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Monday, 6 June 2022

मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रासंगिकता वर्तमान में । मंथन अंक ( द्वितीय ) विशेषांक -------------------------------------------------------------------------- लेखक : ओमप्रकाश सिंह ( आजमगढ़ )


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लेनिन ने 1917 में रूस में मजदूरों किसानों को संगठित करके जिस रास्ते पर चलकर अक्टूबर क्रान्ति सम्पन्न किया था उस रास्ता को लेनिनवाद के नाम से जाना जाता है। जैसे मार्क्स ने पूंजीवाद की व्याख्या करके मजदूर क्रान्ति की रणनीतियों व कार्यनीतिया बताया, वैसे ही लेनिन ने जब पूजीवाद विकास करके अपनी अन्तिम अवस्था साम्राज्यवाद में विकसित हो गया तब साम्राज्यवाद के युग में मजदूर क्रान्ति का रास्ता बताया। इस लिये लेनिनवाद साम्राज्यवाद के युग का मार्क्सवाद भी कहलाया। इस रास्ते पर चलकर ना केवल रूस में बल्कि दुनिया के लगभग एक तिहाई हिस्से में जनवादी समाजवादी मजदूर कान्तियाँ हुई थी।

लेनिन को साम्राज्यवाद की व्याख्या इसलिये करनी पड़ी क्योंकि पूजीवादियों की तरह ही कई दिग्गज मार्क्सवादी व प्रभावशाली नेता काउत्सकी आदि पूंजीवाद की इस साम्राज्यवादी अवस्था को पूंजीवादी अन्तर्विरोधों से मुक्त शान्ति का काल कहने लगे तथा साम्राज्यवाद को जनतांत्रिक बताने लगे थे। जिसका स्पष्ट मतलब था कि किसानों व मजदूरों की स्थितियों को इसी व्यवस्था में सुधारा जा सकता है। ऐसे ही दौर मे लेनिन को मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों को पकड़कर वर्तमान साम्राज्यवादी व्यवस्था की व्याख्या करना पड़ा।

