______________________________________________
रूस की अक्टूबर क्रान्ति देशी-विदेशी शोषकों, शासकों, गैर-उत्पादक सम्पत्तिवान, उत्पीड़क वर्गों के विरुद्ध शारीरिक-मानसिक श्रम से उत्पादन करने वाले उत्पादकों, शोषितों, धनहीनों, कमजोरों, सम्पत्तिहीनों, मजदूर किसान मेहनतकश वर्गों की क्रान्ति है। अक्टूबर क्रान्ति से सोवियत रूस में ऐसी सामाजिक व्यवस्था लायी गयी, जो अब तक दुनियाँ के किसी भी देश में नहीं लायी गयी थी। यह सामाजिक व्यवस्था ऐसी रही है, जिसमें जमीनों, कल-कारखानों व औद्योगिक उत्पादन के साधनों पर कब्जा, मालिकाना तथा राजसत्ता पर नियंत्रण, निर्देशनकारी ताकत मजदूर वर्गों के हाथ में रही। दुनियाँ में पहली बार रूस देश में गैर-उत्पादक, शोषक, शासक, उत्पीड़क मालिक वर्गों की जगह वैचारिक व व्यवहारिक वर्ग-संघर्ष करके गैर-मालिक, उत्पादक, मेहनतकश वर्गों का राज खड़ा किया गया जिसे शोषण, उत्पीड़न से मुक्त मेहनतकश वर्गों का राज (समाजवाद) कहा गया सवाल हो सकता है कि किन रास्तों पर अमल करके व चल करके गैर-उत्पादक मालिकों, पूँजीवान-शोषकों, उत्पीड़कों, दमनकर्ताओं का खात्मा करके युगों-युगों से शोषित गैर-मालिक, उत्पादक, मेहनतकश वर्गों का राज-काज आया? वो रास्ता सिद्धान्त, व्यवहार है मार्क्सवाद लेनिनवाद । मार्क्सवाद-लेनिनवाद का मात्र एक ही लक्ष्य है, जी हां मात्र एक ही लक्ष्य है-गैर उत्पादक अल्पसंख्यक, पूँजीवान सम्पत्तिवान, जार-जमीदार मालिक मानवों द्वारा उत्पादक, बहुसंख्यक गैर-मालिक, मेहनतकश मानवों को शोषण, उत्पीडन, दमन से मुक्त करना, छुटकारा दिलाना अर्थात शोषणविहीन, उत्पीडनविहीन, भेदभाव विहीन समाज व्यवस्था स्थापित करना।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद बताता है कि किसान, दस्तकार, मजदूर, मास्टर, क्लर्क व अन्य श्रमशील वर्गों के जीवन जीने की अनगिनत भौतिक व आध्यात्मिक समस्याएं है, जिनसे ये छुटकारा चाहते है। जैसे (क) मजदूर अपनी मजदूरी बढ़ाना चाहता है। क्यों? ताकि अपने जीवन की समस्याओं से निजात पा सके। (ख) किसान ज्यादा उत्पादन करके ज्यादा बचत चाहता है? क्यों? ताकि अपना और अपने परिवार के जीवन जीने के बढ़ते संकटों से छुटकारा पाये। (ग) मास्टर, क्लर्क, सैनिक, सिपाही ज्यादा से ज्यादा वेतन चाहते हैं। क्यों? ताकि ज्यादा वेतन पा करके अपना और अपने घर-परिवार के सकटों से छुटकारा पा सकें। मार्क्सवाद बताता है कि मजदूरों-किसानों एवं मेहनतकश वर्गों के हर संकटों का कारण पूँजीपति वर्ग और उसकी शोषणकारी पूँजीवादी समाज व्यवस्था है। शासक, शोषक पूँजीपति मानव वर्ग अपनी लाभ-बचत, सूद में कमी नहीं होने देगा और शोषित, शासित मेहनतकश वर्ग ज्यादा मजदूरी, वेतन भत्ते चाहेगा। इसलिए इन दोनों वर्गों में परस्पर वर्ग-विरोध हमेशा बना रहता है। दोनों वर्गों में कभी तालमेल हो ही नहीं सकता है। क्यों? क्योंकि पूंजीपति वर्ग का एक ही धर्मसूत्र है- अधिकाधिक औद्योगिक व कृषिगत मालों, मशीनों का उत्पादन करवाके देशी-विदेशी बाजारों में बेचना और बेचके अधिकाधिक लाभ-मुनाफा कमाना वहीं उत्पादक मेहनतकश वर्गों की जरूरत है कम काम, अधिक