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Monday, 6 June 2022

रूस में “समाजवाद का पतन" - अन्दुरूनी कारण? मंथन अंक - ( द्वितीय ) विशेषांक ----------------------------------------------------------------------- लेखक: जनार्दन सिंह (बलिया) मो० 9453241181


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श्री गोर्वाच्योय की कारस्तानी से जब सन् 1989 में बचे-खुचे समाजवाद को उखाड़कर रूस में पूंजीवाद की मुकम्मल स्थापना कर दी गयी तो विश्वपूंजीवाद यह प्रचार करने लगा कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद चूँकि अव्यावहारिक, काल्पनिक व तानाशाही सिद्धान्त था, अतः उसके व्यवहारिक रूप "रूसी समाजवाद को असफल होना ही था। पूजीवादी प्रचारों के अनुसार रूस में समाजवाद का फेल" होना मार्क्सवाद-लेनिनवाद के अप्रासंगिक, काल्पनिक व अव्यवहारिक होने का सबूत है। इस घटना क्रम के बाद विश्वपूंजीवाद ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के मर खप जाने का एलान कर दिया। दूसरी ओर सुधारवादी वामपंथियों का एक व्यापक हिस्सा, जो रूसी (सुधारवादी) समाजवाद के बल पर जिंदा रहता था, कहने लगा कि रूस में समाजवाद का पतन" यह बताता है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद में ही कमियां, त्रुटिया रह गयी थी, अतः देश, काल, परिस्थिति के अनुसार मार्क्सवाद-लेनिनवाद में सुधार-बदलाव करना चाहिए। आर्थिक-तकनीकी विकास के वर्तमान युग में उसे शांतिवादी जनतांत्रिक बनाना चाहिए। (विस्तृत जानकारी हेतु पढ़े, जी.डी. सिंह की प्रासंगिकता पर पुस्तक) ऐसे ही वामपंथियों का एक हिस्सा मानता है कि रूस में समाजवाद के गिरने व गिराये जाने का एकमात्र कारण आन्तरिक है, न कि बाह्य भी, यह लेख मुख्यतः इसी बिन्दु पर केन्द्रित है। एकमात्र आन्तरिक कारण मानने वाले वामपंथी माओ के अंडे व चुजे वाले लेख का उद्धरण देकर अपनी बातों को सही साबित करते रहते हैं।

माओत्से तुंग का लेख बताता है और यह सही भी है कि अंडे के भीतर वह तत्व मौजूद होता है, जिस पर बाहरी ताप व दाव मिलने पर वह चुजे मे बदल (या विकसित हो ) जाता है। यदि वैसा ही ताप व दाब उसी आकार के पत्थर के टुकड़े पर दिया जाय तो चूंकि उसके अन्दर वह तत्व मौजूद नहीं होता, अतः वह चुजे में नहीं बदलता। लेकिन यदि वामपंथी ध्यान दें तो माओ के इस उद्धरण में बाहरी परिस्थिति ताप व दाब अंडे से चुजे में बदलाव का एक जरूरी तत्व है। इसका महत्व है। अब कृपया सोचे, यदि सामान्य की जगह अंडे पर उच्च ताप व दाब दे दिया जाय तो क्या अंडा जल या टूट नहीं जाएगा?वह चूजे में बदलेगा नहीं। कुल मतलब यह कि अपने सुधारवादी चरित्र के कारण माओ या मार्क्सवाद-लेनिनवाद को ऐसे वामपंथी या तो समझते ही नहीं, या जानबूझकर बदनाम करते हैं और फिर साम्राज्यवाद?