विकसित मयूरोपीय देशों में जहाँ सामंतवादी व्यवस्था व राजशाही धर्मशाही के राज को उखाड़कर पूंजीवादी सत्तायें व व्यवस्थाएं स्थापित की गई थी उन देशों में उत्पादक शक्तियों का स्वतन्त्र विकास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप औद्योगिक उत्पादन बढ़ता गया। जब किसी एक देश (जैसे मान से इंग्लैण्ड में उत्पादन की वृद्धि से क्रय विक्रय में वृद्धि से लाभ में वृद्धि से पूंजीवादी पूंजी के पुनर्विनियोजन में वृद्धियों बार बार होने से) में उत्पादन इतना ज्यादा हो जाये कि उसका स्थानीय बाजार या मण्डी में खपना संम्भव न हो, तब उस देश के पूंजीपति, कारखानेदार को अपना माल बेचने हेतु दूसरे देश में जाना पड़ता है उन्हें अपनी मण्डी बाजार बनाना पड़ता है। और बार बार उत्पादन होके दूसरे, तीसरे देशों में बिकने से उस मातृ देश में कच्चे मालों की कमी होने लगती है। विकसित देशों में उत्पादन वृद्धियों से बाजार में वृद्धि व विस्तार की तथा पुनः उत्पादन हेतु कच्चे मालों व खनिज पदार्थों की आवश्यकताएं बढ़ने लगती है। चूंकि इन्हीं दोनो आवश्यकताओं की पूर्ति से ही विकसित देशों इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी आदि में और ज्यादा उत्पादन वृद्धिया, क्रय-विक्रय में वृद्धियां होके ही इनके मुख्य लक्ष्य लाभदर लाभ में वृद्धियां और पूंजी में वृद्धिया फलत: पुनर्विनियोजक पूंजी में वृद्धियां होती है। अन्यथा उनका पूंजीवाद विकास नहीं कर सकता है। यह लक्ष्य चूंकि हर पूंजीवादी विकसित देश के प्रत्येक पूंजीपति का होता है इसलिये अपने इन लक्ष्यों और आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अलग अलग तथा संघबद्ध होके भी दुनिया भर की खाक छानते रहे। इसी क्रम में उन्होंने उत्पादन व व्यापार के साधनों आधुनिक तकनीक मशीने व यातायात आदि का विकास विस्तार किया करवाया और पिछड़े देशों को अपना उपनिदेश बनाये। पूजीवादी] अमरीका, इंग्लैण्ड, फ्रान्स, पुर्तगाल, जर्मनी आदि पिछड़े व कमजोर देशों में लूटपाट शोषण दमन करते अपना सैन्य व कूटनीतिक प्रभाव प्रभुत्व जमाते आ रहे हैं और इसके लिये वे स्थानीय राजाओं नवाबों को या आज की जनतांत्रिक कहलाने वाली सत्ता और हुकुमतों को और उनके समर्थक जन विद्रोहों को कुचलते दबाते तथा उपमें भी एक दूसरे की हड़पा हमी करते, युद्ध लड़ के उन्हें सत्ता से हटाते तथा पिछड़े, गुलाम व पराधीन देशों में अपने गुर्गे, गुमाश्ते व पिठ्दुओं की सरकारें बैठाते आ रहे हैं। और आपस में दुनिया के बटवारे व पुनबँटवारे के लिये युद्ध लड़ते हैं। साम्राज्यवाद कत्तई शान्ति काल नहीं है। लेनिनवाद की यह प्रस्थापना प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्धों में सही साबित कर दिया था और आज भी साम्राज्यवादी देशों अमरीका इंग्लैण्ड आदि द्वारा इराक, सीरिया, लीबिया, अफगानिस्तान और सूडान आदि पर सैन्य हमला व उत्तर कोरिया पर हमले की धमकी व नाकेबन्दी आदि घटना कम लेनिनवाद की सच्चाई स्थापित करते हैं। इन दोनों जरूरतों की पूर्ती होने से ही उन देशों के उत्पादन में वृद्धि खरीद विक्री, आयात-निर्यात में वृद्धि और साल दर साल अनवरत लाभ की दर में वृद्धियां होती है जो उनकी राष्ट्रीय बचत लाभ में वृद्धियां और पुनर्वियोजक पूंजी में वृद्धियां लाती है। परिणाम स्वरूप उन देशों में उत्पादन का संकेन्द्रण, पूंजी का संकेन्द्रण इस कदर बढ़ता गया कि उत्पादन के मालिक उद्योगपतियों और पूंजी के मालिक बैकपत्तियों से प्रतिस्पर्धा करने वाले छोटे-छोटे उद्योग व बैंक आपस में सम्मिलित होके गठजोड़ करके ही टिक सकते थे अन्यथा वे टूट टूट कर बड़े उद्योगों बड़े बैंकों में विलीन होते गये. फलत बड़े बड़े दैत्याकार इजारेदार उद्योग और इजारेदार बैंक खड़े हो गये चन्द गिने धुने पूंजीपत्तियों के हाथ में देश का कुल उत्पादन व पूंजी संकेन्द्रित हो गई। विकसित पूंजीवादी देशों में मजदूरों की लूटपाट, शोषण, उत्पीड़न से तथा छोटे उद्योगों, कारोबारियों, दस्तकारों किसानों की टूटन व बर्बादियों से मजदूर वर्ग की संख्या में भी बेतहासा वृद्धियां हुई, मजदूरों में बेकारी आदि समस्यायें बढ़ती गई। इस प्रकार पूजीवादी देश दो विशाल शत्रु शिविरों में बंटता गया पूंजीपति और मजदूर वर्ग के बीच अन्तर्विरोध तीखा होता गया।