वेतन-मजदूरी पाना और मजदूरी रूपी पैसे से जीवन के लिए जरूरी भोजन, कपडा, दवा, शिक्षा आदि बाजार से खरीदना। लिहाजा दोनों वर्गों के लक्ष्यों व जरूरतों में टकराहट ही टकराहट होती है। मतलब जहाँ एक तरफ उद्योगपति, पूँजीपति वर्ग बिन श्रम, मेहनत किये लाभ-मुनाफा पूँजी बढ़ाता जाता है वहीं दूसरी तरफ मजदूर किसान मेहनतकश वर्ग का दिन-रात खटने के बाद भी गरीब और कंगाल होता रहता है। मालिक पूँजीपति मानव लगातार पूँजी बढ़ाने हेतु श्रम के मालिक मानवों के श्रम को नोंचता, निचोड़़ता है। ऐसे में मार्क्सवाद मजदूर किसान उत्पादक वर्गों को समझाता है कि पैसा, पूँजी वाले समाज व्यवस्था में शोषण, उत्पीड़न, भेदभाव खत्म होने वाला नहीं है, न ही अमीरी-गरीबी के झगड़े। अमीरी-गरीबी के ये वर्गीय झगड़े शोषण, उत्पीडन, दमन किसी धर्मगुरू के शरण में शरणागत होने से या कानून, संविधान की धारा, अनुच्छेद के लागू करने अथवा संविधान की रट लगाने से या किसी पूँजीवादी राजनेता, व्यक्ति, संगठन, पार्टी के पीछे-पीछे चलने से अथवा जातिय, धार्मिक गोलबन्दियों में नाम गिनाने से मजदूर किसान, मेहनतकश वर्गों का भला होने वाला नहीं है। क्योंकि जब समूचा समाज या राष्ट्र वर्गों में बेटा है तो कोई भी नियम-कानून व्यवहार में बराबर होकर लागू नहीं होगा भले ही वह न्याय, कानून बराबरी, भाई-चारा वाला लोकतांत्रिक या गणतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था क्यों न हो।
ऐसे में मार्क्सवाद समूचे समाज को केवल समस्या की दृष्टि से नहीं देखता बल्कि मार्क्सवाद समाज की समस्याओं का समाधान भी बताता है- (1) मेहनतकश वर्गों को वर्गीय नजरिये से सजग-सचेत होना पड़े़गा (2) संगठित होना (पढ़ेगा और (3) वर्गसंघर्ष करना पड़ेगा तथा तात्कालिक व दूरगामी लक्ष्यों के लिए लगातार वर्ग संघर्ष चलाने से मजदूर-किसान उत्पादक वर्ग अपने अनुभव से सीखेगा, अनुभववान बनेगा और विश्वास करेगा। अपनी अलग स्वतंत्र कम्युनिस्ट पार्टी बनायेगा, इंकलाब करेगा तथा इकलाबी सर्वहारा वर्ग की अनन्य तानाशाही में ही मजदूर-किसान राज्य को सुरक्षित रखते हुए बराबरी वाली समाज व्यवस्था यानि वर्गविहीन समाज व्यवस्था (साम्यवाद) तक ले जाना अनिवार्य है। इन्हीं उद्देश्यों को लेकर ही लेनिन की अगुवाई में रूसी क्रांति की गयी थी।
1917 की अक्टूबर क्रांति से स्थापित मजदूर-किसान राज्य सोवियत रूस का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व तो बहुत व्यापक है, जो 1956 / 57 तक टिका रहा इन्हीं 35/ 40 वर्षों में क्या कुछ हुआ उसको जाने बगैर अक्टूबर क्रांति या मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रासंगिकता को नहीं समझा जा सकता है। याद रखें- 35/ 40 वर्षों के काल में शुरू के
3/4 साल तक सोवियत रूस को चारों तरफ से 14 साम्राज्यवादी देशों की सेनाओं ने घेर रखा था। और युद्ध लड़ते रहे। सोवियत रूस के अन्दर साधन व सत्ता से च्युत पूँजीपति, धर्मगुरू, पादरी, उच्च मध्यम वर्गीय तबके भी सशरीर मौजूद थे साथ ही बाहर से साम्राज्यवादियों के सहयोगी समर्थक रूस के भागे-भगोड़े षड्यंत्रकारियों के रहते हुए अर्थात भीतरी - बाहरी दुश्मनों के रहते हुए वहां क्या-क्या परिर्वतन हुआ? जैसे