आइये. साम्राज्यवाद के सन्दर्भ में अन्दुरूनी मामला देखें यह सही है कि रूस का पूंजीवादी जैसा अन्दुरूनी वर्ग समाजवाद की जगह पूंजीवाद की स्थापना चाहता था। लेकिन प्रश्न है कि क्या केवल अपने बूते पर वह सामाजिक मालिकाने व सामाजिक लाभ वाली समाजवादी अर्थ प्रणाली व वैसी ही राजनीति, नियम कानून, संविधान को उखाड़कर निजी मालिकाने व निजीलाभ वाली पूंजीवादी प्रणाली अर्थात पूंजीवाद की स्थापना कर सकता है? नहीं। प्रमाण-रूसी पूंजीपति वर्ग का अपने प्रतिनिधि गोर्वाच्योव द्वारा रूस में पुनर्निर्माण के लिए अमरीका व प. योरोपीय साम्राजी देशों से आर्थिक, तकनीकी सहायता ही नहीं, बल्कि खाने-पीने तक की वस्तुओं के लिए भी भीख मांगना दूसरा प्रश्न, साम्राज्यवाद के बिना सह-सहयोग, उम्मीदों, उकसावों के रूसी पूंजीवादी वर्ग व तबके उच्च मध्यमवर्ग की क्या हिम्मत हो पाती कि वह समाजवाद को पलटने का खतरा मोल ले पाता ?असम्भव। अतः समाजवाद को पलटाने में रूसी पूजीवादी वर्गों जैसा भीतरी वर्ग और जैसा बाहरी वर्ग, दोनों की भूमिका है। दूसरी बात यह कि रूस (या भारत जैसे देशों) का पूंजीपति मात्र अन्दुरूनी हैसियत रख सकता है, लेकिन साम्राज्यवाद के लिए तो पूरा विश्व ही उसका अन्दुरूनी क्षेत्र होता है। कारण, साम्राज्यवाद का मतलब ही होता है (अन्दुरूनी लूट-पाट के साथ-साथ) दूसरे देशों की लूटपाट लूटपाट के सम्बन्धों में वह पूरे विश्व को जोड़ लेता है। उदाहरण देखें। दूसरे देशों में वह दो तरीके से घुसता है। जो देश उसके लूटपाट को रोकते हैं, उसमें यह जबरदस्ती घुसता है. अपने सैन्य बल से तबाह करके अपने दलालों को सत्ता सौंप देता है, जैसे-इराक़ । लेकिन रूस व भारत जैसे देशों में वह अपने दलालों के मार्फत शांतिपूर्ण
ढंग से, सहमति से घुसकर शोषण-दोहन करता है। शोषण-दोहन का एक हिस्सा स्थानीय पूंजीपति वर्ग को भी देता है। मतलब यह कि साम्राजी देशों का अन्य देशों के साथ शोषण-दोहन के सम्बन्धों से ही उसका साम्राज्य कायम होता रहता है। ऐसे सम्बन्धों के टूटने पर अमरीका आदि का साम्राज्य व ढ़ह जाएगा। अतः शोषण की जंजीर की टूटी कड़ी "रूसी समाजवाद' को उखाड़कर उसे पुनः शोषण की कड़ी में जोड़कर साम्राज्यवाद वहाँ शोषण जारी रखना चाहेगा। इसी हेतु साम्राज्यवाद मार्क्सवाद-लेनिनवाद व समाजवाद के खिलाफ भौतिक व प्रचार अभियान चलाता रहता है, ताकि उनके अपने देशों सहित विश्व के अन्य देश अक्टूबर क्रांति से प्रभावित होकर आजाद न हो पायें मतलब यह कि साम्राजी (य पूंजीवादी) लूटपाट को समाप्त करने वाले मार्क्सवाद-लेनिनवाद को वह पनपने नहीं देगा, और यदि यह पनपा तो उसे उखाड़ने का बेसब्र होकर जी तोड़ व धैर्यपूर्वक भी कोशिश करेगा। लूटपाट के साम्राजी चरित्र का सबूत-प्रथमत:, विश्व युद्धों के सन्दर्भ में । 