कारखाने का मालिक पूंजीपति चाहता है कि उसके कम्पनी कारखाने का उत्पादन, बाजार में बिके ताकि उसकी उत्पादन लागत व खर्चे आदि निकाल के उसे मुनाफा प्राप्त हो और मुनाफे को जोड़कर जो पूंजी इकट्ठा हो उसे यह पुनः उत्पादन क्रिया में पुनर्विनियोजित करे ताकि पुनः ज्यादा गाल पैदा हो के बाजार में क्रय-विक्रय होके और ज्यादा मुनाफा जोड़ के पूंजी इकट्ठा होके पुर्नविनियोजक पूंजी बढ़ती रहे। बार-बार यह क्रिया चलती रहे यह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली है। इसमें नाना प्रकार की मालों व सेवाओं का उत्पादन व विस्तार बढ़ जाता है, बाजार में क्रय-विक्रय खूब बढ़ता है, मुनाफा बढ़ाते-जोड़ते पूंजीपति की तिजोरियों में पूजियों का ढेर लग जाता है. नित नये क्षेत्रों में पूजीनिवेश: बढ़ता जाता है। साथ ही इन क्रियाओं में जुड़ा हुआ मध्यम वर्ग अफसराना व व्यापारी आदि की कमाई व सुविधाएं भी  बढ़ती जाती है। लेकिन मजदूर व किसान व अन्य मेहनतकश बहुसंख्यक आबादी दिन रात अथक मेहनत श्रम से पूजीपति के कारखाने में उत्पादन बढ़ाकर शोषण दोहन का शिकार होती है। बढ़ाकर बाजार में लूटपाट ठगी का शिकार बनती है जो महंगाई, बेकारी, गरीबी से परेशान व तंग होती है। इसलिये उत्पादक मेहनतकश वर्ग मजदूर और किसान अपने जीवन की बेहतरी व विकास चाहता है वह शोषण उत्पीड़न, लूटपाट व ठगी से महंगाई
बेकारी,गरीबी से मुक्ति चाहता है। उत्पादन साधनों का मालिक गैर उत्पादक पूंजीपतियों व अमीर वर्गों तथा उत्पादन
साधनों से वंचित उत्पादक मजदूर किसान वर्गों की चाहते व लक्ष्य व दृष्टिकोण अलग-अलग व परस्पर विरोधी वर्गीय
है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद बताता है कि ये परस्पर विरोधी हितों के बीच होने वाले झगड़े विवाद व टक्करें तब तक खत्म
नहीं हो सकती जब तक कि उत्पादक मेहनतकश मजदूर किसान एकजुट व संगठित होके वर्ग संघर्ष चलाकर गैर
उत्पादक परजीवी मालिक वर्गों से उत्पादन के साधनों को छीन नहीं लेता और खुद राजपाठ का व सारे साधनों का मालिक नहीं बन जाता है। लेकिन यह सब कुछ मजदूर वर्ग के राज्य और उस पर मजदूर वर्ग के अनन्य नियन्त्रण के बिना सम्भव नहीं है।

लेनिन ने साम्राज्यवाद की व्याख्या करके बताया कि जिस तरह पूंजीवादी समाज दो विरोधी वर्गों पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग में बढ़ा हुआ है उसी तरह से पूरा विश्व दो खेमों वर्गों में बटा हुआ है एक तरफ चन्द्र विकसित साम्राज्यवादी देश अमरीका इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान, फांस आदि जैसे वित्तीय पूंजी में धनादतम् आधुनिक तकनीकी में उन्नत, सैन्य दृष्टि से ताकतवर शोषक लुटेरे व प्रभुत्वकारी राष्ट्र है तो दूसरी तरफ भारत जैसे पूंजी में गरीब तकनीकी में पिछड़े सैन्य दृष्टि से कमजोर शोषित उत्पीडित पराधीन राष्ट्र है। विकसित देशों का पूजीवाद अपने भारी उद्योगों के माल खपाने की बाजार तलाशते भारत जैसे देशों में आया । उदाहरणार्थ, ब्रिटिश पूंजीवाद ने भारत में मौजूद कृषि पर आधारित उद्योग व दस्तकारी को अपने सस्ते व चमकीले भड़कीले मालों से तोड़ डाला। फलतः यहाँ का कृषि और दस्तकारी टूट कर बर्बाद हो गई। अब, उनके ये लक्ष्य तभी पूरे हो सकते थे जब भारत जैसे देशों में खदानों से धातु निकालने कृषि उत्पादन के विकास हेतु व तकनीकी उन्नति के लिये वैज्ञानिक अनुसंधान करवाये जायें। धरती के नीचे कहीं क्या है? उसे खोज कर निकाला जाये, यह काम भी वित्तीय पूंजी के मालिको वित्त सम्राटों को करने पड़ते हैं। अपनी इन्ही जरूरतों की पूर्ति के लक्ष्य से ही विकसित देशों का पूंजीवाद विश्वव्यापी बनता गया। उन्होंने हिन्दुस्तान में अपनी वित्तीय पूंजी व आधुनिक मशीनों, तकनीकों का प्रत्यक्ष पूंजी निवेश करके रेलवे लाइन बिछाई, बन्दरगाह बनवाये, सड़कों से रेलवे लाइनों और बन्दरगाहों को जोड़ा, खदानों से कोयला, अभ्रक, अल्मुनियम, लोहा आदि निकाल कर अपने देश इंग्लैण्ड भेजने लगे। कृषि का भी अपनी औद्योगिक जरूरतों के अनुसार, कपास, नील, जूट आदि का मिर्च मसाले, गे, गुरु आदि का विकास करवाये ताकि उनके उद्योगों को कच्चेमाल, खनिज पदार्थ, कृषि उत्पाद रूई सूत व धागे आदि मिल सके। यह करने के लिये इंग्लैण्ड को यहां के पुराने शासक वर्गों से युद्ध लड़ने पड़े, उन्हें षडयन्त्रों, तिकडमों से पछाड़ना पड़ा और यहां अपने गुर्गे गुमाश्ते पिट्ठू राजे, सामन्त, व्यापारी व बुद्धिजीयी पालने पोसने पड़े थे तब उनका प्रभुत्ववादी साम्राज्यवाद भारत पर फैला था। जैसाकि इतिहास आप पाठक जानते हैं यह सब कुछ साम्राज्यवादी देश तभी कर सकते थे जिसे वे अपने अनुभवों से जानते भी थे कि किसी दूसरे देश में माल बेचने मुनाफा कमाने और यहां से अपनी औद्योगिक सभ्यता की जरूरत पूर्ति के लक्ष्य तभी सफल हो सकते हैं जब वह (साम्राज्यवादी इंग्लैण्ड) आदि अपने साथ अपनी पूरी पूंजीवादी प्रणाली लेक भारत जैसे देशों में आये। इसीलिये की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने व्यापारिक कोठियों के साथ ही इस देश में सैन्य किले बनवाये, ब्रिटिश कानून व न्याय व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली, अंग्रेजी व ईसाई मिशनरियों के साथ शासन प्रशासन की संसदीय प्रणाली लेकर आयी थी जो 1947 तक विकसित होती फैलती रही थी। 