(1) राहुल सांकृत्यायन 'स्टालिन एक जीवनी' में बताते हैं कि कृषि तथा उद्योग में असीमित वृद्धियाँ होने लगी। प्राइमरी स्कूलों से लेकर टेक्निकल स्कूलों में वृद्धियों होने लगी। वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों पर कई गुना खर्चा बढ़ा दिया गया। सोवियत संघ, कनाडा, इंग्लैण्ड, जर्मनी और फ्रांस से आगे निकल गया। जबकि उसी दौरान सोवियत रूस के मजदूर राज्य के बारे उस समय पूँजीवादी पत्र-पत्रिकाएं जैसे न्यूयार्क टाईम' व 'करेन्ट हिस्ट्री (अमेरिका), डेली टेलीग्राफ (इंग्लैण्ड), गजेता पोलस्का (पोलैण्ड), इटालियन 'पोलितिचा, लंदन का बूढा पत्र फाइनेन्शियल टाइम्स इत्यादि ने मजदूर समाजवादी व्यवस्था के बारे झूठी खबरें फैलाते रहे, ताकि मजदूर राज्य गिर जाये पहली पंचवर्षीय योजना केवल 04 वर्षों में ही पूरा कर लिया। 1917 से पहले रूस में न ट्रैक्टर बनते थे, न विमान जारशाही रूस अपनी अधिकांश मशीने यूरोप और अमेरिका से मंगाता था परन्तु प्रथम पंचवर्षीय योजना में रूस स्वावलम्बी बन गया पेट्रोल और कोयले की उपज में भी दुनिया में प्रथम हो गया यंत्र निर्माण में पिछड़े हुए रूस ने ट्रैक्टरों, कटाई की कम्बाइनों, आलू बोने वाले यंत्र आदि बनाना शुरू कर दिया। मध्य एशिया में सोवियत रूस की जनता ने एक बड़ी सफलता प्राप्त की जब उज्बेकिस्तान के लोगों ने 46 दिनों में 270 किमी लम्बी फर्माना की विशाल नहर बना डाली।"
(II) पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुस्तक "विश्व इतिहास की झलक" में लिखा है कि "मित्र राष्ट्रों ने रूस की ऐसी नाकेबन्दी कर दी की 1919 के पूरे वर्ष रूस न तो बाहर से कुछ भी खरीद सका और न बाहर कुछ बेच सका। इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, जापान, इटली, सर्विया, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया, बाल्टिक तटवर्ती राज्य, पोलैण्ड और ढेरों प्रति-क्रांतिकारी रूसी सेनापति सब के सब सोवियत के विरुद्ध लड़ रहे थे। आन्तरिक कठिनाईयां युद्ध, नाकेबन्दी, महामारी और अकाल ने देश की हालत बहुत बुरी कर डाली थी। बार-बार ऐसा मालूम होता था कि सोवियत का अंत होने वाला है। सोवियत हर संकटों को पार कर गई। इंग्लैण्ड एवं अन्य पूँजीवादी देशों को सोवियत सेनाओं का इतना डर नहीं है, जितना कि सोवियत विचारों और साम्यवादी प्रचार का इसका प्रतिकार करने के लिए रूस के विरूद्ध निरन्तर मिथ्यापूर्ण प्रचार का आश्रय लिया जाता रहा है। रेगिस्तान और घास के मैदान आबाद हो गये और औद्योगिक व्यवसाय के हर स्थान के चारों ओर नये-नये नगर पैदा हो गये। नई-नई सड़कें, नई-नई नहरें, अधिकतर बिजली की रेल बनायी गयी। रासायनिक उद्योग, सामरिक उद्योग और औजार उद्योग स्वापित किये गये। बेकारी बिल्कुल गायब हो गई। अनेक इंजीनियर बाहर के देशों से वहां आये और उन्हें खुशी-खुशी रख लिया गया याद रखने की बात यह है कि यह वह जमाना था, जबकि सारे पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में मन्दी फैली रही थी और वहाँ बेकारों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी। व्यापार खूब रहा था. कारखाने बन्द हो रहे थे। अन्न और कच्चे माल की कीमतों में गिरावट के कारण सारी दुनिया के खेतिहरों में त्राहि-त्राहि मची हुई थी जबकि सोवियत संघ पर मंदी का असर नहीं था। लेनिन ने देहाती इलाको में बिजली पहुंचाने की एक विशाल योजना शुरू की। किसानों को हर प्रकार की सहायता दी गई और देश के औद्योगिकीकरण का मार्ग प्रशस्त किया गया। किसान लोग जिनके गांव में बिजली का प्रकाश जगमगाने लगा और जिनकी खेती का बहुत सारा काम बिजली की शक्ति से होने लगा, वे किसान अपने पुराने, ढरों और अन्ध-विश्वासों को छोड़़ने लगे तथा नये ढंग से सोचने लगे।
जारों और उमरावों के महलों में अब जनता के लिए अजायबघर और विश्राम गृह और स्वास्थ्य सदन बना दिये गये है। रूस में जितनी पुस्तकें और अखबार छपते हैं उतने शायद अन्य किसी देश में नहीं छपते। विज्ञान के क्षेत्र में तथा अनेकों व्यवहारिक उपयोगों में, रूस प्रथम श्रेणी में पहुंच चुका है। लेनिनग्राद में वनस्पति उद्योग की एक विशाल प्रयोगशाला है, जिसके पास कम से कम 28000 विभिन्न किस्मों के गेहूँ हैं। यह शाला वायुयानों के द्वारा धान बोने के तरीकों पर प्रयोग कर रही है।
काकेशस-प्रदेश के अजरबैजान और जार्जिया के इलाके में तेल का विपुल भंडार है जो इरान और इराक तक फैला
हुआ है। कैस्पियन सागर के तट पर बाकू क्षेत्र दक्षिणी रूस का महान तेल भण्डार है। सोवियत रूस ने बड़ी-बड़ी तेल कंपनियों से सस्ते भाव पर तेल और पेट्रोल विदेशों में बेचना शुरू कर दिया। अमेरिका की स्टैण्डर्ड ऑयल कंपनी, ऐंग्लो- परशियन ऑयल कंपनी रॉयल डच शेल कंपनी आदि तेल कंपनियाँ बड़ी-बड़ी जबरदस्त हैं और संसार भर में तेल का व्यापार इन्हीं के हाथों में है। सोवियत रूस ने जब अपना तेल इनसे सस्ते भाव पर बेचा, तो इन्हें बहुत नुकसान हुआ और ये आग-बबूला हो गयीं। इन्होंने रूस तेल के विरूद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया और इसे "चुराया हुआ तेल" बतलाया क्योंकि रूस ने काकेशस में तेल के हुए उनके पूंजीपति मालिकों से छीने थे।"
(III) रूसी साहित्यकार लेओन्त्येव बताते हैं कि सामूहिक फार्मों के स्थापित होने से गरीब और मझोले किसानों का फर्क मिट गया देहातों से शहरों की ओर पलायन रुक गया, जिन्हें रोजगार ढूँढने पर विवश होना पड़ता था। इससे बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि का एक सबसे मुख्य स्रोत बन्द हो गया। 1931 तक सोवियत रूस ने बेरोजगारी सदा के लिए मिटा दी। रिहायशी मकानों की समस्या हल करके, लोगों को आधुनिक सुविधापूर्ण मकान, सार्वजनिक सेवाएं इत्यादि मुहैया करके जीवन-स्तर को उठाया गया। (IV) मनोरमा इयरबुक - 2016 (क) विश्व में सर्वप्रथम सोवियत संघ ने अन्तरिक्ष युग की शुरूआत स्पुतनिक-1 छोड़ करके की तथा अंतरिक्षयान लूनर-3 ने चन्द्रमा के छिपे हिस्से की तस्वीर भेजी। (ख) भारत में 1947 के बाद आर्थिक-सामाजिक विकास के लिए 1951 में जिस योजना को अपनाया गया। उस पंचवर्षीय योजना की प्रेरणा पूर्व सोवियत संघ से ली गयी थी। (ग) रूस में बाल मजदूरी, भिखमंगे आप देख ही नहीं सकते थे।
