्मत तो होनी चाहिए थी! और बाल-ब्रह्मचारी थे और इतनी भी हिम्मत नहीं? तो खाक ब्रह्मचर्य था यह! किस लोलुपता के कारण गलत लोगों का साथ दे रहे थे? और द्रोण तो गुरु थे अर्जुन के भी, और अर्जुन को बहुत चाहा भी था। लेकिन धन तो कौरवों के पास था; पद कौरवों के पास था; प्रतिष्ठा कौरवों के पास थी। संभावना भी यही थी कि वही जीतेंगे। राज्य उनका था। पांडव तो भिखारी हो गए थे। इंच भर जमीन भी कौरव देने को राजी नहीं थे। और कसूर कुछ कौरवों का हो, ऐसा समझ में आता नहीं। जब तुम्हीं दांव पर लगा कर सब हार गए, तो मांगते किस मुंह से थे? मांगने की बात ही गलत थी। जब हार गए तो हार गए। खुद ही हार गए, अब मांगना क्या है ? 
    लेकिन गुरु द्रोण भी अर्जुन के साथ खड़े न हुए; खड़े हुए उनके साथ जो गलत थे।
   *यही गुरु द्रोण एकलव्य का अंगूठा कटवा कर आ गए थे अर्जुन के हित में, क्योंकि तब संभावना थी कि अर्जुन सम्राट बनेगा। तब इन्होंने एकलव्य को इनकार कर दिया था शिक्षा देने से। क्यों? क्योंकि शूद्र था।* और तुम कहते हो, "मौजूदा हालात बिलकुल पसंद नहीं!' 
   निर्मल घोष, एकलव्य को मौजूदा हालात उस समय के पसंद पड़े होंगे ? उस गरीब का कसूर क्या था ? अगर उसने मांग की थी, प्रार्थना की थी कि मुझे भी स्वीकार कर लो शिष्य की भांति, मुझे भी सीखने का अवसर दे दो ? लेकिन नहीं, शूद्र को कैसे सीखने का अवसर दिया जा सकता है !!!
   मगर एकलव्य अनूठा युवक रहा होगा। अनूठा इसलिए कहता हूं कि उसका खून नहीं खौला। खून खौलता तो साधारण युवक, दो कौड़ी का। सभी युवकों का खौलता है, इसमें कुछ खास बात नहीं। उसका खून नहीं खौला। शांत मन से उसने इसको स्वीकार कर लिया। एकांत जंगल में जाकर गुरु द्रोण की प्रतिमा बना ली। और उसी प्रतिमा के सामने शर-संधान करता रहा। उसी के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा। अदभुत युवक था। उस गुरु के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा जिसने उसे शूद्र के कारण इनकार कर दिया था; अपमान न लिया। अहंकार पर चोट तो लगी होगी, लेकिन शांति से, समता से पी गया।
धीरे-धीरे खबर फैलनी शुरू हो गई कि वह बड़ा निष्णात हो गया है। तो गुरु द्रोण को बेचैनी हुई, क्योंकि बेचैनी यह थी कि खबरें आने लगीं कि अर्जुन उसके मुकाबले कुछ भी नहीं। और अर्जुन पर ही सारा दांव था। अगर अर्जुन सम्राट बने, और सारे जगत में सबसे बड़ा धनुर्धर बने, तो उसी के साथ गुरु द्रोण की भी प्रतिष्ठा होगी। उनका शिष्य, उनका शागिर्द ऊंचाई पर पहुंच जाए, तो गुरु भी ऊंचाई पर पहुंच जाएगा। उनका सारा का सारा न्यस्त स्वार्थ अर्जुन में था। और एकलव्य अगर आगे निकल जाए, तो बड़ी बेचैनी की बात थी। 
    *तो यह बेशर्म आदमी, जिसको कि ब्रह्मज्ञानी कहा जाता है, यह गुरु द्रोण, जिसने इनकार कर दिया था एकलव्य को शिक्षा देने से, यह उससे दक्षिणा लेने पहुंच गया!* शिक्षा देने से इनकार करने वाला गुरु, जिसने दीक्षा ही न दी, वह दक्षिणा लेने पहुंच गया! हालात बड़े अजीब रहे होंगे! शर्म भी कोई चीज होती है! इज्जत भी कोई बात होती है! आदमी की नाक भी होती है! ये गुरु द्रोण तो बिलकुल नाक-कटे आदमी रहे होंगे! किस मुंह से--जिसको दुत्कार दिया था--उससे जाकर दक्षिणा लेने पहुंच गए! 
और फिर भी मैं कहता हूं, एकलव्य अदभुत युवक था; दक्षिणा देने को राजी हो गया। उस गुरु को, जिसने दीक्षा ही नहीं दी कभी! यह जरा सोचो तो! उस गुरु को, जिसने दुत्कार दिया था और कहा कि तू शूद्र है! हम शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते!
बड़ा मजा है! *जिस शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते, उस शूद्र की भी दक्षिणा स्वीकार कर सकते हो!* मगर उसमें षडयंत्र था, चालबाजी थी। 
   उसने चरणों पर गिर कर कहा, आप जो कहें। मैं तो गरीब हूं, मेरे पास कुछ है नहीं देने को। मगर जो आप कहें, जो मेरे पास हो, तो मैं देने को राजी हूं। यूं प्राण भी देने को राजी हूं।
तो क्या मांगा? *मांगा कि अपने दाएं हाथ का अंगूठा काट कर मुझे दे दे!*
   जालसाजी की भी कोई सीमा होती है! अमानवीयता की भी कोई सीमा होती है! कपट की, कूटनीति की भी कोई सीमा होती है! और यह ब्रह्मज्ञानी! उस गरीब एकलव्य से अंगूठा मांग लिया। और अदभुत युवक रहा होगा, निर्मल घोष, दे दिया उसने अपना अंगूठा! तत्क्षण काट कर अपना अंगूठा दे दिया! जानते हुए कि दाएं हाथ का अंगूठा कट जाने का अर्थ है कि मेरी धनुर्विद्या समाप्त हो गई। अब मेरा कोई भविष्य नहीं। इस आदमी ने सारा भविष्य ले लिया। शिक्षा दी नहीं, और दक्षिणा में, जो मैंने अपने आप सीखा था, उस सब को विनिष्ट कर दिया।  
             *---ओशो--*
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दलित दूल्हे को घोड़े पर देख भड़के मुस्लिम