 प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध क्यों?
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यदि साम्राज्यवाद के लिए उसकी समस्यायें, संकट व जरूरतें उसके अपने देश से ही हल व पूरी हो जाती, तो वह दो-दो विश्वयुद्ध क्यों करता ? कृपया ध्यान दें। साम्राज्यवाद का मतलब होता है, ऐसा पूंजीवाद जो अपने देश के भीतर श्रमिक वर्ग का शोषण तो करे ही, साथ ही साथ वह विश्व के अन्य पिछड़े, गरीब मुल्कों के श्रम व प्राकृतिक संसाधनों का भी शोषण-दोहन करे। अर्थात् साम्राज्यवाद दूसरे देशों की लूटपाट करने वाली एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था है। यही कारण है कि दो-दो विश्वयुद्ध इसलिए हुए कि दुनिया के पिछड़े, गरीब देशों को साम्राज्यवादियों का कौन सा गुट शोषण-लूट करेगा। यह अलग बात है कि इन युद्धों के कारण दुनिया का 1/3 हिस्सा साम्राजी लूट की कड़ी से आजाद हो गया। उदाहरणार्थ, प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान समाजवादी अक्टूबर क्रांति का सम्पन्न होना। फिर क्या हुआ? साम्राज्यवाद के लिए कैसे पूरा विश्व उसका अन्दुरूनी मामला होता है, इसके दूसरे सबूत के रूप में अक्टूबर क्रांति के बाद की स्थिति देखें। कृपया ध्यान दें। यदि रूस में समाजवादी क्रांति (य बाद की प्रतिक्रांति) रूस का अन्दुरूनी मामला: होता तो साम्राज्यवादी रूसी समाजवाद को खत्म करने के लिए 14 देशों की सेनाओं को साथ लेकर रूस पर आक्रमण क्यों करते? साम्राजी क्यों कहते कि समाजवाद को उसके घोसले में ही कुचल दो। आपको पता है कि रूसी समाजवादी क्रांति अल्पावधि में व लगभग रक्तपातविहिन सम्पन्न हुई थी। लेकिन उसके बाद ढाई साल तक चले गृहयुद्ध व विदेशी हस्तक्षेप में लाखों लोग मारे गय। फिर भी जीत समाजवादी रूस की हुई। साम्राज्यवाद व उसके स्थानीय प्रतिक्रियावादी अवशेष, पूंजीपति, सामंन्त व अन्य तबकों की हार हुई साम्राज्यवाद. पूंजीवाद की हार एवं समाजवाद की जीत का कारण केवल यह था कि रूसी लाल फौज, मजदूर व किसान साम्राजी-पूंजीवादी सैनिकों की तरह भाड़े के टट्टू बनकर नहीं लड़ रहे थे, बल्कि अपनी मुक्ति अपनी बेहतरी के लिए लड़ रहे थे। रोटी, आजादी, शांति, खुशहाली के लिए युगो बाद स्थापित कमेरों की अपनी राजसत्ता की हिफाजत के लिए, समाजवाद के लिए शोषणविहिन बराबरी के समाज की स्थापना के लिए लड़ रहे थे। मेहनतकशों की उसके समाजवाद की जीत तो हुई,   लेकिन प्रश्न है कि क्या पूंजीवाद, साम्राज्यवाद हारकर भी हमेशा के लिए शान्त व चुप बैठा रहेगा? या समाजवाद को उखाड़ने का प्रयत्न जारी रखेगा? इसके बारे में लेनिन क्या बताते हैं. इसे देखें तीसरा सबूत, लेनिन के शब्दों में