(v) • दुनियाँ की प्रथम महिला 1917 में सोवियत यूनियन की समाज कल्याण मंत्री बनी। दुनियाँ की प्रथम महिला अम्बेसडर (राजदूत) भी बनी। विदेशी पूंजी और अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों पर हमारी (भारतीय) निर्भरता विकास का पैमाना नहीं हो सकता। यह कहना कि विदेशी पूँजी के बिना आर्थिक विकास संम्भव नहीं है. इतिहास के प्रति अज्ञान प्रदर्शित करना है। सोवियत संघ या चीन में हुई क्रांतियों के बाद कोई विदेशी ऋण नहीं लिया गया। 1937 में सोवियत संघ ने उत्तरी ध्रुव से 20 कि०मी० की दूरी पर नॉर्थ पोल-1 नामक शोध केन्द्र स्थापित किया। यह समुद्र में तैरते बर्फ के विशाल टुकड़ों पर स्थापित विश्व का पहला शोध केन्द्र था सोवियत संघ की 26 वर्षीय वेलेटिना टेरेशकोवा विश्व की प्रथम महिला अंतरिक्ष यात्री बनी।
भारत के लिए अक्टूबर क्रान्ति का क्या महत्व है? खासकर किसानों, मजदूरों के लिए 70 साला तथाकथित आजादी के बाद देश-विकास के रास्तों पर एक सरसरी नजर डालें, देशी-विदेशी सहयोग, सहायता, अनुदान, कर्जे से योजनाएं, निगम, संस्थाएं, निजी व सरकारी क्षेत्रों में खड़ी की गयी, ताकि औद्योगिक, कृषिगत, शैक्षणिक व सैन्य आदि में पिछड़ा, गरीब भारत आत्मनिर्भर बन जाय। आत्मनिर्भरता के वास्ते हरित व श्वेत क्रांति, आर्थिक नीतियों को लागू करते हुए तथा राष्ट्रहित व जनहित के नाम से आर्थिक तकनीकी विकास बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का कर्जा (1981) का आना, कम्प्यूटर युग की शुरूआत करते हुए कृषि क्षेत्रों में भूमि सुधार, नस्ल सुधार, ग्रामीण व शहरी असमानताओं को दूर करने वाली योजना, परियोजना जैसे कार्यक्रम चलाये गये। नियंत्रणवादी नीतियों की जगह "नई आर्थिक नीतिया जैसे- उदारीकरण, विश्वीकरण, निजीकरणवादी नीतियां, डंकल प्रस्ताव, शाइनिंग इण्डिया (चमकता भारत) के तहत प्रतिबन्धित बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट दी गयी है। इन्हीं उपरोक्त नीतियों को बजटीय माध्यम से चरण दर चरण लागू करके फ्रांस, अमेरिकी, जापानी सैनिकों के साथ सैन्य युद्धाभ्यास होते जा रहे हैं। गैर-सैन्य क्षेत्रों के साथ सैन्य क्षेत्रों में भारत, अमेरिका के बीच समझौते बढ़ते फैलते जा रहे हैं किन्तु चीन द्वारा कब्जाई जमीन को न छुड़ा पाना और कश्मीर के मसले को हल न कर पाना अथवा यू.एन.ओ. द्वारा उसे लटका के रखना क्या साबित करता है- स्वतंत्रता या परतंत्रता? सरकारों ने चरणबद्ध ढंग से तेल, पेट्रोल के मूल्यों को सरकारी नियंत्रण से हटा कर पूँजीपतियों के हाथों पूरी तरह से सौंप दिया है। एक राष्ट्र, एक कर एक बाजार वाला जी०एस०टी० इत्यादि को लागू किया जा रहा है। इन सबके जमाजोड़ का परिणाम-वर्गीय व क्षेत्रीय असमानताओं का व महंगाई, बेकारी व गरीबी आदि का लगातार बढ़ते जाना है। देशी-विदेशी पूंजीपतियों की पूँजीयों में वृद्धिया होती जा रही है। इन्हीं कालों में हर जाति, धर्म, क्षेत्र के मध्यम वर्गीयों की चचत- बढ़त इस कदर हुई कि जो मध्यमवर्गीय कभी मजदूरों किसानों दस्तकारों की संकट समस्याओं के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों व सरकारों के खिलाफ मेहनतकशों के बीच जाकर राजनीतिक और गैर-राजनीतिक ढंग से गोलबन्द करके पेशेगत आन्दोलन, प्रदर्शन, हड़ताल करते करवाते थे। वही मध्यमवर्ग वेतन, सुविधाएं बढ़ जाने से निचले जनसाधारण से कटता-घंटता हुआ अब अमीरों की भाषा में गरीबों को ताने मारता, कोसता, भौंकता है। अंग्रेजी काल के मध्यम वर्गीयों को भी मात देता है।