दलित दूल्हे को घोड़े पर देख भड़के मुस्लिम, बारातियों को मार-मारकर भगाया, 5 साल की बच्ची की हालत नाजुक
मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले में दलित दूल्हे को घोड़ी पर बैठने और मस्जिद के सामने DJ बजाने के लेकर भीड़ ने बरातियों पर हमला कर दिया। इस हमले में कई लोग जख्मी हो गए हैं। वहीं, एक पाँच वर्षीय बच्ची को नाजुक हालत में उज्जैन रेफर किया गया है। पुलिस ने फरहान, जुनैद, सोहैल, साबिर, अनस कसाई समेत सात लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया है।

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Wednesday, 8 June 2022

गीता रहस्योद्घाटन

वर्ण व्‍यवस्‍था व पितृसत्‍ता को जायज ठहराने वाले कर्म के दर्शन के अतिरिक्‍त गीता में वर्णित एक अन्‍य दर्शन आत्‍मा का दर्शन है। गीता में कृष्‍ण ने अर्जुन को अपने ही भाई-बंधुओं को मारने के लिए आत्‍मा के दर्शन का हवाला दिया था। (न हन्‍यते हन्‍यमाने शरीरे), अर्थात् यह (आत्‍मा) नहीं मरती, मरता केवल शरीर है। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर जैसे धर्मनिष्‍ठ विचारक ने भी अपनी एक शानदार रचना में दिखाया है कि आत्‍मा का यह दर्शन किस प्रकार शासक वर्ग द्वारा दिन-प्रतिदिन की जाने वाली हिंसा के प्रति आम जन में उदासीनता का भाव पैदा करके उसकी हिंसा को बढ़ावा देता है। 1932 की बात है जब रवीन्‍द्रना‍थ टैगोर हवाई जहाज से इरान की यात्रा पर थे। इस यात्रा के दौरान उन्‍हें कुछ समय के लिए बगदार में ठहरना पड़ा था। बगदाद में ही उन्‍हें पता चला कि ब्रिटिश एयर फोर्स कुछ बागी शेखों के गांवो पर बमबारी कर रही है। यह ख़बर सुनकर टैगोर विचलित हो उठे। उनको यह सरासर नरसंहार लगा। फिर वे सोचने लगे कि आखिर वह कौन सी चीज़ है जो मनुष्‍यों को निर्दोषों एवं दोषियों के बीच भेद की चिन्‍ता किये बगैर अपने ही सहप्राणियों को मौत के घाट उतारने के लिए प्रेरित करती है। हवाई यात्रा के दौरान वे इस प्रश्‍न पर चिन्‍तन-मनन करते रहे। हवाई यात्रा के स्‍वयं के अनुभव के आधार पर वे इसे समझने की कोशिश करते रहे। चिन्‍तन-मनन की इस प्रक्रिया में अचानक ही उनके दिमाग में जगत की वास्‍तविकता को मिथक बताने वाले दार्शनिक विचारों के राजनीतिक प्रयोजन का विचार कौंधा। उन्‍होंने लिखा, '' गीता जिस दर्शन का उपदेश देती है वह भी वायुयान में इस प्रकार की उड़ान जैसा है (जिसके दौरान मनुष्‍य पृथ्‍वी से इतना दूर हो जाता है कि पृथ्‍वी धुंधली होती-होती अस्तित्‍वहीन होती जाती है और हमारी चेतना पर उसकी वास्‍तविकता के दावे का कोई दबाव नहीं रह जाता है)। अर्जुन के संवेदनशील मस्तिष्‍क को वह ऐसी भ्रमकारक ऊंचाई पर ले जाता है जहां से, नीचे देखने पर, मारने वाले और मरने वाले के बीच, कुटुम्‍बी और शत्रु के बीच, कोई अन्‍तर कर सकना अर्जुन के लिए संभव नहीं रह जाता। दार्शनिक तत्‍वों से निर्मित इस प्रकार के बहुत से अस्‍त्र मनुष्‍य के शस्‍त्रागार में विद्यमान हैं। ये यथार्थ को दृष्टि से ओझल कर देने का प्रयोजन पूरा करते हैं। ये साम्राज्‍यवादियों के सिद्धान्‍तों में, समाजशास्‍त्र में तथा धर्मशास्‍त्र में मौजूद हैं। इनसे जिन लोगों पर मृत्‍यु बरसायी जाती है उनकी सांत्‍वना के लिए मात्र कुछ शब्‍द बच रहते हैं: न हन्‍यते हन्‍यमाने शरीरे! 'अर्थात् यह (आत्‍मा) नहीं मरती, मरता केवल शरीर है।'' (पारस्‍य-यात्री)
उपरोक्‍त प्रसंग की रोशनी में यह आसानी से समझा जा सकता है कि गीता के प्रचार-प्रसार की ज़ोरों से वकालत करने वाले वही लोग हैं जो गाज़ा में इज़रायली नरसंहार पर या तो चुप हैं या फिर उसे जायज़ ठहरा रहे हैं। ऐसे लोग शासक वर्ग की हर बर्बर कार्रवाई पर या तो चुप्‍पी साधे रहेंगे या फिर खुले अाम शासक वर्ग का पक्ष चुनेंगे। इसीलिए शासक वर्ग गीता को इतने जोर-शोर से बढावा दे रहा है। 