वह प्रणाली 1947 के बाद के शुरू के 30 सालों तथा साम्राजावादी देशों के वित्त सम्राटों के कर्जे उनकी सरकारों व  मुद्राकोष के कर्जे अनुदान व सहायोग सहायताओं के नाम से आती रही वित्तीय पूंजी मशीनों तकनीको, कलपुर्जे, प्रबंधकीय कौशल ज्ञान से विकसित होती रही। जिसके बदले वे साम्राज्यवादी देश बतौरे मुनाफा व सूद बहुमूल्य धातुएं तांवा अल्मुनियम जस्ता आदि व रबर, कहवा चाय, चीनी गोस्त फल मेवें आदि कृषि उत्पाद लूटकर अपने देश ले जाते  रहे। यह लेन देन आयात-निर्यात सालदर साल बढ़ता ही गया। परन्तु हर साल उत्तरोतर आयात बढ़ता रहा और निर्यात घटता रहा व्यापार घाटे होते रहे और विदेशी कर्जा मूल व सूद की अदायगियां चकवृद्धि अनुपात में बढ़ती रहीं। जबकि सरकारें बार बार विदेशी पूंजी व तकनीक की सहायता सहयोग से भारत में उत्पादन बढ़ाकर, निर्यात बढ़ाकर व्यापार घाटा पूरा करने व कर्ज की अदायगियां करने के दावे करती रही। उत्पादन बढ़ा भी निर्यातित मालों की मात्राएं भी बढ़ती गई। यहां उत्पादन व आयात-निर्यात बढ़ाने में लगा देशी पूंजीपति व व्यापारी वर्ग लगातार धनी से मनाइय होता रहा और साम्राज्यवादी देशों को बतौर मुनाफा व सूद भारत से कच्चे व अर्द्ध तैयार माल कृषिगत व दीगर उपभोक्ता मालों का निर्यात भी बढ़ता रहा। यही होता रहे, यह उनका तीसरा लक्ष्य है, उनकी वित्तीय पूंजी का यही महाजनी चरित्र है। साम्राज्यवाद किसी देश से लाभ दर लाभ व सूद-दर सूद लूटता है और फिर इसी लूट की कड़ी में उस देश को जोड़ के अपने सिकंजे में फंसा लेता है। गुलामी की जंजीरों में बांध देता है ताकि उस पिछड़े व पराधीन देश का सस्ता श्रम व सस्ती सम्पदाओं को लूटपाट कर अपनी पूंजीवादी सभ्यता की जरूरते पूरा करता रहे। यह काम आज विश्वव्यापी होके भारत में भी हो रहा है। पहले देश में कांग्रेस पार्टी की सरकार द्वारा राष्ट्रीयकरणवादी व नियन्त्रणवादी नीतियां लागू करवा के करता रहा। जिसके 30 साला परिणामों पर चर्चा ऊपर की गई, न तो देश स्वतंत्र हुआ और नहीं आत्मनिर्भर बन पाया। तब उन्हीं दिग्गज आत्मनिर्भरतावादियों में नई आर्थिक नीतियों के नाम से वही 1947 के पूर्व की स्थिति बहाल करके साम्राज्यवादियों के लिये प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के लिये दरवाजे व रास्ते खोल दिये राष्ट्रीयकरण वादी नीतियों की जगह निजीकरणवादी व नियंत्रणवादी की जगह उदारीकरण वादी नीतियां अपनाई। जिसके परिणाम भी वही पुराने हैं। स्वतंत्रता बराबरी की बातें केवल किताबों बहसी में ही है वास्तविक सम्बन्ध पराधीनता के है। साम्राज्यवादी लूटपाट शोषण उत्पीड़न, महंगाई, बेकारी, गरीबी, अभावग्रस्तता पिछड़ापन आदि से बहुसंख्यक जनता मजदूर किसान व अन्य मेहनतकश वर्ग तंग व परेशान है। वहीं समाज का एक छोटा सा हिस्सा पूंजीपति वर्ग व उसका समर्थक व सहयोगी, अफसर अधिकारी, खिलाडी, हीरो हिरोइने, पत्रकारीजगत के बौद्धिक तबके, साहित्यकार नाटककार ठीकेदार व्यापारी आदि उच्च मध्यमवर्गीय तबके खुशहाल है जो साम्राज्यवाद के समर्थक, गुर्गे गुमास्ते बनते जा रहे है। लिहाजा शोषित उत्पीडित जनता मजदूर किसान व मेहनतकश वर्ग पूंजीवाद साम्राज्यवाद की विरोधी है जो अपनी मुक्ति के साथ ही राष्ट्र की गुलामी व पराधीनता से मुक्ति का संघर्ष लड़ेगी।

लेनिन ने बताया कि साम्राज्यवादी पराधीनता व गुलामी के विरूद्ध पिछड़े व पराधीन देश की आम जनता के बीच झगडे व संघर्ष, दूसरे विकसित देशों में मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच का अर्न्तविरोध तीसरे साम्राज्यवादी गुटों और देशों के बीच के अन्तर्विरोध साम्राज्यवाद के युग में इतने तीखे हो गये हैं अपने चरम पर पहुंच गये है कि साम्राज्यवाद मरणासन्न है। इसलिए लेनिन ने इसे सर्वहारा क्रांतियों का युग कहा । सवाल है कि ये क्रातियां होंगी कैसे? इसके लिए उन्होंने सर्वहारा कान्ति की रणनीतियों व कार्य नीतियाँ बनाई। जिसे संचालित करने के लिये मजदूर वर्ग की एक पार्टी होना आवश्यक है जो किसानों व मजदूरों को सचेत व जागृत करती है पार्टी जिन व्यक्तियों से बनती है उनका मार्क्सवाद लेनिन वाद का जानकर होना सैद्धान्तिक ज्ञान से लैश होना पहली शर्त है और दूसरी शर्त है कि वह पूंजीवाद साम्राज्यवाद विरोधी वर्ग संघर्ष में 100 प्रतिशत विश्वास करता हो और वर्ग संघर्ष चलाने का अनुभवयान हो । तीसरी शर्त है कि किसानों, मजदूरों में चेतना फैलाने उन्हें संगठित करके वर्ग संघर्ष चलाने का काम अवश्य करता हो।