आजादी के 70 सालों बाद आने वाले कुछ सकारात्मक व नकारात्मक वर्गीय परिणामों को पूंजीवादी अखबारों से
जाने (VI)- (1) भारत पर 68 अरब डालर (4207 अरब रुपया) का विदेशी कर्ज है।
(2) देश में बेरोजगारी बढ़ी, 2015-16 में पांच साल के उच्च स्तर पर, अखिल भारतीय स्तर पर पांचवें सालाना रोजगार बेरोजगारी सर्वे के अनुसार करीब 77 प्रतिशत परिवारों के पास कोई नियमित आय या वेतनभोगी व्यक्ति नहीं है। 2015-16 की दूसरी तिमाही में 70 हजार के करीब मजदूरों का रोजगार छीना गया।
(3) इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर, गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान से जुड़े लोगों का ब्रेन-ड्रेन (प्रतिभा पलायन) 10 वर्षों में 85 प्रतिशत अमेरिका को हुआ
(4) मूल्य वृद्धियां, महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है। उत्पादन सुस्त तथा खुदरा महंगाई 22 माह के उच्चतम स्तर पर।
(5) रुपया के ऊपर डालर, यूरो चढ़ता जा रहा है।
(6) विदेशी व्यापार के घाटे बढ़ते जा रहे हैं
(7) इधर 22 सालों में करीब 325000 किसानों ने आत्महत्यायें की जबकि इसी काल में किसानों को खाद, बीज, कीटनाशक ट्रैक्टर थ्रेसर आदि बेचने वाली देशी-विदेशी कंपनियों के मालिक पूँजीपतियों की पूँजियां तेजी से बढ़ी है। मात्र 17 भारतीय पूंजीपतियों की बढ़ती हुई कुल पूँजियां हो गयीं 194.15 अरब डालर पूँजीपतियों के मालों-सामानों का प्रचार करने के लिए गैर-उत्पादक खेल-खिलाड़ियो, कलाकारों की बोलियाँ लगती है, जिनकी रोजाना की कमाईयां करोड़ों में है।
(8) वर्तमान केन्द्र सरकार के वित्त राज्य मंत्री का कहना है कि किसानों की कर्जमाफी के लिए सरकार के पास पैसे नहीं है, जब कि एयरटेल, वोडाफोन, आइडिया, आरकाम, एयरसेल इत्यादि टेलीकाम कंपनियों के मालिकों ने सरकार का 7700 करोड़ रुपया का राजस्व ही नहीं दी। वित्त मंत्रालय ने बताया कि 3.3 साल में कई कम्पनियों ने 1.52 लाख करोड़ रुपये का सरकार को चूना लगा दी है। कई कम्पनी के मालिक, पूँजीपतियों ने बैंकों का 92376 करोड़ रुपये का कर्ज फंसा दिए हैं जिससे बैंकों का एन०पी०ए० (बैड लोन) बढ़ गया। बैंकों का कर्ज डूब गया।
(9) जापान के कर्ज से बुलेट ट्रेन का शिलान्यास होना सिंचाई, पेयजल या नदियों को जोड़ने की परियोजनाओं के लिए विदेशी फंडिंग एजेन्सियों से ऋण लिया जायेगा। नीति आयोग के थिंक टैंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और अर्थशास्त्री डा० भरत झुनझुनवाला का कहना कि सरकार को कनाड़ा और आस्ट्रेलिया की नकल पर जेलों, स्कूलों, अस्पतालों को निजी क्षेत्रों यानी देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंप देना चाहिए।