Posted 17th August 2014 by Anand Singh

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको



आदम गौंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
 
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"
 
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!


नोट :  भारत में हर रोज औसतन 77 रेप होते हैं। हर घंटे करीब 3 बलात्कार। NCRB के मुताबिक 2020 में 28 हजार 46 रेप के केस दर्ज हुए। लेकिन हकीकत ये है कि हर साल बड़ी तादाद में केस ही रिपोर्ट नहीं होते हैं। अगर होते, तो ये आंकड़ा और भी बड़ा और डरावना होता।
निजी संपत्ति पर आधारित पूरी सभ्य दुनिया मे औरतो पर जितने निर्मम और भयंकर जुर्म हुए है उनमें ब्लात्कार सबसे घृणित और औरतो को मानसिक रूप से तोड़ने वाला रहा है।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन (दिमागी ग़ुलामी)

जनता अपने असली हित को समझने की शक्ति रखती है।यदि उसको ठीक से समझा जाये तो मै यहां अपना ही एक उदाहरण देता हूँ।बहुत दिनों बाद मुझे एक परिचित गांव मे जाना पड़ा।लोगो का आग्रह हुआ कि मै रूस के बारे मे कुछ कहूँ।मैने साधारण रूसी जनता की आर्थिक उन्नति की बात बतलायी-कैसे वहां के छोटे-छोटे खेत-मेड़ तोड़कर मिलों लंबे बना दिये गए हैं,कैसे छोटे-छोटे टटुओ की जगह एक हाथ गहरा खोदने वाले सात-सात फारों के मोटर वाले हल एक के पीछे पचास, खेतों मे चलते दिखलायी पड़ते हैं,कैसे गांव के स्त्री-पुरुष,श्रमिक अपने समिल्लित खेतों पर मोटर-हलो पर बैठे झण्डे और जयनाद के साथ खेतों पर पहुंचते हैं,कैसे हवाई जहाज उड़कर मिलों लंबे खेत मे बीज बोते हैं;कैसे मशीनों ही खेतों को काटती है,कैसे फसल को दबाती हैं,किस तरह खेतों पर भी भोजन के वक़्त सैकड़ो किसान काम छोड़कर एक जगह जमा होते हैं,भोजन परोसा जाता है और साथ-साथ लोग रेडियो  का गाना भी सुनते हैं,कैसे गांव एक-दूसरे से जुताई,खेत बोने और अनाज को अधिक परिमाण मे पैदा करने मे होड़ लगाते हैं,कैसे किसी गांव का काम पिछड़ जाने पर दूसरे गांव वाले गोल बांधकर मदद देते और उन्हें लज्जित करते हैं,कैसे गांव की छोटी-छोटी झोपड़ी हटाकर चौड़ी सड़कों के किनारे ईंट-चूने के मकान किसान बना रहे हैं,जिसमे पानी के नल,बिजली की रोशनी,नागरिकों की चीजें पहुंच रही है,कैसे हर एक गांव मे स्कूल,अस्पताल और सिनेमा जारी रहता है,कैसे हर एक गांव के श्रमिक स्त्री-पुरुष अपने पुस्तकालय,क्लबों और नाट्यशाला मे नियमपूर्वक पहुंचते हैं,कैसे लोगो को दिन मे छह-सात घण्टा काम करना पड़ता है और इतने मे ही सुसंस्कृत जीवन बिताने की हर एक सामग्री को वे आसानी से पा सकते हैं,कैसे वहां लड़के-लड़कियों को पढ़ाने तथा परवरिश करने का सबसे अधिक भार साम्यवादी सरकार अपने हाथों में लेती है,मानो पिता को न शादी की फिक्र है,न लड़के के लिए कुछ विरासत दे जाने की,कैसे यदि कोई बीमार या बूढ़ा हो तो उस व्यक्ति के भरण-पोषण का सम्मानपूर्वक इंतजाम सरकार शुरू करती है,कैसे वहां के लोगो की चिंता अब एक हजार हिस्से मे एक हिस्सा रह गई है।
उस सभा मे हिन्दू,मुसलमान,ब्राह्मण और चमार सभी थे।मैने देखा कि सभी के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखा दिखलायी पड़ती है।तब मैने कहा लेकिन रूस मे बहुत सारी खराब बातें भी हुई हैं,वहां घुरहू तिवारी की लड़की को मंगरु चमार का लड़का सरेआम ब्याह कर लेता है और उसमे कोई बाधक नही हो सकता है।वहां खाने-पीने मे जात-पांत का सवाल नही है।मंगरु चमार अगर रसोई अच्छी बनाना जानता है,तो वही बनाएगा और गांव के ब्राह्मण,राजपूत सबको एक साथ बैठकर खाना पड़ेगा।अगर बड़ी जाति वालों ने जरा-सी आनाकानी की तो,बहुत संभव है उन्हें देश से निकाल दिया जाए,धर्म और ईश्वर के लोग विरोधी बना दिये गए हैं,हजारों मंदिरों और मस्जिदों की वर्षों से मरम्मत नही हुई,उनकी छत की लकड़ियों को वही लोग ले जाकर ताप लिया करते हैं और अब उनकी दीवारें और छतें जीर्ण-शीर्ण अवस्था मे गिरने के लिए तैयार हैं,पुरोहितों और मुल्लाओं का पेशा उठा दिया गया है,अपने हाथ से काम करो तो ठीक,नही तो महारानी फूलकुमारी की वो पचासों लौंडिया नही रह गयी,उन्हें अपने हाथ नहाना और धोना नही पड़ता,बल्कि पापी पेट के लिए खेत काटना,मिट्टी ढोना और सब तरह का काम करना होता है।जिनके हाथ कभी मक्खन की तरह मुलायम थे,अब उनके हाथों मे पत्थर के-से कड़े पांच-पांच घट्ठे देख सकते हैं।साधु-महात्मा का नाम वहां नही और सबसे बड़ी बात तो यह है कि जात-पांत का कोई ख्याल नही रखा जाता।देखिये पापी पेट के लिए,इस चार दिन की जिंदगी के लिए इस तरह का अधर्म क्या आप लोग पसंद करेंगे?मैने समझा था कि मेरे पिछले भाषण के पिछले मजमून को सुनकर लोग भड़क उठेंगे।
लेकिन वहां उन लोगो को कहते सुना की अरे,इसमे क्या रखा है,आदमी की तरह सुखपूर्वक जिवेंगे और चिन्ता के बोझ से दिल तो हल्का होगा।कुछ तो कहने लगे-बाबा!यह हमारे यहां कब होगा?हमारी जिंदगी मे हो जाएगा कि नही?