लेनिन बताते हैं कि एक बार समाजवाद की स्थापना हो जाने के बाद यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे पलटा नहीं जा सकता। वे कहते हैं कि पराजित सत्तधारी वर्ग-पूंजीपति वर्ग व उसके देशी-विदेशी सहयोगी सौ गुने वेग के साथ अपने खोये हुए स्वर्ग जैसी (पूजीवादी व्यवस्था) को प्राप्त करने की कोशिश करेगा। लेकिन समाजवाद को पलटने का कोई भी गम्भीर प्रयास साम्राज्यवाद की मदद से ही संम्भव है लेनिन बताते हैं कि साम्राज्यवाद और समाजवाद एक दूसरे के भयंकर शत्रु है। यही कारण है कि साम्राजी पूंजीवादी) हमसे (यानी समाजवाद व समाजवादी नेताओं से) खुली घृणा व दुश्मनी व्यक्त करते हैं। समाजवाद रहेगा या पूजीवाद की पुनर्स्थापना हो जाएगी, यह अभी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि दोनों के बीच बाल बराबर मोटाई की दूरी है। उन्होंने बताया कि समाजवाद को टिकाने की एक ही शर्त है कि साम्राजी देशों में क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष एवं पिछड़े़ देशों में साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रमुक्ति संघर्ष चलाने का प्रयत्न
को  सोवियत रूस जारी रखे। साथ ही रूस में राजसत्ता व पार्टी में सर्वहारा वर्ग के साथ मेहनतकश किसानों को छोड़कर अन्य वर्गों के शामिल होने पर पूर्ण प्रतिबन्ध रहे। लेकिन यही नहीं हुआ। 1956-57 में शांतिपूर्ण संक्रमण शांतिपूर्ण सहअस्तित्व शांतिपूर्ण प्रतियोगिता का सिद्धान्त नारा देकर मार्क्सवाद-लेनिनवाद में सुधार संशोधन किया गया। क्रांतिवर्ग संघर्ष को छोड़ा  गया और राज्य व पार्टी को आम जनता की पार्टी व राज्य घोषित करके उसमें मजदूरों किसानों के अलावा अन्य वर्गों के आने की छूट दी गयी। मार्क्सवाद-लेनिनवाद में ऐसे सुधार-संशोधन के परिणामस्वरूप कदम ब कदम रूसी समाजवाद को उखाड़ते-उखाड़ते 1989-90 में पूरी तरह उखाड़ दिया गया। प्रश्न है कि इसमें साम्राज्यवाद की क्या भूमिका है? इसका केवल एक उदाहरण काफी है।

आपको पता है कि 1980-90 तक आते-2 गोर्वाचिव ने रूस में पूंजीवाद की मुकम्मल पुर्नस्थापना तो कर दी, लेकिन पुनर्निमाण के लिए पूंजी, मशीने, तकनीक आदि के लिए वे साम्राजी देशों, खासकर अमरीका पर निर्भर हो गये। उपर अपने लूटेरे चरित्र के कारण अमरीका पूरी सहायता दे नहीं रहा था. फलत रूस आर्थिक संकटों की पराकाष्ठा पर पहुंचा हुआ था जो राजनीतिक उथल-पुथल पैदा कर देता, (जैसाकि बाद में हुआ भी)। बकौल गोर्वाच्योव "अगर आर्थिक संकटों को हल करने के लिए और पुनर्निमाण के काम को पूरा करने में विकसित देश त्वरित व भरपूर सहायता सहयोग नहीं देंगे तो रूस में आर्थिक राजनीतिक उथल पुथल व अराजकता फैल सकती है। इस पर अमरीकी राष्ट्रपति रीगन का तुरन्त बयान आया कि तानाशाही समाजवाद को गिराने के लिए वर्षों तक हमने करोड़ो डालर खर्च किये है, तो रूस में स्थापित स्वतंत्रता व जनतंत्र के लिए धन क्यों नहीं देंगे। रीगन का यह कथन ही बताता है कि रूस में सुधारवाद- संशोधनवाद की जड़ें मजबूत करने तथा पूजीवादी आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियां चलाते-2 अमरीकी साम्राज्यवाद ने रूसी पूंजीवाद की सहायता से बचे खुचे समाजवाद को उखाड़ फेका फलतः इस परिघटना के बाद अमरीका आर्थिक, राजनीतिक व सैन्य महाशक्ति के रूप में एकमात्र बच गया। रूसी महाशक्ति (समाजवादी या सुधारवादी भी) के रहते दुनिया के पटलपर अमरीका की यह स्थिति संंम्भव नहीं थी। वह जानता था कि समाजवाद को गिराकर यहाँ तक कि सुधारवादी समाजवाद को भी गिराकर ही यह दुनिया का एकछत्र राजा या मालिक बन सकता है। अतः उसने रूसी समाजवाद को भीतरी पूंजीपति वर्ग की मदद से) गिरा दिया।