लेनिन ने बताया कि साम्राज्यवाद के युग में विकसित देशों में वित्तीय पूंजी का जो अम्बार पिछड़े देशों की बेतहासा लूटपाट से खड़ा हो गया है उसी लूट का एक हिस्सा साम्राज्यवादी देशों का पूंजीपति अपने देश के मजदूर नेताओं को घूस खिलाकर अपना अन्धभक्त बना लिया है जो अवसरवाद के रूप में मार्क्सवादी कतारों में फूट डालने का प्रमुख काम करते हैं। इसी कारण मजदूर वर्ग की पूरी की पूरी पार्टी व बड़े दिग्गज नेता मजदूर वर्ग से गदद्दारियां करके पूंजीवाद के साथ खड़े हो जाते हैं। जैसाकि प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने पर हुआ भी। इसलिये साम्राज्यवादी देशों के मजदूर वर्ग के नेताओं के क्रान्तिकारी होने की उन्होंने शर्त बताई कि पहले वह अपने साम्राज्यवादी देश द्वारा किसी पिछड़े कमजोर राष्ट्र के शोषण उत्पीड़न व उपनिवेश बनाने का विरोधी हो और उक्त पिछडे राष्ट्र में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों का समर्थन करें और पिछड़े राष्ट्र के मजदूरों किसानों को अपने राष्ट्र के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों का समर्थन यह जान समझकर करे कि तमाम जनवादी मांगों की तरह राष्ट्रमुक्ति भी एक जनवादी मांग है। इसलिए राष्ट्रमुक्ति का कार्यभार सर्वहारा कार्यभार के पहले नहीं, सर्वहारा कार्यभार के अन्तर्गत है। उन्होंने यह भी बताया कि साम्राज्यवाद के युग में किसी एक देश में भी क्रान्ति हो सकती है और वह विकसित पूंजीवादी ही नहीं किसी पिछड़े देश में भी हो सकती है। उनकी यह बात सच साबित हुई और पहले से चले आये भ्रम टूट गये प्रथम विश्व युद्ध में जब दुनिया भर के पूजीवादी साम्राज्यवादी आपस में युद्ध लड़ रहे थे। तब रूस की बोल्योविक पार्टी ने लेनिन के नेतृत्व में गृहयुद्ध छेड़कर अपने पूंजीपति वर्ग का राज उखाड़ दिया जारशाही का अन्त कर दिया। यही काउत्सकी आदि सुधारवादी अवसरवादी नेता अपने देश के पूंजीपति वर्ग के साथ खड़े होकर मजदूर वर्ग से गद्दारिया किये रूसी अक्टूबर क्रान्ति पूंजीवाद साम्राज्यवाद के विरूद्ध लड़ने में तभी सफल हो पाई जब यह डेट कर अवसरवाद के विरुद्ध भी लड़ती रही। उसके अक्टूबर क्रान्ति से अनुभव लेके दुनिया के मजदूरों किसानों ने कई पिछड़े देशों में जैसे पूर्वी यूरोप के युगोस्लादिया चेकोस्लवाकिया हगरी, रोमानिया बुल्गारिया आदि में और फिर एशिया के चीन, कोरिया, वियतनाम आदि में क्रान्तिया करके बार बार लेनिनवाद को सच्च साबित कर दिया है। 

आजमगढ़

ओम प्रकाश सिंह

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