साम्यवादियों को जनता के सामने निधड़क होकर अपने विचार रखना चाहिए और उसी के अनुसार करना भी चाहिए।हो सकता है कुछ समय तक लोग आपके भाव न समझ सकें और गलतफहमी हो,लेकिन अंत मे आपका असली उद्देश्य हिन्दू-मुसलमान सभी गरीबों को आपके साथ सम्बद्ध कर देगा।रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं,क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों का उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नही है।

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'देह ही देश’ यानी क्रोएश्यिा प्रवास डायरी

सारे युद्ध स्त्रियों की देह पर लड़े गए

लहूलुहान अतीत से साक्षात्कार

'देह ही देश' यानी क्रोएश्यिा प्रवास डायरी कुछ समय से काफी चर्चा में है। इसे लिखा है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डॉ. गरिमा श्रीवास्तव ने। यह डायरी शायद कभी न लिखी जाती, अगर वे पूर्वी यूरोप के प्राचीनतम जाग्रेब विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्ति पर पढ़ाने नहीं जातीं और युद्ध पीड़ित महिलाओं से न मिलतीं। भारत लौट कर भी गरिमा को चार साल लग गए इसे प्रकाशित कराने में। इच्छा ही नहीं हुई। उनके मन में अकसर ये खयाल आता रहा कि अगर यह न भी छपे तो किसी को क्या फर्क पड़ता है। 
      
मगर 'देह ही देश' छपा। इसकी चर्चा हो रही है। प्रो. गरिमा की यह डायरी उन लाखों औरतों के नाम है जिनकी देह पर सारे युद्ध लड़े जाते हैं। यह सच है। बांग्लादेश के उदय से पहले वहां स्त्रियों पर पाकिस्तानी सैनिकों ने जो अत्याचार किए उसे कौन नहीं जानता। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने भी जर्मनी पर अधिपत्य जमाने के लिए यही सब किया। जापानी सेना ने चीन के नानकिंग में यौन हिंसा की। कौन भूल सकता है इसे। वे स्त्रियां भी आजीवन नहीं भूल पार्इं। जब भी कोई देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है, तो वहां उसके निशाने पर सबसे पहले बुजुर्ग, बच्चे और खासतौर स्त्रियां होती हैं। ऐसा दमन जिसके बारे में जान कर कलेजा मुंह को आ जाए। 'देह ही देश' को पढ़ कर जाना कि प्रकृति के सबसे सुंदर रूप नारी के प्रति पुरुष कितने बेरहम हो सकते हैं। 