(10) विदेश खासकर अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति मिसाइल मैन व पूर्व रक्षामंत्री समेत कई भारतीय राजदूतों व अन्य के साथ बदसलूकिया की गयीं है।
(11) देशी-विदेशी तमाम कम्पनियों से 705.81 करोड़ रुपया चन्दा भाजपा को तथा 198.16 करोड़ रुपया चन्दा कांग्रेस को मिला। मार्क्सवाद का लेबुल लगाये माकपा समेत अन्य सत्ताधारी वामपंथी पार्टियाँ भी पूँजीपतियों से चन्दे पाती है।
क्या पूँजीपति राजनीतिक दलों को बेमतलब चन्दे देते हैं? अथवा इनसे अपनी सेवाएं भी लेते हैं। जैसे कमजोर वर्गों के विरुद्ध देशी-विदेशी ताकतवर पूँजीपति वर्गों के हितों वाली नियम, कानून, नीतियां बनवाना व लागू करवाना। पूँजीपतियों के नगदी, गैर-नगदी चन्दे पर पलने वाली विभिन्न राजनीतिक दल पूँजीपतियों के राजनीतिक लक्ष्योंनुसार राष्ट्र समाज को विभिन्न जातिय, धार्मिक, नस्ली इलाकाई, भाषाई गोलबन्दियों में तोड़-बांटके गैर- राष्ट्रीय, गैर-वर्गीय राजनीति के लिए खड़ा कर दिया है। परिणामस्वरूप धार्मिक, जातिय, क्षेत्रीय झगडों फैसादों का बढ़ते जाना और प्रायः आये दिन कहीं न कहीं कर्फ्यू का लगना उपरोक्त परिणाम, पहल कदमियां आजादी के 70 सालों बाद किधर और किस वर्ग की तरफ जुड़ती जा रही है तथा किस वर्ग से कटती जा रही है। देशी-विदेशी पूंजीपतियों की तरफ या खटने वालों कमकर वर्गों की तरफ?
जबकि सोवियत रूस में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के मार्गों पर चलकर लायी गयी मजदूर समाजवादी व्यवस्था के 1917 से 1956 / 60 के 30/40 सालों में
(1) विदेशी कर्जा एक भी नया नहीं
(2) बेकारी खत्म हो गयी। जो जिस योग्य रहा पैसा काम
(3) प्रतिभा पलायन का नाम ही नहीं।
(4) मंहगाई का कोई नामो निशान नहीं।
(5) दुनियां में आये विशालआर्थिक संकटों (1930-34) से मुक्त केवल सोवियत रूस रहा।
(6) रूबल मुद्रा की न मुद्रास्फीति और न ही सबल का डालर पौड, येन के आगे गिरना
(7) विदेशी व्यापार का कोई घाटा नहीं
(8) 1930 तक किसानो ने इतना कृषि उत्पादन बढ़ाया कि रोटी, कपड़ा सब मुफ्त जबकि जारशाही व साम्राज्यवादियों के काल में किसान पैदा करता था अनाज, कपास शकरकंद, आलू आदि लेकिन खाने को न पाता था अनाज की भूसी की रोटी और तीज-त्योहारों पर बढ़ी मुश्किल से चीनी
(9) खेती के यंत्रों को मजदूर कारखानों में बनाकर दस्तकारों व किसानों को देता था और किसान कृषि पैदावार को मजदूरों को देता था। इस प्रकार पूरे समाज में एक दूसरे की पूर्ति-आपूर्ति मिलजुल कर होती थी। न कि किसानों को यंत्र बेचने वाला मुनाफा लूटे और बैंक कर्ज देकर सूद
(10) सोवियत संघ की देहाती औरते 1936 तक ट्रैक्टर चलाने लगी। रात को बिना डर भय के टहलती थी। वेश्यावृत्ति का कोई नामोनिशान नहीं, ना लढई ना गुबई।
