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Wednesday, 8 June 2022

गीता रहस्योद्घाटन

वर्ण व्‍यवस्‍था व पितृसत्‍ता को जायज ठहराने वाले कर्म के दर्शन के अतिरिक्‍त गीता में वर्णित एक अन्‍य दर्शन आत्‍मा का दर्शन है। गीता में कृष्‍ण ने अर्जुन को अपने ही भाई-बंधुओं को मारने के लिए आत्‍मा के दर्शन का हवाला दिया था। (न हन्‍यते हन्‍यमाने शरीरे), अर्थात् यह (आत्‍मा) नहीं मरती, मरता केवल शरीर है। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर जैसे धर्मनिष्‍ठ विचारक ने भी अपनी एक शानदार रचना में दिखाया है कि आत्‍मा का यह दर्शन किस प्रकार शासक वर्ग द्वारा दिन-प्रतिदिन की जाने वाली हिंसा के प्रति आम जन में उदासीनता का भाव पैदा करके उसकी हिंसा को बढ़ावा देता है। 1932 की बात है जब रवीन्‍द्रना‍थ टैगोर हवाई जहाज से इरान की यात्रा पर थे। इस यात्रा के दौरान उन्‍हें कुछ समय के लिए बगदार में ठहरना पड़ा था। बगदाद में ही उन्‍हें पता चला कि ब्रिटिश एयर फोर्स कुछ बागी शेखों के गांवो पर बमबारी कर रही है। यह ख़बर सुनकर टैगोर विचलित हो उठे। उनको यह सरासर नरसंहार लगा। फिर वे सोचने लगे कि आखिर वह कौन सी चीज़ है जो मनुष्‍यों को निर्दोषों एवं दोषियों के बीच भेद की चिन्‍ता किये बगैर अपने ही सहप्राणियों को मौत के घाट उतारने के लिए प्रेरित करती है। हवाई यात्रा के दौरान वे इस प्रश्‍न पर चिन्‍तन-मनन करते रहे। हवाई यात्रा के स्‍वयं के अनुभव के आधार पर वे इसे समझने की कोशिश करते रहे। चिन्‍तन-मनन की इस प्रक्रिया में अचानक ही उनके दिमाग में जगत की वास्‍तविकता को मिथक बताने वाले दार्शनिक विचारों के राजनीतिक प्रयोजन का विचार कौंधा। उन्‍होंने लिखा, '' गीता जिस दर्शन का उपदेश देती है वह भी वायुयान में इस प्रकार की उड़ान जैसा है (जिसके दौरान मनुष्‍य पृथ्‍वी से इतना दूर हो जाता है कि पृथ्‍वी धुंधली होती-होती अस्तित्‍वहीन होती जाती है और हमारी चेतना पर उसकी वास्‍तविकता के दावे का कोई दबाव नहीं रह जाता है)। अर्जुन के संवेदनशील मस्तिष्‍क को वह ऐसी भ्रमकारक ऊंचाई पर ले जाता है जहां से, नीचे देखने पर, मारने वाले और मरने वाले के बीच, कुटुम्‍बी और शत्रु के बीच, कोई अन्‍तर कर सकना अर्जुन के लिए संभव नहीं रह जाता। दार्शनिक तत्‍वों से निर्मित इस प्रकार के बहुत से अस्‍त्र मनुष्‍य के शस्‍त्रागार में विद्यमान हैं। ये यथार्थ को दृष्टि से ओझल कर देने का प्रयोजन पूरा करते हैं। ये साम्राज्‍यवादियों के सिद्धान्‍तों में, समाजशास्‍त्र में तथा धर्मशास्‍त्र में मौजूद हैं। इनसे जिन लोगों पर मृत्‍यु बरसायी जाती है उनकी सांत्‍वना के लिए मात्र कुछ शब्‍द बच रहते हैं: न हन्‍यते हन्‍यमाने शरीरे! 'अर्थात् यह (आत्‍मा) नहीं मरती, मरता केवल शरीर है।'' (पारस्‍य-यात्री)
उपरोक्‍त प्रसंग की रोशनी में यह आसानी से समझा जा सकता है कि गीता के प्रचार-प्रसार की ज़ोरों से वकालत करने वाले वही लोग हैं जो गाज़ा में इज़रायली नरसंहार पर या तो चुप हैं या फिर उसे जायज़ ठहरा रहे हैं। ऐसे लोग शासक वर्ग की हर बर्बर कार्रवाई पर या तो चुप्‍पी साधे रहेंगे या फिर खुले अाम शासक वर्ग का पक्ष चुनेंगे। इसीलिए शासक वर्ग गीता को इतने जोर-शोर से बढावा दे रहा है। 

Posted 17th August 2014 by Anand Singh

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