   गरिमा कहती हैं कि लेखन के लिए खूब यात्राएं करनी चाहिए। मगर इन यात्राओं की क्या कीमत होती है, यह लेखक के सिवाय कौन जान सकता है। नदीन गोर्डिमर ने लेखन को एक तरह का दुख कहा था जो सबसे ज्यादा अकेलेपन और आत्मविश्लेषण की मांग करता है। सही कहा। मैं कहता हूं कि कोई भी सृजन लेखक के लिए एक स्त्री के प्रसव पीड़ा की तरह ही होता है। अभी हाल में यूक्रेन पर हमले के दौरान रूसी बलों ने वहां क्या किया होगा। आप अंदाजा लगा सकते हैं। वहां हुए दमन की कहानियां कई साल बाद सामने आएंगी। मगर ये भी सच है कि इन स्त्रियों की आकुलता और करुण पुकार को इतिहास की किसी भी किताब में शायद ही यथोचित जगह मिले। जैसा कि बोस्निया और क्रोएशिया की स्त्रियों के मामले में हुआ। 
 
 प्रो गरिमा की क्रोएशिया प्रवास डायरी, दरअसल बोस्निया, क्रोएशिया और हर्जेगोविना की स्त्रियों का क्रूरता से किए गए यौन दमन का इतिहास है। उसमें उनकी बेबसी, उनकी पीड़ा और उनकी चीख है जिसे दुनिया ने नहीं सुनी। या सुनना ही नहीं चाहा। वह दुनिया जो नब्बे के दशक में आधुनिकीकरण और उदारीकरण के सबसे बड़े दौर से गुजर रही थी। तब इसी धरती पर सर्बिया नाम का देश एक पड़ोसी देश में घुस कर उसके 'शुद्धिकरण' के नाम पर वहां की स्त्रियों की योनि में अपने 'सैन्य बलों के वीर्य' भर रहा था। उसने कई महिलाओं को देह श्रमिक बनने पर मजबूर कर दिया। 

  'देह ही देश' को लिखते हुए कई बार प्रोफेसर गरिमा व्याकुल हुर्इं। मगर हिम्मत बांध कर वे युद्ध पीड़ित कई महिलाओं से लगातार मिलती रहीं। ज्यादातर महिलाओं ने पीड़ा की उस घड़ी को साझा करने से इनकार कर दिया। मगर जो भी कुरेद कर वे निकाल पाईं, वे सब अपनी डायरी में दर्ज करती रहीं। बोस्निया सरकार बताती है कि 50 हजार स्त्रियों के साथ सैन्य बलों ने बलात्कार किया। इन सैन्य बलों ने रेप कैम्प बना रखे थे जहां एक युवती के साथ कई-कई सैनिक दिन रात और जब चाहे बलात्कार करते। कई स्त्रियों की निर्ममता से हत्या कर दी गई। कई स्त्रियों ने दम तोड़ दिया। ऐसा यौन दमन जिसे याद कर स्त्रियां आज भी सिहर उठती हैं। उन सबसे बात कर उनकी पीड़ा को डायरी में दर्ज करना लेखिका के लिए आसान नहीं रहा होगा। 

  गरिमा ने एक जगह लिखा है कि युद्ध की विभीषिका ऐसी कि सर्बिया के हमले के 15 साल बाद एक मां फोका के वेश्यालय में अपनी बेटियों को ढूंढ निकालती है। कब्रिस्तान में लोग युद्ध के बरसों बाद भी गड़े मुर्दे ंिनकालते रहे, कहीं कोई आत्मीय पहचान मिले। ऐसे अनंत किस्से हैं। डायरी लिखने के क्रम में गरिमा लिलियाना यानी लिली से मिलती हैं जिसने सर्ब सैनिकों की यौन हिंसा और सामूहिक बलात्कार को झेला है। अब वह देह श्रमिक बन गई है। उसके साथ की कई स्त्रियां जो जाग्रेब में हैं, सर्ब सैनिकों से घर्षित हुर्इं। इन में कई तो यौन दासी बन कर सैन्य शिविरों में रहीं। अच्छी खासी संख्या वृद्धाओं की भी है जो किसी न किसी बलात्कार की साक्षी रहीं। कई युवा स्त्रियों ने अपमान से बचने के लिए गर्भपात करा लिया। कुछ ने संतान पैदा कर सरकारी अनाथालय में मुुक्ति पाई। 

 देह ही देश को पढ़ते हुए पाठक बेचैन हो सकते हैं। कुछ हद तक अवसाद में जा सकते हैं। एक जगह लेखिका ने एक युद्ध पीड़िता लिली के भेजे गए मेल को जस का तस यों लिखा है- रोज रात को सफेद चीलें हमें उठाने आतीं और सुबह वापस छोड़ जातीं। कभी-कभी वे बीस की तादाद में आते। वे हमारे साथ सब कुछ करते। जिसे कहा या बताया नहीं जा सकता। हमें उनके लिए खाना पकाना और परोसना पड़ता नंगे होकर। हमारे सामने ही उन्होंने कई लड़कियों का बलात्कार कर हत्या कर दी। जिन्होंने प्रतिरोध किया, उनके स्तन काट कर धर दिए गए। 