सरेआम नंगी सच्चाइयां देखते हुए भी कई वामपंथी इसे नहीं मानते। समाजवाद में सुधार व उसके पलटाव में वे केवल आन्तरिक कारण (आंतरिक वर्ग) मानते हैं। यही कारण है कि 1956 में ही उन्होंने रूस में पूजीवाद की पुर्नस्थापना मान लिया प्रश्न है कि 1989-90 के पतन के बाद क्या आया? इस प्रश्न के उत्तर से कन्नी काटकर वे कहते हैं कि 1990 में रूस का विखण्डन हुआ, और कुछ नहीं। जबकि हर क्रांति या प्रतिक्रांति का एक ही मतलब होता है कि यह जाना जाय कि राजसत्ता से कौन सा वर्ग विदा हुआ और कौन सा वर्ग आया। अच्छा एक क्षण के लिए हम मान लेते है कि रूस में 1990 में केवल एक किया हुई विखण्डन तो भी प्रश्न है कि विखण्डन करने-कराने वाले कौन-कौन से वर्ग थे जिनके क्या लक्ष्य थे? अथवा विखण्डन से किन वर्गों को लाभ हुआ और किन वर्गों को नुकसान ?विखण्डन क्या अपने-आप हुआ या साम्राजी अपने स्थानीय दलाल, पिट्ठू पूंजीपति वर्ग के सहयोग से कराये? या पूजीवादी प्रचारों को ही मान लिया जाय कि समाजवादी तानाशाही से मुक्त धार्मिक व क्षेत्रिय जनता ने जनतंत्र का लाभ उठाकर सोवियत सघ को तोड़ डाला। अगला प्रश्न. ऐसे विखण्डन से उन क्षेत्रों देशों की जनता क्या आजाद व खुशहाल है या पूजीवादी एक छोटा हिस्सा और साम्राज्यवाद मालामाल है ?ऐसे ही वामपंथी ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारत के विखण्डन को भी जायज मानते हैं। इस विखण्डन में भारतीय पूंजीपति वर्ग एवं पाकिस्तानी पूंजीपति वर्ग द्वारा निभायी गयी भूमिका पर भी 'आत्मनिर्णय के अधिकार के नाम पर चुप्पी मारे रहते हैं।