मजदूर राज्य रूस में किसी प्रकार का कहीं कोई जातीय, धार्मिक, नस्लीय जैसे दंगे-फैंसाद होने की कोई गुंजाइस ही नहीं रही और न ही पुलिस-सेना का कर्पयू सोवियत संघ राज्य के किसी उच्च कर्मचारी की दूसरे देशों में कोई जामातलाशी (निगाझोरी) नहीं हुई। यदि कोई गैर- रूसी रूस देखने-घूमने आता था तो उसके साथ मानवीय सलूकी होती थी ना कि बदसलूकी। जैसाकि अमेरिका, आस्ट्रेलिया में बदसलूकी होती है। सोवियत रूस की लाल सेना ने बिना विदेशी सैन्य युद्धाभ्यास के तथा बिना विदेशी हथियारों के देश की सीमाओं का मुस्तैदी से निगरानी करते थे। प्रचलित ए के 47 हथियार सोवियत रूस की ही देन है। बिना विदेशी सेनाओं की नकल-अकल के रूसी सेना ने जर्मनी के तानाशाह हिटलर को ऐसी मात दी कि पूरी दुनिया में उसके किस्से-कहानियां होने लगी सोवियत रूस में जो भी औद्योगिक, कृषिगत, खान-खदान, यातायात, दूरसंचार जैसे आधारभूत व ढांचागत नींव डाली तथा खड़ी की गयी सब बिना विदेशी कर्ज लिये चाहे मेट्रो रेल चलाई गयी हो या जमीन, समुद्र के नीचे की खोजबीन सबकुछ बिना विदेशी पूंजी व तकनीक के यदि विदेशी पूंजी, तकनीक लगती थी तो समाजवादी राज्य की शर्तो पर ना कि मनमाना लाभ लूटने के लिए। सवाल है- यह सब कैसे होता रहा? जवाब है- मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर चलकर मजदूर समाजवाद स्थापित करते हुए। जबकि हमारे देश भारत में वर्गीय व क्षेत्रीय असमानताएं अबराबरी इसलिए बढ़ती जा रही है क्योंकि यहां जनतंत्र के लबादे में पूंजीवादी समाज व्यवस्था है पैसे-पूँजी वालों का राजकाज व समाज-व्यवस्था है।
इसलिए भी 1917 की रूसी अक्टूबर क्रांति को याद करें और मजदूर किसान, मेहनत करने वाले अपनायें, अमल में लायें क्योंकि जहां मार्क्सवाद-लेनिनवाद की पद्धति को अपना कर दुनिया में पहली बार इंकलाबी सर्वहारा वर्ग ने गैर-उत्पादक मालिक, पूंजीपतियों के हाथों से साधन व सत्ता को छीनकर मानव द्वारा मानव के शोषण से मुक्ति का राज्य खड़ा किया। जिसे दुनिया के सभी पूँजीवादी-साम्राज्यवादी और उनके पाले-पोसे नेता, विद्वान जानते हैं, फिर भी डरते हैं, सहमते हैं, काँपते कराहते हैं तो मार्क्सवाद-लेनिनवाद से आज भारत में भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के असूलों पर चलकर अक्टूबर क्रांति जैसी क्रांति की जरूरत है, जिसके लिए मजदूरों-किसानों, मेहनतकश वर्गों और उनके हिमायतियों को मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन के किताबों का अध्ययन, वितरण के साथ ही साथ जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) के लेखों पुस्तकों का वितरण और गहराई से अध्ययन हो तथा इनके लेखों पुस्तकों को किसानों, दस्तकारों, मजदूरों के बीच जाकर चर्चा का विषय बनाया जाय। क्यों? क्योंकि इन्हीं की राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय घटनाओं पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धातों से विश्लेषित व सच साबित हुई पुस्तकें सिद्धन्त व व्यवहार भारत के मजदूर किसान, मेहनतकश वर्गों के शोषण, उत्पीड़न, दमन से मुक्ति का रास्ता और उत्पादक मेहनतकश वर्गों का राज्य लाने, बनाने का रास्ता बताती है।
(V) व (VT) के तथ्य [व] आंकडों के सोत:- 1. अंग्रेजी दैनिक अखबार द हिन्दू 2. हिन्दी दैनिक अखबार "जनसत्ता", "दैनिक जागरण', "हिन्दुस्तान', 'अमर उजाला" व "बिजनेस स्टैन्डर्ड" से लिये गये हैं।
लेखक : वीरेन्द्र विश्वकर्मा (आजमगढ़)
मंथन, अक्टूबर क्रांति विशेषांक, अंक-3
12
No comments:
Post a Comment