बोस्निया पर हमले में न जाने कितनी स्त्रियों की शुचिता नष्ट हुई, इसका कोई हिसाब नहीं। कितनी अकथनीय पीड़ा उन्होंने सही, जिसे सुनने वाला परिवार का कोई सदस्य नहीं बचा था। एक के बाद एक मार्मिक कहानी है इस डायरी में। पढ़ कर दिल टूट जाए। आप रातों की नींद खो दें। ऐसी चीखें जो कान फाड़ देती हैं। डॉ. गरिमा क्रोएशिया डायरी लिखती हुए खुद सघन पीड़ा से गुजरी हैं। इस डायरी को लिखने के क्रम में उन्होंने भाषा की सहजता और प्रवाह का ध्यान रखा है। यह डायरी नहीं है, एक लहूलुहान अतीत से साक्षात्कार है। खुद को नश्तर चुभोने की तरह है ताकि आप याद रखें कि हर स्त्री एक मां है तो बहन भी, पत्नी है तो प्रेमिका भी। उसे कष्ट देकर आप खुद भी नहीं बच पाएंगे एक दिन। सर्बिया के पुरुषों लानत है तुम पर।  

-संजय स्वतंत्र
5 जून, 2022

(प्रो गरिमा की इस पुस्तक को कभी मेट्रो में, तो कभी विमान यात्रा में, तो कभी ट्रेन में सफर करते हुए पढ़ा। इसे पढ़ना वाकई बहुत मुश्किल था मेरे लिए। कई रात नींद नहीं आई। कभी अवसाद में चला गया। कई बार आंखें नम हुर्इं। कई बार रोया। कितनी बार दिल चाक हुआ। फिर भी हौसला बटोर कर पढ़ा। कोई एक महीने बाद देह ही देश पर लिखा। स्त्रियों के दमन पर लिखी गई यह डायरी बोस्निया और क्रोएशिया की युद्ध पीड़ित महिलाओं पर एक भावनात्मक दस्तावेज है।) 
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तस्वीर - जुलाई 1995 में सर्ब सैन्य बलों के हमले
 के बाद उजड़ा बोस्निया का शरणार्थी परिवार बिलखते हुए

लेखिका-गरिमा श्रीवास्तव 
पुस्तक -देह ही देश (क्रोएशिया प्रवास डायरी)


धर्म

धर्म की उत्तपत्ति प्राचीन काल मे मनुष्य की प्राकृतिक शक्तियों के समक्ष विवशता के कारण हुई थी और आज मनुष्य पूंजीवादी समाज की शक्तियों के सामने विवश है। मनुष्य बेरोजगार है लेकिन उसे पता नही है कि वह किन पूंजीवादी परिस्थिति के कारण  बेरोजगार है। इस लिये वह धर्म और ईश्वर के शरण मे चला जाता है। धर्म के उन्मूलन के लिये जरूरी है कि पूंजीवादी परिस्थितियों की अनिशिचितता को मिटा कर मजदूर वर्ग समाजवादी व्यवस्था की निश्चितता ले आये। भारत का असली दुश्मन धर्म नही, लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था है।

Monday, 6 June 2022

श्रमिकों की मूल मजदूरी में 15% की वृद्धि अकुशल श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी अब 366 रुपए मिलेगी



पटना | कृषि और निर्माण मजदूर इतनी मिलती है मजदूरी सहित 88 विभिन्न सेक्टर के कुशल, अर्द्ध कुशल और अकुशल श्रमिकों की मजदूरी में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। 

कृषि सहित 88 विभिन्न सेक्टर के अकुशल मजदूरों की मजदूरी न्यूनतम 366 रुपए प्रतिदिन हो जाएगा। न्यूनतम मजदूरी परामर्शदातृ समिति की बैठक में इस पर सहमति बन गई थी। अब इसे विभाग के पोर्टल पर अपलोड कर श्रमिक संगठनों, आम लोगों और नियोजकों से आपत्ति और सुझाव लिए जाएंगे। 60 दिनों तक इस पर सुझाव लेने के बाद इसे फाइनल कर लागू किया जाएगा। श्रम संसाधन मंत्री जिवेश कुमार ने बताया कि हर पांच साल पर मजदूरों के मूल मजदूरी में बढ़ोतरी की जाती है।

• अभी अकुशल श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी 318 रु. प्रतिदिन है। अर्द्धकुशल श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी : 330 रुपए प्रतिदिन 
• कुशल श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी 403 रुपए प्रतिदिन

• अतिकुशल श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी 492 रुपए प्रतिदिन



मंथन अंक- (7) "आर्थिक, राजनीतिक, समाजिक मुद्दे" _____________ गुजरात विकास मॉडल प्रचार क्या और हकीकत क्या ? ---------------------------------------------------------------------- लेखक : वीरेन्द्र विश्वकर्मा (आजमगढ़) _____________________________________________


गुजरात विकास माडल (नमूना) पर तो चर्चा पूरे चुनाव के दौरान होती रही है। चुनाव उपरान्त आज भी इस विकास मॉडल पर चर्चा करना आवश्यक है क्योंकि यह मोडल पेश करने वाली भाजपा की सरकार बने आधा साल से ज्यादा हो चुका है। गुजरात का जो विकास हुआ है उसे दिखा बताकर यह कहा जाता रहा है कि जब श्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे तो देश का गुजरात जैसा ही विकास कर देंगे। पहले यह देखा जाय कि गुजरात का विकास किसके द्वारा और कैसे हुआ? यह कैसा किनका विकास है?