अन्तिम बात चाहे रूस में समाजवाद के पतन का जैसा अन्तर्राष्ट्रीय मामला हो भारत की सन् 1947 की आजादी का व भारतीय राजसत्ता का प्रश्न हो, वामपंथियों के दृष्टिकोण बारम्बार बदलते रहे हैं। उदाहरणार्थ-आप जानते हैं कि आजादी की लड़ाई में मुख्यतः तीन तरह के दलों के लोग थे-कांग्रेस पार्टी, भगत सिंह आदि का क्रांतिकारी दल व कम्युनिस्ट पार्टी फांसी के कुछ समय पहले भगत सिंह ने स्पष्ट कह दिया कि कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे आजादी आन्दोलन का अन्त असफलता में, या समझौते में हो जाएगा। उनकी फांसी के 15 साल बाद यही हुआ भी। दूसरी ओर, 1947 की आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी देश को पूर्णतः आजाद नहीं माना, बल्कि अर्द्ध औपनिवेशिक माना। लेकिन रूस में 1956-57 में हुए सुधारवादी संशोधनवादी बदलाव के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने दृष्टिकोण बदल दिये। फिर नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन से निकले एम. एल. वामपंथियों के विभिन्न ग्रुपों ने देश को अर्द्धऔपनिवेशिक व अर्द्धसामन्ती माना। यहाँ तक कि देश के पूंजीपति वर्ग को एकदम महत्वहीन और साम्राज्यवादियों का कठपुतली तक माना। लेकिन चीन के बदलाव और रूस में गोर्वाच्योव के समय हुए पतन के बाद तमाम वामपंथियों के देश के बारे में, भारतीय राजसत्ता के बारे में अजीबोगरीब विश्लेषण आने लगे। जैसे, रूसी पतन को अन्दुरूनी कारण मानने वाले वामपंथ के एक हिस्से का कहना है कि भारत राजनीतिक रूप से तो स्वतंत्र है, पर आर्थिक रूप से साम्राज्यवादियों का नवउपनिवेश होता जा रहा है। ऐसे वामपंथियों का ऐसा दृष्टिकोण आजादी के बारे में कांग्रेस के दृष्टिकोण से क्या मिलता-जुलता नहीं है? कृपया ध्यान दें। कांग्रेस का कहना था कि हमने 1947 में राजनीतिक आजादी पा ली है, लेकिन आर्थिक आजादी अभी पानी है। कांग्रेस द्वारा आत्मनिर्भरता पाने का नारा लगाना, इसी को परिलक्षित करता है। विदेशी पूंजी, विज्ञान-तकनीक व मशीनों की मदद से भारत को आत्मनिर्भर अर्थात आर्थिक रूप से भी आजाद कर लेने के नारे, प्रचार भारतीय पूंजीपति व साम्राज्यवादी दोनों ने दिये, किए। लेकिन जैसे-2 समय बीतता गया, आत्मनिर्भरता या आर्थिक स्वतंत्रता के नारे, विचार हवा में गुम होते गये आज नई आर्थिक नीति व डकल प्रस्ताव का जमाना है। ऐसे दौर में इन वामपंथियों को इल्हाम हुआ कि भारत साम्राज्यवादियों का नव उपनिवेश है। लेकिन राजनीतिक रूप से आजाद है, यहाँ की सत्ता संम्प्रभु है, इत्यादि। ऐसी सोच, चिंतन के बारे में आप क्या कहेंगे। वामपंथ का आर्थिक नवउपनिवेशवाद और कांग्रेस का आर्थिक आत्मनिर्भरता दोनों एक ही बात है। हाँ, यह बात अलग है कि कांग्रेस को आजादी के तत्काल बाद आर्थिक परनिर्भरता का पता चला (या जानबूझकर पर निर्भरता वह लायी), लेकिन लेफ्ट को वर्षों बाद बदलते-2 आज पता चला है कि देश आर्थिक नवउपनिवेशवाद के दौर में है। ऐसे विश्लेषण के विपरीत राजनीतिक अर्थशास्त्र का मामूली सा जानकार यह अच्छी तरह जानता है कि चाहें 1948 की भारतीय आर्थिक नीति का प्रश्न हो, या 1990-95 में नई आर्थिक नीति, डंकल प्रस्ताव लागू होने का सवाल हो- इन्हें लागू करने हेतु कानूनी व संवैधानिक बदलाव किये गये, संसद में इन्हें पास करके इसे कानूनी रूप दिया गया। यह क्या है? यह राजनीतिक बदलाव है। मतलब बिना राजनीतिक व कानूनी क्रियाकलाप व बदलाव के आर्थिक क्रिया या बदलाव सम्भव नहीं हैं। पुनः दोहरा दें! बिना राजनीति के सैन्यथल, प्रचार बल, शिक्षा व संस्कृति के किसी देश को आर्थिक उपनिवेश नहीं बनाया जा सकता। ऐसे वामपंधी भारतीय पूंजीपति वर्ग को साम्राज्यवाद का कनिश्ठ सहयोगी मानते हैं। ऐसा मानने में मजेदार बात यह है कि ये लोग कनिष्ठ व वरिष्ठ का वर्गीय विश्लेषण नहीं करते। साथ ही इन दोनों वर्गों की एकता से देश पर पड़ने वाले वर्गीय व खासकर राष्ट्रीय प्रभावों पर चुप्पी मारे रहते हैं। यहाँ के पूंजीपति वर्ग को, अर्थात् देश की अर्थ राजनीति व संस्कृति को साम्राज्यवाद पर निर्भर नहीं मानते।