गुजरात सरकार प्रान्तीय सालाना बजटो द्वारा पूजीपतियों को उनके उद्योगों कल-कारखानों के लिए सस्ते मे कृषिगत कपास, मूंगफली तम्बाकू दूध जैसे कच्चे / अर्द्धतैयार माल उपलब्ध कराती रही है। छोटे व्यापारियों से होते हुए बड़े व्यापारियों पूंजीपतियों के उद्योगों कल-कारखानों में इन कृषिगत मालो की रंगाई डिजाइन पैकेजिंग व अन्य दूसरे रंग रूप में बनाकर देशी विदेशी बाजार में बेच के व्यापारियों पूंजीपतियों के लाभ अतिरिक्त लाभ में वृद्धि होती आ रही है। व्यापारियों पूजीपतियों के उद्योगो कल-कारखानों की जरूरतों की दृष्टि से कृषि का विकास भी होता रहा। उन्हीं की जरूरतों के लिए कपास मूंगफली जो उनके वस्त्र तेल साबुन शैम्पू जैसे महत्वपूर्ण उद्योग के आधार है। जिनको पैदा करने वाले किसानों को आधुनिक प्रौद्योगिकी तथा वैज्ञानिक खेती के तरीकों के प्रति जागरूक बनाने के लिए कृषि महोत्सव जैसे आयोजन करना तथा सरकार द्वारा जल संरक्षण व जल प्रदान गतिविधियों को बढ़ावा देती जा रही है। जिसके क्रम में वालसाद भारत का प्रथम उद्यान विज्ञान (हॉर्टीकल्चर) जिला हो गया, जहाँ से सब्जी फल व फूलों का निर्यात होता है।

सन् 1991 में केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने निजीकरण, उदारीकरण, विश्वीकरणवादी नामक "नई आर्थिक नीतियों को साम्राज्यवादी देशों खासकर अमेरिका के निर्देशनोनुसार पूरे देश में लागू किया था, जिसका उस समय भाजपा व गैर-कांग्रेसी दलों ने विरोध किया था लेकिन विरोध करने वाले दल (संयुक्त मोर्चा की सरकारे व बाजपेयी सरकार) जब सत्ता- सरकार में चढ़े तो कांग्रेस द्वारा लागू उन्ही आर्थिक सुधारों के अगले चरण को आगे बढ़ाये। और जब 2001 में श्री मोदी गुजरात प्रान्त के मुख्यमंत्री बने तो वे भी उन्हीं आर्थिक सुधारों (उदारीकरण निजीकरण, भूमण्डलीकरण) को ज्यादा चढ़-बढ़कर लागू करने लगे। जैसे- 

(1) विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ), विशेष निवेश क्षेत्र (SIR Act) अधिनियम लाकर पेट्रोलियम रसायन और पेट्रोलियम रसायन निवेश क्षेत्र प्रसार के हब बनाने। 
(2) देशी-विदेशी पूँजीपतियों द्वारा स्थानीय किसान मालिकों से सीधे भूमि खरीदने की छूटे प्रदान किये। 
(3) पूँजीपतियों के उत्पादन, वितरण बाजार के इलाको क्षेत्रों को और ज्यादा विकसित व आरक्षित करना। 
(4) सुजूकी (जापान), जनरल मोटर्स, फोर्ड (अमेरिका), जैसी विदेशी कम्पनियों तथा विदेशी कम्पनियों के साझीदार सहयोगी भारतीय पूँजीपतियों-टाटा (नैनो कारखाने के लिए) रिलायन्स, अदाणी इत्यादि के उद्योग-धन्धो, कल-कारखानों के लिए सस्ते में जमीने अधिग्रहीत करने की छूट देना। 
(5) पूँजीपतियों को सस्ते में बिजली, पानी, सड़क, रेलवे,
बंदरगाही, दूरसचारी इत्यादि जैसी बेहतर सुविधाए देना रहा है। सरकारी-निजी हिस्सेदारी (पी.पी.पी.) के तहत सरकारी क्षेत्रों जैसे-स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, परिवहन, इलेक्ट्रानिक्स, डेयरी उद्योग बन्दरगाहो हवाई अड्डों खदानों इत्यादि के क्षेत्रों में राज्य सरकार ने निजी क्षेत्र के देशी-विदेशी पूंजीपतियों को शामिल किया है। श्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने गुजरात के प्राकृतिक संसाधनों जैसे कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, बाक्साइड, चूना पत्थर चीनी मिट्टी इत्यादि के खदानों का पूंजीपतियों द्वारा दोहन करने की सरकारी ढीलें छूटें दी। पूंजीपतियों द्वारा हायर एण्ड फायर यानि जब चाहे मजदूरों को रखने व निकालने की भी छूटे दे दी थी।