अजीब बात यह भी है कि ऐसे ही कई वामपंथी अमरीका आदि को साम्राजी देश भी कहते हैं, लेकिन उसके साम्राज्य के फैलाव के क्षेत्र को, अर्थात् उसके अधीन साम्राजी क्षेत्र के होने को नकारते हैं। कई एक भारतीय पूंजीपति को भी साम्राज्यवादी मानने लगे हैं। लेकिन यह नहीं बताते कि अमरीका व प. योरोपीय साम्राज्यवादियों की तरह क्या भारत भी विकसित देशों को कर्ज देकर सूद दर सूद लूटता है. माल व तकनीक बेचकर मुनाफा कमाता है और नई आर्थिक नीति जैसे नीतिगत बदलाव उन पर थोपता है, या थोप सकता है ? जबकि 1991 में साम्राजी देशों ने पूरी दुनिया पर नई आर्थिक नीति थोपकर भारत जैसे देशों का थोड़ा-बहुत बन्द दरवाजा भी अपने लिए पूरी तरह खोलवा लिया और आज वही साम्राजी देश, जिन्होंने उदारीकरण, विश्वीकरण व निजीकरण की नीतियां लागू की , और अपने यहाँ संरक्षणवादी नीतियां अपना रहे हैं। अमरीका आदि की तरह प्रश्न है कि क्या भारत भी अपनी जरूरत के अनुसार खुलापन वाली उदारवादी य संरक्षणवादी नीतियां अपनी मनमर्जी से अपना सकता है? कत्तई नहीं क्योंकि G-7 जैसे विकसित देशों से इतर भारत जैसे विकासशील देश पिछड़े हैं और अपने विकास के लिए साम्राज्यवादी देशों पर निर्भर है। अतः ऐसे देश साम्राज्यवादी नहीं हो सकते। दरअसल भारतीय पूंजीपति वर्ग को पूर्ण स्वतंत्र मानना या उसे साम्राजी मानना साम्राज्यवाद को छिपाना
है उसके द्वारा भारत की लूट पर पर्दा डालना है। 

यही कारण है कि ऐसे वामपंथी काश्मीर व पूर्वोत्तर के क्षेत्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करते हुए देश के खण्डित होने का समर्थन तो करते हैं, लेकिन अमरीका आदि साम्राज्यवादियों से देश की मुक्ति के सवाल पर अर्थात साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी आत्मनिर्णय के सवाल पर चुप्पी मारे रहते हैं। यह सब पूंजीवादी साम्राज्यवादी दृष्टिकोण है। यही कारण है कि ऐसे वामपंथी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शोषक व शोषित राष्ट्र को नहीं देखते, उसी तरह समाज में वर्गीय दृष्टिकोण को छोड़कर भारतीय समाज को दलित, पिछड़ा अल्पसंख्यक व महिला जैसे नजरिए से देखने लगे है। मतलब यह कि मार्क्सवादी वर्गीय दृष्टिकोण की जगह बहुतेरे वामपंथी जाति, धर्म की पहचान वाली पूंजीवादी राजनीति करने लगे हैं। ऐसा चिंतन मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी है। अतः मार्क्सवाद-लेनिनवाद से नाता तोड़ने वाले ऐसे वामपंथियों का मूल्यांकन पाठक अवश्य करें। 

जनार्दन सिंह।          (बलिया)   मो०  9453241181

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