गुजरात विकास का एक महत्वपूर्ण कारण समुद्र तटीय होना इस प्रान्त में लगभग इकतालिस बन्दरगाह है। गुजरात विकास इसलिए भी विकास मॉडल बन पाया क्योंकि देश-विदेश से आयात-निर्यात करने की बन्दरगाही सुलभता व सुविधाओं वाला प्रान्त है वैसे देश-दुनिया के बड़े-बड़े पूंजीपति आकर्षित होके अपने उद्योग, व्यापार बहुत पहले से स्थापित करते आ रहे हैं। गुजरात प्रान्त का औद्योगिक विकास (i) विदेशी आर्थिक व तकनीकी पूंजी का अधिकाधिक आगमन तथा (ii) उड़ीसा, मध्य प्रदेश पूर्वी उ०प्र० बिहार जैसे पिछडे प्रान्तों से गये मजदूरों के शारीरिक, मानसिक श्रम के शोषण दोहन व साथ ही (iii) अन्य प्रान्तों के कच्चे पक्के अर्थ तैयार कृषिगत व औद्योगिक मालो सामानों की ढुलाई, सप्लाई के परिणामस्वरूप हुआ है। इसीलिए गुजरात देश का सबसे संघन औद्योगिक राज्य का दर्जा पाया हुआ है। गुजरात के इसी विकास को विकास मॉडल के रूप में प्रचारित किया जा रहा था व है।

अब गुजरात विकास मोडल के एक अन्य पहलू की व्यावहारिक उदाहरण देखें- 

चुनाव में श्री मोदी जी शेष भारत के गावों के विकास करने की नगरों जैसी गावों में भी सुविधाएं देने की बाते करते रहे। इस संदर्भ मे अन्तर्राज्यीय तुलनात्मक आकडे-2008 (अर्थ एवं संख्या प्रभाग, राज्य नियोजन संस्थान, उप्र) से स्पष्ट है कि 2006 में गुजरात में ग्रामीण औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय 684 रु० तो नगरीय मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय था 1105 रू० ग्रामीण व नगरीय उपभोक्ता व्यय का अन्तर 521 रू० था। एक साल बाद 2007 में ग्रामीण प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय बढ़कर हो गया 797 रू0 तो नगरीय प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय बढ़कर हुआ 1422 रू० यानि उपभोक्ता व्यय का अन्तर बढ़कर हो गया 625 रू0 मतलब, ग्रामीण आबादी की तुलना में शहरी आबादी का जीवन स्तर बेहतर होता रहा है, जबकि उसी काल में महाराष्ट्र प्रान्त के शहरी आबादी का जीवन स्तर गुजरात से बेहतर रहा। देश के अन्य प्रान्तों की तरह गुजरात के किसान भी कृषिगत लागत के बढ़ते मूल्य, कर्जे सिचाई के अभाव पैदावार के उचित मूल्य भाव न मिलने इत्यादि के कारण कपास उत्पादन करने वाले किसानों द्वारा कपास जलाने व आत्महत्या करने की अखबारी खबर है। इसके अलावा गुजरात में ही बहते गंदे नालों नहरों के किनारे झोपड पट्टियां बनाकर रहने वाले परिवारों की हालत भी दयनीय है। जिसका चर्चा चित्रण पूर्वी यूपी से गये मजदूरों द्वारा बताया जाता है। ये उपरोक्त विकास के दोतरफा परिणाम व अबराबरी बढ़ाने व वर्गीय एवं क्षेत्रीय असंतुलन पैदा करने वाले परिणाम है।

अंग्रेजी काल से चला आ रहा है अबराबरी बढ़ाने वर्गीय एवं क्षेत्रीय असंतुलन पैदा करने वाला आर्थिक सामाजिक विकास आज भी जारी है जैसाकि उप खासकर पूर्वी यू.पी व बिहार जैसे पिछड़े प्रान्तों इलाकों का जहां कम कृषिक औद्योगिक विकास व कम से कम उत्पादन तथा घनी आबादी के कारण बेकारी सम्पत्तिहीनता, गरीबी ज्यादा फैली रहती है। पूर्वी यूपी व बिहार जैसे पिछड़े इलाकों के मजदूर व किसान एवं अन्य साधारण वर्ग रोजी-रोटी कि तलाश में बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली जैसे नगरों शहरों को पलायन करते रहते हैं। महज रोजी-रोटी की तलाश में आये साल तथा खासकर सूखे के साल रेलगाड़ियों में ठूस-ठूस कर यहाँ से वहाँ अपने जागर मेहनत से पूजीवादी नवनिर्माण में सस्ते मजदूर के रूप में अपना शारीरिक मेहनत पसीना लगाते हैं, तो क्या प्रधानमंत्री श्री से में उदारीकरणवादी • मोदी जी इन पिछड़े प्रान्तों, इलाकों में, नरेन्द्र पूंजीनिवेश का प्रवाह कराके औद्योगिक एवं कृषिक विकास करवा पायेगे  ?  क्या इन इलाको से टूटती किसानी, दस्तकारी से हुए बेरोजगार व साधारण परिवार से रोजी-रोटी के लिए जाने वाले मानव श्रम को रोक पायेंगे? क्या प्रधानमंत्री जी खेती-किसानी, दूटती दस्तकारी बेकारी जैसी समस्यों का समाधान कर पायेगे जैसाकि वे चुनावी प्रचारों के दौरान लोगों में उम्मीद जगाते रहे। वे ऐसा कर नहीं पायेंगे? इस पर पाठक भी सोचें।

(आजमगढ़)

लेखक :  वीरेन्द्र विश्वकर्मा